रात सिर्फ करवटें ही तो बदली थीं, नींद न आनी थी, न आई. फिर सुबह ताजी कैसे लगती. 4 बजे ही बिस्तर छोड़ दिया. समीर सो रहे थे पर उन्हें मेरी रात भर की बेचैनी सोतेसोते भी पता था. नींद में ही आदतन कंधा थपथपाते रहे थे. बोलते रहे, ‘‘सुहानी, सो जाओ. चिंता मत करो.’’

मैं ने फ्रैश हो कर पानी पीया. अपने लिए चाय चढ़ा दी. 20 साल की अपनी बेटी पीहू के कमरे में भी धीरे से झंक लिया. वह सो रही थी. मैं चुपचाप बालकनी में आ कर बैठ गई. इंतजार करने लगी कि कब सुबह हो तो बाहर सैर पर ही निकल जाऊं. सोसाइटी की सड़कों को साफ करने वाली लड़कियां काम पर लग चुकी थीं. मेरे दिल में इन लड़कियों के लिए बहुत करुणा, स्नेह रहता है. करीब 20 से 50 साल के ये लोग इतनी सुबह अपना काम शुरू कर चुके हैं. मुंबई में यह दृश्य आम है पर इन की मेहनत देख कर दिल मोम सा हुआ जाता है.

देख इन सब को रही थी पर मम्मी की चिंता में दिल बैठा जा रहा था. रात को उन्होंने फोन पर बताया था कि उन का बीपी बहुत हाई चल रहा है. वे गिर भी गई थीं, कुछ चोटें आई हैं. सुनते ही मन हुआ कि उन्हें देखूं. पीहू ने कहा भी कि नानी को वीडियोकौल कर लो मम्मी. पर 80 साल

की मेरी मम्मी को वीडियोकौल करना आता ही नहीं है. उन्हें कई बार कहा कि मम्मी व्हाट्सऐप या वीडियोकौल सीख लो, कम से कम आप को देख ही लिया करूंगी पर उन की इस टैक्नोलौजी में कोई रुचि ही नहीं है. तड़प रही हूं कि जाऊं, उन्हें देखूं, उन की देखभाल करूं. पर मायके नहीं जाऊंगी, यह फैसला कर लिया है तो कर लिया.

5 साल पहले मैं जब रुड़की मायके गई तो वहीं से यह फैसला कर के आई थी कि अब यहां कभी नहीं आऊंगी. मैं अपने से कई साल बड़े अपने बड़े भाईबहन के नफरतभरे दिलों की आग सहन नहीं कर पाती. वे मुझ से सालों बाद भी नाराज हैं. उन की नजर में मैं ने ऐसा गुनाह किया है जिसे माफ नहीं किया जा सकता.

प्यार करने का गुनाह. ब्राह्मण की बेटी हो कर एक मुसलिम से प्रेमविवाह करने का गुनाह. स्वार्थी, लालची भाईबहन को निश्छल समीर कैसे समझ आते.

वे तो मम्मी थीं कि समीर से मिलते ही समझ गई थीं कि उन की बेटी समीर के साथ हमेशा खुश रहेगी. मम्मी ने कैसे इस समाज को झेला है, मैं ही जानती हूं. मैं बहुत छोटी थी, पापा चले गए थे. मम्मी अगर अपने पैरों पर न खड़ी होतीं तो हम इन भाईबहन के सामने कैसे जीते, यह सोच कर ही खौफ आता है.

आसमान में जब इतना उजाला दिख गया कि सैर पर जाया जा सकता है तो मैं ने अपने सैर के शूज पहने और धीरे से घर से निकल गई. आज कदम सुस्त थे, मन जैसा था, वैसी ही चाल थी, थकी सी, उदास. गार्डन के चक्कर काटने के साथसाथ आज मन अतीत की गलियों में भी घूम रहा था. जब मैं ने मम्मी को अपने दिल की बात बताई, उन्होंने सिर्फ इतना पूछा, ‘‘एडजस्ट कर लोगी? सबकुछ अलग होगा.’’

मैं ने कहा था, ‘‘हां, मम्मी. सब ठीक होगा. समीर को इन 3 सालों में अच्छी तरह समझ

चुकी हूं.’’

‘‘तुम दोनों कब शादी करना चाहते हो?’’

‘‘मम्मी जब आप कहें कर लेंगे.’’

