घरऔर दफ्तर की भागतीदौड़ती जिंदगी में थोड़ा सा ठहरती हुई मैं, रिश्तों के जाल में फंसी हुई खुद से ही खुद का परिचय कराती हुई मैं, एक बेटी, एक बहू, एक पत्नी, एक मां और एक कर्मचारी की भूमिका निभाते हुए खुद को ही भूलती हुई मैं, इसलिए सोचा चलो आज खुद के साथ ही एक दिन बिताती हूं मैं, वह भी कोरोनाकाल में.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि कोरोनाकाल में भी अगर मुझे खुद के लिए समय नहीं मिला तो फिर उम्रभर नहीं मिलेगा.

मगर अगर सच बोलूं तो शायद कोरोनाकाल में हम लोगों की अपनी प्राइवेसी खत्म हो गई है. हम चाहें या न चाहें हम सब परिवाररूपी जाल में बंध गए हैं. घर में कोई भी एक ऐसा कोना नहीं है जहां खुद के साथ कुछ समय बिता सकूं.

सब से पहले अगर यह बात सीधी तरह किसी को बोली जाए तो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आएगा कि खुद के साथ समय बिताने के लिए एक दिन की आवश्यकता ही क्या है?

आज का समय तो जब तक जरूरी न हो घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर क्या हर इंसान को भावनात्मक और मानसिक आजादी की आवश्यकता नहीं होती है? लोग मखौल उड़ाते हुए बोलेंगे कि यह नए जमाने की नई हवा है जिस के कारण यह फुतूर मेरे दिमाग में आया है.

कुछ लोग यह जुमला उछालेंगे कि जब कोई काम नहीं हो तो ऐसे ही खुद को पहचानने का कीड़ा दिमाग को काटता है. यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि शायद मैं भी उन लोगों में से ही हूं जो ऐसे ही प्रतिक्रिया करेगी अगर कोई मुझ से भी बोले कि आज मैं खुद के साथ समय बिताना चाहती या चाहता हूं.

ऐसे लोगों को हम स्वार्थी या बस अपने तक सीमित अथवा केवल अपनी खुशी देखने वाला और भी न जाने क्याक्या बोलते हैं. चलिए अब बात को और न खींचते हुए मैं अपने अनुभव को साझ करना चाहती हूं.

खैर, लौकडाउन खत्म हुआ और मेरा दफ्तर चालू हो गया परंतु बच्चों और पति का अभी भी घर से स्कूल और दफ्तर जारी था. छुट्टी का दिन मेरे लिए और अधिक व्यस्त होता है क्योंकि जिन कार्यों की अनदेखी मैं दफ्तर के कारण कर देती थी वे सब कार्य ठुनकते हुए कतार में सिर उठा कर खड़े रहते थे कि उन का नंबर कब आएगा? बच्चे अगर सामने से नहीं पर आंखों ही आंखों में यह जरूर जता देते हैं कि मैं हर दिन कितनी व्यस्त रहती हूं, उन को जब मेरी जरूरत होती है तो मैं दफ्तर के कार्यों में अपना सिर डाल कर बैठी रहती हूं. पति महोदय का बस यही वाक्य होता है, ‘‘तुम्हें ही सारा काम क्यों दिया जाता है? जरूर तुम ही भागभाग कर हर काम के लिए लपकती होगी.’’

‘‘अरे वर्क फ्रौम होम के लिए बात क्यों नहीं करती हो,’’ पर फिर हर माह की 5 तारीख को जब वेतन आता है तो वे ये सारी चीजें भूल जाते हैं और नारी मुक्ति या उत्थान के पुजारी बन जाते हैं.

ऐसे ही एक ठिठुरते हुए रविवार में सब के लिए खाना परोसते हुए मेरे दिमाग में यह खयाल आया क्यों न दफ्तर से छुट्टी ले ली जाए और बस लेटी रहूं. घर पर तो यह मुमकिन नहीं था. पहले तो बिना किसी कारण छुट्टी लेना किसी को हजमन ही होगा दूसरा अगर ले भी ली तो सारा समय घर के कामों में ही निकल जाना है. कहने को मेरे जीवन में बहुत सारे मित्र हैं पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं ये दिन साझ कर सकूं.

