अपने अपने शिखर: जुड़वां बहनों की बदलती किस्मत की कहानी

Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-4)

पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-3

‘‘डाक्टर, इंसान कर्तव्य के प्रति कितना भी कठोर हो, लेकिन कभीकभी वह अपने मन की करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए. कभी दिल के किसी कोमल भाव के कारण और कभी स्वार्थवश. मैं ने वह काम भावुकता में किया था और अपने स्वार्थ के लिए भी. वह राज मैं ने दिल में छिपाए रखा. लेकिन जब तक बहुत मजबूरी न हो तो कोई भी इंसान किसी गहरे राज को ले कर मरना नहीं चाहता. किसी को तो बताने का मन करता ही है. अभी तक मैं ने उस बात का जिक्र किसी से नहीं किया था, लेकिन डाक्टर आप ने बात छेड़ी है तो आज मैं आप को बताना चाहती हूं. आप का नेचर मुझे बहुत अच्छा लगता है इसलिए. हालांकि उस बात से अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. बहुत साल हो गए, पता नहीं कौन कहां होगा. फिर भी मैं आप से एक वादा चाहूंगी कि उस घटना को आप एक डाक्टर की हैसियत से नहीं, एक खुले दिल के इंसान के रूप में सुनें.’’

‘‘वादा,’’ साखी ने अपना दाहिना हाथ मेट्रेन मारिया की ओर बढ़ाया.

मेट्रेन मारिया ने साखी का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया और कहा, ‘‘मैं रावनवाड़ा के हौस्पिटिल में नर्स थी और उस वक्त यंग थी. मेरा अल्बर्ट से अफेयर था. अल्बर्ट टैंपरेरी ड्राइवर था हौस्पिटल में. उस की सरकारी ड्राइवर की पक्की नौकरी का चक्कर चल रहा था. उन्हीं दिनों एक सरकारी औफिसर की वाइफ डिलिवरी के लिए हमारे हौस्पिटल में भरती हुई थीं. अल्बर्ट ने बताया था कि नौकरी देना इन्हीं साहब के हाथ में है. मुझे भरोसा था कि अपनी सेवा से अगर मैं मैडम का दिल जीत सकूं तो अल्बर्ट को नौकरी दिलवा सकती हूं.’’

मेट्रेन मारिया ने गहरी सांस ली. फिर बोलीं, ‘‘उन मैडम का केस कौंप्लिकेटेड था. उन्होंने काफी कोशिशों के बाद एक फीमेल बेबी को जन्म दिया. उस समय एक और प्रैगनैंट लेडी भी डिलिवरी के लिए हौस्पिटल में भरती थीं. उन को जुड़वां लड़कियां पैदा हुईं. एनआईसीयू में तीनों बच्चियां मेरी निगरानी में थीं. मेरे देखते ही देखते सरकारी औफिसर की वाइफ की बेबी नहीं रही. मुझे उस समय पता नहीं क्या सूझा, मैं ने एक जुड़वां बेबी से उसे बदल दिया. शायद मेरे मन में कोई ऐसी भावना रही होगी कि आगे और कोई संतान को जन्म देना उन के लिए बहुत रिस्की है. मैं उन्हें दुखी नहीं देखना चाहती थी, क्योंकि तब मैं उन से अल्बर्ट की नौकरी की सिफारिश न कर पाती. मेरी उस हरकत से उन की गोद सूनी नहीं रही और अल्बर्ट को सरकारी नौकरी मिल गई. बाद में अल्बर्ट ने मुझे धोखा दिया और शादी अपनी एक रिश्तेदार से कर ली. वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है. वह भूलने वाला दिन नहीं है.’’

आगे मेट्रेन मारिया ने क्याक्या कहा, साखी ध्यान से नहीं सुन सकी. वह अपनेआप में खो चुकी थी. बीते दिनों को याद कर साखी देर तक सो न सकी. रात के सन्नाटे में तेज रोशनी से नहाई पत्थर कोठी को उस ने कई बार देखा. पत्थर कोठी के पास या उस के अंदर जाने का उसे कभी अवसर नहीं मिला था. सोचती रही कि सांची का सच से सामना कैसे करा पाऊंगी? सोचतेसोचते उसे कब झपकी लगी, पता नहीं चला.

सुबह तैयार हो कर चर्च जाने के लिए निकलने ही वाली थी कि डोरबैल बजी. देखा तो दीना था. विनम्रता से बोला, ‘‘पत्थर कोठी वाली बीबीजी ने गाड़ी भेजी है. आप को बुलाने के लिए. प्लीज आप चलिए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘साहब के बेटे की तबीयत खराब है.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘बुखार है.’’

‘‘तबीयत ज्यादा खराब तो नहीं?’’

