बैंक के पास से निकल रहा था कि गुरुजी दिख गए. वहरुपए गिनने में व्यस्त थे और अपने इस काम में इतने तल्लीन थे कि अपने आसपास का उन्हें ध्यान ही नहीं था. अत: उन्हें छेड़ते हुए हम ने कहा, ‘‘गुरुजी, अगर नोट गिनने में परेशानी हो रही हो तो हम भी कुछ मदद करें.’’

गुरुजी ने एक नजर हम पर डाली और बोले, ‘‘अरे, कहां? ये तो बस, थोड़े से ही नोट हैं,’’ फिर अफसोस करते हुए बोले, ‘‘वैसे भी इस माह छुट्टियों के कारण महीने के 12 दिन तो स्कूल बंद ही रहा है. ऐसे में दोपहर भोजन कार्यक्रम का बिल बने भी तो कहां से.’’

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं, इस माह कम छुट्टियां हैं तो मध्याह्न भोजन का बिल ठीकठाक होगा. वैसे भी आप परेशान क्यों हो रहे हैं? यह तो मध्याह्न

भोजन कार्यक्रम का पैसा है, कम हो

या ज्यादा, आप को क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘वह तो है, लेकिन ज्यादा नोट गिनने का अपना ही मजा है, भले ही वह नोट सरकारी ही क्यों न हों,’’ गुरुजी बोले.

‘‘आप भी गुरुजी कहां सरकारी और गैरसरकारी के चक्कर में पड़ गए. जब तक नोट आप की जेब में हैं तब तक तो वह आप की ही संपत्ति हैं अब क्या नोटों पर छपा हुआ है कि वह आप के हैं या सरकारी हैं? और फिर यदि नोट सरकारी हैं तो आप भी तो सरकारी आदमी ही हैं. अब सरकार के आदमी के पास सरकारी संपत्ति नहीं रहेगी तो क्या किसी ऐरेगैरे के पास रहेगी?

वैसे भी यह जिम्मेदारी भरा काम है इसीलिए तो सरकार ने यह जिम्मेदारी आप को सौंपी है,’’ हम ने अपनी ओर से गुरुजी को प्रसन्न करने की कोशिश की.

वह बोले, ‘‘कह तो तुम सही रहे हो.’’

हम ने उन्हें और चढ़ाते हुए कहा, ‘‘वैसे देखा जाए तो अपना कार्य करने के साथसाथ आप लोग तो इस योजना को संचालित कर के समाजहित में एक बड़ा कार्य कर रहे हैं. एक बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’’

‘‘जिम्मेदारी क्या है, व्यर्थ की परेशानी है,’’ फिर सिर झटकते हुए बोले, ‘‘ढेरों हिसाबकिताब रखो, दाल बनवाओ, सब्जी बनवाओ, रोटियां बनवाओ. सुबह से इसी में लगे रहना पड़ता है. ऊपर से बिलवाउचर बनवाओ, कैश बुक मेंटेन करो, आडिट करवाओ. इतना सबकुछ करने पर भी जांच पार्टी आ कर ऐसे जांच करती है जैसे हम ने कितना बड़ा गबन कर लिया हो.

उन्हें संतुष्ट करो, सब को खुश करतेकरते तो यहां जान निकली जा रही है.’’

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‘‘यह सब को खुश क्यों करना पड़ता है?’’ हम चकराए. मेरे इस सवाल पर उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई बेवकूफी भरा प्रश्न कर दिया हो. फिर बोले, ‘‘अब सब तो यहां पीछे पड़े हैं. हर कोई अपना हिस्सा चाहता है. जिसे न दो उसी से बुराई. मध्याह्न भोजन न हुआ मास्टरों को तंग करने का एक नया हथियार हो गया. कभी जिले के शिक्षा विभाग से कोई जांच पार्टी आ रही है, तो कभी ब्लाक से…और कहीं से नहीं तो स्कूल से तो पार्टी कभी भी आ धमकती है. सिर्फ आती ही नहीं है बल्कि ऐसी बारीकी से जांच व पूछताछ करती है कि उन्हें जवाब से संतुष्ट करतेकरते सिर दुखने लगता है. हर दिन हर समय जांच रूपी तलवार सिर पर लटकी ही रहती है.’’

‘‘तो इस में परेशानी की क्या बात है? आप जांच और पूछताछ से इतना घबराते क्यों हैं? अरे, यदि आप सही हैं, आप के काम में कोई खोट नहीं है, तो लाख जांच होने पर भी कोई आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जब आप सबकुछ ठीक कर रहे हैं तो सिरदर्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’’

गुरुजी थोड़ा ढीले हुए, ‘‘नहीं समझे आप. अरे भाई, जब इतनी बड़ी योजना है और हम इतनी मेहनत कर रहे हैं तो थोड़ीबहुत ऊंचनीच, थोड़ाबहुत पतलागाढ़ा तो चलता ही है…और चलाना भी पड़ता है. अब उस में ही आप छानबीन करने लग जाएं कि दाल इतनी पतली क्यों है या सब्जी में आलू इतने कम क्यों हैं, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. अरे भाई, जब सरकार ने भरोसा कर के यह योजना हम शिक्षकों के सुपुर्द की है, तो आप भी तो थोड़ा विश्वास करो, थोड़ा भरोसा करो.’’

