‘पद्मावत’ पर उठे विवादों से लगता है देश में अब भूख, गरीबी, गंदगी, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, बेईमानी, बीमारी सभी समस्याएं समाप्त हो गई हैं, खासतौर पर राजपूतों के लिए. उन के लिए तो संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ ही अकेला मुद्दा है जो नहीं चलती तो उन का उद्धार हो जाता और अब चल ही गई तो उन का वजूद ही समाप्त हो गया है.

एक पूरी जमात को किस तरह बहकाया जा सकता है उस का नायाब नमूना भर है यह पूरा आंदोलन, जिस में हर तरह की गुंडागर्दी की गई और राज्य सरकारों ने पुलिस को पूरी तरह आदेश दिया कि खबरदार जो उपद्रवियों को हाथ भी लगाया. जहां भी यह फिल्म रिलीज हुई है वहां पुलिस को भारी बंदोबस्त करना पड़ा और वह भी सुप्रीम कोर्ट के कहने पर.

इस तरह के निरर्थक मामले को ले कर उत्पात मचाना हमारे समाज के बैठेठाले लोगों का शगल बन गया है. कभी राम मंदिर को ले कर, कभी वंदेमातरम को ले कर, तो कभी गौ हिंसा, देशद्रोह और राष्ट्रप्रेम को ले कर जनता को उकसाया जा रहा है और यह मानना पड़ेगा कि 21वीं सदी की शिक्षित भारतीय जनता आज भी भेड़चाल में भरोसा कर किसी भी पाइप्ड पाइपर के पीछे चूहों की तरह चल देती है.

‘पद्मावत’ में राजपूतों की आनबानशान पर कुछ कहा गया या नहीं यह छोडि़ए पर मेवाड़ के राजपुरोहित राघव चेतन की पोल अवश्य खोली गई है जो राजा रतन रावल से नाराज हो कर अलाउद्दीन खिलजी से जा मिला था. अगर ‘पद्मावत’ मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य के अनुसार राजपूती शौर्य की गाथा है तो वह राजपुरोहितों की पोल खोलने वाली भी है कि अपमान का बदला लेने के लिए यह बिरादरी किस तरह अपने ही लोगों को धोखा दे सकती है. जो काम चाणक्य ने नंद राजाओं के साथ किया था वही राघव चेतन ने किया था पर कमाल कलम का देखिए कि आज तक देश व समाज पर शासन इसी सोच वालों का है, जो उत्पादन या रक्षा में हाथ न बंटाते हुए भी शक्ति की बागडोर अपने हाथ में थामे हुए हैं.

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