दिल्ली के निकट नोएडा में अफ्रीकी बच्चों या अमेरिका में यूनाइटेड एअरलाइंस का एक चीनी मूल के यात्री को घसीट कर हवाईर्जहाज से उतारना रंगभेद की गहरी अंधेरी गुफाओं में रह रहे लोगों की असल सोच का प्रदर्शन करता है. भारत में थोड़े से गोरे रंग के लोगों को नौकरियों, शादियों, नेतागीरी में इतनी ज्यादा प्राथमिकता मिल जाती है कि गहरे रंग के प्रति हमारी सोच बेतुकी होती जाती है और सांवलों व कालों के प्रति नाराजगी साफ झलकने लगती है.

गोरा रंग न तो योग्यता का प्रतीक है न शराफत का और न ही कुशलता का. त्वचा का रंग मैलानिन की देन है, जिस का व्यक्ति के व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ता, पर सदियों से वर्ण यानी रंग का जंजाल हमारे सिर पर भी उसी तरह मंडरा रहा है जैसे अमेरिका, चीन, जापान आदि में. हर समाज में गोरों की पूछ होती है. अमेरिका में प्रसिद्ध गायक माइकल जैक्सन ने तो तरहतरह के उपाय कराए कि वह गोरा दिखे. इसी चक्कर में उस ने न जाने क्या लिया कि उस की असामयिक मौत हो गई.

भारत में इसी रंगभेद पर उन सितारों को ले कर विवाद चल रहा है, जो गोरे रंग की क्रीम के विज्ञापनों में नजर आते हैं. इस में इन सितारों या क्रीम उत्पादकों को नाहक घसीटा जा रहा है, क्योंकि बीमारी विज्ञापनों की देन नहीं, सामाजिक सोच की है.

गोरी लड़कियों को कुशल न होने पर भी सिरआंखों पर रखो और सांवलियों को दुत्कारो तो गोरा होने की कोशिश हरकोई करेगा ही. अगर मांग है, तो ही पूर्ति होगी. दोष समाज का है, आम औरतों का है, सासों का है, मांओं का है कि वे त्वचा का रंग देखती हैं और उसी आधार पर गुण तय कर लेती हैं. पुरुष इस मामले में उदार नहीं पर चूंकि उन का वास्ता बहुत तरह के लोगों से पड़ता है, उन्हें आदत पड़ जाती है कि लोगों को उन की आदत से पहचानें, त्वचा से नहीं.

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