‘‘मीनादीदी, आप को लेने के लिए मैं कब तक आऊं?’’ ड्राइवर सुरेश ने पूछा.

‘‘अं… मेरे खयाल से ढाई बजे तक मेरा स्कूल खत्म हो जाएगा,’’ मीना बोली.

उस का जवाब सुन कर सुरेश अपनी हंसी दबाते हुए बोला, ‘‘ठीक है, मैं उस वक्त तक आ जाऊंगा. बस एक मिस कौल दे देना, मैं गेट के पास गाड़ी ले आऊंगा.’’

सुरेश गाड़ी ले कर चला गया पर उस का इस तरह अपनी हंसी को दबाना मीना के मन से जा ही नहीं रहा था. मराठी बोलते वक्त उस से कोई गलती तो हुई, पर क्या यह उसे सम झ नहीं आ रहा था. स्कूल जातेजाते उस का मूड बिगड़ गया और आंखें भर आईं. लेकिन स्कूल के स्मार्ट वातावरण में इस तरह की भावुकता कहीं दूसरों के लिए हंसी का विषय न बन जाए, यह सोच कर मीना ने अपनी आंखें पोंछीं और ‘हाय पैम’, ‘हाय जैकी’ कहते हुए एक टोली में घुस गई. फिर तो घर जाने तक मराठी से संबंध पूरी तरह से टूट गया.

सच पूछो तो उस स्कूल में जाने के बाद भारत के किसी क्षेत्र से कोई खास संबंध बाकी नहीं रहता था. दरअसल, यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल था. भव्य इमारत, वातानुकूलित क्लास रूम्स, अंदर का फर्नीचर भी अमेरिकन किस्म का. क्लास रूम में 20-21 बच्चे और कोई यूनिफार्म नहीं. बच्चों ने कुछ ऐसे कपड़े पहन रखे थे जैसे फैशन परेड लगी हो. सभी के पास खुद का कंप्यूटर था. टीचर्स भी ऊंचे घराने के लोग थे.

मीना की क्लास में कुछ बच्चे फिल्मी हीरोहीरोइंस के, कुछ क्रिकेटर्स के तो कुछ बड़ेबड़े उद्योगपतियों के घरानों के पढ़ रहे थे. स्कूल की कैंटीन में सभी खानेपीने की चीजें पाश्चात्य तरीके की मिलती थीं तो स्कूली पढ़ाई व बोलचाल तो अंगरेजी में थी ही, व्यवहार भी अंगरेजी स्टाइल का था. पूरे माहौल में समृद्धि की खुशबू ऐसी थी जैसे स्कूल के बाहर की मुंबई, वहां की भागदौड़, गरीबी और गंदगी का इस स्कूली दुनिया से कोई भी वास्ता ही न हो.

मुंबई के नए कलेवर से मीना पूरी तरह से अनजान थी. वैसे उस का जन्म भले ही दिल्ली में हुआ हो पर वह मुंबई में ही पलीबढ़ी थी. उस के पिताजी भी यहीं के थे. डा. श्रीनिवास के इकलौते बेटे अभय. मीना की दादादादी का दादर वाला पुराना घर बहुत प्यारा था. मध्यवर्गीय हाउसिंग सोसाइटी का 2 बैडरूम वाला यह घर दूसरी मंजिल पर था. इमारत पुरानी थी इसलिए वहां लिफ्ट नहीं थी. सीढि़यां चढ़ कर जाते वक्त दादी हमेशा बड़बड़ातीं पर इस जगह को छोड़ कर कहीं और जाना संभव नहीं था. दादाजी का क्लिनिक भी नजदीक ही था. उन के कई पेशैंट्स दादर में ही रहने वाले थे. दादी की सहेलियां भी वहीं की थीं. उन का वहां अपना ही एक ग्रुप था.

डाक्टर श्रीनिवास के पास पुरानी फिएट कार थी. ठंड के मौसम में उसे

स्टार्ट करना मुश्किल हो जाया करता था. फिर तो सोसाइटी के वाचमैन के साथ छोटी मीना भी गाड़ी को धक्का लगाने आ जाती. गरमी में तो गाड़ी पूरी तरह से तप जाती थी. डाक्टर साहब ने जब एक छोटा पंखा ला कर गाड़ी में लगवाया था, तब मीना बहुत खुश हुई थी. ‘मेरे लिए न, दादाजी?’ ऐसा पूछते वक्त, ‘हां तुम्हारे लिए ही है,’ यही जवाब मिलेगा वह जानती थी. दादी के साथ बैठ कर सब्जी साफ करना, अलमारी ठीक से लगाना, खाने की तैयारी करना आदि कामों में मीना को बड़ा मजा आता था. और चाय का वक्त होने पर दादीमां के साथ प्लेट में चाय पीने की खुशी तो वह बयान ही नहीं कर सकती.