‘‘नहीं, ज्यादा तो नहीं लगती. बीबीजी डाक्टर को बुलाने को कह रही थीं तो मैं आप को बुलाने चला आया.’’

यह सुन कर उसे अच्छा लगा. दीना से फोन मिला कर बात कराने को कहा.

साखी फोन पर बोली, ‘‘हैलो मैडम, बच्चे का बुखार कैसा है?’’

‘‘अब शायद नौर्मल है. सो रहा है.’’

‘‘चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं आ रही हूं… और मैडम, क्या मैं आप को हैप्पी बर्थडे बोल सकती हूं?’’

‘‘थैंकयू, आप कौन?’’

‘‘गेस कीजिए.’’ फिर कुछ देर चुप रह कर बोली, ‘‘नहीं पहचाना न? अरे, मैं तुम्हारे बेटे की मौसी बोल रही हूं… साखी… डाक्टर साखी कांत. कोई अपना बर्थडे भूल सकता है क्या?’’

साखी फोन रख कर दीना को डाक्टरी बैग उठाने का इशारा करते हुए तेजी से बाहर निकली. कौटेज के बाहर बत्ती वाली चमचमाती सफेद कार खड़ी थी. ड्राइवर ने आदर में झुक कर कार का दरवाजा खोल दिया. वह अभिवादन स्वीकार करते हुए कार में जा बैठी.

दोनों एकदूसरे को देख लिपट गईं. एक पुरानी सखी को पा कर अति उत्साहित थी तो दूसरी की भावुकता को मापा नहीं जा सकता था. वह अपनी बहन को पा कर आंसू नहीं रोक पा रही थी. ड्राइवर, दीना व अन्य नौकर उन का आगाध प्रेम देखते हुए चुपचाप खड़े खुश हो रहे थे. साखी के अंदर की हलचल शांत नहीं हो पा रही थी. बड़ी मुश्किल से उस ने सामान्य दिखने की कोशिश में सोते हुए बच्चे को गोद में उठा लिया और कहा, ‘‘क्या नाम रखा है बच्चे का?’’

‘‘अशेष.’’

‘‘बहुत प्यार नाम है. जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘आज सुबह ही अचानक उन्हें बाहर जाना पड़ा, कल वापस आएंगे.’’

‘‘ठीक है, आज तुम्हारी और मेरी जौइंट बर्थडे पार्टी है, मेरे कौटेज पर. तुम्हें रात वहीं रुकना होगा, मेरे साथ. बहुत सी बातें करनी हैं. माना अब तुम बड़े औफिसर की बीवी हो, लेकिन उस से पहले मेरी भी कुछ खास हो. फिर आज तो जीजाजी बाहर हैं. आओगी न? हां बोलो हां.’’

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‘‘हां.’’

‘‘अशेष जाग गया था. साखी ने चूमचूम कर उसे बहुत लाड़प्यार किया. फिर बिस्तर पर लेटा कर चैकअप किया और बोली, ‘‘एकदम फर्स्ट क्लास है. एक दवा मैं अपने हाथ से पिलाए देती हूं, दूसरी दोपहर में पिला देना. चिंता की कोई बात नहीं. एकदम फिट रहेगा. शाम को अपनी मौसी और मदर की बर्थडे पार्टी ऐंजौय करेगा. शाम को जल्दी आ जाना और रात मेरे साथ ही रहने का मन बना कर आना. ओ.के.?’’

‘‘ओ.के.’’

साखी ने स्पैशल जौइंट केक बनवा कर केक पर डबल ‘एस’ लिखवाया और दीवार पर भी चमकीले कागज से डबल ‘एस’ चिपकाया. पार्टी में सौम्यता तो थी ही, सांची के आ जाने से भव्यता का भी समावेश हो गया. परिस्थिति ऐसी बनी कि मेट्रेन मारिया इस पार्टी में नहीं थीं. वे कहीं बाहर गई थीं. अगर होतीं तो जौइंट बर्थडे सैलिब्रेशन का कुछ न कुछ अनुमान जरूरी लेतीं.

मेहमानों के जाने के बाद वे दोनों बैड पर लेटी थीं. अशेष गहरी नींद में सो रहा था. सांची की बातें खत्म नहीं हो रही थीं, लेकिन साखी के मन में पिछले बर्थडे पर उजागर हुआ राज घुमड़ रहा था, जिसे वह आज सांची को बताना चाहती थी. वह राज हजम कर पाना उस के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था. वह इस के परिणाम की आशंका से दुविधाओं में घिरी थी. लेकिन इस से अच्छा अवसर और कब मिल सकता था. बैडरूम के एकांत और धीमी रोशनी में उसे अपनी बात कहने का संबल मिल रहा था. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सांची, क्या तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि हम जुड़वां बहनें हैं.’’

