देश के पढ़ेलिखों का एक हिस्सा ज्ञान का मतलब अंगरेजी का ज्ञान समझता है. आईएएस की परीक्षाओं में अंगरेजी के ज्ञान को ले कर जो ऊधम मच रहा है उस के पीछे वही सोच है, जो सदियों से पंडों की रही है कि जिसे संस्कृत नहीं आती वह ज्ञानी नहीं, जिसे अंगरेजी नहीं आती वह अफसर नहीं.

इस में शक नहीं कि अंगरेजी में ज्ञान का भंडार है. पर वह भंडार तो फ्रैंच, जरमन, रशियन, पुर्तगीज, स्पैनिश में भी है. क्या वह हिंदी, तमिल, कन्नड़, मलयालम में नहीं? क्या समझदारी का ठेका केवल अंगरेजी का है? श्रीदेवी की फिल्म ‘इंगलिशविंगलिश’ और कंगना राणावत की फिल्म ‘क्वीन’ में अंगरेजी का ज्ञान न होने का मजेदार अर्थ बताया गया है. पर जब तक अपनी बात समझाई जा सके, जानकारी एकत्र की जा सके और जब नई सोच पैदा की जा सके तब तक भाषा समस्या है ही नहीं.

सरकार ने अंगरेजी की महत्ता हिंदी वालों के झगड़े पर कम करने की मांग मान ली है पर सरकारी अफसर इसे बारबार घुमाफिरा कर लाएंगे. अंगरेजी देश में अफसरी विभाजन की ही नहीं, सामाजिक विभाजन की भी रेखा है. अंगरेजी की लाइन पार करे लोग संपन्न हैं. वे चाहे हिंदी के 5 रुपए के अखबार की जगह अंगरेजी अखबार 4 रुपए में खरीदते हों, पर समोसे की जगह 200 रुपए का पिज्जा खाते हैं. रोलैक्स घड़ी पहन कर भारतीय टाइम देखते हैं और अपनी श्रेष्ठता का बिल्ला लगाए घूमते हैं.

पिछले 60-65 सालों में इन अंगरेजीदां अफसरों या उन के घरों ने इस देश को क्या दिया? यहां की अदालतें अंगरेजी में चलती हैं पर करोड़ों मुकदमे बकाया हैं. दफ्तरों में अंगरेजी में काम होता है पर अरबों फाइलें धूल फांक रही हैं. अंगरेजी के लेखकों की गिनती उंगलियों पर की जा सकती है. जिन घरों में अंगरेजी का बोलबाला है वहां पढ़ने को कुछ नहीं मिलेगा. वहां अलमारियों में शराब की बोतलें या पेरिस अथवा न्यूयार्क के सोवनियर दिखेंगे. दिखावटी कौफी टेबल बुक ड्राइंगरूम में हो तो बात दूसरी पर उस में शब्द न हों. अंगरेजी जानने वाले कुछ को छोड़ कर बाकी बेहद निकम्मे हैं. तभी तो संसद में देशी भाषाओं का बोलबाला रहता है. विधानसभाओं में तो अंगरेजी होती ही नहीं. फिर इस अंगरेजी का क्या लाभ?

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