लेकिन फिर मम्मीपापा के पास वापस जाने का समय होता. अपनी नई मारुती जेन में बैठ कर उस के मम्मीपापा अभय व नंदिनी उसे लेने दादर आते. फिर तब बेमन से मीना उस ठंडी गाड़ी में बैठ कर अपने घर विले पार्ले जाती. उस का घर काफी बड़ा था. उस का एक अलग कमरा था. ढेर सारे खिलौने थे. दिन भर घर का काम करने वाली हेमा का भी खुद का एक अलग कमरा था. उस वक्त विदेशी कंपनियों ने भारत में कदम रखा था. पुरानी पीढ़ी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी जितना वेतन वे अभय जैसे नई पीढ़ी के नौकरी करने वाले लोगों को दे रहे थे. जीवन भर ईमानदारी से काम करते हुए सामान्य रूप से खापी कर सुखी रहने वाले अपने पिता के लिए अभय के मन में बहुत आदर था. पर वे उन के आदर्श नहीं थे, इसलिए डाक्टर के रूप में इतना मानसम्मान देने के बावजूद भी अभय ने बीकौम और एमबीए जैसी राह चुनी थी. उन्हें नौकरी भी अपनी इच्छानुसार और मोटी तनख्वाह वाली मिली और फिर अपने साथ ही एमबीए पढ़ी नंदिनी के साथ उन्होंने शादी करने का निर्णय लिया.

नंदिनी के पिता आर्मी औफिसर थे. उन के दिल्ली के आलीशान बंगले में

अभय और नंदिनी की बड़ी धूमधाम से शादी हुई. अभय के मातापिता भी इस रिश्ते से खुश थे. शादी के बाद जब नंदिनी मुंबई आईं तो सीधे अभय के नए और बड़े फ्लैट में. दादर के घर में भी वे बीचबीच में आयाजाया करती थीं. उन के व्यवहार में उत्तरी तहजीब साफ  झलकती थी. उन्होंने सभी का मन जीत लिया था. स्वभाव से भी वे काफी उदार थीं, लेकिन दादर के छोटे घर में रहना उन के लिए संभव नहीं था. फिर भी उन्होंने उस घर का कायापलट करने की ठानी. उन्होंने सब से पहले रसोई में नया किचन प्लेटफार्म बनवाया. फिर सुंदर फर्श बनवाया और पुरानी खिड़कियां निकलवा कर नई खिड़कियां लगवाईं. अच्छा कुकिंग रेंज, नया फ्रिज, फूड प्रोसेसर. अभय की मां को तो अपना किचन पहचान में ही नहीं आ रहा था.

साल भर के अंदर मीना का जन्म हुआ. महीने भर की छोटी मीना को ले कर जब नंदिनी दिल्ली से लौटीं तब डाक्टर साहब के परिवार में तो जैसे खुशी की लहर दौड़ गई. अब उन के बैडरूम में एअरकंडीशनर लग गया था. सप्ताह में 2-3 दिन मीना दादादादी के पास ही रहने लगी थी. 3 साल की होने के बाद उस ने दादी के काम में हाथ बंटाना भी शुरू किया. उस का सब से पसंदीदा काम वाटर फिल्टर से बोतलें भर कर रखना था. उस काम में आधा पानी गिर जाता था पर दादी उस पर कभी गुस्सा नहीं करती थीं फिर नीचे गिरा पानी पोंछना भी उस का पसंदीदा काम था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था. पर अचानक अभय का लंदन ट्रांसफर हो गया. थोड़ी कोशिशों के बाद नंदिनी को भी वहीं पर काम मिल गया. उन दोनों के लिए तो यह सुनहरा मौका था. छोटी मीना तो अपने मम्मीपापा के साथ शान से एअरपोर्ट के लिए निकली. दादादादी, नानानानी सभी लोग उन्हें विदा करने आए थे. पर उस कांच के दरवाजे से अंदर जाते वक्त केवल मीना ही नहीं, अभय और नंदिनी का भी दिल भर आया था.