पर न जाने क्यों मन ने कुछ नया करने की ठानी थी, खुद के साथ समय बिताने की दिल ने की मनमानी थी.

जब से ये खयाल मन में जाग्रत हुआ तो कुछ जिंदगी में रोमांच सा आ गया, साथ ही

साथ एक अनजाना डर भी था कि कही मैं इस वायरस की चपेट में न आ जाऊं. पर फिर अंदर की औरत बोल उठीं, अरे तो रोज दफ्तर भी तो जाती हो. उस में भी तो इतना ही जोखिम है. मेरे पास भी कुछ ऐसा होना चाहिए है जो मेरा बेहद निजी हो. पूरा रविवार दुविधा में बीत गया. करूं या न करूं ऐसे सोचते हुए सांझ हो गई. मुझे कहीं घूमने नहीं जाना था न ही किसी दर्शनीय स्थल के दर्शन करने थे, कारण था कोरोना. मुझे तो अपने अंदर की औरत को पहचानना था कि क्या इस  कोरोना की आपाधापी में उस में थोड़ी सी चिनगारी अभी भी बाकी है.

दफ्तर में तो छुट्टी की सूचना दे दी थी पर अब सवाल यह था कि खुद को कहां पर ले जाऊं, क्या होटल में सेफ रहेगा या मौल के किसी कैफे में? तभी फेसबुक पर ओयो रूम दिखाई पड़े. यहां पर घंटों के हिसाब से कमरे उपलब्ध थे. किराया भी बस हजार रुपए था.

कोरोना के कारण घर से ही चैकइन करने की सुविधा थी पर फिर दिमाग में आया कि कहीं पुलिस की रेड न पड़ जाए क्योंकि ऐसे माहौल में कमरे घंटों के हिसाब से क्यों लिए जाते हैं यह सब को पता है तो ऐसे कमरों में ठहरना क्या सुरक्षित रहेगा?

इधरउधर होटल खंगाले तो कोई भी होटल 5 हजार से कम नहीं था. पति महोदय मेरी समस्या को चुटकी में ही हल कर सकते थे पर यह तो मेरी खुद के साथ की डेट थी, फिर उन से मदद कैसे ले सकती थी और अगर सच बोलूं तो मुझे अपने पति से कोई लैक्चर नहीं सुनना था.

यह बात नहीं सुननी थी कि मैं मिड ऐज क्राइसिस से गुजर रही हूं, इसलिए ऐसी

बचकानी हरकतें कर रही हूं. माह की 27 तारीख थी बहुत अधिक शाहखर्च नहीं हो सकती थी, इसलिए धड़कते दिल से एक ओयो रूम 900 रुपए में 8 घंटों के लिए बुक कर लिया.

वहां से कन्फर्मेशन में भी आ गया. फिर शाम के 5 बजे से मैं अपने मोबाइल को ले कर बेहद सजग हो गई जैसे मेरी कोई चोरीछिपी हो उस में. बेटे ने जैसे ही हमेशा की तरह मेरे मोबाइल को हाथ लगाया, मैं फट पड़ी कि मैं तुम्हारे मोबाइल को हाथ नहीं लगाती हूं तो तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है?

बेटा खिसिया कर बोला, ‘‘मम्मी मेरे एक फ्रैंड ने मुझे ब्लौक कर रखा है या नहीं बस यही देखना चाहता था.’’

पति और घर के अन्य सदस्य मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे.

मैं बिना कोई उत्तर दिए रसोई में घुस गई. फिर रात को मैं ने अपने कार्ड्स और आईडी सब अपने पर्स में रख लिए. सुबह दफ्तर के समय ही घर से निकली और धड़कते दिल से कैब बुक करी. कैब ड्राइवर ने कैब उस गंतव्य की तरफ बढ़ा दी और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम वहां पहुंच गए.

मेरे उतरते हुए कैब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम आप को यहीं जाना था न?’’

