सुप्रीम कोर्ट ने एक नए फैसले में दहेज कानून को और सख्त कर दिया है और जो राहत पिछले कुछ फैसलों ने दी थी अब कम कर दी है. इंडियन पीनल कोड की धारा 498 ए आजकल विवाहित औरतों का अत्याचार का मुकाबला करने का कवच नहीं आक्रमण करने का माध्यम बन गई है. पारिवारिक सौहार्द की यदि पत्नी कारण या अकारण बलि देने को तैयार हो तो धारा 498ए के जरीए वह पति और उस के घर वालों को बरसों तक इस तरह तड़पा सकती है कि उन के पास इस ब्लैकमेल के आगे झुकने के और कोई उपाय नहीं होता. एक तरह से यह उस जुल्म की प्रतिक्रिया है जो औरतों ने सदियों सहा है, कभी पिता के हाथों तो कभी पति व उस के घर वालों के हाथों. यह सुरक्षा का आवश्यक अधिकार था और 4-5 दशक पहले होने वाली सैकड़ों दहेज आत्महत्याओं या हत्याओं का नतीजा था. ‘ब्राइड बर्निंग’ शब्द हर जबान पर आ चुका था, क्योंकि शिक्षा और आधुनिक सोच के बावजूद हिंदू समाज में न दहेज कम हो रहा था न विवाह बाद घर आई नई बहू पर अत्याचार.
बहुत ही कम औरतें विवाह के तुरंत बाद पति को अपने प्रेम से जीत पाती थीं. मातापिता, भाईबहनों के प्रभाव में पति न चाहते हुए भी पत्नी को जंजीरों में बांध कर दुधारू गाय की तरह रखते थे, जिस से मुक्ति केवल आत्महत्या थी. जो उद्दंड थीं उन्हें जला देना भी आम हो चला था और 1980 के आसपास यह दर्द महिला हितों की रक्षा करने की मुहिम बन गया था. इंदिरा गांधी के समय विधि आयोग ने कानून में संशोधन का सुझाव दिया कि नववधू की हत्या या आत्महत्या, मारपीट, प्रताड़ना आदि के मामलों को साधारण हत्याओं व हिंसा के साथ न जोड़ा जाए, जो प्राय: घर से बाहर वालों के साथ होते हैं. मंजुश्री सारदा व शैली बलात्कार के मामलों के कारण बनी 498 ए धारा से औरतों को राहत मिली है और आज वधू हत्या न के बराबर हो गई है.
लेकिन अब मामला उलटा भी हो गया है. जब औरत को लगता है कि मामला हाथ से निकल गया है तो अकसर उस का फैसला होता है कि वह खुद तो डूबेगी ही सब को भी ले डूबेगी. आज देश की अदालतों में हजारों मामले चल रहे हैं जिन में पत्नी की शिकायत पर पति, उस के मातापिता, भाईबहन, विवाहित बहनों के पति, चाचाताऊ अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं या फिर जेलों में बंद हैं. पत्नी को लाए हैं तो संभाल कर रखें के सिद्धांत पर विकसित हुआ 498 ए का कानून अब एकतरफा हो गया है और जो कंपकंपी पति के घर में घुसते ही पहले पत्नी में आती थी या सास की दहाड़ के बाद उस में होती थी, अब पति और उस की मां में पत्नी के मुंह बनाने, रूठने या चीखने भर से हो जाती है.
कुछ फैसलों में उच्च न्यायालयों ने इस कानून में मामूली राहतें दी थीं पर इस सोशल एक्शन फौर मानव अधिकार वर्सेस यूनियन औफ इंडिया के मामले के फैसले ने वापस ले लीं हैं और ज्यादातर अधिकार अदालतों के हाथों में दे दिए गए हैं, पुलिस अफसरों से छीन लिए गए हैं. अब पुलिस पैसे ले कर पति व उस के घर वालों को राहत नहीं दे सकती. अब तो वकीलों पर खर्च कर के जजों को कनविंस करना होगा. यह टेढ़ी खीर है और खुली अदालत में हर छूट पर गुस्साई पत्नी आपत्ति कर सकती है. इस परिवर्तन में हजार खामियां हैं पर यह बात पक्की है कि भारतीय समाज को अपना रुख उसी तरह औरतों के प्रति बदलना होगा जैसे अदर बैक्वर्ड कास्टों और दलित कास्टों के प्रति बदलने को मजबूर होना पड़ रहा है.
पत्नी जब 498 ए की शरण लेती है तो उसे मालूम होता है कि उस का जीवन नष्ट होने वाला है. वह अब पति को छूट नहीं देना चाहती, बिलकुल नहीं. सुप्रीम कोर्ट, सही हो या गलत उस के साथ है.