सामूहिक बलात्कार नारी अस्मिता को तोड़ने के लिए होते हैं. स्त्री को भोग और दान समझने की प्रवृत्ति इस को बढ़ावा देने का काम करती है. ऐसे मामलों में समाज औरत को ही दोषी मानता है.

अहल्या से ले कर द्रौपदी तक तमाम उदाहरण धर्मग्रंथों में मौजूद हैं. वर्तमान समाज में फूलन देवी, बिलकीस बानो और निर्भया जैसे बहुत सारे ऐसे मामले हैं. इन तमाम घटनाओं के बाद भी समाज की सोच में बदलाव नहीं आता दिख रहा है. बलात्कार जैसे अपराध को कम करने के लिए सिर्फ सख्त कानून बनाने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि समाज को अपनी सोच भी बदलनी होगी.

दिल्ली में निर्भया बलात्कार और हत्याकांड के मामले में अदालत का फैसला मील का पत्थर माना जा सकता है. निर्भया कांड ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था. यह ऐसा मामला था जिस ने अदालत से ले कर देश की संसद तक को जनता की पीड़ा को सुनने के लिए झकझोर कर रख दिया था. हजारों लोगों ने निर्भया को ले कर संसद का घेराव किया.

संसद ने जहां इस कांड के बाद नाबालिग अपराध को नए सिरे से परिभाषित किया वहीं निचली अदालत से ले कर ऊपरी अदालत तक हर जगह एकजैसा ही फैसला दिया गया.

निर्भया को ले कर केवल दिल्ली में ही धरनाप्रदर्शन नहीं हुए, पूरे देश में तमाम सामाजिक संस्थाओं ने जनता को आगे कर के निर्भया के दर्द का साझा किया. 2012 से हर 16 दिसंबर को निर्भया दिवस के रूप में याद किया जाता है.

5 वर्षों के बाद इस मामले में बड़ी अदालत का फैसला आया और अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई. यह सच है कि न्यायपालिका ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है. अब बाकी समाज के सामने जिम्मेदारी निभाने का वक्त है. अदालत का यह फैसला तभी सफल होगा जब लोग इस से सबक लेंगे. बलात्कार केवल कानून से जुड़ा मसलाभर नहीं है. समाज का दायित्व सब से बड़ा है. सब से जरूरी है कि समाज से उस मानसिकता को खत्म किया जाए जिस के कारण बलात्कार जैसे कांड होते हैं. मात्र कानून से इस सामाजिक बुराई और अपराध की प्रवत्ति को खत्म नहीं किया जा सकता.

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