हम ने भी मजा लेते हुए पूछा, ‘‘लेकिन गुरुजी, यह पतलेगाढ़े का चक्कर है क्या? जहां तक मुझे पता है कि सारा भोजन एक स्पष्ट दिशानिर्देश के तहत बनाया जाता है, तो फिर उस का पालन करने से भोजन अपनेआप ही स्तरीय बनेगा, पौष्टिक बनेगा और ऐसे में एक बार नहीं लाख बार चैकिंग हो जाए, तो भी कोई आप का कुछ भी गलत नहीं कर सकता.’’

हमारे व्यंग्य को न समझते हुए गुरुजी बोले, ‘‘भैया, दिशानिर्देश तो हमें भी मालूम हैं. हमारे पास सबकुछ लिखित में है, लेकिन आप ही बताइए, कोई कहां तक उन नियमों का पालन करे. वेसे भी व्यावहारिकता में इन का पालन संभव है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या दिक्कत है. जहां तक मुझे मालूम है, सबकुछ एकदम साफ, एकदम पारदर्शी है. फिर कानून के पालन में बुराई भी क्या है?’’

हमारे यह कहने पर वह भड़क कर बोले, ‘‘कानूनों के पालन की आप ने अच्छी चलाई. आप ही बताइए, आज कानूनों का पालन कर कौन रहा है? जिसे जहां मौका मिल रहा है वहीं वह कानूनों को तोड़मरोड़ कर उन की अपने हिसाब से व्याख्या कर रहा है. आज जब हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो फिर आप शिक्षकों से ही कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे नियमों का पालन करें? और वे करें भी तो क्यों करें. आखिर वे भी तो इसी समाज का एक अंग हैं. अब आज यदि उन्हें प्रगति करने, आगे बढ़ने का एक मौका मिला है तो दूसरों के पेट में मरोड़ क्यों हो रही है?’’

उन की बातों का मतलब समझते हुए मैं ने कहा, ‘‘लेकिन उन्नति का यह तो कोई रास्ता नहीं हुआ. वैसे भी समाज आप शिक्षकों से कुछ और ही उम्मीद करता है. आप हमारे पथप्रदर्शक हैं, भावी पीढ़ी के निर्माता हैं. आप लोगों से एक आदर्श प्रस्तुत करने की उम्मीद तो समाज कर ही सकता है. यदि वह भी वही सब करने लगे तो उन में और दूसरों में अंतर ही क्या रह जाएगा?’’

‘‘इन्हीं लच्छेदार बातों से हमें सदियों से बेवकूफ बनाया जाता रहा है,’’ गुरुजी बोले, ‘‘लेकिन अब शिक्षक जागरूक हो गया है. अब वह अपने अधिकारों के प्रति जागृत है. उसे अपने अच्छेबुरे का ज्ञान है. ऐसी बातें कर के उसे अब और बरगलाया नहीं जा सकता.’’

गुरुजी शांत होने का नाम ही नहीं ले रहे थे, अत: बातों का रुख मोड़ने के लिए हम ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाइए, सर्वशिक्षा अभियान तो इन दिनों बड़े जोरशोर से चल रहा है. सब ओर इसी अभियान के चर्चे हैं.’’

वही हुआ जो हम चाहते थे. गुरुजी कुछ शांत हुए, ‘‘हां, इस अभियान के नतीजतन हमारे यहां वर्ग, संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. शाला भवन का निर्माण और रसोईघर (किचिन शेड) निर्माण भी उसी अभियान के अंतर्गत हुआ है. वैसे इस अभियान से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ा है… हर कक्षा में छात्र संख्या में वृद्धि हुई है.’’

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अब यह वृद्धि कैसे हुई और क्यों हुई इस का असली कारण समझते हुए भी हम ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना उचित नहीं समझा. उन की मनोस्थिति भांपते हुए हम ने उन के मुताबिक ही एक प्रश्न किया, ‘‘15 अगस्त से तो हर छात्र बजट बढ़ा कर 1.50 से 2.00 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया है. अब तो योजना का संचालन और भी आसान हो गया होगा.’’

गुरुजी बोले, ‘‘आप ऐसा सोचते हैं पर यह क्यों नहीं देखते कि यदि बजट बढ़ाया गया है तो मीनू में तो दोनों चीजें (दाल व सब्जी) देना अनिवार्य कर दिया गया है. बात तो आखिर वहीं की वहीं रही,’’ फिर सुझाव देते हुए बोले, ‘‘मेरे हिसाब से तो बढ़ती हुई महंगाई को देखते हुए सरकार को इस बजट को और बढ़ाना चाहिए.’’

मन में आया कह दें कि सरकार यदि बजट बढ़ा कर 2 से 5 रुपए प्रति छात्र भी कर दे तो न तो आप का पेट भरेगा और न ही आप संतुष्ट होंगे, क्योंकि स्वार्थ और बेईमानी का गहरा चश्मा आप की आंखों पर चढ़ा हुआ है और जिस के चलते सभी तरह की गलत और अनैतिक गतिविधियों को भी सीना ठोक कर आप जायज बता रहे थे. गरीब बच्चों का पेट काट कर भी अपना पेट और घर भरने की कोशिश कर रहे थे. पर उन से कुछ कहना उन के द्वारा रचित सुख में विघ्न डालना ही होता और ऐसा कह कर हम गुरुजी की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते.

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