अंतर्मन में उफनते द्वंद से व्यथित संजय की आंखों के छोर रह रह कर भीग रहे थे. पिछले एक सप्ताह से स्वयं से लड़ते झगड़ते थक गया था वह पर मन मस्तिष्क को अपनी लाडली बेटी अनामिका की विचारधारा समझा ही नही पा रहा था. वो विचारधारा जो उसके जीवनभर के प्रेम, दुलार, विश्वास व कर्तव्यनिर्वाहन को तुच्छ समझकर क्षणिक सुख को सर्वोपरि घोषित कर लिव इन रिलेशन को उचित ठहरा रही थी.

बेटी से मिले विश्वासघात का दर्द ना चाहते हुए भी आंखों को भीगा रहा था. वह स्वयं को बार बार समझा रहा था कि वह अब बड़ी हो गयी है. अपने निर्णय लेने का अधिकार है उसे. जो किया होगा सोच समझकर ही तो किया होगा और वैसे भी समाज बदल रहा हैं. हमे भी बदलना चाहिए आदि. परन्तु इन सकारात्मक बातों को लगातार दोहराने के बाद भी उसका अंतर्मन व्यथित व चिंतित था.

व्यथित इसलिए क्योंकि अपनी संस्कारी संतान से लिव इन रिलेशन जैसे किसी अनैतिक संबंध की कल्पना तक नही की थी उसने जिससे उसे या परिवार को समाज मे सिर नीचा करना पड़े. चिंतित इसलिए क्योंकि इस सुविधाजनक अपरिभाषित संबंध का भविष्य अंधकारमय था. माना कर्तव्य या बंधन नहीं है कोई अनामिका पर, पर कोई अधिकार भी तो नहीं मिलेगा उसे. प्रेम के आसमान में उड़ते हृदय जब वास्तविकता की धरातल को छुएंगे तब प्रतिबद्धतारहित यह संबंध कितने दिन टिक पाएगा.

कहीं अनामिका एक वस्तु बन कर तो नही रह जाएगी जिसका उपयोग व उपभोग होने के बाद त्याग दिया जाए. संजय चिंतित है कि कही यह संबंध उसकी लाडली को भावनात्मक व शारीरिक रूप से खंडित न कर दे. चिंताएं व आशंकाएं तो बहुत है पर आधुनिकता की आंधी में भटकी बेटी को समझाने वाले शब्द नही है इस आहत पिता के पास.

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