यूनिफौर्म सिविल कोड का मसला कश्मीर और 3 तलाक की तरह कट्टर हिंदुओं को बहुत भाता है. उन्हें लगता है कि मुसलिम पुरुष 4-4 शादियां कर के मौज करते हैं और बच्चे पैदा कर अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं. वे यह भूल जाते हैं कि अगर मुसलमानों के लिए भी एक ही शादी की लिमिट कानूनी हो जाए तो भी समाज एक से ज्यादा शादियां होते रहने देगा और पहली औरतें सिवा अपने कमाऊ, घर मुहैया कराने वाले खाविंद को जेल भेज कर खुद बेकार हो जाएंगी.

हर समाज में सुधार होते रहने चाहिए और दुनिया को तार्किक व बराबरी के लक्ष्य की ओर चलते रहना चाहिए पर आज का हिंदू पारिवारिक कानून अभी भी पौराणिक नियमों के हिसाब से चल रहा है और यूनिफौर्म सिविल कोड इस हिस्से को छूने की भी कोशिश नहीं कर सकता क्योंकि इस से पंडों की रोजीरोटी का सवाल जुड़ा है.आज कितने हिंदू परिवार हैं जो कुंडली देख कर शादी नहीं करते?

आज कितने घर दूसरी जाति में शादी बड़ी खुशीखुशी कर देते हैं? 1956 और 2005 के कानूनों के बावजूद कितनी औरतों को पिता की संपत्ति में हिस्सा और बराबर का हिस्सा मिल रहा है?आज कितने हिंदू परिवार हैं जिन में बेटे की चाह नहीं है? कितने घर हैं जिन में बेटी अपने पिता का घर शादी पर छोड़ कर पति के पिता के घर नहीं जाती? बराबरी के कानून की बात करने वाले क्या साबित कर सकते हैं कि सभी हिंदू गरीब दलित गरीब परिवारों में 2 से कम बच्चे पैदा हो रहे हैं?

कानून में बदलाव समाज की मांग पर होना चाहिए पर विज्ञान के युग में जब इसरो के चेयरमैन खुद पाखंडबाजी करते हुए पूजापाठ कर सफल चंद्रयान-3 प्रोजैक्ट का धन्यवाद किसी मंदिर को देते हैं और प्रधानमंत्री उस स्थान का नाम हिंदू देवता शिव पर रखते हैं तो हम कौन सी आधुनिकता, कौन सी बराबरी की बात कर रहे हैं?जैसे 3 तलाक के बारे में कानून बनने पर हिंदुओं के कलेजे में ठंडक तो पड़ गई पर यह आंकड़ा किसी के पास नहीं होगा कि क्या मुसलिम औरतें तलाक की त्रासदी से बच गईं?

जब हिंदू औरतें ही कानूनी ढाल के बावजूद तलाक देने या न देने पर वर्षों अदालतों के चक्कर काटती रहती हैं तो कौन सी बराबरी की बात करते हैं?आज हिंदू औरतों के लिए सामाजिक सुधारों की जरूरत है कि वे कलश उठाए सड़कों पर नंगे पैर चलने को मजबूर न हों, कि वे घंटों घर का काम टाल कर घंटों किसी जगह बैठ कर घंटियां न बजाएं, कि वे विधवा या तलाकशुदा होने पर समाज से बहिष्कृत न की जाएं, कि वे भाई से बराबर का हिसाब मांगने पर घर तोड़ने वाली संस्कारहीन न कहलाएं जबकि उन के 2 भाई घर तोड़ दें तो कोई उंगली नहीं उठाता.

अगर देश में पितृसत्तात्मक समाज है तो बहुसंख्यक होने के कारण वह हिंदू समाज ही है जिस की केवल कुछ चुनिंदा औरतें अपना वजूद रखती हैं. यूनिफौर्म सिविल कोड एक भ्रांति को पूरा करने के लिए एक खाई को चौड़ा करने का काम है. यह सुधार मुसलिम महिलाओं को मांगना चाहिए. उन्हें पढ़ने के मौके दिए जाने चाहिए पर जब हिंदू लड़कियां ही पढ़लिख कर किट्टी पार्टियों और सत्संगों में अपना समय काट रही हैं तो उस पढ़ाई का भी क्या फायदा?ये यूसीसी का शिगूफा केवल औरतों का मुंह बंद करने के लिए है. इस चक्कर में हिंदू कानूनों के सुधारों की बात उठनी बंद हो चुकी है.

जो हिंदू सुधार की बात करता है उसे हिंदू धर्म विरोधी कहने को देर नहीं लगती है. वे औरतें अरबन नक्सल कही जाने लगती हैं, देशद्रोही मानी जाने लगती हैं क्योंकि वे पुराणसम्मत नियम जिन का जीताजागता उदाहरण नरेंद्र मोदी के नए संसद भवन के उद्घाटन के समय दिया था.यूनिफौर्म सिविल कोड की यूनिफौर्म मैनेबिलिटी और ऐक्स्पटेबिलिटी कोड जो तर्क व विज्ञान पर आधारित हो बनना जरूरी है.

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