प्रशांत को देखते ही प्रभावती की जान में जान आ गई. प्रशांत ने भी जैसे ही मां को देखा दौड़ कर उन के गले लग गया, ‘‘मां, यह कैसी हालत हो गई है तुम्हारी.’’
प्रभावती के गले से आवाज ही न निकली. बहुत जोर से हिचकी ले कर वह फूटफूट कर रो पड़ीं. प्रशांत ने उन्हें रोकने की कोई चेष्टा नहीं की. इस रोने में प्रभावती को विशेष आनंद मिल रहा था. बरसों से इकट्ठे दुख का अंबार जैसे किसी ने धो कर बहा दिया हो.
थोड़ी देर बाद धीरे से प्रशांत स्वयं हटा और उन्हें बैठाते हुए पूछा, ‘‘मां, पिताजी कहां हैं?’’
‘‘अंदर,’’ वह बड़ी कठिनाई से बोलीं. एक क्षण को मन हुआ कि कह दें, पिताजी हैं ही कहां. पर जीभ को दांतों से दबा कर खुद को बोलने से रोक लिया. सच बात तो यह थी कि वह अपने जिस पिता के बारे में पूछ रहा था वह तो कब के विदा हो चुके थे. अवकाश ग्रहण के 2 माह बाद ही या एक तरह से सुशांत के पैरों पर खड़ा होते ही उन की देह भर रह गई थी और जैसे सबकुछ उड़ गया था.
अपनी आवाज की एक कड़क से, अपनी भौंहों के एक इशारे से पिताजी का जो व्यक्तित्व इस्पात की तरह सब के सामने बिना आए ही खड़ा हो जाता था, वह पिताजी अब उसे कहां मिलेंगे.
प्रशांत दूसरे कमरे की ओर बढ़ा तो तुरंत प्रभावती के पैरों पर रजनी आ कर झुक गई और साथ ही 7 बरस का नन्हा प्रकाश. उन्होंने पोते को भींच कर छाती से लगा लिया. मेले में बिछुड़ गए परिवार की तरह वह सब से मिल रही थीं. पूरे 7 साल बाद प्रशांत और रजनी से भेंट हो रही थी. वह प्रकाश को तो चलते हुए पहली बार देख रही थीं. उस की डगमग चाल, तुतलाती बोली, कच्ची दूधिया हंसी, यह सब वह देखसुन नहीं सकी थीं. साल दर साल केवल उस के जन्मदिन पर उन के पास प्रकाश का एक सुंदर सा फोटो आ जाता था औैर उन्हें इतने से ही संतोष कर लेना पड़ता था कि अब मेरा प्रकाश ऐसे दिखाई देने लगा है.
7 साल पहले जब वह कुल 9 माह का था, तभी प्रशांत घर छोड़ कर अपने परिवार को ले कर वहां से दूर बंगलौर चला गया था. इस अलगाव के पीछे मुख्य कारण था प्रशांत और सुशांत की आपसी नासमझी और उन के पिता द्वारा बोया गया विषैला बीज. सुशांत डाक्टर था और प्रशांत कालिज में शिक्षक. बस, यही अंतर दोनों के मध्य उन के पिता के कारण बड़ा होता चला गया और इतना बड़ा कि फिर पाटा न जा सका.
उन के पिता सत्यव्रत शुरू से ही चाहते थे कि दोनों बच्चे डाक्टर बनें. इस के लिए उन्होंने अपनी सीमित आय की कभी परवा नहीं की. उन का बराबर यही प्रयत्न रहा कि उन के बच्चों को कभी किसी चीज का अभाव न खटके.
सत्यव्रत दफ्तर से लौटने के बाद बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देते. उन का पाठ सुनते, उन्हें समझाते, उन की गलतियां सुधारते, उन्हें स्वयं नाश्ता परोसते, उन के कपड़े बदलते, बत्ती जलाते, मसहरी लगाते पुस्तकें खोल कर रखते. बच्चे पढ़तेपढ़ते सोने लगते तो पंखा चला देते. दूध का गिलास थमाते. कभी अपने हिस्से का दूध भी दोनों के गिलास में उडे़ल देते. सोचते, ‘बहुत पढ़ते हैं दोनों. गिलास भर दूध से इन का क्या होगा.’
