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पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

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