‘‘लगता तो है. मैं इस के बारे में अपनी मम्मी से भी पूछ चुकी हूं.’’

‘‘मैं ने जब मैडिकल लाइन का वातावरण देखा तो मुझे भी लगने लगा है कि ऐसी संभावना है.’’

‘‘सचाई कैसे पता चल सकती है साखी?’’

‘‘सचाई पता चल चुकी है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम यकीन करो, हम जुड़वां बहनें ही हैं. चाहो तो डीएनए टैस्ट करवा लो,’’ कहते हुए साखी ने बगल में लेटी सांची को पूरी तरह अपने से लिपटा लिया.

सांची ने आश्चर्य से कहा, ‘‘सच?’’

‘‘हां सच. एकदम सच. मेरी मां की जुड़वां लड़कियां हुई थीं और उसी समय तुम्हारी मम्मी को एक कमजोर लड़की पैदा हुई थी. नवजात शिशु केयर रूम में उस की डैथ हो गई. वहां ड्यूटी पर जो नर्स थी, उस ने स्वार्थवश भावुकता में मृत लड़की को एक जुड़वां लड़की से बदल दिया. वह तुम हो और एक मैं हूं.’’

‘‘कैसे पता चला?’’

‘‘उसी नर्स ने बताया जो उस समय रावनवाड़ा के अस्पताल में थी और अब रिटायर होने वाली है. तुम चाहो तो कभी उस से मिलवा सकती हूं, अगर फिर भी डाउट रहता है तो डीएनए टैस्ट से प्रूव हो जाएगा.’’ सांची असमंजस में पड़ गई.

साखी ने कहा, ‘‘लेकिन अब यह राज अगर हम दोनों के बीच ही रहे तो अच्छा है. नहीं तो हमारे परिवारों में बहुत उथलपुथल होगी जिस का प्रभाव हमारे जीवन पर भी पड़ेगा. इस के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे, सारे समीकरण बदल जाएंगे. तब पता नहीं क्या हो. इसलिए उलझनों से दूर रहना है तो फिलहाल यही उचित होगा कि सिर्फ हमतुम ही जानें कि हम जुड़वां बहनें हैं. सिर्फ हमतुम.’’

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Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-1)

पत्थरकोठी में नए साहब आ गए हैं, यह शहर के लिए नई खबर थी. डाक्टर साखी कांत को तो इस खबर का इंतजार था. यह जान कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ था कि प्रशांत कुमार राय, आईएएस इस संभाग के नए कमिश्नर हो कर आ रहे हैं.

वह यहां के मिशनरी अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञा है. एमडी की डिगरी पाते ही अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से उस ने यहां जौइन किया था. उस के पहले और बाद में इस अस्पताल में कई डाक्टर आएगए. कुछ ने सरकारी नौकरी कर ली, तो कुछ ने धनी बनने की लालसा में अपने नर्सिंग होम खोल लिए.

यहां के वातावरण और अस्पताल प्रशासन के सेवा मिशन से उस का निश्छल मन कुछ ऐसे मिला कि वह यहां ठहर गई या कहा जाए कि यहां रम गई. यहां के शांत और नैसर्गिक हरेभरे वातावरण ने उसे बांध लिया. दिन, महीने, साल बीतते चले गए और समयबद्ध व्यस्त दिनचर्या में उस के 15 वर्ष कैसे बीते पता नहीं चला. अब वह यहां की अनुभवी और सम्मानित डाक्टर है.

चौड़ेऊंचे पठार पर बने अस्पताल के बाहर उसे एक सुसज्जित छोटा सा कौटेज मिला है, जिस के 3 तरफ हराभरा बगीचा और आसपास गुलमोहर और अमलतास के वृक्ष हैं. सामने दूसरे पठार पर चर्च की ऊंची इमारत और चर्च से लगी हुई तलहटी में पत्थरों की चारदीवारी से घिरा कब्रिस्तान है. उस के आगे पहाड़ीनुमा सब से ऊंचे पठार पर दूर हट कर पत्थर कोठी है, जिसे सरकारी भाषा में कमिश्नर हाउस कहा जाता है. चर्च के बगल से लगा हुआ कौन्वैंट स्कूल है. इस ऊंचेनीचे बसे शहर की उतारचढ़ाव व कम आवागमन वाली सड़क घुमावदार है, जो एक छोटे से पुल पर से हो कर गहरी पथरीली नदी को पार करती है. उस की कौटेज से यह नयनाभिराम दृश्य एक प्राकृतिक दृश्य सा दिखाई देता है.