भविष्य के दर्पण में उन्हें 2 डाक्टर बेटों का अक्स दिखाई पड़ता और वह दोगुनेचौगुने गर्व से झूम उठते. अपने इस सपने को बुनने में बस, इसी बात का कोई ध्यान नहीं रखा कि असल में उन के बेटे क्या चाहते हैं. उन की रुचि किस बात में है, डाक्टर बनने में या इंजीनियर अथवा कुछ और बनने में.
सत्यव्रत इस मामले में एक तानाशाह की तरह थे. जो सोच लिया वह बच्चों को पूरा करना ही है. वह सदा यही सोच कर चलते थे, पर ऐसा हो कहां सका. बड़े लड़के प्रशांत को डाक्टर बनने में कोई रुचि नहीं थी. उस का कविताओं, कहानियों, पेंटिंग, साहित्य में खूब मन लगता था. कई बार वह पढ़ाई के ही मध्य में आड़ीतिरछी लकीरें खींचता पकड़ा जाता था. कभी रेखागणित की आकृतियां बनातेबनाते पन्ने पर कविता लिखने लगता था.
सत्यव्रत की नजर उस पर पड़ जाती तो जैसे आग में घी पड़ जाता. खूब कस कर धुनाई होती उस की. खाना बंद कर दिया जाता. उसे सोने नहीं दिया जाता. यहां तक कि प्यास से उस का कंठ सूखने लगता, पर वह नल में मुंह नहीं लगा सकता था.
वह अकसर कहा करते, ‘साहित्य, पेंटिंग, कविता भी कोई विषय हैं?’
प्रभावती सन्न रह जातीं. हाथ जोड़ कर कहतीं, ‘मेरे बेटे को इतना मत सताओ. उस की तो तारीफ होनी चाहिए कि वह इतनी बढि़या कहानियां लिखता है. तुम्हें कब अक्ल आएगी पता नहीं.’
‘कविता, कहानी से पेट नहीं भरता,’ वह चीख कर कहते, ‘जानती हो न कि कितने कवि और लेखक भूखों मरते हैं?’
वह इतने से ही बस न करते. कहते, ‘मैं जानता हूं, तुम्हीं प्रशांत का दिमाग बिगाड़ रही हो. पर अच्छी तरह समझ लो इसे कवि या शिक्षक नहीं, डाक्टर बनना है. इस का भोजन अभी तो एक दिन ही बंद हुआ है, कभी हफ्ते भर भी बंद किया जा सकता है.’
डर से प्रभावती के हाथ फूल जाते, क्या कहें बेटे को. हर व्यक्ति एक ही बात को आसानी से नहीं सीख सकता. किसी के लिए हिसाब आसान है तो किसी के लिए इतिहास. प्रकृति ने सब की समझ का पैमाना एक कहां रखा है? पर वह यह भेद अपने पति को न समझा पातीं. उन्हें तमाशाई बन कर चुपचाप सबकुछ देखना, सहना पड़ता.
सब से बुरी हालत तो प्रशांत की हो गईर्र् थी. अपनी और पिता की इच्छाओं के मध्य वह झूलता रहता था. न वह कविता लिखना छोड़ सकता था न पिता की तमन्ना पूरी करने से पीछे हटना चाहता था. दिनरात किताब उस की आंखों के आगे लगी रहती थी. इस चक्कर में आंखों पर मोटे फे्रम का चश्मा चढ़ गया था. चेहरे की चमक खो गई थी. वह किसी से कुछ कहता नहीं था. बस, भीतर ही भीतर छटपटाता रहता था.
