मैं अपनी खटिया पर बैठा सुबह की धूप का आनंद ले रहा था और अपने हाथों से पूरे शरीर पर सरसों का तेल मल रहा था.

पिछले 1 माह से कोई काम था नहीं और निकम्मा शरीर कभी भी दर्द करने लगता. धूप लेने के लिए बैठे अभी 1 घंटा भी नहीं बीता था कि अचानक हमारे नाम को खोजता एक कनखजूरेनुमा व्यक्ति आ धमका. उस ने हम से पूछा,

‘‘श्री कबरबिज्जू जी का मकान यही है?’’

हम उघाड़े बदन किसी कबरबिज्जू की तरह ही दिखाई दे रहे थे. हम ने अपनी फटी लुंगी से शरीर को ढंका और उस की तरफ नजर कर के पूछा, ‘‘कहिए, क्या काम है?’’

‘‘सेठजी ने बुलाया है.’’

‘‘कौन से सेठजी ने?’’ हम ने सवाल किया, क्योंकि हमारा जीवन सेठों के इर्दगिर्द ही गुजरा था. पिछले महीने हम एक सेठजी के यहां से बड़ी बेइज्जती के साथ निकाले गए थे और आज 1 माह बाद फिर किस सेठजी ने पीले चावल ले कर इस कनखजूरे को भेज दिया.

उस ने पूरे अदबकायदे से हमें बताया, ‘‘सेठ सेवडिया लालजी ने याद किया है, लेने के लिए गाड़ी भी भेजी है.’’

हम ने सिर खुजला कर कहा, ‘‘हमें तैयार होने में 1 घंटे का समय लगेगा.’’

उस ने कहा, ‘‘मैं इंतजार कर लेता हूं.’’

मेरे लिए यह सब किसी सुखद सपने जैसा था. उसे बैठने के लिए हम ने एक टूटी कुरसी दे दी और खुद तैयार होने चल पड़े.

हमारा दिमाग बड़ी तेजी से चलने लगा कि आखिर सेठजी ने हमें क्यों बुलवाया है? सजधज कर हम जब बाहर निकले तब तक हमारी घरवाली ने घर आए मेहमान को चाय और 3 दिन पुरानी बासी रोटी का चूरमा बना कर खिला दिया था और पता भी लगा लिया कि सेठजी ने क्यों बुलाया है? घरवाली ने ही हमें बताया कि सेठजी एक साहित्यिक पत्रिका निकालना चाहते हैं, उसी का संपादक या सलाहकार बनाने के लिए बुलाया है.

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