पत्थर कोठी, कब्रिस्तान की चारदीवारी, गिरजाघर और अस्पताल की बिल्डिंग स्लेटी रंग के स्थानीय पत्थरों से बनी है. तलहटी में फैले कब्रिस्तान के सन्नाटे में साखी संगमरमरी समाधियों के शिलालेख पढ़तेपढ़ते इतना खो जाती है कि वहां पूरा दिन गुजार सकती है. वहां से वनस्पतियों और मौसमी फूलों से घिरी उस की कौटेज खूबसूरत पेंटिंग सी लगती है.

डिनर के बाद जब वह फूलों की खुशबू से महकते लौन में चहलकदमी कर रही होती है तो मेहंदी की बाड़ के पार कच्ची पगडंडी पर पत्थर कोठी से लौटता हुआ दीना अकसर दिखाई दे जाता है. दीना पत्थर कोठी में कुक है और कौटेज के पीछे बने स्टाफ क्वार्टर्स में रहता है. वह उस के पास आने पर उसे नमस्ते करता है, जिसे वह मौन रहते हुए सिर हिला कर स्वीकार करती है.

आज उसे दीना का बेसब्री से इंतजार था क्योंकि कब अपने जन्मदिन के फंक्शन पर अच्छा खाना बनाने के अनुरोध के बहाने वह उसे रोक कर उस से बात करना चाहती थी, जिस से पत्थर कोठी का हालचाल जान सके.

दीना काम से छुट्टी पा कर थकावट भरी चाल में कोई अस्पष्ट सा गीत गुनगुनाते हुए लौट रहा था. उस के पास आने पर वह नमस्ते बोल कर ठिठक गया, जैसे कुछ कहना चाह रहा हो. उस के अकस्मात ठहराव को साखी ने अनदेखा नहीं किया. लैंप पोस्ट की रोशनी में ठहरे दीना से उस ने पूछा, ‘‘रुक क्यों गए? कुछ कहना चाहते हो?’’

‘‘जी डाक्टर साहब. आज हमारे नए साहब आ गए हैं. बीबीजी बहुत अच्छी हैं, आप जैसी. आप की बहन सी लगती हैं.’’

‘‘अच्छा, क्या नाम है उन का?’’ वह प्रश्न तो कर गई, परंतु मुसकरा उठी कि इस को कमिश्नर की पत्नी के नाम से क्या लेनादेना. इस के लिए तो बीबीजी नाम ही पर्याप्त है. वह चुप रहा. फिर सिर झुकाए थोड़ी देर खड़ा रह कर चल पड़ा. फिर दीना जब तक ओझल नहीं हो गया वह उसे जाते हुए देखते रही. उस के होंठों पर हंसी आई और ठहर गई. दीना की बात सच है. कौन उन्हें बहनें नहीं समझता था.

दोनों ने तीखे नैननक्श पाए थे और कदकाठी और रूपरंग भी एक से. सगी बहनों सा जुड़ाव था दोनों के बीच. बौद्धिक स्तर भी लगभग समान. कोई किसी से उन्नीस नहीं. संयोग ही था कि दोनों ने कालेज में उस वर्ष जीव विज्ञान वर्ग में 11वीं कक्षा में प्रवेश लिया था और पहले दिन दोनों क्लास में साथसाथ बैठी थीं.

टीचर ने हाजिरी लेते समय पुकारा, ‘‘सांची राय.’’

‘‘यस मैडम,’’ उस की साथी सांची ने हाजिरी दी.

‘‘साखी कांत.’’

‘‘यस मैडम.’’

‘‘टीचर ने मौन साधा और चश्मे को नाक पर नीचे खिसका कर उन की तरफ गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम दोनों जुड़वां हो क्या?’’

‘‘नहीं तो मैडम,’’ सांची ने उत्तर दिया.

‘‘तुम दोनों की डेट औफ बर्थ एक है और दोनों बहन लगती भी हो. नाम भी मिलतेजुलते पर सरनेम अलग,’’ टीचर ने बात वहीं खत्म कर हाजिरी लेना जारी रखा. टीचर की बात पर दोनों एकदूसरे को आश्चर्य से देख गहराई से मुसकराई थीं, जैसे 2 भेदिए एकदूसरे का कोई भेद जान गए हों. पीरियड पूरा होने तक वे जान गईं कि उन का जन्मस्थान भी एक है. लेकिन वे यह नहीं जानती थीं कि उन का जन्म एक ही अस्पताल में हुआ है, लगभग एक ही समय पर.

