‘‘खुशी…’’चिल्लाते हुए खुशमन बोला, ‘‘मेरे सामने बोलने की हिम्मत भी न करना. मैं कभी सहन नहीं कर पाऊंगा कि कोई मेरे सामने मुंह भी खोले और तुम जैसी का तो कभी भी नहीं.’’

पता नहीं और क्याक्या बोला खुशमन ने. ‘तुम जैसी को तो कभी भी सहन नहीं कर सकता,’ यह वाक्य तो खुशमन ने पता नहीं इन 5 वर्षों में कितनी बार दोहराया होगा. पर मैं पता नहीं क्यों फिर भी वहीं की वहीं थी. वैसे की वैसी… जिस पर जितना मरजी पानी फेंको, ठोकरें मारो कोई फर्क नहीं पड़ता था या फिर मेरा वजूद भी खत्म हो गया था.

शादी को 5 साल हो गए थे. पता नहीं क्याक्या बदल गया था? जब याद करती हूं कि यह वही खुशमन है जिसे मैं आज से 5 साल पहले मिली थी तो खुद को कितनी खुशहाल समझी थी. वह लड़की जिस से दोस्ती के लिए भी हाथ बढ़ाने को सब तरसते थे और वह खुशमन के पीछे चलती हुई न जाने कब उस की जीवनसंगिनी बन गई थी.

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मांबाप की इकलौती संतान थी खुशी. बड़े नाजों से, लाड़प्यार से पाला था उस के मांबाप ने. पापा शहर के जानेमाने बिल्डर थे. इमारतें बना कर बेचना बड़ा काम था उन का. खुशी के जन्म के बाद तो उन का व्यवसाय इतना बढ़ा कि उन्होंने इस का श्रेय उसे दे दिया. खुशी के मुंह से निकली कोई इच्छा खाली नहीं जाती थी. शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ने के बाद खुशी ने अपने ही शहर के सब से अच्छे कालेज में बीएससी साइंस में दाखिला ले लिया. पढ़ाई में तो होशियार थी ही, साथ ही साथ खूबसूरत भी थी.

कालेज में पहले ही दिन उस के कई दोस्त बन गए. खुशी कालेज के प्रत्येक समारोह में भाग लेती. पढ़ाई में भी प्रथम स्थान पर रहती. इसी कारण वह अध्यापकों की भी चहेती बन गई थी. हर कोई उस की प्रशंसा करता न थकता. इतने गुण होने के बावजूद भी खुशी में घमंड बिलकुल नहीं था. घर में भी सब से मिल कर रहना और मातापिता का पूरा ध्यान उस के द्वारा रखा जाता था.

एक बार पापा को दिल का दौरा पड़ा तो खुशी ने ऐसे संभाला कि एक बेटा भी ऐसा न कर पाता. एक दिन पापा जैसे ही शाम को घर पहुंचे तो खुशी रोज की तरह पापा को पानी देने आई तो पापा को सोफे पर गिरा पड़ा पाया. खुशी ने हिलाया, पर पापा के शरीर में कोई हलचल न थी. नौकरों और मां की सहायता से कार से तुरंत अस्पताल ले गई और पापा को बचा लिया. तब से मातापिता का उस पर मान और भी बढ़ गया था. तब पापा ने कहा भी था कि लड़की भी लड़का बन सकती है. जरूरी नहीं कि लड़का ही जिंदगी को खुशहाल बनाता है. तब खुशी को महसूस हुआ कि उन के परिवार में कुछ भी अधूरा नहीं है.

बीएससी करने के बाद खुशी ने एमएससी में दाखिला लेना चाहा पर मां की इच्छा थी कि अब उस की शादी हो जाए, क्योंकि पापा को अपने व्यवसाय को संभालने के लिए सहारा चाहिए था. लड़का तो कोई था नहीं. इसलिए उन का विचार था कि खुशी का पति उन के साथ व्यवसाय संभाल लेगा. मगर खुशी चाहती थी कि वह आगे पढ़े. अत: मातापिता ने उस की जिद मान ली.

एमएससी खुशी के शहर के कालेज में नहीं थी. इस के लिए उसे दूसरे शहर के कालेज में दाखिला लेना पड़ता था. इस के लिए भी पापा ने अपनी हरी झंडी दिखा दी. खुशी ने दाखिला ले लिया. रोजाना बस से ही कालेज जातीआती थी. पापा ने यह देख कर उसे कार ले दी. अब वह कार से कालेज जाने लगी. उस की सहेलियां भी उस के साथ ही जाने लगीं. समय पर कालेज पहुंचती, पूरे पीरियड अटैंड करती, यहां पर भी खुशी की कई सहेलियां बन गईं. होनकार विद्यार्थी होने के कारण अध्यापकों की भी चहेली बन गई.

