‘जंगल महल’ नाम से ज्यादातर भारतीय वाकिफ नहीं होंगे, पर जिनको इसके बारे में ये पता है, वे ये नाम सुनकर एक बार जरूर सिहर जाएंगे. यहां बात किसी जंगल में पाए जाने वाले जन्तुओं की नहीं हो रही है पर, माओवादियों की हो रही है. माओवादी या माओवाद नाम सोच समझकर लेने में ही भलाई है. जिस क्रांति ने कभी देश के जमाखोरों की नींद हराम कर दी थी, वहीं अब किसी को कम्युनिस्ट कहना गाली देने जैसा हो गया है. जिस सोच के साथ इस क्रांति को हवा दी गई थी, वो तो किताबों के पन्नों में कब की दफन हो गई है.

बंगाल का इलाका जंगल महल माओवादियों के लिए बड़ा बदनाम है. पर देश में धीरे-धीरे इन उपद्रवियों की संख्या और गतिविधियां भी कम हो रही हैं. तो जाहिर सी बात है कि जंगल महल की खूबसूरती पर भी आम लोगों का ध्यान जाना चाहिए. वैसे भी सहवासियों को यह बात पता होनी चाहिए कि पश्चिम बंगाल में कोलकाता और दार्जिलिंग के अलावा भी बहुत कुछ है. कुछ फिल्मी लोगों के करकमलों से धीरे-धीरे पश्चिम बंगाल के अन्य राज्यों को भी देशवासी जानने लगे हैं. आज हम आपको पश्चिम बंगाल के पुरूलिया के बारे में बताएंगे. अब आप कहेंगे कि आप पूरी दुनिया छोड़कर जंगलों में क्यों जाएं? तो जनाब जब तक जाएंगे नहीं तो जानेंगे कैसे?

पुरूलिया में देश की एक विलुप्त प्राय चित्रकारी ‘पटुआ’ आज भी जिन्दा है. पटुआ चित्रकार, पटों यानि की कपड़ों पर चित्रकारी और गीत द्वारा कहानियां कहते हैं. एक जमाने में ये सिर्फ देवी-देवताओं पर ही कहानियां कहते थे. पर अब वे स्वच्छ भारत मिशन से लेकर मंगलयान तक की कहानियां भी कहते हैं. पुरूलिया के अलावा बंगाल के बांकुरा, मिदनापुर, बीरभूम, 24 परगना और हुगली जिलाओं में भी यह ‘आर्ट फॉर्म’ आज भी प्रचलित हैं.

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