और अब पूरे 10 साल बाद वे ट्रांसफर ले कर फिर से मुंबई आए थे. बीच के

समय में मुंबई पूरी तरह से बदल गई थी. बौंबे नाम होते हुए भी देशी  झलक देने वाला यह शहर मुंबई जैसा देशी नाम पड़ने के बावजूद बिलकुल विदेशी शहरों से प्रतियोगिता करता दिख रहा था. बड़ेबड़े मौल्स, उस में स्थित आधुनिक सिनेमागृह, विदेशी कंपनियों की दुकानें, रास्ते पर दौड़ने वाली नईनई गाडि़यां, दुनिया भर की डिशेज खिलाने वाले होटल्स, बिलकुल आसानी से मिलने वाले और अच्छेअच्छे मोबाइल फोंस. यह सब देख कर अभय और नंदिनी तो बहुत खुश हुए. जागरूकता का प्रत्यक्ष परिणाम उन्हें खुश कर गया. हर चीज से परिपूर्ण अपने देश को देख कर उन्हें बहुत गर्व हुआ. लेकिन फिर भी एक बहुत बड़े वर्ग की गरीबी उन्हें साफ नजर आ ही रही थी. लेकिन वह तो पहले भी थी. पर अब विकास के कई नए रास्ते खुल गए थे. गरीबी से अमीरी तक पहुंचने वालों के किस्से सुनने में आने लगे थे. साथ ही मन में अपने लोगों के बीच वापस आने का एक अलग ही संतोष भी था. मांबाप से दूर रहने की अपराधी भावना भी एक  झटके में खत्म हो गई थी.

लेकिन अब मीना काफी चिड़चिड़ी हो गई थी. बौंबे से मुंबई बना यह शहर उसे पराया लग रहा था. लंदन में रहते वक्त ‘आई एम फ्रोम बौंबे’ आसानी से कह देती थी. पर अब तो बौंबे बोलना किसी को अच्छा नहीं लगता था. मुंबई बोलना उस की अंगरेजी जीभ को भारी पड़ता था और उस से भी ज्यादा बुरा उसे इस शहर का माहौल लग रहा था. दादी के घर में जब एअरकंडीशनर लगवाया था तब वह सभी को कितना दुर्लभ लग रहा था. और अब तो घरघर में दिनरात एअरकंडीशनर चलता दिखाई पड़ रहा था. पहले फौरेन से लाई कांच की चीजें, टेबल मैट्स, यहां तक की चम्मच भी लोगों को काफी कीमती लगते थे, पर अब वे सारी चीजें यहीं पर मिलने लगी थीं. ‘लंदन से आते वक्त अब शैंपू, साबुन, परफ्यूम कुछ नहीं लाना. अब यहीं पर सब कुछ मिलता है,’ ऐसा दादी ने बड़े गर्व से कहा था.

मीना के जानपहचान की सारी निशानियां मिट रही थीं. उसे लग रहा था जैसे हमारी जड़ें ही उखड़ती जा रही हैं. उस की भरोसे की एक ही जगह थी, दादी का घर. पर वह भी पराया लगने लगा था. पहले ही दिन जब बड़े आत्मविश्वास के साथ वह दादी की मदद करने रसोईघर में गई तब नई ऐक्वागार्ड मशीन देख कर उसे रोना ही आ गया. उसे इतना दुख हुआ जैसे पहले वाला फिल्टर बदल कर जैसे दादी ने उस के साथ विश्वासघात किया हो.

फिर भी इस शहर के साथ सम झौता करने की मंशा से उस ने मराठी बोलने की कोशिश शुरू की. घर वालों ने उस की प्रशंसा भी की, लेकिन बाहर वालों ने उस का मजाक ही उड़ाया. मीना को लगता था कि वह मूल रूप से मुंबई की है पर मुंबई वालों ने तो उसे लंदन वाली बना दिया था. फिर मैं हूं कहां की? यह सवाल उसे बारबार तकलीफ दे रहा था. मांबाप का इतनी आसानी से यहां घुल जाना उसे सम झ नहीं आ रहा था. आसपास की गरीबी और असभ्यता उन्हें कैसे नजर नहीं आ रही थी? रास्ते की गंदगी,  झोंपड़पट्टियां यह सब उन्हें क्यों नजर नहीं आ रहा था? या सिर्फ अपने देश वापस आने की खुशी ही इन सभी बातों को अनदेखा कर रही थी? फिर मेरा देश कौन सा है? मु झे कहां पर यह लगेगा कि मैं अपने घर आई हूं?