इस के विपरीत सुशांत की आंखोंं के आगे बस, एक ही सपना तैरता रहता था, डाक्टर बनने का. उस के लिए उसे न पिता से मदद लेने की जरूरत थी न मां से. प्रशांत को बड़ी तेजी से पीछे छोड़ता हुआ सुशांत अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था.
सत्यव्रत उसे देखदेख कर निहाल होते रहते थे. पड़ोसियों में बखान करते और दोस्तों से तारीफ करते न अघाते. सुशांत से तुलना कर के वह प्रशांत को नीचा दिखाते रहते. सुशांत प्रशांत से सिर्फ 1 साल ही छोटा था. पर दोनों एक ही कक्षा में थे. दोनों ने एकसाथ ही मेडिकल में दाखिले के लिए तैयारियां की थीं और साथ ही परीक्षाएं दी थीं. नतीजा निकला तो प्रशांत असफल था और सुशांत सफल. सुशांत आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर रवाना हो गया. प्रशांत अपनी असफलता के साथसाथ पिता के व्यंग्य बाणों से घायल अपने कमरे में बंद हो गया.
प्रभावती चीख कर बोली थीं, ‘इसीलिए तो कहा था, इसे जो राह पसंद है उसी पर चलने दो. जिस पढ़ाईर् में इस की रुचि नहीं है उस में धक्के दे कर मत चलाओ.’
‘इस की अपनी कोई राह नहीं है. मेहनत से जी चुराने की सजा इस ने पाईर् है. पूरे समाज में इस ने मेरी नाक कटवा दी है. तुम्हें कुछ पता है कि क्या करेगा यह आगे? कलम घिसेगा कलम, बस.’
‘कौन जानता है, कलम घिसते- घिसते यह कहां से कहां पहुंच जाए. सुशांत ने अगर तुम्हारी डाक्टरी की लाइन पकड़ ही ली है तो क्या हुआ. प्रशांत भी मनचाहे क्षेत्र में कहीं ज्यादा सफल हो. तुम साहित्यकारों, कवियों के महत्त्व को नकारते क्यों हो?’
ऐसी बहसों से सत्यव्रत प्रभावती की ओर से बेटे को मिलने वाली तरफदारी समझते. वह कहते, ‘मैं उसे राह दिखाता हूं तो तुम्हें बुरा लगता है. क्या मेरा बेटा नहीं है वह? किसी भी पौधे के विकास के लिए उस की काटछांट जरूरी है. वही काम मैं भी कर रहा हूं.’
प्रभावती को कहना ही पड़ता, ‘पर काटछांट इतनी अधिक न करें कि पौधे का विकास ही न होने पाए.’
पर अपनी जिद पर अडे़ सत्यव्रत ने प्रशांत से फिर डाक्टरी में प्रवेश की तैयारी कराई, पर नतीजा फिर वही निकला. तीसरी बार प्रशांत ने जबरदस्ती तैयारी नहीं की. मन में पिता के प्रति एक विद्रोह, एक क्रोध लिए प्रशांत उन दिनों भटकने लगा था. न वह ढंग से खातापीता था न सोता था और न घर में रहता था. देर रात तक वह घर से बाहर रहता. यहां तक कि घर के सदस्यों से उस की बातचीत भी बंद हो जाती. पिता की तो वह सूरत भी नहीं देखना चाहता था.
जब सत्यव्रत ने प्रशांत का यह रूप देखा तो धीरेधीरे उस के प्रति उन का रुख बदलता गया. अब वह केवल सुशांत की देखरेख में खोए रहने लगे. प्रशांत की ओर से उन का मन खट्टा हो गया. अपने बेटे के रूप में मात्र कलम घिस्सू की कल्पना न उन से होती थी और न ही किसी के पूछने पर उन से यह परिचय ही दिया जाता था.
कई बार तो वह मित्रों में बस, सुशांत की चर्चा करते. प्रशांत की बात गोल कर जाते. कोई बहुत जोर दे कर प्रशांत से मिलने की चर्चा करता तो उस की मुलाकात सुशांत से करवा कर झट से बहाना बना देते, ‘प्रशांत घर पर नहीं है.’
