इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी.

पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

वैसे भी उन की कौन देखरेख करता? मैं तो लंदन में बस गई थी. बेटी के ऊपर कोई जोर थोड़े ही होता है, जो उसे प्यार से, जिद कर के भारत लौट आने के लिए कहते. बेटा न होने के कारण अम्मां और पिताजी आंसू बहाने लगते और मैं उनका रोने में साथ देने के सिवा और क्या कर सकती थी.

पहले जब पिताजी दिल्ली में रहते थे तब बहुत आराम रहता था. मेरी ससुराल भी दिल्ली में है. आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. दोपहर का खाना पिताजी के साथ और शाम को ससुराल में आनाजाना लगा ही रहता था. मेरे दोनों देवर भी बेचारे इतने अच्छे हैं कि अपनी कारों से इधरउधर घुमाफिरा देते.

अब इस बार मालूम हुआ कि कितनी परेशानी होती है भारत में सफर करने में. देवर बेचारे तो स्टेशन तक गाड़ी पर चढ़ा देते या आगरा से आते समय स्टेशन पर लेने आ जाते. बाकी तो सफर की परेशानियां खुद ही उठानी थीं. वैसे राकेश को रेलगाड़ी में सफर करना बहुत अच्छा लगता था. स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी होती तो प्लेटफार्म पर खाने की चीजें खरीदने की उस की बहुत इच्छा होती थी. मैं उस को बहुत मुश्किल से मना कर पाती थी.

आगरा में मुझे 3 दिन रुकना था, क्योंकि 10 दिन बाद तो हमें लंदन लौट जाना था. बहुत दिल टूट रहा था. मुझे मालूम था ये 3 दिन अच्छे नहीं कटेंगे. मैं मन ही मन रोती रहूंगी. अम्मां तो रहरह कर आंसू बहाएंगी ही और पिताजी भी बेचारे अलग दुखी होंगे.

पिताजी ने सक्रिय जिंदगी बिताई थी, परंतु अब बेचारे अधिकतर घर की चारदीवारी के अंदर ही रहते थे. कभीकभी अम्मां उन को घुमाने के लिए ले तो जाती थीं परंतु यही डर लगता था कि बेचारे लड़खड़ा कर गिर न पड़ें.

रेलवे स्टेशन पर छोटा देवर छोड़ने आया था. उस को कोई काम था, इसलिए गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. साथ में वह कई पत्रिकाएं भी छोड़ गया था. राकेश एक पत्रिका देखने में उलझा हुआ था. मैं भी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पर अम्मां और पिताजी की बात सोच कर मन बोझिल हो रहा था.

गाड़ी चलने में अभी 10 मिनट बाकी थे तभी एक महिला और उन के साथ लगभग 7-8 साल का एक लड़का गाड़ी के डब्बे में चढ़ा. कुली ने आ कर उन का सामान हमारे सामने वाली बर्थ के नीचे ठीक तरह से रख दिया. कुली सामान रख कर नीचे उतर गया. वह महिला उस के पीछेपीछे गई. उन के साथ आया लड़का वहीं उन की बर्थ पर बैठ गया.

कुली को पैसे प्लेटफार्म पर खड़े एक नवयुवक ने दिए. वह महिला उस नवयुवक से बातें कर रही थी. तभी गाड़ी ने सीटी दी तो महिला डब्बे में चढ़ गई.

‘‘अच्छा दीदी, जीजाजी से मेरा नमस्ते कहना,’’ उस नवयुवक ने खिड़की में से झांकते हुए कहा.

वह महिला अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गई, ‘‘अरे बंटी, तू ने मामाजी को जाते हुए नमस्ते की या नहीं?’’

उस लड़के ने पत्रिका से नजर उठा कर बस, हूंहां कहा और पढ़ने में लीन हो गया. गरमी काफी हो रही थी. पंखा अपनी पूरी शक्ति से घूम रहा था, परंतु गरमी को कम करने में वह अधिक सफल नहीं हो पा रहा था. 5-7 मिनट तक वह महिला चुप रही और मैं भी खामोश ही रही. शायद हम दोनों ही सोच रही थीं कि देखें कौन बात पहले शुरू करता है.

आखिर उस महिला से नहीं रहा गया, पूछ ही बैठी, ‘‘कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘आगरा जा रहे हैं. और आप कहां जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हम तो आप से पहले मथुरा में उतर जाएंगे,’’ उस ने कहा, ‘‘क्या आप विदेश में रहती हैं?’’

‘‘हां, पिछले 15 वर्षों से लंदन में रहती हूं, लेकिन आप ने कैसे जाना कि मैं विदेश में रहती हूं?’’ मैं पूछ बैठी.