उन के जन्म पर 2 परिवार खुश थे. बहुत खुश. दोनों के मातापिता का प्रथम परिचय नर्सिंग होम में ही हुआ. उन्होंने एकदूसरे को मिठाइयां खिलाते हुए बताया कि लड़कियां शुभ घड़ी में आई हैं. दोनों के पापा की पदोन्नति की सूचनाएं आज ही मिली हैं और स्थानांतरण के आदेश आते ही होंगे. खुशियों से सराबोर दोनों के द्वारा एकदूसरे को बधाइयां दी गईं और भविष्य में न भूलने का वादा किया गया. तभी दोनों के नामकरण एक ही अक्षर से किए गए सांची और साखी.

सांची राय के परिचय में उस के पिता आनंद भूषण राय के नाम का उल्लेख हो ही जाता. वे महत्त्वपूर्ण सरकारी अधिकारी जो थे. साखी कांत के नाम को पूर्णता उस के पिता के नाम अमर कांत से मिली. उसे अपना नाम अच्छा लगता था और पूर्ण भी, परंतु बहुतों को उस का नाम अधूरा लगता था क्योंकि उस से किसी जाति विशेष का आभास नहीं मिल पाता था. नाम सुन कर लोगों की जिज्ञासा अशांत सी रह जाती. उन का आशय समझ वह बहुत तेज मुसकराती, अपनी बड़ीबड़ी पलकें कई बार झपकाती और हंसी बिखेरते हुए खनकती आवाज में बात को हंसी में उड़ा देती, ‘‘जी, कांत कोई सरनेम नहीं है. मेरे पापा के नाम का हिस्सा है.’’ जिज्ञासु लगभग धराशायी हो जाता.

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Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-3)

पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-2

‘‘देख साखी, मैं सीरियसली बात कर रही हूं और तू बात को हवा में उड़ा रही है. सचसच बोल, कोई है?’’

‘‘है तो पर बताऊंगी नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि तुम अपने बारे में तो कुछ बताओगी नहीं.’’

‘‘कोई हो तो बताऊं.’’

‘‘तो समझ मेरा भी कोई नहीं.’’ फिर थोड़ी सी चुप्पी के बाद बोली, ‘‘अच्छा बताती हूं.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां सच. आनन वर्मा को जानती है?’’ साखी ने पूछा.

‘‘वही आनन, जो अपने साथ बायो की कोचिंग में था, जो तुम्हें चाहता था.’’

‘‘चाहता तो वह दोनों को था, लेकिन तुम से डरता था तुम्हारे पापा के पद के कारण. आजकल यहीं है. मैडिकल में हो नहीं पाया तो बी फार्मा कर रहा है. कभीकभी मिलने आता है. मैं भी एकाध बार गई हूं उस के घर. उस के मांबाप मुझे बहुत चाहते हैं. उस के लिए मेरे दिल में भी सौफ्ट कौर्नर है.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘फिर क्या? मेरी लव स्टोरी यहीं खत्म. यहां पढ़ाई से फुरसत नहीं. तुम क्या समझती हो, यहां बौलीवुड की तर्ज पर मैं प्रेम कहानी तैयार कर रही हूं?’’

‘‘देखो साखी, तुम मेरी बात को हमेशा हवा में उड़ा देती हो.’’

‘‘देखो भई, मैं ने अपनी शादी का काम अपने मम्मीपापा पर छोड़ दिया है. जिस दिन वे मुझ से सुपर लड़का ढूंढ़ कर मुझे बता देंगे, मैं जा कर चुपचाप मंडप में बैठ जाऊंगी. लेकिन मैं जानती हूं कि वे अपनी बिरादरी में सुपर लड़का नहीं ढूंढ़ पाएंगे और इंटरकास्ट मैरिज तो मेरे परिवार में किसी के गले ही नहीं उतर सकती. वैसे एक बात बताऊं सांची, अब मेरी विवाह में कोई खास रुचि बची नहीं है. क्या मिलता है विवाह से? थोड़ी सी खुशी और बदले में झंझटों का झमेला. अगर सब ठीक हुआ तो जिंदगी ठीकठाक कट जाती है वरना पूरी जिंदगी ऐडजस्टमैंट करतेकरते गुजार दो, घुटते हुए. नहीं करो तो बस एक ही गम रहता है कि शादी नहीं हुई. अब तुम बताओ अपनी प्रेम कहानी, लेकिन कमरे में चल कर. यहां खड़ेखड़े थकान होने लगी है.’’

वे कमरे में आ गईं और अधलेटी हो कर बतियाने लगीं.

‘‘साखी, तुम तो जानती हो कि मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता है. जिस चीज की जरूरत हो, हाजिर. अगर कभी बाजार से पेनपैंसिल, किताबकौपी खरीदने का मौका भी मिला तो एक चपरासी अंगरक्षक की तरह साथ में रहता है. अभी तक ऐसा कोई टकराया ही नहीं, जो मुझ से खुल कर कुछ कहे और मुझे भी अभी तक कुछकुछ हुआ नहीं.’’