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कालेज जौइन कर समय का पता ही नहीं चला कि कब 4 महीने बीत गए. खुशी को कई बार महसूस होता कि कोई उसे चुपके से देखता है, उस का पीछा करता है, परंतु कई बार इसे वहम समझ लेती. मगर यह सच था और वह शख्स धीरेधीरे उस के सामने आ रहा था.

रोजाना की तरह उस दिन भी खुशी कक्षा खत्म होने के बाद लाइब्रेरी चली गई. वह वहां किताबें देख ही रही थी कि कोई पास आ कर उसी अलमारी में से पुस्तकें देखने लगा. खुशी घबरा कर पीछे हो गई. जब पलट कर देखा तो यह वही था जो उस के आसपास ही रहता था. उस ने खुशी की तरफ मुसकरा कर देखा, पर खुशी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चली गई. अब तो वह खुशी को रोजाना नजर आने लगा. वह कहीं न कहीं खुशी को मिल ही जाता.

एक दिन खुशी लाइब्रेरी में बैठ कर एक पुस्तक पढ़ रही थी. उस की एक ही कापी लाइब्रेरी में थी जिस कारण उसे इश्यू नहीं किया गया था. तभी अचानक वह वहीं खुशी के पास आ कर बैठ गया और फिर कहने लगा, ‘‘इस पुस्तक को तो मैं कब से ढूंढ़ रहा था और यह आप के पास है.’’

खुशी घबरा गई. ‘‘अरे, घबराएं नहीं. मैं भी आप की ही तरह इसी विद्यालय का छात्र हूं. खुशमन नाम है मेरा और आप का?

‘‘खुशी, मेरा नाम खुशी है,’’ कह कर खुशी बाहर आ गई.

खुशमन भी साथ ही आ गया और फिर चला गया. अब रोज मिलते. हायहैलो हो जाती. धीरेधीरे कालेज की कैंटीन में समय बिताना शुरू कर दिया. खुशमन ने अपने परिवार के बारे में काफी बातें बतानी शुरू कर दीं. काफी होशियार था वह पढ़ने में. कालेज का जानामाना छात्र था. उस के मातापिता नहीं थे. एक भाई था, जो पिता का व्यवसाय संभालता था. पैसे की कमी न थी. खुशमन शुरू से ही होस्टल में पढ़ा था, इसलिए घर से लगाव भी कम ही था. शहर में कालेज होने पर भी होस्टल में ही रहता था. भाई ने शादी कर ली थी, परंतु खुशमन अभी पढ़ना चाहता था. इंजीनियरिंग का बड़ा ही होशियार छात्र था. उसे कई कंपनियों से नौकरी के औफर थे. बड़ीबड़ी कंपनियां उसे लेने के लिए खड़ी थीं. खुशी का अब काफी समय उस के साथ बीतने लगा. पता ही नहीं चला कि कब 1 साल बीत गया और कब उन की दोस्ती प्यार में बदल गई.

खुशी के पापा का व्यवसाय काफी अच्छा चल रहा था, परंतु अब वे ज्यादा बोझ नहीं उठा पाते थे, क्योंकि अब उन की उम्र और दूसरा शायद बेटा न होने की चिंता. मगर उन्होंने यह खुशी को पता नहीं चलने दिया.

एक दिन खुशी सहेलियों के साथ कालेज पहुंची ही थी कि घर से फोन आ गया

कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है. वह तुरंत घर चल दी. पापा को फिर दिल का दौरा पड़ा था. वह उन्हें अस्पताल ले गई. पापा दूसरी बार दिल के दौरे को सहन नहीं कर पाए. डाक्टरों ने जवाब दे दिया. उन की तो जैसे दुनिया ही खत्म हो गई. मां खुशी को संभालती और खुशी मां को. मां के अलावा अब खुशी का कोई नहीं था. पापा के जाने के बाद घर वीरान हो गया था. पापा का व्यवसाय उन के कारण ही था. अब वह खत्म हो गया था.

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खुशी 1 महीना कालेज नहीं गई. सारे दोस्त पता लेने आए. खुशमन भी. सभी ने समझाया कि अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, पर खुशी का मन ही नहीं मान रहा था. जब मां ने देखा कि सभी दोस्त खुशी को संभाल रहे हैं तो उन्होंने भी कहा कि तुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए. 1 ही साल तो रह गया अब. पापा ने 2 फ्लैट बना कर किराए पर दिए थे. इस कारण पैसे की कोई समस्या न आई. धीरेधीरे खुशी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. पढ़ाई का दूसरा साल था. प्रथम वर्ष उस ने अच्छे अंकों से पास किया था. इस बार भी वह अच्छे अंक ले कर अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी. खुशमन की तो पढ़ाई खत्म ही थी. उस ने 2 महीने के बाद एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी जौइन कर लेनी थी. बस कुछ दिन ही रह गए थे उस के. उस दिन खुशी के पास आया था. खुशी कालेज की कैंटीन में बैठी थी, उस के हाथ में छोटा सा गिफ्ट था. उसे खुशी को देते हुए बोली, ‘‘खुशी, इसे खोलो जरा.’’

