स्नेहा मेरी बचपन की सहेली और हमराज है. आज वह पूना में है और मैं दिल्ली में. विवाह से पहले हम एक दिन भी एकदूसरे से मिले बिना नहीं रह पाते थे. अब एकदूसरे को देखे 16 साल बीत गए हैं. उस से मिलने की इच्छा हो रही थी. गरमियों की छुट्टियों में मुंबई गई तो स्वयं को रोक न पाई. अगले दिन पूना के लिए रवाना हो गई. साथ में 14 वर्षीय बेटा और पति भी थे. स्टेशन पर वह भी सपरिवार आई हुई थी. हम आपस में ऐसे मिले कि एकदूसरे को छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था. हंसतेबतियाते हम उस के घर पहुंचे. खाना खाया तो पता चला कि हमारी फिल्म के टिकट आए हुए हैं. स्नेहा और मैं ने तो साथ जाने को मना कर दिया, पति और बच्चों को भेज दिया. हम दोनों एकांत में यादों की पोटली खोल कर बैठ गईं. सोचा, बच्चों व पति के वापस आने पर ही घूमने जाएंगे. लेकिन स्नेहा ने बताया कि वहीं से दूसरी फिल्म देखने जाने का प्रोग्राम है और शाम को डिनर के बाद फिर नाइट शो देखा जाएगा. यह सुनते ही मैं बिफर उठी, ‘‘तेरा दिमाग खराब है क्या? एक दिन में 3 शो देखने की क्या तुक है? मेरे पति क्या सोचेंगे? घर नहीं बैठाना था तो ऐसे ही कहती मैं आती ही नहीं.’’ मैं बोलती रही और वह बुत बनी सुनती रही. एकाएक उस की आंखों में आंसू देख कर मैं चुप हो गई.

अचानक वह मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. लग रहा था जैसे बरसों का बांध टूट कर बह रहा हो. थोड़ा संभलने पर उस ने जो बताया, उसे सुन कर मैं हैरान रह गई.

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