सुविधाजनक शहरों की योजना बनाना कठिन होता जा रहा है और मजेदार बात यह है कि सड़क के बीच पटरी बने या न बने जैसे छोटे मामलों को सुप्रीम कोर्ट में घसीटा जा रहा है जहां फैसला होने में वर्षों लगते हैं और वकील लाखों रुपए की फीस लेते हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय में छोटेमोटे मामले तो सैकड़ों की गिनती में हैं. पटरी कितनी चौड़ी हो, नाला पाटा जाए या नहीं, राइट टर्न बंद हो या न हो, वनवे स्ट्रीट सही है या नहीं, पटरी पर बनी दुकान कैसे हटे, घरेलू इलाके में दुकान, दफ्तर, अस्पताल बने या न बने, घर के बाहर पार्किंग का पैदाइशी हक है या नहीं, अतिरिक्त कमरा अपने मकान में क्यों डाला गया, इस तरह के मामले अधिकारियों को नहीं अदालतों को सुलटाने पड़ते हैं और हमारे अधिकारी अगर तर्क की बात नहीं सुनते तो अदालतें जरा सी बात का फैसला करने में सालों लगा देती हैं.

हमारे सारे शहर अफसरों के निकम्मेपन की वजह से सड़ रहे हैं. देश का एक भी शहर ढंग से नहीं चल रहा. शहर तो छोडि़ए, एक गली, एक सड़क ढंग की नहीं दिखेगी जबकि हर सड़क पर 10 अफसरों का हुक्म चलता होगा और सड़क का प्रबंध करने के लिए बीसियों लोग लगे होंगे. पर हमारी अफसरशाही, नौकरशाही ऐसी? निकम्मी निकली है कि हर शहरी को नर्क में रहना पड़ता है और अब तो उसे नर्क में रहने की आदत हो गई है.

सड़कें सारे देश में संकरी हो गई हैं और ट्रैफिक 4-5 गुना बढ़ गया है. अगर एक गाड़ी खराब हो जाए या दाएं मुड़ने के लिए रुक जाए तो पीछे बीसियों गाडि़यों का तांता लग जाता है. जब तक गाड़ी धकेली जाए या मुड़ पाए मिनट नहीं घंटे गुजर सकते हैं. अगर पुलिस हो तो भी कुछ नहीं कर पाती है, क्योंकि हर चीज ऐसी बेतरतीब और बेवकूफी से बनी है कि सिवा परेशानी के कुछ मिलता ही नहीं है. अदालतों में लोग थकहार कर जाते हैं पर वहां भी मामला लटकता रहता है. कुछ राहत मिलती है तो ऐसी कि एक पक्ष को लाभ होता है तो दूसरे को नहीं. 

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