जब भी जरमनी की बनी नई कार खरीदी जाती है, एक तरह से खरीदार सारे बंदरों व मानवों के अपाहिज होने या मरने पर स्वीकृति की हामी भरता है जो कंपनी ने शोध के दौरान करी थीं. यह शोध डीजल के धुएं से होने वाली हानी को जांचने के लिए था. जरमनी की कार इंडस्ट्री डीजल के उपयोग को सही साबित करने के लिए यूरोपियन रिसर्च ग्रुप और ऐन्वायरन्मैंट ऐंड हैल्थ के नाम से 2012 से शोध करा रही है. जरमनी के आछेन यूनिवर्सिटी हौस्पिटल में शोध किया गया कि डीजल के धुंए में मौजूद नाइट्रोजन डाइऔक्साइड का क्या असर पड़ता है. यूनिवर्सिटी हौस्पिटल ने खेद जताया कि प्रयोग ड्राइवरों, मैकैनिकों और वैल्डरों पर होने वाले नुकसान को जांचने के लिए किया जा रहा था.

हैवानियत की हद बंदरों को डीजल के धुंए से भरे चैंबर्स में रखा जाता था ताकि पता चल सके कि उन की मौत में विषैले तत्त्व कितने और किस तरह जिम्मेदार हैं. फौक्सवैगन कंपनी ने तो जन माफी मांगी है पर मर्सिडीज और बीएमडब्ल्यू के कर्त्ताधर्त्ता तरहतरह से सफाई देते रहे कि उन्हें नहीं मालूम था कि शोध में किस तरह से जानवरों और मानवों को इस्तेमाल करा जा रहा है.

इस तरह के प्रयोग लगभग हर उद्योग कर रहा है और सुरक्षात्मक उत्पादन बनाने के लिए जानवरों व मानवों की बलि चढ़ाने में उन्हें कोई गलत बात नहीं लगती. चीनी उद्योग भी शोध करा चुका है ताकि साबित करा जा सके कि चीनी का दिल की बीमारियों से कोई लेनादेना नहीं है. पहले हजारों जानवरों को जबरन चीनी खिलाई गई और फिर उन के दिल की चीरफाड़ कर के देखा गया कि क्या नुकसान पहुंचा. न केवल दिल की बीमारियां हुईं, खून का कैंसर भी होना पाया गया तो शोध का परिचय दफन कर दिया गया.

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