‘‘तो फिर आज शादी की परिचर्चा क्यों की जा रही है?’’

‘‘इसलिए कि आजकल मेरी शादी के प्रस्ताव बहुत आ रहे हैं. एक से बढ़ कर एक. मेरी बिरादरी में अच्छे रिश्तों की कोई कमी नहीं. कोई बड़ा व्यवसायी है, तो कोई प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार का होनहार. कोई छोटा अधिकारी है, तो कोई बड़ा अधिकारी. मेरे पापा जब से दिल्ली ट्रांसफर हुए हैं, तब से चर्चे कुछ ज्यादा ही हैं. पापा प्रिफर करते हैं कि आईएएस मिले और शायद यह उन के लिए मुश्किल नहीं,’’ सांची ने बिना झिझक के बताया. साखी चुपचाप उस का मुंह देखती रही.

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कुछ महीने बाद साखी को एक भारीभरकम निमंत्रण पत्र मिला, जो सांची के पिता द्वारा भेजा गया था. उस की शादी प्रशांत राय, आईएएस से दिल्ली के एक पंचसितारा होटल में होने जा रही थी. लेकिन शादी की तारीख वाले दिन साखी का पोस्ट ग्रैजुएशन मैडिकल ऐंट्रैंस ऐग्जामिनेशन था, इसलिए चाह कर भी वह शादी में न जा सकी.

जन्मदिन जीवन का खास दिन लगता है. हर साल आता है और चला जाता है. उस के बाद जीवन फिर उसी ढर्रे पर चलने लगता है. लेकिन साखी का पिछला जन्मदिन ऐसा नहीं था. उस दिन वर्षों से पड़ी उस के मन की एक गांठ खुल गई थी. डाक्टर होने के नाते वह अकसर जिस बात को ले कर शंकित रहती थी, परेशान हो उठती थी, उस का समाधान हो गया था. उस के बाद वह सामान्य नहीं रह पाई. बहुत से विचार उस के मस्तिष्क में घुमड़ते रहते थे. पूरा साल ऐसे ही व्यतीत हुआ.

जन्मदिन के अवसर पर साखी सीमित  लोगों को आमंत्रित करती थी, जिस में उस के विभाग में काम करने वाले डाक्टर्स व अन्य काम करने वाले लोग होते थे. उस बार उस ने मेट्रेन मारिया को आमंत्रित कर लिया था. मेट्रेन मारिया उम्रदराज और अनुभवी थीं. मिशन के दूसरे अस्पताल से तरक्की पा कर आई थीं. दीना उन का ही इकलौता बेटा था. कोई स्थायी नौकरी न मिलने के कारण दीना अपनी मां के साथ आया था और छोटेमोटे फंक्शन में कुक का काम कर लेता था. अच्छा कुक होने की तारीफ सुन कर खानपान का जिम्मा दीना को दिया गया था.

अतिथियों के जाने के बाद दीना और उस के सहायक बचा हुआ खाना व सामान समेट रहे थे. मेट्रेन मारिया को दीना के साथ वापस जाना था, इसलिए वे रुकी थीं. गार्डन के एक कोने में पड़ी कुरसियों पर मेट्रेन मारिया और साखी बैठी थीं. समय बिताने के लिए औपचारिक बातचीत में साखी ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘‘मेट्रेन आप कहांकहां रहीं?’’

मेट्रेन मारिया ने कई जगहों के नाम गिनाए. उन में रावनवाड़ा का नाम भी आया. साखी चौंकना पड़ी. साखी का चौंकना मेट्रेन मारिया नहीं देख पाईं. उन्होंने अपना चश्मा उतार लिया था और उंगलियों से अपनी पलकें बंद कर के सहला रही थीं.

‘‘रावनवाड़ा, कब?’’ साखी के मुंह से निकल गया था.

‘‘आप रावनवाड़ा जानती हैं? वह तो कोई मशहूर जगह नहीं.’’

‘‘हां, नाम सुना है, क्योंकि मेरी एक क्लासमेट वहीं की थी,’’ साखी ने सामान्य होते हुए कहा. मेट्रेन ने जो कालाखंड बताया उस में साखी के जन्म का वर्ष भी था. साखी ने शरीर में सनसनी सी महसूस की और सचेत हो कर पूछा, ‘‘मेट्रेन, आप को तो बहुत तजरबा है. नर्स की नौकरी में आप ने बहुतों के दुखसुख और बहुत से जन्म और मृत्यु देखे होंगे. बहुतों के दुखसुख भी बांटे होंगे. कोई ऐसा वाकेआ जरूर होगा, जो आप के जेहन में बस गया होगा.’’

