तालिबानियों को रूस, चीन व पाकिस्तान का सीमित समर्थन मिलने का मतलब है कि भारत के लिए आतंकवादियों से खतरा बढ़ना. मास्को में दिसंबर के अंत में तीनों देशों ने इस बारे में अनौपचारिक बातचीत की और कुछ हद तक तालिबानियों को अफगानिस्तान में डटे रहने की छूट दे दी है.

सीरिया और इराक में इसलामिक स्टेट के जिहादियों की हार से मुसलिम कट्टरपंथियों के हौसले कम नहीं हुए हैं और अब वे फिर से अफगानिस्तान में जमा होने लगे हैं. और काबुल की अमेरिका व भारत समर्थित सरकार मुंह देख रही है कि हवा किस ओर की है. काबुल में राज कर रहे 2 धड़ों में विवाद चल रहा है, तालिबान के नियंत्रण में अफगानिस्तान का जो हिस्सा है, वहां वह चैन से मनमरजी कर रहा है.

इस का अर्थ है कि भारत की आतंकवाद से निबटने की उम्मीदें और कम हो गई हैं. अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनेआप में खब्ती हैं और वे कब क्या फैसला लेंगे, इस का किसी को पता नहीं. उन्होंने चुनावों के दौरान यही कहा कि उन्हें अमेरिकियों से मतलब है, विश्व सिक्योरिटीमैन बनने की उन की कोई इच्छा नहीं.

अफगान तालिबानियों के लिए भारत का कश्मीर शहद का छत्ता है जिस के लालच में वे पाकिस्तान ही नहीं, पूरे मध्यएशिया के मुसलिम कट्टरपंथियों को आकर्षित कर उन्हें कश्मीर में उत्पात मचाने के लिए तैयार कर सकते हैं. भारत को तालिबानियों से निबटने के लिए अकेले ही तैयार होना होगा.

तालिबानियों का कट्टरपन और जिहादीपन ऐसा है कि हमारे लिए उन्हें कंट्रोल करना आसान नहीं है.

भारत की विदेश नीति हमेशा ढुलमुल रही है और उस में स्वार्थ कम, अंधभक्ति ज्यादा रही है. दुश्मन को साथी बनाना हमारे राजनीतिक दल जानते हैं, पर हमारा विदेश मंत्रालय नहीं.

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