‘‘आप के बोलने के तौरतरीके से कुछ ऐसा ही लगा. मैं ने देखा है कि जो भारतीय विदेशों में रहते हैं उन का बातचीत करने का ढंग ही अनोखा होता है. वे कुछ ही मिनटों में बिना कहे ही बता देते हैं कि वे भारत में नहीं रहते. आप ने यहां भ्रमण करवाया है, अपने बेटे को?’’ उस ने राकेश की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘मैं तो बस घर वालों से मिलने आई थी. अम्मां और पिताजी से मिलने आगरा जा रही हूं. पहले जब वे हौजखास में रहते थे तो कम से कम मेरा भारत भ्रमण का आधा समय रेलगाड़ी में तो नहीं बीतता था,’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘आप के पिताजी हौजखास में कहां रहते थे?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिताजी हौजखास में आई.आई.टी. में 20 साल से अधिक रहे,’’ मैं ने कहा, ‘‘अब सेवानिवृत्त हो कर आगरा में रह रहे हैं.’’

‘‘आप के पिताजी आई.आई.टी. में थे. क्या नाम है उन का? मेरे पिताजी भी वहीं प्रोफेसर हैं.’’

‘‘उन का नाम हरीश कुमार है,’’ मैं ने कहा.

मेरे पिताजी का नाम सुन कर वह महिला सन्न सी रह गई. उस का चेहरा फक पड़ गया. वह अपनी बर्थ से उठ कर हमारी बर्थ पर आ गई, ‘‘जीजी, आप मुझे नहीं जानतीं? मैं माधुरी हूं,’’ उस ने धीमे से कहा. उस की वाणी भावावेश से कांप रही थी.

‘माधुरी?’ मैं ने मस्तिष्क पर जोर डालने की कोशिश की तो अचानक यह नाम बिजली की तरह मेरी स्मृति में कौंध गया.

‘‘कमल की शादी मेरे से ही तय हुई थी,’’ कहते हुए माधुरी की आंखें छलछला उठीं.

‘कमल’ नाम सुन कर एकबारगी मैं कांप सी गई. 12 साल पहले का हर पल मेरे समक्ष ऐसे साकार हो उठा जैसे कल की ही बात हो. पिताजी ने कमल की मृत्यु का तार दिया था. उन का लाड़ला, मेरा अकेला चहेता छोटा भाई एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गया था. अम्मां और पिताजी की बुढ़ापे की लाठी, उन के बुढ़ापे से पहले ही टूट गई थी.

कमल ने आई.आई.टी. से ही इंजीनियरिंग की थी. पिताजी और माधुरी के पिता दोनों ही अच्छे मित्र थे. कमल और माधुरी की सगाई भी कर दी गई थी. वे दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे. बस, हमारे कारण शादी में देरी हो रही थी. गरमी की छुट्टियों में हमारा भारत आने का पक्का कार्यक्रम था. पर इस से पहले कि हम शादी के लिए आ पाते, कमल ही सब को छोड़ कर चला गया. हम तो शहनाई के माहौल में आने वाले थे और आए तब जब मातम मनाया जा रहा था.

मैं ने माधुरी के कंधे पर हाथ रख कर उस की पीठ सहलाई. राकेश मेरी ओर देख रहा था कि मैं क्या कर रही हूं.

मैं ने राकेश को कहा, ‘‘तुम भोजन कक्ष में जा कर कुछ खापी लो और बंटी को भी ले जाओ,’’ अपने पर्स से एक 20 रुपए का नोट निकाल कर मैं ने रोकश को दे दिया. वह खुशीखुशी बंटी को ले कर चला गया.

उन के जाते ही मेरी आंखें भी छलछला उठीं, ‘‘अब पुरानी बातों को सोचने से दुखी होने का क्या फायदा, माधुरी. हमारा और उस का इतना ही साथ था,’’ मैं ने सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘यह शुक्र करो कि वह तुम को मंझधार में छोड़ कर नहीं गया. तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बच गया.’’

‘‘दीदी, मैं सारा जीवन उन की याद में अम्मां और पिताजी की सेवा कर के काट देती,’’ माधुरी कमल की मृत्यु के बाद बहुत मुश्किल से शादी कराने को राजी हुई थी. यहां तक कि अम्मां और पिताजी ने भी उस को काफी समझाया था. कमल की मृत्यु के 3 वर्ष बाद माधुरी की शादी हुई थी.

‘‘तुम्हारे पति आजकल मथुरा में हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वे वहां तेलशोधक कारखाने में नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम खुश हो न, माधुरी?’’ मैं पूछ ही बैठी.

‘‘हां, बहुत खुश हूं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. मैं तो खुद ही अपने दुखों का कारण हूं. जब भी कभी कमल का ध्यान आ जाता है तो मेरा मन बहुत दुखी हो जाता है. वे बेचारे सोचसोच कर परेशान होते हैं कि उन से तो कोई गलती नहीं हो गई. सच दीदी, कमल को मैं अब तक दिल से नहीं भुला सकी,’’ माधुरी फूटफूट कर रोने लगी. मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे. कुछ देर बाद हम दोनों ने आंसू पोंछ डाले.

‘‘मुझे पिताजी से मालूम हुआ था कि चाचाचाची आगरा में हैं. इतने पास हैं, मिलने की इच्छा भी होती है, पर इन से क्या कह कर उन को मिलवाऊंगी? यही सोच कर रह जाती हूं,’’ माधुरी बोली.