मेट्रेन मारिया कुछ देर को चुप रहीं, जैसे कुछ सोच रही हों. फिर दोनों हाथ उठा कर धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘डाक्टर, मेरे इन हाथों से ऐसा कुछ हुआ है, जिस से एक ऐसी मां की गोद भरी है, जो हमेशा खाली रहने वाली थी. लेकिन जो कुछ मैं ने किया, वह मेरे पेशे के खिलाफ था और मुझे वह बात किसी से कहनी नहीं चाहिए. कम से कम एक डाक्टर के सामने तो बिलकुल ही नहीं.’’ इतना कह कर वे चुप हो गईं. साखी उन के चेहरे के भाव अंधेरे में पढ़ नहीं पा रही थी.

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Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-2)

पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-1

छुट्टी होने पर छात्राओं की भीड़ में वे साथसाथ कालेज के गेट से बाहर आईं. गेट के बाहर चौड़ी सड़क पर नेवीब्लू रंग की यूनीफौर्म में छात्राओं के झुंड थे और उन के स्वरों का कलरव. सड़क के उस पार अपनी कार के पास खड़ी साखी की मम्मी अपनी बेटी को भीड़ में पहचानने की कोशिश कर रही थीं. उन के आने का उद्देश्य अपनी बेटी को घर वापस ले जाने का तो था ही, उस से भी जरूरी था बेटी के रोज आनेजाने की व्यवस्था करना. इस के लिए वे एक औटो वाले से बात भी कर चुकी थीं. बड़े शहर की भीड़भाड़ को ले कर वे चिंतित थीं. जहां उन का निवास था, वहां से कालेज की दूरी काफी थी और उस रूट पर कालेज की बस सेवा नहीं थी.

छात्राओं की भीड़ में उन का ध्यान साखी ने भंग किया, ‘‘मम्मी, मैं इधर. इस से मिलिए, यह है मेरी नई फ्रैंड, सांची…सांची राय.’’

सांची ने प्रणाम के लिए हाथ जोडे़ ही थे कि साखी ने परिचय की दूसरी कड़ी पूर्ण कर दी, ‘‘सांची, ये हैं मेरी मम्मी.. बहुत प्यारी मम्मी.’’

मम्मी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘कहां रहती हो बेटी?’’

‘‘जी, सिविल लाइंस में.’’

‘‘अरे मम्मी छोडि़ए,’’ साखी ने बात काटते और रहस्योद्घाटन सा करते हुए कहा, ‘‘मम्मी, ये मेरी जुड़वां है. इस की और मेरी डेट औफ बर्थ एक ही है और यह भी रावनवाड़ा में पैदा हुई. है न को इंसीडैंट?’’

‘‘अच्छा, वहीं की रहने वाली हो?’’

‘‘नहीं आंटी, उस समय मेरे पापा की पोस्टिंग वहां थी.’’

पास में खड़ी सरकारी गाड़ी का ड्राइवर उन के करीब आ खड़ा हुआ. सांची ने अपना बैग उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘आंटी, ये मेरे पापा के ड्राइवर हैं, मुझे लेने आए हैं.’’

मम्मी ने घूम कर ड्राइवर की ओर देखा और पास खड़ी सरकारी गाड़ी को देखते हुए चौंक कर पूछा, ‘‘तुम ए.बी. राय साहब की बेटी तो नहीं?’’

‘‘जी आंटी.’’

‘‘अरे, तब तो तुम सच में जुड़वां की तरह ही हो. कैसा संयोग है. इतने सालों बाद तुम दोनों एकसाथ खड़ी हो.’’ साखी और सांची के चेहरों पर प्रसन्नता के भाव आ गए थे.

‘‘तब तो तुम ने अपने पापा की गाड़ी से कालेज आयाजाया करोगी?’’

‘‘नहीं आंटी, शायद बस से… लेकिन बस में तो बहुत समय बरबाद होता है. बहुत घूमघूम कर आती है.’’

‘‘तो औटो से आओजाओ न और लड़कियों के साथ. साखी के लिए तो मैं ने एक औटो वाले से बात कर ली है. कहो तो तुम्हारे लिए भी कर लूं, सिविल लाइंस तो रास्ते में ही पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है आंटी, लेकिन पापा से पूछना पड़ेगा. अच्छा नमस्ते आंटी.’’

‘‘नमस्ते बेटा, अपनी मम्मी से मेरा नमस्ते बोलना. मैं उन से मिलने आऊंगी. मेरी उन से बहुत पुरानी पहचान है, उतनी पुरानी जितनी तुम्हारी उम्र है,’’ उन के स्वर में उत्साह आ गया था.

