बात भारत की महिला प्रधान फिल्मों की हो तो झट से मिर्च मसाला, दामिनी, चांदनी बार, नो वन किल्‍ड जेसिका, द डर्टी पिक्‍चर, गॉड मदर, बैंडिड क्वीन, कहानी, सात खून माफ, मिका, मार्गरिटा विद द स्ट्रॉ, मसान, ब्लैक, दि गर्ल इन एयो बूट्स, इंग्लिश विंग्‍लिश, निल बटे संन्नाटा, मर्दानी जैसी कितनी ही फिल्मों का नाम सामने आ जाता है.

लेकिन फिल्मों का उद्देश्य बड़ा मायने रखता है. फिल्म की पटकथा दर्शक के मन में क्या भाव पैदा करेगी. इंतकाम, प्यार, तनाव, दुविधा, डर या कुछ और तय इससे होना चाहिए कि वह फिल्म देखनी है या नहीं.

ऐसी ही 10 फिल्मों की बात कर रहे हैं, जिन फिल्मों ने प्रभाव छोड़ा. बदकिस्मती से या जैसे कहें इसमें कुछ फिल्मों को उतनी प्रसिद्ध‌ि नहीं मिली जितनी पिंक को पर जिस किसी ने इन फिल्मों को देखा बाहर आकर इसके बारे में बात की. खासकर के लड़कियों और महिलाओं ने.

1. मातृभूमि (2003)

ले‌खिका व महिला फिल्म निर्देशक मनीषा झा ने 2003 में एक फिल्‍म बनाई थी, 17 दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म “मातृ” फिल्म की टैग लाइन थी, ‘ए नेशन विदाउट वुमन’ यानि कि एक राष्ट्र बिना महिलाओं के. इस बात का जिक्र हमेशा होता रहता है कि अगर लड़कियां न हो तो क्या होगा. मनीषा ने इसी को पर्दे पर उतार दिया. एकदम वैसे ही जैसा हम सोचते हैं. पुरुष अपनी वासना के लिए जानवरों के पास जाने लगते हैं, कहीं से एक लड़की का पता चलता है तो घर की सारी दौलत लगा कर उसे खरीद लेते हैं. फिर बाप समेत 4 चार-चार भाई उसी औरत से अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करते हैं.

फिल्म जिसने देखी वो एक बार को खौंफजदा जरूर हुआ. क्योंकि बात जो अब तक कहते-सुनते आ रहे थे वो सामने होती दिखी तो व्यापक प्रभाव पड़ा. फिल्‍म के देखने के बाद कई लोगों ने भी लड़कियों की गर्भ में हत्या करानी बंद कर दी. इस फिल्‍म से एक लड़की को उसके महत्व का असल अंदाजा होता है. इसे हर लड़की, महिला को देखनी ही चाहिए, पुरुषों के लिए भी यह महत्वपूर्ण फिल्म है.

2. थैंक्स मां (2010)

साल 2010 में आई फिल्म “थैंक्स मां” के निर्देशक-इरफान कमाल ने उन बच्चों की कहानी बताई थी जिन्हें उनकी मां छोड़ देती हैं.

फिल्म की मुख्य भूमिका में कोई महिला नहीं एक 12 साल का बच्चा है, जिसका नाम म्यूनिसिपालिटी है. वह एक, दो दिन के बच्चे को उसकी मां के पास पहुंचाना चाहता है.

क्योंकि वह जानता है बिना मां के दुनिया कैसी होती है. भारत में एक लंबा दौर रहा, बच्चा पैदा करने के बाद उसे किसी नदी नाले या सूनसान जगह पर छोड़ देने का.

क्योंकि वह संतान अवैध रहती थी. इन दिनों इस मामले में गिरावट आई है, जो कि सबके लिए बहुत ही अच्छा है. पर यह मामला खत्म होना बहुत जरूरी है.

3. पिंक (2016)

हालिया फिल्म पिंक चर्चा आपने खूब सुनी. फिल्म की कमाई 60-70 करोड़ के आसपास झूल रही है. जबकि इसी देश में फिल्मों की कमाई 300 करोड़ भी पार करती हैं (पीके, सुल्तान, बजरंगी भाईजान).

