हाल के वर्षों में आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक विकास और बेहतर जीवनस्तर के साथसाथ सैक्सुअल रिलेशनशिप में भी स्वतंत्रता आई है, जिस कारण शादी से पहले प्रैगनैंसी की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है. एक सर्वे के मुताबिक 15त्न पुरुषों और 4त्न महिलाओं ने शादी से पहले संबंधों को स्वीकार किया है.

भारत जैसे कंजरवेटिव देश में जहां अपनी सामाजिक और पारंपरिक पृष्ठभूमि के चलते किसी भी सामाजिक बदलाव को सिरे से नकार दिया जाता है में शादी से पहले शारीरिक संबंधों और प्रैगनैंसी को स्वीकार नहीं किया जाता. खासकर लड़कियों के लिए. सैक्सुअली ऐक्टिव होने के कारण लड़कियां शादी से पहले प्रैगनैंट हो रही हैं, जिस के चलते वे समाज और मातापिता के डर से इंस्टैंट प्रैगनैंसी रोकने के लिए ऐसी दवाइयां खा रही हैं जो उन की जान के लिए जोखिम पैदा कर रही है.

बिना किसी मैडिकल जानकारी और डाक्टर की सलाह के लड़कियां इन गोलियों को खा कर अपने स्वास्थ्य को बिगाड़ रही हैं.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार अबौर्शन या गर्भपात न केवल आप को शारीरिक रूप से बल्कि भावनात्मक तौर पर भी तोड़ कर रख देता है. गर्भपात कराने वाली दवाएं आसानी से मैडिकल स्टोर्स पर मिल जाती हैं और ज्यादतर लड़कियां इन्हें बिना किसी डाक्टर की सलाह के खा लेती हैं जो बाद में उन के लिए खतरा बन जाती हैं. इन का प्रभाव उन के स्वास्थ्य से ले कर भविष्य में होने वाली प्रैगनैंसी तक पड़ता है.

कौन सी है दवाइयां

महिला रोग विशेषज्ञ के मुताबिक प्रैगनैंसी को टर्मिनेट या गर्भ को खत्म करने के लिए जिन अबौर्शन पिल्स का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें एमटीपी किट के नाम से जाना जाता है. एमटीपी किट 2 दवाओं का मिश्रण है. मिफेप्रिस्टोन और मिसोप्रोस्टोल दवाओं से मिल कर यह बनती है. ये दवाइयां अबौर्शन के शौर्टकट के रूप में इस्तेमाल की जा रही हैं, इन्हें प्रैगनैंट महिलाएं बिना इन के साइड इफैक्ट के बारे में जाने आसानी से ले लेती है. इन्हें खाने के बाद सब का शरीर अलगअलग प्रतिक्रिया करता है.

ये दवाइयां महिला के शरीर को बहुत नुकसान पहुंचाती हैं. यदि महिला किसी स्वास्थ्य समस्या से पहले ही लड़ रही है तो उस के लिए ये और भी मुश्किलें पैदा कर सकती हैं जैसे अगर उसे ऐनीमिया है यानी वह खून की कमी से जू?ा रही है तो डाक्टरों द्वारा अबौर्शन कराने वाली पिल्स से दूर ही रहने की सलाह दी जाती है क्योंकि ये ऐनीमिया के रोगियों के लिए खतरनाक हो सकती हैं.

समाधान नहीं समस्या भी भी हैं पिल्स

एमटीपी किट के इस्तेमाल से नजर प्रभावित हो सकती है. ऐसे मरीज जिन्हें किडनी से जुड़ी कोई बीमारी हो उन्हें इन गोलियों का इस्तेमाल करने से पहले डाक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए. इन्हें लेने के कुछ ही समय बाद अत्यधिक मात्रा में ब्लीडिंग होती है. गर्भपात कराने वाली पिल्स लड़कियों और महिलाओं के शरीर में बन रहे प्रैगनैंसी हारमोन प्रोजेस्टेरौन के उत्पादन को बंद कर देती हैं. इस कारण भ्रूण गर्भाशय से अलग हो कर बाहर आने लगता है. गर्भाशय का संकुचन ब्लीडिंग को बढ़ा देता है. ये ब्लीडिंग कई बार अत्यधिक मात्रा में होती है जिसे डाक्टर के बिना रोक पाना मुश्किल हो जाता है. यह कुछ दिनों, हफ्तों से ले कर 1 महीने तक हो सकती है.

इन गोलियों को खाने से पेट में दर्द और ऐंठन होती है. दर्द पीरियड्स में होने वाले दर्द के समान या उस से भी कई गुना ज्यादा दर्द होता है. शरीर से भारी मात्रा में रक्त और दूसरे द्रव लगातार निकलते रहते हैं. इसलिए पेट, पैरों और शरीर के कई हिस्सों में ऐंठन हो सकती है.