मुझे पता था वह बाहर ओयो रूम का बोर्ड देख कर पूछ रहा होगा, मैं कट कर रह गई पर ऊपर से खुद को संयत करते हुए बोली, ‘‘हां, परंतु तुम क्यों पूछ रहे हो?’’

वह कुछ न बोला पर उस के होंठों पर व्यंग्यात्मक मुसकान मुझ से छिपी न रही.

मैं अंदर पहुंची पर कोई रिसैप्शन नहीं दिखाई दिया, फिर भी मैं अंदर पहुंच गई तो एक ड्राइंगरूम दिखाई दिया, 2 बड़ेबड़े सोफे पड़े हुए थे और एक डाइनिंगटेबल भी थी. 2 लड़के सोए हुए थे, मुझे देखते हुए आंखें मलते हुए उठने वाले ही थे कि मैं तीर की गति से बाहर निकल गई.

खुद पर गुस्सा आ रहा था, एक भी ऐसा कोना नहीं है मेरा इस शहर में, शहर में ही क्यों, मेरा निजी कुछ भी नहीं है मेरे जीवन में, खुद के साथ समय बिताना भी मुश्किल हो गया था. जो फोन नंबर वहां पर अंकित था, वह मिलाया तो पता लगा कि वह नंबर आउट औफ सर्विस है. यह स्थान एक घनी आबादी में स्थित था, इसलिए सड़क पर आतेजाते लोगों में से कुछ मुझे आश्चर्य से और कुछ बेशर्मी से देख रहे थे. मैं बिना कुछ सोचे तेजतेज कदमों से बाहर निकल गई. नहीं समझ आ रहा था कि कहां जाऊं. ऐसे ही चलती रही. एक मन किया कि किसी मौल मैं चली जाऊं पर फिर वहां पर मैं क्या खुद से गुफ्तगू कर पाऊंगी. करीब 1 किलोमीटर चलतेचलते फिर से एक इमारत दिखाई दी, ओयो रूम का बोर्ड यहां भी मौजूद था. न जाने क्या सोचते हुए मैं उस इमारत की ओर बढ़ गई.

वहां पर देखा कि रिसैप्शन आरंभ में ही थी. उस पर बैठे हुए पुरुष को देख कर मैं ने बोला, ‘‘सर कमरा मिल जाएगा.’’

रिसैप्शनिस्ट बोला, ‘‘जरूर मैडम, कितने लोगों के लिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस मैं.’’

उस ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और फिर बोला, ‘‘मैडम कोई मेहमान या दोस्त आएगा आप से मिलने?’’

मैं बोली, ‘‘नहीं, दरअसल घर की चाबी नहीं मिल रही है.’’

न जाने क्यों एक झठ जबान पर आ गया खुद को सामान्य दिखाने के लिए. मुझे मालूम था कि अगर उसे पता चलेगा कि मैं ऐसे ही समय बिताने आई हूं, तो शायद वह मुझे पागल ही करार कर देता.

आज पहली बार मन ही मन कोरोना को धन्यवाद दिया, मास्क के पीछे मुझे बेहद सुरक्षित महसूस हो रहा था. रूम नंबर 202, रूम के अंदर घुसते ही मैं ने देखा एक छोटा सा बैड है, साफसुथरी रजाई भी रखी हुई थी. मेरे सामने ही रूम को दोबारा सैनिटाइज करा गया था. मैं ने  राहत की सांस ली और अपना मास्क निकाला और फिर दोबारा से हाथ सैनिटाइज कर लिए. टैलीविजन चलाने की कोशिश करी तो जाना मुझे तो पता ही नहीं ये नए जमाने के स्मार्ट टैलीविजन कैसे चलाते हैं. थोड़ीबहुत कोशिश करी और फिर नीचे से लड़का बुला कर टैलीविजन चलवाया गया. एक म्यूजिक चैनल औन किया तो जाना न जाने कितने वर्ष हाथों से फिसल गए. न कोई गाना पहचान पा रही थी और न ही किसी अभिनेता या अभिनेत्री को. फिर भी कुछ ?िझक के साथ रजाई ओढ़ते हुए मैं लेट गई मन में यह सोचते हुए कि न जाने कितने जोड़ों ने इसे ओढ़ कर प्रेम क्रीड़ा करी होगी. टनटन करते हुए व्हाट्सऐप के दफ्तर वाले गु्रप पर कार्यों की बौछार हो रही थी. मैं ने तुरंत डेटा बंद किया.