‘‘तो फिर ठीक है, जल्द ही करवा देती हूं. तुम्हारे भाईबहन को भनक भी पड़ गई तो मुश्किल हो जाएगी.’’

मैं खुशी के मारे रोती हुई मम्मी के गले लग गई थी. उन्होंने भी किसी छोटी बच्ची की तरह मुझे अपने से लिपटा लिया. फिर मम्मी ने अपने दम पर हमारी शादी करवाई, अपने बुलंद हौसलों के साथ. जाति, धर्म को दूर धकेल दिया. बहनभाई सिर पीटते रह गए. मैं तो नई गृहस्थी संभालने में व्यस्त थी पर मम्मी ने जो ?ोला वह सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मम्मी टीचर रही हैं. यह शादी करवाने पर स्कूल में उन का सोशल बायकौट हुआ, स्कूल का चपरासी तक उन्हें पानी ला कर नहीं देता था. 1 महीना उन्होंने स्कूल के स्टाफरूम में बैठ कर अकेले खाया, अकेले बैठ कर चुपचाप अपने काम किए और किसी से बिना बात किए घर वापस.

मम्मी ने उस समय किसी की चिंता नहीं की, उन की बेटी खुश है, सिर्फ यही बात उन के लिए माने रखती थी. उन्होंने तो हर जाति के स्टूडैंट्स को बराबर स्नेह दिया था. हमारे घर उन के कितने ही मुसलिम स्टूडैंट्स उन से मिलने आ जाते थे. हम मांबेटी ने तो पता नहीं कितनी बार उन की लाई हुई ईद की सेवइयां खाई थीं जिन्हें मेरे भाईबहन छूते भी नहीं थे.

खुद को गर्व से कट्टर ब्राह्मण बताने वाला भाई शराब पी सकता था, दुनिया के सारे गलत काम कर सकता था पर ईद की सेवइयां कैसे छूता. बहन अपनी बीमारी में एक मौलवी से खुद को ?ाड़वाने जा सकती थीं, पर छोटी बहन के मुसलिम पति को, एक सभ्य, शिष्ट इंसान को कैसे स्वीकार करतीं. उन का धर्म न नष्ट हो जाता.

आज मैं कुछ जल्दी ही थक गई, मन की थकान ज्यादा थकाती है वरना इस समय तो मैं गार्डन में कूदतीफांदती चल रही होती हूं. शायद  ही कभी बैंच पर बैठने की नौबत आई हो. आज मैं थोड़ी देर के लिए बैंच पर बैठ गई.

शुरूशुरू में मम्मी मेरे पास काफी दिन रहीं. समीर ने ही कहा था कि आप कुछ दिन हमारे साथ शांति से रह लें. धीरेधीरे मेरे लालची भाईबहन को मम्मी की बातों से समझ आया कि छोटी बहन तो ससुराल में सुखी है, पति के साथ बनारस में समृद्ध गृहस्थी की उन्हें खबर मिली तो उन्हें सम?ा आ गया कि छोटी बहन से बिगाड़ना नुकसानदायक होगा. समीर अच्छी जौब में रहे हैं. 1-2 बार हिंदूमुसलिम की नफरतों से भरे स्वार्थी, बेशर्म भाईबहन ने समीर से बीमारी के बहाने पैसे भी मांग लिए जो उन्होंने खुशीखुशी दे भी दिए पर हर बार जब भी मतलब निकल जाता है उन की मुसलमानों के प्रति नफरत देख कर मेरा खून खौल जाता.

गिरने की कोई सीमा ही नहीं काम निकलना होता तो समीरसमीर करते हैं और काम पूरा होते ही समीर सिर्फ एक मुसलमान रह जाते हैं. बनारस घूमना है तो आ कर घर भी रह गए, मंदिरों के दर्शन भी कर लिए, खूब आवभगत हो गई. पर जाते ही फिर वही सब. फिर वे सब मुंबई भी आ गए, फिर वही सब किया. ऐसे सिलसिलों से किस का मन नहीं थकेगा.

5 साल पहले मायके गई थी. अब उन्हें मुझ से कोई स्वार्थ नहीं था, सब काम हो ही चुके थे. बातबात पर सुनाया जाने लगा कि मांबेटी ने ब्राह्मण हो कर धर्म को गर्त में गिरा दिया. इतने सालों बाद अब मैं यह सब सुनने के मूड में नहीं रहती. देखा जाए तो बात पुरानी हो चुकी है. अब इस पर बात होनी नहीं चाहिए थी पर मेरे पढ़ेलिखे भाईबहन धर्म के नाम पर जितने तमाशे हो सकते हैं, सब कर सकते हैं.