जी मिचलाना, दस्त, सिरदर्द और चक्कर आने जैसी परेशानियां आम हैं. लेकिन हैल्थ कंडीशन के अनुसार ये कम या ज्यादा भी हो सकते हैं. हालात ज्यादा खराब भी हो सकते हैं. कभीकभी बुखार भी आ सकता है.

कुछ मामलों मे ऐसा होता है कि गोली के असर से भ्रूण पूरी तरह बाहर नही आ पाता. ऐसे में सर्जरी तक करानी पड़ जाती है.

कभीकभी परेशानी काफी हद तक बढ़ जाती है. डाक्टरों के मुताबिक, प्रैगनैंसी के कुछ मामले ऐसे होते है जिस में भ्रूण महिला की फैलोपियन ट्यूब में ही फंस कर रह जाता है जिसे इक्टोपिक प्रैगनैंसी कहा जाता है. फैलोपियन ट्यूब महिला के शरीर में अंडाशय और गर्भाशय को आपस में जोड़ती है. ऐसा होने की स्थिति में पिल्स लिए जाने पर ब्लीडिंग के टिशू निकलते हैं, जिस की वजह से फैलोपियन ट्यूब की दीवारों को नुकसान पहुंचने और कई बार ट्यूब फटने तक का खतरा पैदा हो जाता है. इस स्थिति में बेहद दर्द और खून का रिसाव होने लगता है.

अगर तुरंत सर्जरी न कराई जाए तो जान भी जाने का खतरा रहता है. इससे बचने के लिए इक्टोपिक प्रैगनैंसी का पहले ही पता होना आवश्यक है जो अल्ट्रासाउंड से लगाया जाता है क्योंकि डाक्टर इक्टोपिक प्रैगनैंसी के लक्षण दिखने पर अबौर्शन पिल्स लेने से इनकार कर देते हैं.

क्या है कारण

भारत जैसे देश में यह समस्या गंभीर है जहां लड़कियों को घर की इज्जत का जिम्मा जबरदस्ती सौंप दिया जाता है. ऐसे में गर्भवती होने पर लड़कियां शर्म और डर के कारण बिना किसी को बताए इस तरह की पिल्स का सेवन कर लेती हैं. स्थिति की गंभीरता इसी बात से आंकी जा सकती है की शादी से पहले गर्भवती होने के बजाय उन्हें मर जाने तक की सलाह दी जाती है. घर में वे हिंसा का शिकार होती हैं और कितनी ही बार डिप्रैशन के कारण आत्महत्या तक कर लेती हैं. ऐसे में लड़कियां यदि गर्भवती हो जाती हैं तो वे बिना सोचेसमझे अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार रहती हैं.

डाक्टर के पास जाना तो दूर वे किसी को बताना तक नही चाहतीं. ऐसे में वे अबौर्शन के ऐसे अनसेफ तरीके आजमाती हैं. आकडे़ बताते हैं भारत में रोजाना लगभग 13 महिलाएं अनसेफ अबौर्शन के कारण मृत्यु का शिकार होती हैं. लगभग हर साल करीब 6.4 मिलियन गर्भपात होते हैं. अनसेफ अबौर्शन देश में मातृ मृत्यु का तीसरा प्रमुख कारण है जो सालाना होने वाली मौतों का 8त्न है.

कई बार अबौर्शन कराना भी महिलाओं के लिए मुश्किल हो जाता है क्योकि 80त्न महिलाएं यह तक नहीं जानतीं कि भारत में अबौर्शन लीगल है और उन्हें कोई भी इस के लिए रोक नहीं सकता और न ही अस्पतालों और अबौर्शन की सुविधा देने वाली संस्थाएं इस के लिए मना कर सकती हैं मगर अज्ञानतावश वे हौस्पिटल नहीं जातीं.

सुविधाओं का अभाव भी अनसेफ अबौर्शन के तरीके अपनाने का कारण रहा है. लगभग 70त्न पब्लिक या सार्वजनिक कहे जाने वाले क्षेत्र सुरक्षित गर्भपात की सुविधा उपलब्ध कराते हैं जबकि केवल 30त्न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जो महिलाओं की पहली पहुंच हैं ये सेवाएं उपलब्ध कराते हैं और यंग लड़कियां जिन की शादी नहीं हुई है इन केंद्रों पर जाने से डरती हैं क्योंकि स्वास्थ्य केंद्रों में डाक्टर लड़कियों को अपने पेरैंट को लाने के लिए कहते हैं, जिस से बचने के लिए लड़कियां छिप कर अबौर्शन पिल्स का इस्तेमाल कर लेती हैं.

जबकि मैडिकल टरमिनेशन औफ प्रैगनैंसी ऐक्ट 1971 किसी भी महिला को जो माइनर नहीं है यानी बालिग है को अबौर्शन का अधिकार देता है, जिस में उसे किसी की भी परमीशन की जरूरत नहीं है बाशर्ते गर्भ 24 सप्ताह से कम का हो. तब कोई भी स्वास्थ्य केंद्र उसे इस के लिए मना नहीं कर सकता.