उस में अंगूठी थी. उसे देख खुशी ने पूछा, ‘‘यह क्या है खुशमन?’’

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ खुशमन बोला खुशी ने हां कर दी. जब खुशी ने मां से बात की तो उन्होंने भी हां कर दी, क्योंकि खुशी के सिवाए कोई था ही नहीं उन का. खुशी की खुशी में ही उन की खुशी थी.

खुशी की पढ़ाई खत्म हुई. कालेज में टौप किया था. अध्यापकों ने कालेज में ही नौकरी जौइन करने को कहा. खुशमन से पूछा तो उस ने मना कर दिया. पढ़ाई खत्म होने के बाद खुशी और खुशमन की शादी हो गई. अपने ही शहर में उस की नौकरी थी. काफी बड़ा फ्लैट था उस का. खुशी को लगा उस की जिंदगी ही बदल गई. और खुशी के पापा ने एक फ्लैट इस शहर में भी खरीदा था. उसे किराएदारों से खाली करवा कर खुशी को यहीं ले आई. घर को किराए पर दे दिया. अब मां इसी शहर में थीं.

किसी की अच्छाइयों तथा बुराइयों का पता धीरेधीरे ही लगता है. ऐसा ही कुछ खुशी को खुशमन का अनुभव मिल रहा था. कालेज के समय कभीकभी खुशमन जब अपनी उपलब्धियों को बताता था तो उन्हें सुन कर खुशी खुश होती थी कि वह उस के सामने अपनी उपलब्धियों, अच्छाइयों को प्रकट करता है. मगर वह उस का घमंड था जो अब खुशी के सामने आ रहा था. शादी हुए 4-5 महीने ही गुजरे होंगे. प्रत्येक काम में उस का नुक्स निकालना जरूरी होता था. जैसे उस जैसा निपुण कोई और है ही नहीं. खुशी अगर कोई जवाब देती तो सुनने से पहले ही चिल्ला पड़ता था. खाना खुशी ने कभी बनाया ही नहीं था, परंतु अब तक काफी कुछ सीख गई थी. पर खुशमन को खुश न कर पाई. नौकरानी के सामने भी खामियां निकाल देता, ‘‘अरे, तुम तो नौकरानी से भी गंदा खाना बनाती हो?’’

टूट जाती थी अंदर से खुशी. ऐसे ही जिंदगी के 5 साल बीत गए. मां को भी अब खुशी का दुख नजर आने लगा था. पर कुछ कह नहीं पाती थीं, क्योंकि खुशमन खुशी का ही चुनाव था.

इधर खुशमन का व्यवहार, उधर मां की चिंता. मां बहुत अकेली पड़ गई थीं. खुशी ने कई बार मां से कहा कि उस के पास आ कर रहो, पर वे नहीं मानती थीं. खुशी ने यह अपनी तरफ से कोशिश करनी चाही थी. अभी खुशमन से बात नहीं की थी इस बारे में.

एक दिन खुशमन का मूड देख कर बात की, ‘‘खुशमन मां बहुत अकेली पड़ गई हैं.’’

पूरी बात सुनने से पहले ही खुशमन बोल पड़ा, ‘‘कोई बात नहीं खुशी. उन के लिए एक केयर टेकर रख देते हैं. सारा समय उन के पास रहा करेगी. पैसे मैं दे दूंगा,’’ कह खुशमन कमरे में चला गया.

खुशी अपनी जगह खड़ी रह गई. खुशमन को क्या पता कि मातापिता का प्यार क्या होता है? क्या होता है परिवार? शुरू से ही तो होस्टल में रहा. ऊपर से उस के दिमाग में घमंड भरा हुआ था. इन्हीं कारणों से अपना भी परिवार भी नहीं बढ़ा रहा था.

एक दिन तो हद हो गई. मां काफी बीमार थीं. केयर टेकर ने फोन किया. खुशी ने जाना चाहा, तो खुशमन ने वहीं रोक दिया. बोला, ‘‘आज मेरी छुट्टी है, मैं नहीं चाहता कि तुम घर से बाहर जाओ… कम से कम छुट्टी वाले दिन तो घर रहा करो…’’ मां की तबीयत की बात है तो केयर टेकर को बोल दो कि उन्हें दवा दे दे.

खुशी चाह कर भी न जा पाई.