‘‘अगर मिल सको तो वे दोनों तो बहुत प्रसन्न होंगे. पिताजी के दिल को काफी चैन मिलेगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘पर अपने पति से झूठ बोलने की गलती मत करना,’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘अगर कमल की मृत्यु न होती तो दीदी, आज आप मेरी ननद होतीं,’’ माधुरी ने आहत मन से कहा.

मैं उस की इस बात का क्या उत्तर देती. बच्चों को भोजन कक्ष में गए काफी देर हो गई थी. मथुरा स्टेशन भी कुछ देर में आने वाला ही था.

‘‘तुम को लेने आएंगे क्या स्टेशन पर,’’ मैं ने बात को बदलने के विचार से कहा.

‘‘कहां आएंगे दीदी. गाड़ी 3 बजे मथुरा पहुंचेगी. तब वे फैक्टरी में होंगे. हां, कार भेज देंगे. घर पर भी शाम के 7 बजे से पहले नहीं आ पाते. इंजीनियरों के पास काम अधिक ही रहता है.’’

?तभी दोनों लड़के आ गए. माधुरी का बंटी बहुत ही बातें करने लगा. वह राकेश से लंदन के बारे में खूब पूछताछ कर रहा था. राकेश ने उसे लंदन से ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ भेजने का वादा किया. उस ने अपना पता राकेश को दिया और राकेश का पता भी ले लिया. गाड़ी वृंदावन स्टेशन को तेजी से पास कर रही थी. कुछ देर में मथुरा जंक्शन के आउटर सिगनल पर गाड़ी खड़ी हो गई.

‘‘यह गाड़ी हमेशा ही यहां खड़ी हो जाती है. पर आज इसी बहाने कुछ और समय आप को देखती रहूंगी,’’ माधुरी उदास स्वर में बोली.

मैं कभी बंटी को देखती तो कभी माधुरी को. कुछ मिनटों बाद गाड़ी सरकने लगी और मथुरा जंक्शन भी आ गया.

एक कुली को माधुरी ने सामान उठाने के लिए कह दिया. बंटी राकेश से ‘टाटा’ कर के डब्बे से नीचे उतर चुका था. राकेश खिड़की के पास खड़ा बंटी को देख रहा था. सामान भी नीचे जा चुका था. माधुरी के विदा होने की बारी थी. वह झुकी और मेरे पांव छूने लगी. मैं ने उसे सीने से लगा लिया. हम दोनों ही अपने आंसुओं को पी गईं. फिर माधुरी डब्बे से नीचे उतर गई.

‘‘अच्छा दीदी, चलती हूं. ड्राइवर बाहर प्रतीक्षा कर रहा होगा. बंटी बेटा, बूआजी को नमस्ते करो,’’ माधुरी ने बंटी से कहा.

बंटी भी अपनी मां का आज्ञाकारी बेटा था, उस ने हाथ जोड़ दिए. माधुरी अपनी साड़ी के पल्ले से आंखों की नमी को कम करने का प्रयास करती हुई चल दी. उस में पीछे मुड़ कर देखने का साहस नहीं था. कुछ समय बाद मथुरा जंक्शन की भीड़ में ये दोनों आंखों से ओझल हो गए.

अचानक मुझे खयाल आया कि मुझे बंटी के हाथ में कुछ रुपए दे देने चाहिए थे. अगर वक्त ही साथ देता तो बंटी मेरा भतीजा होता. पर अब क्या किया जा सकता था. पता नहीं, बंटी और माधुरी से इस जीवन में कभी मिलना होगा भी कि नहीं? अगर बंटी लड़के की जगह लड़की होता तो उसे अपने राकेश के लिए रोक कर रख लेती. यह सोच कर मेरे होंठों पर मुसकान खेल गई.

राकेश ने मुझे काफी समय बाद मुसकराते देखा था. वह मेरे हाथ से खेलने लगा, ‘‘मां, भारत में लोग अजीब ही होते हैं. मिलते बाद में हैं, पहले रिश्ता कायम कर लेते हैं. देखो, आप को उस औरत ने बंटी की बूआजी बना दिया. क्या बंटी के पिता आप के भाई लगते हैं?’’

राकेश को कमल के बारे में विशेष मालूम नहीं था. कमल की मृत्यु के बाद ही वह पैदा हुआ था. उस का प्रश्न सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

राकेश घबराया कि उस ने ऐसा क्या कह दिया कि मैं रोने लगी, ‘‘मुझे माफ कर दो मां, आप नाराज क्यों हो गईं? आप हमेशा ही भारत छोड़ने से पहले जराजरा सी बात पर रोने लगती हैं.’’

मैं ने राकेश को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं… जब अपनों से बिछड़ते हैं तो रोना आ ही जाता है. कुछ लोग अपने न हो कर भी अपने होते हैं.’’

राकेश शायद मेरी बात नहीं समझा था कि बंटी कैसे अपना हो सकता है? एक बार रेलगाड़ी में कुछ घंटों की मुलाकात में कोई अपनों जैसा कैसे हो जाता है, लेकिन इस के बाद उस ने मुझ से कोई प्रश्न नहीं किया और अपनी पत्रिका में खो गया.

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