चलिए मानते हैं कि बहुत सारे लोगों ने सिनेमाघरों के बजाए लैपटॉप और मोबाइल में पाइरेटेड कॉपी देखा होगा. फिर भी 60 और 300 में पांच गुने का फर्क है.

कहने का आशय है कि फिल्म से अब भी लोगों की पहुंच दूर है. फिल्म का केंद्र मेट्रो शहर यानि दिल्ली, बंगलुरु, कलकत्ता, चेन्नई की लड़कियां हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे गांव की लड़कियों या छोटे शहरों की लड़कियों से कोई लेना देना नहीं है.

फिर यह फिल्म लड़कियों ही नहीं उनकी मम्म‌ियों, उनके भाइयों, उनके पिताओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है.

4. क्वीन

इस दौर में जब भारतीय समाज में थोड़ी जागरुकता बढ़ रही है, लड़कियां बराबरी का जोर पकड़ रही हैं, तब उस आजादी का उपयोग कैसे करें, क्वीन इसे बताती है.

किसी के प्यार में टूटकर उसके आगे गिड़गिड़ाने, या उसके बगैर जिंदगी न जीने की सोचने वालों के लिए क्वीन एक अचंभा है, जब एक लड़की अपने मर्द के बगैर हनीमून पर चली जाती है.

बाद में वही पति जो कभी उसके साथ हनीमून पर जाने से कतराता है, लड़की के हावभाव, अल्हणपन से बचता है, उसकी लड़की के सामने गिड़गिड़ाने की हालत में आ जाता है.

फिल्‍म में कोई बदला नहीं है, इंतकाम के लिए लड़की ऐसा नहीं करती. फिल्म केवल आत्मविश्वास के बारे में है. छोटे शहरों की लड़कियों के लिए या बड़े शहरों के लड़कियों के लिए.

5. एनएच 10

यह फिल्म बदले की कहानी है. एक लड़की इंतकाम लेती है. उससे जिसने उसके पति को कूच-कूच कर मारा. उससे जिसने एक लड़के और एक लड़की को काट डाला, केवल इसलिए कि वह दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे.

एक कहावत है. तब एक लड़की दुर्गा का अवतार लेती है तो महिषासुर को मार डालती है. यह सिर्फ कहावत है. एनएच 10 उसी का वीडियोकरण है.

लेकिन फिल्म बस इतने पर नहीं सिमटती. फूल बने अंगारे से लेकर अंजाम फिल्म तक में यही दिखाया गया है. यह एक कहानी है संघर्ष की. जब एक लड़की असहाय हो जाए, आस-पास के करीब 100 किलोमीटर जंगल में अकेली हो जाए.

उसके पीछे 6 आदमी लग जाएं, उनके पास हथ‌ियार हों और लड़की निहत्‍थी. उसके पति को जान से मार दें. वहां से कैसे एक लड़की टूट जाने के बजाए खुद को उबारे. इसी की कहानी फिल्म में बताई गई है.

6. मदर इंडिया (1957)

जब किसी ‘बाहरी’ व्यक्ति को हिन्दी सिनेमा से परिचित कराया जा रहा हो तो उसे जिन फिल्मों को देखने की सलाह दी जाती है, उनमें नरगिस की ‘मदर इंडिया’ अग्रणी है.

कहते हैं हिन्दी सिनेमा की गहराई भांपनी हो तो एक बार मदर इंडिया जरूर देखनी चाहिए. यहां आप पांएगे कि एक औरत क्या होती है. जब उसका पति सबसे कठिन हालातों में छोड़कर आत्महत्या कर लेता है.

उसक तीन बच्चों में एक खाना न होने के चलते दम तोड़ देता है. दूसरा भूख से दम तोड़ने वाला होता है. वहां उसे अपने बचे दोनों बच्चों के साथ आत्महत्या कर लेना चाहिए जैसे उसके पति ने कर ली. यह फिल्‍म बनाई महबूब खान ने ‌थी.