प्रभावती का मन चूरचूर हो जाता और प्रशांत पंख कटे पंछी सा छटपटाता रह जाता. सत्यव्रत अब जैसे सुशांत के लिए ही जी रहे थे. जब तक सुशांत घर में रहता, वह उस के लिए एकएक चीज का ध्यान रखते.
प्रशांत यह सब देखदेख कर कटता रहता, फिर भी वह पिता की किसी बात का विरोध न करता. भले ही सत्यव्रत उस की रुचि को जिद का नाम दे कर अपने और पुत्र के मध्य निरर्थक विवादों को जन्म दे बैठते.
यह केवल प्रभावती ही समझ सकती थीं कि प्रशांत की रुचि किस चीज में है. ऐसे में वह सदा ही अपने पति को दबा कर रखतीं और प्रशांत के लिए वह सब करतीं जो सत्यव्रत सुशांत के लिए किया करते और चाहतीं कि प्रशांत यही जाने कि पिता ने उस के लिए वह सब किया है.
ऊंची आकांक्षाआें के बीच तनाव की कंटीली दूरियां तय करतेकरते दिन भागते गए. प्रशांत साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुका था और सुशांत डाक्टर बन चुका था. अब दोनों घर पर ही मौजूद रहते. इस का नतीजा यह हुआ कि दोनों भाइयों में मतभेद पैदा होने लगे. गांव और महल्ले वाले भी सत्यव्रत की देखादेखी प्रशांत और सुशांत की तुलना कर उन में नीचे और ऊपर की सीमा खींचने लगे थे.
असल में खींचातानी तो तब शुरू हुई जब सुशांत अपनी डाक्टर पत्नी लाया और प्रशांत अपने ही साहित्य की प्रशंसिका ब्याह लाया. घर में प्रशांत का कम मानसम्मान और सुशांत की अधिक इज्जत प्रशांत की पत्नी को हिलाने लगी थी. स्वयं सुशांत और उस की पत्नी पूनम को भी प्रशांत का यह कह कर परिचय देना कि साहित्यकार है, अच्छा न लगता.
रोजरोज के इस मानअपमान ने प्रशांत को इतना परेशान कर दिया कि एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. तब रजनी की गोद में 9 महीने का प्रकाश था. प्रभावती के चरण छू कर उस ने कहा था, ‘मां, जब भी तुम्हें मेरी जरूरत हो, मुझे बुला लेना.’
प्रशांत के जाने के 1 वर्ष बाद ही सत्यव्रत सेवानिवृत्त हो गए थे. कुछ सालों तक घर आसानी से चलता रहा था. सुशांत और पूनम के हंसीठहाके, सत्यव्रत की परम संतोषी मुद्रा, इन सब के बीच अपने एक पुत्र के विछोह के क्लेश को मौन रूप से झेलती प्रभावती बस, जीती थीं, एक पत्थर की तरह. कभीकभार पत्रपत्रिकाओं में अपने पुत्र की प्रशंसा देखपढ़ कर पलभर के लिए उन्हें सुकून मिल जाता था.
धीरेधीरे समय ने करवट बदली. सुशांत को अपने विषय में शोध के लिए 3 वर्ष अमेरिका जाने का अवसर मिला. वह मांबाप को आश्वासन देता हुआ पूनम के साथ चला गया.
अब घर में केवल सत्यव्रत और प्रभावती के साथ अकेलापन रह गया.