2022 में एक केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत प्रजनन की स्वायतता गरिमा और गोपनियता का अधिकार एक अविवाहित महिला को यह हक देता है कि वह विवाहित महिला के समान बच्चे को जन्म दे या नहीं. लेकिन उस के बाद भी अस्पतालों में अविवाहित महिला को किस तरह ट्रीट किया जाता है इस का अंदाजा आप लगा सकते हैं.

20 वर्षीय सुनीता बदला हुआ नाम एक विद्यार्थी है. प्रैगनैंसी का पता लगने पर अपने बायफ्रैंड के साथ हौस्पिटल जाती है. बालिग होने के बाद भी हौस्पिटल के डाक्टर और स्टाफ द्वारा उस से तरहतरह के सवाल किए जाते हैं जिन का जवाब वह अपनी निजता को गोपनिय रखने के लिए नहीं देना चाहती. जानकारी के अभाव में उसे इस तरह के सवालों का सामना करना पड़ता है.

इस तरह के क्रिमिनल ट्रायल भी लड़कियों को सेफ अबौर्शन छोड़ कर ऐसी अबौर्शन पिल्स लेने के लिए मजबूर करते हैं. लेकिन इस का जिम्मेदार कौन है?

समाज की हिस्सेदारी

समाज का दोतरफा रवैया यहां भी दिखाई देता है. जहां समाज एक तरफ पुरुषों को महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने के

लिए खुला छोड़ देता है वहीं वह एक महिला को उसी पुरुष के कारण गर्भवती होने पर अपनाने से इनकार कर देता है. उस से उत्पन्न संतान को नाजायज औलाद कह कर त्याग देता है. उस महिला को बदचलन, चरित्रहीन और न जाने किनकिन नामों से पुकारा जाता है. लेकिन ऐसा कोई नाम उस पुरुष को दिया गया हो दिखाई नहीं देता.

हद की बात तो तब होती है जब वह पुरुष जो महिला के साथ यौन संबंध बनाने के लिए तो तैयार है लेकिन गर्भवती होने पर उसे नजरअंदाज कर देता है, उस का साथ देने से इनकार कर देता है और कितनी ही बार पुरुष को मातापिता और समाज के दबाव में आ कर ऐसा करना पड़ता है.

समाज के ठेकेदारों के मुंह से लड़के हैं गलतियां हो जाती हैं जैसी बातें तो पुरुषों के लिए आसानी से सुनी जा सकती हैं पर लड़कियों के लिए ये भाव उन के दिल से कहां नदारद हो जाते हैं, सम?ा नहीं आता. आखिर उन्हें इस स्थिति में पहुंचाने वाले तो पुरुष ही हैं. यह समाज शादी से पहले लड़की के साथ यौन संबंधों पर आपत्ति जताता है पर शादी में होने वाले रेप पर अपनी चुप्पी साधे रखता है. यहां तक कि कानून भी इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखता. दुनिया के 185 देशों में से 77 देश स्पष्ट रूप से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखते हैं, जबकि केवल 34 देश ऐसे हैं जो स्पष्ट रूप से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर मानते हैं. भारत उन 34 देशों में से एक है.

बिनब्याही मां बनने को समाज सिरे से नकार देता है. उसे घरपरिवार पर लगे एक कलंक की तरह देखता है. इसे एक टैबू की तरह लिया जाता है. स्थिति इस हद तक गंभीर होती है कि उसे परिवार और समुदाय द्वारा आउटकास्ट कर दिया जाता है. स्कूलों तथा नौकरियों तक में उस के साथ भेदभाव किया जाता है.

2000 में आई मूवी ‘क्या कहना’ इस बात को बहुत अच्छे से दिखाती है. जहां राहुल पिया को प्रैगनैंट होने के बाद छोड़ देता है. उस के बाद पिया और उस के परिवार को समाज का क्या रवैया ?ोलना पड़ता है, फिल्म इसे बहुत ही सटीक तरीके से प्रदर्शित करती है.

23 साल बीत चुके हैं लेकिन भारतीय समाज में कुछ परिवर्तन हुआ हो ऐसा नहीं कहा जा सकता. अनसेफ अबौर्शन के कारण होने वाली मौतें इसी बात की पुष्टी करती हैं. यह तसवीर कब बदलेगी, बदलेगी भी या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता.

क्या हमें एक समाज के रूप में इस बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है? क्या हमें अपनी बेटियों के लिए थोड़ा संवेदनशील और सहनशील होने की जरूरत नहीं जैसे हम बेटों के लिए हैं ताकि इन मौतों का आंकड़ा कम किया जा सके?

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