7. आंधी (1957)

1975 में बनी गुलजार निर्देशित फिल्म ‘आंधी’ के जरिए विवादों की ऐसी आंधी उठी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

कहते हैं फिल्म में सब कुछ वैसे ही था जैसे इंदिरा गांधी की‌ जिंदगी में था. यही नहीं सुचित्रा सेन का पूरा गेटअप उनसे प्रेरित था.

बालों के कुछ हिस्सों की सफेदी वाले हेयर स्टाइल और एक हाथ से साड़ी का पल्लू संभालने और दूसरे हाथ से लोगों को देखकर हाथ हिलाने की उनकी शैली सबकुछ.

इंदिरा भारत की पहली और आखिरी महिला प्रधानमंत्री थीं. हर महिला को उन्हें जानना चाहिए. इसके लिए सबसे कम समय और आसान तरीका यह फिल्‍म हो सकती है.

8. अर्थ (1982)

हिन्दी में विवाहेत्तर संबंध और अंग्रेजी में एक्‍स्ट्रा मैरिटल अफेयर, ये शब्द भारतीय संस्कृति ही नहीं पूरी दुनिया में कहीं अच्छे नहीं माने जाते.

लेकिन बदकिस्मती से भारत कोई अखबार किसी भी दिन उठाकर देंखे आपको ऐसे संबंधों के चलते हो रहे असंख्य अपराधों का अंदाजा लगेगा.

इसी विषय की बहुत गहराई में जाती है फिल्म ‘आंधी’. कहते हैं निर्देशक महेश भट्ट ने इसमें करीब-करीब खुद की जिंदगी उतार दी थी.

अभिनेत्री परवीन बॉबी के साथ उनके विवाहेत्तर संबंध रखने की चर्चाओं के बीच बनी यह फिल्म एक नारी के अंतर्मन के द्वंद को बेहतरीन ढंग से दिखाती है.

9. फैशन (2008)

छोटे शहरों और गांवों से भारी मात्रा में युवा मेट्रो शहरों में आए हैं. अपने मौलिक प्रतिभा से वह औरों की तुलना में जल्दी शिखर पर पहुंच जाते हैं. खासकर के लड़कियां.

लेकिन लंड़कियों का यूं शिखर पर पहुंचना किसी को अच्छा नहीं लगता. फिर लोग आपको शिखर से ढकेलने की हर संभव कोशिश करते हैं.

अब उस लड़की को देखना होता है कि नीचे गिर जाना है या डटे रहना है. मधुर भंडारकर निर्देशित फिल्म “फैशन” की दोनों मुख्य किरादार गिर जाती हैं. एक आत्महत्या कर लेती है, और दूसरी नाटकीय अंदाज से ऊपर आ जाती है.

क्योंकि यह एक फिल्म थी. असल जिंदगी में गिरने के बाद लोग शायद ही उठते हैं. ऐसे में हर लड़की का यह फिल्म देखना इसलिए जरूरी है कि जिंदगी में शिखर से गिरना नहीं है.

10. पीकू (2015)

सुजित सरकार निर्देशित फिल्म ‘पीकू’. इन दिनों लड़कियों और महिलाओं में एक भावना तेजी से बढ़ी है हिंदी में स्वावलंबी और अंग्रेजी में सेल्फ डिपेंडेंट होने की. यह हाल-फिलहाल जाग रही सामाजिक चेतनाओं सबसे बेहतर चेतना है. इस चेनता के इर्द-गिर्द घूमती फिल्म पीकू एक स्वावलंबी बेटी और उसके मरीज पिता की है. जो सिर्फ अपनी नहीं ऑफिस की चिंताओं के साथ अपने मरीज पिता को संभालती है.

घर लौटकर अपने पिता के दवाइयों, उनके मनोभाव में किसी तरह का अवसाद न आए इसलिए उनकी सारी ख्वाहिशें भी पूरी करती है. एक लड़की जिंदगी की जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करने की ओर इशारा करने वाली इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए.

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