बीती 7 अगस्त को रक्षाबंधन का त्योहार देशभर में काफी असहज तरीके से मना था. भाईबहन के स्नेह, प्यार और विश्वास के प्रतीक इस पर्व पर इस साल ग्रहण का खौफ था, और इस तरह था कि कई घरों में तो बहनें अपने भाई को राखी ही नहीं बांध पाईं. रक्षाबंधन ऐसा त्योहार है जिस में धर्म और उस के दुकानदारों का कोई खास दखल नहीं रहता, न ही उन्हें किसी तरह की दानदक्षिणा मिलती है. लोग घरों में हंसीखुशी राखी का त्योहार मना लेते हैं.

अगस्त के पहले हफ्ते से ही पंडेपुजारियों ने ग्रहण का डर दिखाना शुरू कर दिया था. बड़े पैमाने पर प्रचार यह किया गया था कि भद्रा नक्षत्र में राखी बांधना अशुभ होता है. क्योंकि इसी समय में शूर्पणखा ने अपने भाई रावण को राखी बांधी थी जिस से वह राम के हाथों मारा गया था और शूर्पणखा की नाक कट गई थी.

धर्म के दुकानदार षड्यंत्रपूर्वक अच्छेखासे उत्सवों में अपनी टांग अड़ा कर घर, समाज और देश का माहौल अपनी खुदगर्जी की खातिर कसैला कर देते हैं. यह इस दिन साबित हुआ था जब भयभीत बहनों ने भाइयों को राखी नहीं बांधी थी. ऐसा भी नहीं था कि राखी बांधने पर कोई रोक लगाई गई थी बल्कि पंडितों ने एक छूट यानी मुहूर्त दे दिया था कि ग्रहणदोष से बचने के लिए इतने बजे से इतने बजे तक ही राखी बांधो, अन्यथा अशुभ होगा.

कोई भाईबहन एकदूसरे का अनिष्ट नहीं चाहते, इसलिए पंडों द्वारा जारी मुहूर्त में जो भाई किसी कारणवश राखी नहीं बंधवा पाए उन की कलाइयां सूनी रहीं और बहनें ग्रहण को कोसती नजर आईं कि इस बार यह नया शिगूफा कहां से और क्यों आ गया जो हम अपने भाई को पहले की तरह सुविधानुसार राखी नहीं बांध सकते.  उत्सवों का सामाजिक और पारिवारिक महत्त्व खत्म करते धर्म के ये दुकानदार जाने कौनकौन से लिखितअलिखित पोथे खोल कर ढिंढोरा, जिसे फतवा कहना बेहतर होगा, पीट देते हैं कि उत्सवों में खुशी ढूंढ़ रहे लोग फ्रीज हो कर रह जाते हैं. जिन पर्वों व उत्सवों पर पंडों को दानदक्षिणा नहीं मिलती, रक्षाबंधन उन में से एक है. अब आइंदा सालों में मुमकिन है कि ये दुकानदार यह कहने लगें कि पहले राखी मंदिर में कुछ नकदी के साथ चढ़ा कर बांधी जाए तो कोई दोष नहीं लगेगा. यानी उत्सव मनाने का धार्मिक शुल्क देना एक अनिवार्यता हो जाएगी.

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