कुछ सालों से लड़कियों और महिलाओं की हालत में सुधार दिख रहा है. सब से बड़ा बदलाव महिलाओं की शिक्षा और उन की सोच में दिख रहा है. आज समाज में लड़कियों को आगे लाने का प्रयास हर स्तर पर हो रहा है. कोई ऐसा काम नहीं दिखता जिसे महिलाएं न कर रही हों. स्कूली परीक्षाओं से ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं तक में लड़कियां बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं. मगर इतनी तरक्की के बाद भी जातिबिरादरी, धर्म और रीतिरिवाजों की खाई गहरी ही दिख रही है. आज भी समाज धर्म, रिवाजों, परंपराओं की जकड़न से नहीं निकल पा रहा है. इस से साफ लगता है कि समाज में जो बदलाव दिख रहा है वह सिर्फ दिखावे का है. महिलाओं की लाख तरक्की के बाद भी भेदभाव कम नहीं हो रहा है. सिविल सेवा में पहली बार 1948 में सीबी मुथम्मा ने सफलता हासिल की थी. 1972 में किरण बेदी देश की पहली महिला आईपीएस बनीं.

12वीं कक्षा तक की परीक्षा में लड़कों से आगे रहने वाली लड़कियां नौकरी करने के मामले में लड़कों से काफी पीछे चली जाती हैं. इस से साफ जाहिर होता है कि महिलाओं की तरक्की भी उन के साथ होने वाले भेदभाव की खाई को पाटने का काम नहीं कर पा रही है. संघ लोक सेवा आयोग देश की सब से महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित परीक्षा सिविल सर्विस का आयोजन करता है. इस परीक्षा के जरीए ही आईएएस, आईपीएस, आईएफएस और आईआरएस अधिकारियों का चयन होता है. संघ लोक सेवा आयोग ने जब 2014 के नतीजों की घोषणा की तो टौप 4 स्थानों पर लड़कियों ने कब्जा किया. भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ. इन में 3 लड़कियां- इरा सिंघल, निधि गुप्ता और वंदना राव दिल्ली की रहने वाली हैं. चौथी हैं रेणुराज. वे केरल की रहने वाली हैं, लेकिन वे भी 1 साल से दिल्ली में रह कर सिविल सर्विस की तैयारी कर रही थीं. इन सभी में इरा सिंघल का मामला सब से अलग है. वे रीढ की हड्डी से जुड़ी बीमारी से परेशान हैं.

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