सत्यव्रत किताबें पढ़ कर वक्त काटने लगे थे. घर में जितनी किताबें थीं, सब प्रशांत की सहेजीसंजोई हुई थीं. प्रशांत द्वारा अलगअलग पन्नों पर खींची गई लकीरों को देख और कुछ अपनी ओर से लिखी गई टिप्पणियों को पढ़ कर सत्यव्रत मुसकराते. प्रभावती मन ही मन डरतीं कि ऐसा न हो कि वह पुन: इन पुस्तकों को पढ़ कर प्रशांत का मजाक उड़ाने लगें. पर ऐसा नहीं हुआ. किताबों के साथ वक्त काटने के चक्कर में वह किताबों के दोस्त होते गए. दिन ही नहीं रात में भी कईकई घंटे वह आंखों पर चश्मा चढ़ाए किताबें पढ़ते रहते. कई बार वह चकित हो कर कह उठते, ‘अरे, इन किताबों में तो बहुत कुछ है. मत पूछो क्या मिल रहा है इन में मुझे. मैं तो सोचा करता था कि लोगों का वक्त बेकार करने के लिए इन पुस्तकों में केवल ऊलजलूल बातें भरी रहती हैं.’
प्रभावती चकित हो कर उन्हें सुनतीं, फिर रो पड़तीं. अब कभीकभी वह उस से पूछने भी लगे थे, ‘प्रशांत की कोई रचना अब देखने को नहीं मिलती. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस ने लिखना बंद कर दिया हो. उस से कहो, वह कुछ लिखे. ऐसी ही कोई शानदार चीज जैसी मैं पढ़ रहा हूं.’
कभीकभी तो सत्यव्रत आधी रात को पत्नी को उठा कर कहते, ‘परसों प्रशांत की एक कहानी पढ़ी थी. एक प्रशंसापत्र उसे अवश्य डाल देना अपनी ओर से. इस से हौसला बढ़ता है.’
कभी सत्यव्रत पुरानी बातें ले कर बैठ जाते, ‘मुझ से प्रशांत जरूर नाराज रहता होगा. प्रभावती, मैं ने उसे बहुत बुराभला कहा था इस लिखनेपढ़ने के कारण.’
अब वह खोजखोज कर प्रशांत की रचनाएं पढ़ते.
प्रभावती खुश रहने लगीं. देर से ही, पर सत्यव्रत प्रशांत की सड़ीगली किताबों के ढेर से प्रीत तो कर सके. कभीकभी मन करता कि सत्यव्रत से पूछ लें, ‘लिख दूं प्रशांत को, यहीं आ जाए. कितना सूना लगता है मेरा घर. बच्चों के आने से रौनक हो जाएगी. सुशांत की चिट्ठियां आती हैं तो उन से यही लगता है कि शेर के मुंह खून लग गया है. वह उस पराए देश का गुणगान ही करता रहता है. ऐसा लगता है जैसे वह वहीं बस जाएगा.’
पर कह कहां पातीं. डर लगता कि सत्यव्रत बुरा न मान जाएं. ऐसा न समझें कि वह उन्हें प्रशांत से पराजित करना चाहती है. शायद किसी दिन स्वयं ही कह दें, ‘प्रभा, प्रशांत को बुला लो. वह भी तो हमारा बेटा है. मैं ने उसे बहुत उपेक्षित किया. अब उस का प्रायश्चित्त करूंगा.’
पर सत्यव्रत खुद कभी न बोले. अंदर से कई बार वह उबलतेउफनते प्रशांत से मिलने के लिए उतावले हो उठते पर उसे बुला लेने की बात होंठों पर न लाते.
साल भर तो जैसेतैसे निकला. पर इस के बाद सत्यव्रत के अंदर का तनाव रोग बन कर फूट पड़ा. वह रक्तचाप के साथसाथ दमे की भी गिरफ्त में आ गए.
डाक्टरों ने उन से बहुत अधिक न सोचने, व्यर्थ परेशान न होने की ताकीद कर दी. बारबार प्रभावती को भी हिदायतें मिलीं कि वह अपने पति को व्यस्त रखें और दिमागी तौर पर प्रसन्न रखें. तब प्रभावती स्वयं को रोक न पाईं. वह समझ गईं कि बुढ़ापे के इस अकेलेपन में वह प्रशांत के लिए परेशान हैं. पुत्र को देखनेमिलने के लिए वह तड़प रहे हैं. पर अंदर के संकोच व पिता होने के अभिमान ने उन का मुंह सी रखा है.
