क्या कभी आप ने बच्चों, किशोरों, वयस्कों और बुजुर्गों तक के गले में ताबीज, काले धागे और विभिन्न देवीदेवताओं की तसवीर वाले लौकेट पहने जाने के पीछे के मनोविज्ञान और धार्मिक पाखंडों के बारे में संजीदगी से सोचा है? साथ ही क्या कभी इस प्रकार की मानवीय फितरत को पढ़ने की कोशिश की है?

इस में कोई शक नहीं कि किसी धर्म विशेष और व्यक्तिगत आस्था को दर्शाने वाले ये प्रतीक चिह्न व्यक्ति के जीवन और उस की सोच के ढंग का आईना होते हैं, जिन में उस व्यक्ति का मन और मस्तिष्क साफसाफ परिलक्षित होता है, लेकिन इस से परे इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि सनातन से मानव जीवन को प्रभावित करते ये सभी धार्मिक पाखंड हमारे दिल में गहरे बैठे उस डर का परिणाम होते हैं जो वास्तविक जीवन में कोई वजूद नहीं रखते और जिन की प्रामाणिकता का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता.

धरती पर सभ्यता के आगाज से ही मानव कई प्रकार के भय से ग्रसित होता आ रहा है. ये मानवीय भय कई प्रकार के होते हैं, जैसे इंसान अंधेरे से डरता है, परीक्षा के परिणाम से उसे भय लगता है, रोग से भय, मृत्यु से भय, ऊंचाई से गिरने का भय, पराए तो पराए अपनों से भय, भूख और गरीबी से भय और न जाने किसकिस तरह के भय से इंसान ग्रसित नहीं होते हैं. कभीकभी तो इंसान को रोशनी से भी डर लगता है. सभी तरह के भय से बचने या मन को झूठी दिलासा देने के लिए धार्मिक पाखंड या अंधविश्वास एक छद्म रक्षाकवच का कार्य करता है और व्यक्ति खुद को आने वाले संकटों से महफूज महसूस करता है.

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