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पहले अधिकतर और अब भी कहींकहीं हमारे समाज में मांएं बेटों से घर में कोई काम नहीं करवातीं हैं. यह एक अतिरिक्त स्नेह होता है, जिसे वे बेटियों से चुरा कर बेटों पर लुटाती हैं. पर सच पूछा जाए तो ऐसी मानसिकता उन्हें अपने बेटों का सब से बड़ा दुश्मन ही बनाती है. एक ओर तो वे बेटियों को आत्मनिर्भरता का पाठ सिखा एक ऐसी शख्शीयत के रूप में तैयार करती हैं, जो हर परिस्थिति में सैट हो जाती हैं, अपने छोटेमोटे काम निबटा लेती हैं, तो वहीं दूसरी ओर उन के  लाड़ले के हाथपांव फूलने लगते हैं जब उस की बीवी मायके जाती है, क्योंकि उसे खाना बनाना तो दूर खुद निकाल कर खाना भी शायद ही आता हो. ऐसी मांएं अपने बेटों की दुश्मन ही हुईं न?

अतिरिक्त बोझ नहीं

सौम्या और शुभम दोनों कामकाजी हैं. घर में शुभम के वृद्घ पिता और 1 बेटा भी है, परंतु उन के घरेलू कार्य आसानी से संपन्न होते हैं, क्योंकि दोनों सारे काम मिल कर करते हैं और घर को सुव्यवस्थित रखते हैं. शुभम को जरा भी परेशानी नहीं होती है जब कभी सौम्या टूअर पर या मायके गई होती है. नतीजा यह है कि दोनों ही अपने कार्यस्थल पर अच्छा परफौर्म कर रहे हैं. औरत होने के नाते सौम्या पर कोई अतिरिक्त बोझ भी नहीं है.

सौम्या का कहना है कि हम रसोई में बतियाते हुए सारे काम निबटा लेते हैं. वहीं शुभम ने बताया कि उस ने अपनी कामकाजी मां को हमेशा दोहरी जिम्मेदारियों के बीच पिसते देखा था, इसलिए वह नहीं चाहता है कि उस की पत्नी भी वैसे ही रहे.

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