मां की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. कुछ खापी भी नहीं रही थीं? खुशी ने साहस कर के खुशमन से बात की, ‘‘मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है… तो क्या मैं मां को यहां ले आऊं?’’

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खुशमन चिल्ला कर बोला, ‘‘क्यों? क्या मैं ने तुम्हारे खानदान का ठेका ले रखा है? तुम्हें पाल रहा हूं क्या यही कम है, जो तुम्हारी मां को भी उठा लाऊं? तुम से भी मैं ने शादी इसलिए की थी कि समाज में रहने के लिए एक सुंदर पत्नी चाहिए थी और घर को संभालने के लिए एक औरत न कि तुम्हारी खूबियां देख कर. वैसे भी खूबी तो कोई है नहीं तुम में, जिस का मैं वर्णन कर सकूं और फिर तुम्हारी मां के अब दिन ही कितने रह गए हैं. केयर टेकर है संभाल लेगी उसे,’’ कह कर खुशमन चला गया.

सारा दिन खुशी यही सोचती रही कि क्या उस का कोई वजूद नहीं? सिर्फ उस की शक्ल देख कर खुशमन ने इसलिए शादी की थी कि उस की एक सुंदर पत्नी है, यह समाज में दिखा सके?

सारी रात खुशी इन गुजरे सालों के बारे में सोचती रही. खाना भी नहीं खाया और न ही खुशमन ने पूछा. वह तो शायद खुशमन के लिए कठपुतली थी. मगर आज तो पानी सिर के ऊपर से गुजर गया था. आज खुशमन ने उसे उस का स्थान दिखा दिया था. पहले भी 2-3 बार वह बेइज्जत हो कर मां के पास गई थी, परंतु फिर खुशमन के कहने पर लौट आई थी. अब उस ने लौट कर न आने का सोची थी. खुशमन के जाने के बाद खुशी ने अपना समान समेटा, चाबी नौकरानी को पकड़ाई और मां के पास चली गई. आज उस की उन्हें जरूरत थी. उस मां को जिस ने उस के इतना काबिल तो बनाया था कि वह अपनी जिंदगी खुद जी सके न कि खुद को अधूरा समझे.

मां ने देखा तो खुश हो कर बोली, ‘‘खुशमन छोड़ कर गया है?’’

‘‘नहीं मां, खुशी को आने के लिए किसी की मंजूरी या साथ की जरूरत थोड़े होती है. वह कब आ जाए पता ही नहीं चलता,’’ खुशी हंसते हुए बोली.

‘‘यह क्या बोले जा रही है?’’ मां बोली, ‘‘कुछ नहीं मां, तुम्हें मेरी जरूरत थी तो मैं आ गई बस.’’ खुशी ने मां का काफी ध्यान रखा. अब मां काफी ठीक हो गई थीं. काफी संभल भी गई थीं. कितना खुदगर्ज था खुशमन. एक बार भी फोन कर के नहीं पूछा.

मां ने एक दिन खुशमन के बारे में पूछा तो खुशी ने भी सच बता दिया. यह भी कह दिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी.

एक दिन सुबह नाश्ता कर के बैठी ही थी कि खुशमन आ गया. बोला, ‘‘क्या नजारे हैं महारानी के…एक तो बिन बताए निकलना और फिर कितनेकितने दिनों तक घर न लौटना…चलो घर… ले जाने को आया हूं. बाहर कार में इंतजार कर रहा हूं…सामान ले कर आ जाओ,’’ एक ही सांस में सब बोल गया. मां की तबीयत के बारे में कुछ नहीं पूछा.

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जैसे ही खुशमन बाहर जाने लगा, खुशी जोर से बोली, ‘‘ठहरिए, खुशमन… आप क्या समझते हो आप जब चाहोगे कुछ भी बोल दोगे… जब चाहोगे घर से निकाल दोगे, जब चाहोगे लेने आ जाएंगे…क्या समझा है आप न मुझे? मैं न तो कोई वस्तु हूं और न ही कोई कठपुतली. मैं एक नारी हूं, जिस का अपना वजूद होता है. वह अपना जीवन जी सकती है. वह कभी अधूरी नहीं होती. उसे अधूरा बनाया जाता है. क्या नहीं कर सकती वह? मैं बताती हूं क्याक्या कर सकती है वह… मांबाप को संभाल सकती है, कमा सकती है, घर संभाल सकती है, इसलिए कभी अधूरा न समझना मुझे. जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती. खुशी भी न कभी अधूरी थी, न है, न रहेगी. इसलिए अब मैं आप के साथ नहीं जाना चाहती और आगे से खुशी के घर में कदम भी मत रखना.’’

खुशमन हैरान हो गया था. उस ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि खुशी ने दरवाजा बंद कर दिया. खुशमन बंद दरवाजा देख कर वहां से धीमेधीमे कदमों से चला गया.

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