अंदर बैठी हुई महिला ने मुसकरा कर शुक्रिया किया. करीब आधे घंटे बाद एक असीम शांति महसूस हुई, ऐसी शांति जो कभी योगा में भी लाख कोशिशों के बाद नहीं हुई थी. लेटे हुए यह सोच रही थी कि कौनकौन से मोड़ से जिंदगी गुजर गई और मुझे पता भी नहीं चला. फिर गुसलखाने जा कर अपनेआप को निहारने लगी, घर पर न तो फुरसत थी और न ही इजाजत, जैसे ही देखना चाहती कि एकाएक एक जुमला उछाला जाता, ‘‘अब क्या देख रही हो, कौन सा 16 साल की हो?’’

जैसे सुंदर दिखना बस युवाओं का मौलिक अधिकार है. 40 वर्ष की महिला तो महिला नहीं एक मशीन है. आईना देखते हुए मेरी त्वचा ने चुगली करी कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा?

शायद पहले तो फिर भी माह में 1 बार चली जाती थी पर अब तो 9 माह से भी अधिक समय हो गया था. बाल भी बेहद रूखे और बेजान लग रहे थे. ?िझकते हुए रूम से बाहर निकली तो देखा सामने ही पार्लर भी था. बिना कुछ सोचे कमरे का ताला लगाया और पार्लर चली गई. हेयरस्पा और फेशियल कराया. बहुत मजा आया.

ऐसा लगा जैसे खुद के लिए कुछ करना अंदर से असीम शांति और खुशी भर

देता है. जब 3 घंटे बाद कमरे में पहुंची तो कस कर भूख लग गई थी. इंटरकौम से खाना और्डर किया. बहुत दिनों बाद बिना किसी ग्लानि के अपनी पसंदीदा तंदूरी रोटी और बेहद तीखा कोल्हापुरी पनीर खाया. अब कोरोना का डर काफी हद तक दिमाग से निकल गया था.

जब पूरे 8 घंटे बिताने के बाद मैं घर पहुंची तो देखा चारों ओर घर में तूफान आया हुआ था. अभीअभी दोनों बच्चे लड़ाई कर के बैठे थे. पर यह क्या मुझे बिलकुल भी गुस्सा नहीं आया, गुनगुनाती हुई मैं रसोई में घुस गई और गरमगरम पोहे बनाने में जुट गई.

अंदर बैठी हुई खूबसूरत महिला फिर से दिल के दरवाजे पर दस्तख कर रही थी कि मैं अगली डेट पर कब जा रही हूं? शायद दूसरों को खुश करने से पहले खुद को खुश करना जरूरी है. इस कोरोनाकाल में मेरे अंदर जो चिड़चिड़ापन और तनाव बढ़ गया था वह आज काफी हद तक कम हो गया था.

एक दिन स्वयं के साथ बिता कर एक बात तो समझ आ गई कि खुद के साथ समय बिताना बेहद जरूरी है. लेकिन एक डेट के बाद यह भी समझ में अवश्य आ गया कि ऐसा कौंसैप्ट हमारे समाज में अभी प्रचिलित नहीं है. अभी यह रचना लिखते हुए भी मेरे दिमाग में यह बात आ रही है कि अगर उस दिन मुझे किसी जानपहचान वाले ने देख लिया होता तो शायद मैं भी उस के लिए एक अनसुलझी कहानी बन जाती. पर हम सब को तो मालूम है न कि हर प्रेम कहानी में थोड़ाबहुत जोखिम तो होता ही है और यह जोखिम मैं अब लेने के लिए तैयार हूं.

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