वैवाहिक विवादों में तलाक चाहे एक हल हो, बच्चों के कारण यह एक पेचीदा मामला बन जाता है खासतौर पर तब जब बच्चे इतने छोटे भी न हों कि उन्हें अपनी  मरजी के खिलाफ मां या पिता के साथ जाने का हुक्म सुनाया जा सके. अदालतें आमतौर पर कानूनी आधार न ले कर मानवीय आधार ही लेने की कोशिश करती  हैं पर दूसरा पक्ष अदालत के  फैसले से खुश न हो या साथी से दुश्मन बने को कष्ट पहुंचाना चाहे तो मामला अदालतों में लटक  जाता है.

पूर्वी और मुकेश का विवाह 1997 में हुआ पर जब 2013 में पूर्वी पुणे से मुंबई मां के घर जा पहुंची तो तब तक उन के दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे. पहले वे पिता के साथ रहना    चाहते थे फिर मां के पास रहने की जिद करने लगे. बच्चे पिता की जगह मां के पास रहने लगे तो पिता ने परेशान करने के लिए पैसे देने से इनकार कर दिया.

कहने को तो बच्चों को मां का प्यार चाहिए पर इस कोरे प्यार की कोई कीमत नहीं होती अगर पास पैसा न हो. इस कारण मामला गहराता गया और बच्चे फुटबौल की तरह एक आदलत के आदेश पर कभी पिता के पास तो कभी दूसरी के आदेश पर मां के पास. कभी उन्हें वीकैंड पर मां के पास रहना होता तो कभी केवल छुट्टियों में पिता के पास.

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उस ने बच्चों को मां को ही सौंप दिया और पिता को आधी छुट्टियों में ही मिलने का हक दिया. बच्चे मांबाप के विवाद में बेकार में हथियार बन गए, यह अदालत समझ रही थी पर उस के पास कोई ठोस हल नहीं था.

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