झोंपड़पट्टी के बारे में उस ने जब नंदिनी से पूछा तब वे

बोलीं कि वह तो हमें दिखाई देती है बेटी, लेकिन तुम यह बात भी सोचो कि अपना गांव, शहर, प्रदेश छोड़ कर ये लोग इस शहर में रहने क्यों आते हैं? इस शहर में उन्हें रोजगार मिलता है. मेहनत कर के वे अपना भविष्य बना सकते हैं. किसी भी क्षेत्र में वे उड़ान भर सकते हैं. और यह शहर ऐसा है जो किसी को भी यहां आने से रोकता नहीं है, क्योंकि उन की मेहनत से ही यहां का काम चलता है. यानी यहां सच में उन की जरूरत है. है ना बेटी? कोई अपना घरबार छोड़ कर बेमतलब तो यहां नहीं आएगा न?’’

अब मीना के मन की उल झन कुछ कम हो गई थी, लेकिन वह मुंबई को अपना कहे या न कहे उसे सम झ में नहीं आ रहा था. उस की मराठी बोली पर हंसीमजाक बनाने वाली बातें भी अनुत्तरित थीं.

एक बार घर की नौकरानी को उस ने सीधे अंगरेजी में पूछा, ‘‘नंदा, कैन यू गैट दिस ड्रैस आयरंड?’’

सलीके से रहने वाली नंदा बोली, ‘‘श्योर मीना दीदी. ऐनी थिंग एल्स?’’

?अब मीना के मन की उल झन सुल झने लगी. दुकानदार तो थोड़ीबहुत अंगरेजी बोल ही लेते थे, पर ड्राइवर सुरेश भी उस के सामने अंगरेजी बोलने की कोशिश करता दिख रहा था. एक दिन सुबहसुबह जब वह स्कूल के लिए निकली तब एक जवान लड़का उस के पास आया और बिलकुल सहजता से उस से बोला, ‘‘गुड मौर्निंग दीदी, आय एम योर स्वीपर.’’

मीना की आंखें खुल गईं. मन में बसे पहले के बौंबे की जगह आज की वास्तविक और तेज गति से आगे बढ़ने वाली मुंबई उसे नजर आने लगी थी. आज पानीपूरी वाला प्लास्टिक के ग्लब्स पहन कर बिसलेरी के पानी में बनी पानीपूरी दे रहा था. पिज्जा हट के पिज्जा और मैकडोनाल्ड के बर्गर में भी अच्छा भारतीय टेस्ट आने लगा था. हर प्रकार के कौस्मैटिक्स आसानी से मिल रहे थे. लिंकिंग रोड में आधुनिक विदेशी फैशन वाले कपड़े भी सस्ते में मिल रहे थे. नई रिलीज हुई हौलीवुड पिक्चर्स भी अब विदेशी थिएटर्स जैसे ही भारतीय थिएटर्स में देखने को मिल रही थीं.

देखते ही देखते यह बदली हुई मुंबई मीना के भी मन में बस गई. उस ने उसे बौंबे के बंधन से मुक्त कर दिया. ‘तु झे हमारी भाषा भले ही न आती हो पर तू हमारी है. तु झ से जैसा संभव हो तू बोल. तू हमारी हंसीमजाक वाली नहीं है बल्कि प्रशंसा और प्यार वाली है. और अगर बोलने में कुछ ज्यादा ही रुकावट आ रही हो तो हम हैं न, हम तुम से अंगरेजी में बात करेंगे,’ किसी ने उस के मन में उसे ऐसा भरोसा दिलाया.

फिर एक शाम मीना दादी के पास आई और बोली, ‘‘दादी, आज थाई खाना मंगाएं क्या?’’

‘‘हांहां जरूर. हमें भी उस की ग्रीन करी बहुत पसंद है,’’ दादी बोलीं.

फिर कुछ ही देर में एक सुंदर से बरतन में खाना आया तो ठंडी हवा में टीवी सीरियल देखते हुए दादादादी और पोती खाना खाने लगे.

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