मुझे लगता है जब तक वे लोग इस धरती पर रहेंगे, जातिधर्म के नारे लगाते रहेंगे. ऐसी

बुद्धि पर मुझे अब तरस आता है. मैं इन लोगों से डरती नहीं, इन्हें हिंदूमुसलमान करने में जिंदगी बितानी है, मुझे यह बताना है कि अंतर्जातीय विवाह होते रहने चाहिए, धर्म, जाति के चक्कर में न पड़ कर प्यार देखा जाए, इंसान के गुण देखे जाएं. वे भी अपने पिछले रास्ते पर चल रहे हैं, मैं भी अपने बुलंद हौसलों के साथ जीवन में आगे बढ़ रही हूं.

पिछली बार मुझे लगा कि मैं यह सब अब नहीं सहूंगी, कह कर आई हूं कि अब कभी नहीं आऊंगी. कह कर आई हूं सब रिश्ते खत्म और यह सच भी है कि मैं अब उन लोगों की शक्ल भी नहीं देखना चाहती जिन के लिए छोटी बहन की खुशी कुछ नहीं, धर्म ही सबकुछ है.

मेरी उन लोगों से कैसे निभ सकती है जिन के लिए धर्म, जाति ही सबकुछ है जबकि मेरे लिए यह सबकुछ माने नहीं रखता. मम्मी से

फोन पर बात रोज होती है, पर उन्हें 5 सालों से देखा नहीं है. इस बात का दुख रहता है. अब वे बीमार हैं. मुझे पता है कि वहां उन की सेवा नहीं होती है. वे वहां अकेली ही हैं. मैं चाहती हूं कि मैं उन की बीमारी में उन की देखभाल करूं. बैठेबैठे पता नहीं मैं क्याक्या सोचती रही. फिर फोन में टाइम देखा. 6 बज रहे थे. कब से बैठी रह गई. घर जा कर पीहू और समीर के लिए टिफिन बनाना है.

अचानक कुछ सोच मम्मी को फोन मिला लिया. हैरान सी कमजोर

आवाज आई, ‘‘अरे, इतनी जल्दी? क्या हुआ?’’

‘‘मम्मी. किसी तरह दिल्ली आ जाओ टैक्सी में. मैं आप को दिल्ली एअरपोर्ट पर मिल जाऊंगी. वहां से आप को अपने साथ ले आऊंगी. फिर तबीयत ठीक होने तक आराम से मेरे साथ कुछ दिन रह कर जाना. दिल्ली तक आ पाओगी?’’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘‘इतनी सुबहसुबह यह क्या प्लान बना रही है?’’

मैं भी अचानक हंस पड़ी, ‘‘मैं उस मां की बेटी हूं जिस के हौसले मैं ने हमेशा बुलंद देखे हैं. आप बीमार हैं, मुझे आप की देखभाल करनी है. चलने लायक तो हो न. बस एअरपोर्ट पहुंच जाओ, बाकी मैं सब देख लूंगी.’’

मम्मी की आवाज की कमजोरी अब गायब हो चुकी थी. अब उन की आवाज में एक उल्लास था. कहा, ‘‘ठीक है बना ले प्रोग्राम. यहां से क्याक्या चाहिए, बता देना.’’

मुझे हंसी आ गई, ‘‘कुछ नहीं चाहिए मम्मी. वहां सब कबाड़ है.’’

मेरे कहने का मतलब समझ मम्मी जोर से हंसी, बोलीं, ‘‘सही कह रही है.’’

हम दोनों फिर थोड़ी देर हंसतीबोलती रहीं. मुझे इतनी हिम्मती मां की बेटी होने पर हमेशा गर्व रहा है.

हां, मैं ऐसे ही जीऊंगी बेखौफ, निडर उन सब बेकार के रिश्तों से दूर. मम्मी को लाना है, उन की देखभाल करनी है. रास्ता निकाल

लिया है मैं ने. जब ठीक हो जाएंगी, जब कहेंगी, ऐसे ही छोड़ भी आऊंगी. बस अब घर जा कर कल की ही फ्लाइट बुक करती हूं. मैं एक

बार फिर अपने बुलंद हौसलों पर खुद को ही शाबाशी देती हुई अब तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ गई.

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