तब प्रभावती ने प्रशांत को सब समझा कर पत्र लिख ही दिया. पत्र मिलने में 4-5 दिन लगे होंगे और अब प्रशांत उन की सेवा में वैसे ही उपस्थित हो गया, जैसे आज से पहले कुछ हुआ ही न हो. दमे से खांसते सत्यव्रत से प्रशांत ने उन का हालचाल पूछा तो उन की हालत देखने लायक हो गई. आंखों के दोनों कोर भीग गए. कैसे सिसकी भर कर रो पड़े.
प्रशांत ने उन्हें सहारा दे कर उठाया, ‘‘छि:, पिताजी, रोते नहीं. लीजिए, अपने पोते से मिलिए.’’
सत्यव्रत ने प्रकाश को बड़ी जोर से अपनी छाती से भींच कर आंखें मूंद लीं. थोड़ी देर बाद रजनी ने उन के पैरों का स्पर्श किया तो वह स्वयं को संभाल कर आंखें पोंछने लगे. कुछ मुसकरा कर उसे आशीर्वाद दिया. प्रभावती सत्यव्रत की ओर बढ़ीं और वह प्रकाश को दुलार कर पूछने लगे, ‘‘कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?’’
प्रकाश ने हंस कर बताया, ‘‘तीसरी में.’’
‘‘खूब, और क्याक्या करते हो?’’
‘‘मन लगा कर सितार बजाता हूं. मैं बहुत अच्छा सितारवादक बनूंगा, दादाजी.’’
प्रभावती सन्न रह गईं, कहीं सत्यव्रत बिदक न पड़ें. अभी प्रशांत के प्रति जो थोड़ाबहुत पिघलाव शुरू हुआ है वह फिर हिम न हो जाए. ऐसा हुआ तो वह कभी प्रशांत के साथ रहना पसंद नहीं करेंगे. वह कुछ कहतीं, उस से पहले ही प्रशांत ने थोड़ा झेंप कर सफाई दी, ‘‘क्या कहूं, पिताजी, बहुत चाहता हूं कि यह पढ़ाई ज्यादा करे और शौक कम पूरे करे, पर यह मानता ही नहीं. सोचता हूं कि इसे डाक्टर बना कर अपने डाक्टर न होने की आप की शिकायत दूर कर दूंगा.’’
‘‘कोईर् बात नहीं,’’ सत्यव्रत ने सब की इच्छा के विपरीत प्रभावती से कहा, ‘‘तुम तो अच्छा सितार बजाती हो, प्रभा, तुम इस की मदद करना. यह भी प्रशांत की तरह हमारा नाम रोशन करेगा.’’
प्रभावती की आंखें भर आईं. प्रशांत ने चकित हो कर पूछा, ‘‘मगर सितार बजाने भर से यह क्या कर लेगा, पिताजी?’’
सत्यव्रत ने बहुत दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है. इस के पंख काट कर इस की उड़ान मत रोको. प्रशांत, जो गलती कल मैं करता रहा, उसे आज तुम मत दोहराओ. मन के सुर जिस प्रकार बजना चाहते हैं उन्हें उसी प्रकार बजने दो. यह मत समझो कि यह डाक्टर- इंजीनियर नहीं बन सका तो इस की उड़ान खत्म हो गई. नहीं बेटे, नहीं. यह सोचना बड़ी भूल है.
‘‘मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हारी कला को कोई विकास नहीं दे सका. अगर मैं ने तुम्हारी कोई मदद की होती तो आज तुम वहां होते, जहां 20 साल बाद होगे. हम अपनी इच्छा मनवाने के चक्कर में भूल जाते हैं कि जिसे ऊपर उठना होता है, वह अपना क्षितिज स्वयं ही ढूंढ़ लेता है. तुम्हीं बोलो, सूरज को आकाश में कौन चढ़ाता है? कोई भी तो नहीं. वह खुद ही ऊंचाइयों की तरफ उठता चला जाता है.
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