स्वामीजी के आने से पहले ही सारी तैयारियां पूरी कर ली गई थीं. मकान में स्थित बड़े कमरे से सारा सामान निकाल कर उसे खाली कर दिया गया था. स्वामीजी के आदेशानुसार दीवारों पर लगे चित्र भी हटा दिए गए थे. अनुष्ठान रात में 8 बजे के आसपास निकले मुहूर्त में स्वामीजी द्वारा प्रारंभ होना था.

स्वामीजी समय से आ गए थे और उचित समय पर एकांत कमरे में उन्होंने पूजा प्रारंभ कर दी. यह अनुष्ठान सुबह 4 बजे तक अनवरत चलना था और इस दौरान किसी को भी कमरे में आने की इजाजत नहीं थी.

स्वामी करमप्रिय आनंद का आश्रम मुख्य राष्ट्रीय मार्ग के दक्षिण में शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर था. आश्रम में बरगद के विशाल वृक्षों के अलावा नीम, बेल और आम आदि के वृक्ष थे, जिन पर लंगूरबंदरों का वास था.

स्वामीजी के आश्रम में भक्त जब भी जाते, बंदरों के खाने के लिए केले, चने, गुड़ आदि जरूर ले जाते. भक्तों के हाथ की उंगली पकड़ कर गदेली पर रखे चने, गुड़ आदि बंदर खाते और सफेद दांत दिखा कर उन को घुड़कते भी रहते. बाबा के संकेत पर यदि कोई बंदर किसी भक्त को अपनी पूंछ मार देता तो वह अपने को धन्य समझता कि उस आशीर्वाद से उस का कार्य निश्चित ही सफल हो जाएगा.

स्वामीजी के भक्तों की सूची बहुत लंबी थी, जिस में अतिसंपन्न लोगों से ले कर सामान्यजन तक सभी समानभाव से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लेते थे. ऐसा भक्तों में प्रचारित था कि आश्रम में स्थित मंदिर में दर्शन कर के मनौती मांगने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है. कोई भी विघ्नबाधा हो, स्वामीजी के बताए उपाय से संकट का समाधान जरूर हो जाता था. स्वामीजी विधिविधान से पूजा, अनुष्ठान आदि कर के भक्त की समस्या का हल निकाल ही लेते थे.

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