बाइयों यानी कामवालियों के बिना ज्यादातर गृहिणियों का जीवन अधूरा है और इसीलिए अगर बच्चे छोटे हों या खुद बीमार हों, तो उन्हें अपने साथ हर जगह ले जाना एक बाध्यता हो जाती है. आम जगह तो उन्हें नाकभौं चढ़ा कर प्रवेश मिल जाता है पर देश भर के गोरों के बनाए क्लबों और 5 सितारा होटलों में जगह नहीं मिलती. वे बच्चे की आया की तरह इन में घुसने की कोशिश करती हैं, तो उन्हें गेट पर ही रोक दिया जाता है.

दिल्ली के महंगे, अमीरों तक सीमित गोल्फ क्लब में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जब मेघालय की एक औरत को पारंपरिक जैनसेम ड्रैस पहने मेहमानों के साथ कुरसी पर बैठा पाया गया. वह दिखने में मेड लग रही थी, इसलिए क्लब ने उसे बाहर जाने को कहा. चूंकि मेजबान कुछ हैसियत वाले थे, इसलिए इस इन्सल्ट को अपनी इन्सल्ट मानने लगे. विवाद तूल पकड़ गया और एक अंगरेजी अखबार को बड़ी खबर छापने के लिए पटा लिया गया.

बाइयों के साथ इस तरह का व्यवहार देश भर में होता है, क्योंकि शिक्षा की महीन परत के अंदर हम अभी भी घोर वर्गवादी, स्तरवादी और जातिवादी व्यवस्था में जी रहे हैं. हमें सेवा करने के लिए नौकर चाहिए पर उन्हें बराबरी का स्तर देना हमारे बस का नहीं है.

‘मेड इन मैनहट्टन’ नाम की एक हौलीवुड फिल्म खूब चली, क्योंकि उस में एक गोरा सीनेटर एक अश्वेत मेड से विवाह कर लेता है, पर इस फिल्म में भी उस का प्रेम पनपता तभी है जब वह उसे एक महंगा फर कोट पहने देखता है, जो मेड ने अपने होटल की एक मेहमान का पहन रखा था. यह बात भी फिल्म में जता दी गई कि मेड पढ़ीलिखी थी और एमबीए की तैयारी कर रही थी.

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