संपत्ति का अधिकार मुख्य मौलिक अधिकार है हालांकि एक संविधान संशोधन में इसे हलका करने की कोशिश की गई थी. यह अधिकार ही असल में अन्य अधिकारों का आधार है क्योंकि यदि संपत्ति न हो तो जेल हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है. संपत्ति न हो तो जेल ही न होती. संपत्ति न हो तो कौन संस्थाएं बना सकेगा? यहां तक कि धर्म की दुकानें भी संपत्ति के अधिकार पर ही तो चल सकती हैं. संपत्ति के इस अधिकार को पिछले 70-75 सालों से किराए कानूनों के

माध्यम से छीना जा चुका है. देशभर में लाखों मकानमालिक अपने हक को खुल्लमखुल्ला किराएदार द्वारा खाता देख रहे हैं और सरकार किराएदार का समर्थन कर रही है. दिल्ली में एक कानून वर्षों से बना पड़ा है पर लागू नहीं हो रहा क्योंकि किराएदार दुकानदारों की धौंस चल रही है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में हरियाणा के बहादुरगढ़ के एक ऐसे विवाद में किराएदार को खंडहर होती दुकान में रहते रहने का आदेश दे दिया और 20 सालों से लड़ रहे मकानमालिक को रास्ता नपवा दिया. सुप्रीम कोर्ट चाहता तो इस फालतू के कानून को अलविदा कह सकता था.

मकानों में अचानक कमी आए तो किराएदार सुरक्षा कानून बनाने का औचित्य होता है पर जब मकान बने हों और किराएदार न मिल रहे हों तो किराया कानून निरर्थक हो जाता है. यह किराएदार के लिए असुरक्षित हो जाता है क्योंकि कानून संरक्षित सस्ते मकान में रह कर वह पुराने खंडहर में ही बना रहता है और नया जोखिम नहीं लेता. सभी शहरों के पुराने व मैले इलाकों में ऐसे किराएदारों की भरमार है जो सस्ते किराए के मोह में बदबूदार इलाकों में बने रहते हैं. यह कानून न होता तो वे कब के बाहर निकल कर अच्छे मकानों में चले जाते. इन इलाकों में किराएदारों की वजह से अरबोंखरबों की संपत्तियां खाली पड़ी हैं. इतनी की ही संपत्तियां रखरखाव के अभाव में गिरने की हालत में हैं. पर सस्ते, सुरक्षित किराएदारों को अपनी संपत्तियों से निकालने की जहमत मकानमालिक उठाना नहीं चाहते.

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