फिर दोनों ने साथ आना, साथ जाना शुरू कर दिया और एक ही कोचिंग में पढ़ते हुए 11वीं, फिर 12वीं की परीक्षाएं लगभग बराबर अंक पा कर पास कीं. दोनों का लक्ष्य था, प्री मैडिकल टैस्ट पास कर के एमबीबीएस करना. दोनों ने गंभीरता से पढ़ाई शुरू कर दी.

परीक्षाएं पूरी होने पर दोनों संतुष्ट थीं, परिणाम के प्रति आशान्वित भी. परिणाम घोषित हुआ तो वे अलगअलग शहरों में थीं क्योंकि अपनेअपने पिता के स्थानांतरण के कारण उन के शहर बदल गए थे. लेकिन समाचारपत्र में छपा अपना अनुक्रमांक व उच्च वरीयता क्रम देख कर साखी की आंखों से खुशियां नहीं आंसू छलके. कारण, सांची के अनुक्रमांक का कहीं अतापता नहीं था. उसे यह बहुत अविश्वसनीय सा लगा. साखी अपने वर्ग की मैरिट लिस्ट में बहुत ऊपर थी. उसे प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ मैडिकल कालेज में प्रवेश मिला.

एक दिन उस का सांची से सामना हो गया. वह अपने परिजनों के साथ किसी रिश्तेदार मरीज को देखने आई थी. उस से मिल कर साखी को अच्छा लगा. वह इतना हताशनिराश नहीं थी, जितना साखी ने सोच रखा था. उस ने बताया कि बी.एससी. के साथसाथ सीपीएमटी की तैयारी कर रही है. बड़ी आशा के साथ उस ने बताया कि वह इसी कालेज में आएगी, उस की जूनियर बन कर.

उस के बाद 2 वर्षों तक साखी को सीपीएमटी के परिणाम के समय इंतजार रहा कि शायद सांची के बारे में कोई अच्छी खबर मिले. लेकिन ऐसी कोई खबर न मिलने पर अपनी ओर से सीधे फोन कर के उस की असफलता का पता लगाना, उसे व्यावहारिक नहीं लगा. कुछ वर्ष बीतने के बाद उसे यहांवहां से पता चला था कि सांची एम.एससी. करने के बाद सिविल सर्विसेज के लिए कोशिश कर रही है. साखी फाइनल की लिखित परीक्षा से मुक्त हो कर वाइवा के तनावों से घिरी थी. पढ़ने का मन बना रही थी कि होस्टल के चौकीदार ने उस के नाम की पुकार दी. नीचे उतरी तो देखा कि सांची थी. उन्मुक्त भाव से दोनों एकदूसरे से लिपट गईं. उस का बैग लेते हुए साखी ने शिकायत की, ‘‘कोई खबर तो दी होती, इस तरह अचानक?’’

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‘‘एक सैमिनार में आई थी. वहां इतना व्यस्त हो गई कि सूचना नहीं दे पाई. फिर सोचा कि चलो आज अपनी पुरानी सखी को सरप्राइज देते हैं. आज रात रुकूंगी तुम्हारे साथ अगर तुम्हें कोई असुविधा न हो तो.’’

‘‘अरे, बिलकुल नहीं,’’ कहते हुए साखी सांची का हाथ पकड़ सीढि़यों की ओर बढ़ने लगी. कमरे में पहुंच कर एक गिलास पानी देते हुए वह सांची से बोली, ‘‘तुम फ्रैश हो लो, मैं मैस से टिफिन मंगवाने का प्रबंध करती हूं. आज यहीं रूम में खाएंगे और खूब बातें करेंगे. मेरा तो पढ़ाई से जी ऊब गया है.’’

खाना खा कर वे खुली हवा में होस्टल की छत पर आ गईं. चांदनी रात थी. मुंडेर पर कोने में टिकते हुए सांची ने छेड़ा, ‘‘ऐ, शादी के बारे में क्या विचार है?’’

‘‘शादी? किस की?’’

‘‘तुम्हारी और किस की?’’

‘‘अरे मम्मीपापा तो पूरी कोशिश में लगे हैं 2-3 साल से. न्यूजपेपर में उन्होंने एड भी दिया, लेकिन अभी तक मेरे योग्य मिला ही नहीं,’’ हंसते हुए साखी ने कहा.

‘‘ये तो कोई नई बात नहीं. मांबाप तो भरपूर कोशिश करते ही हैं इस के लिए. मेरा मतलब है कि तुम ने क्या किया? कोई भाया यहां कालेज में या बाहर?’’

‘‘अरे, यहां कोई कमी है क्या? कितने पीछे लगे रहते हैं. कुछ बैच मेट्स हैं तो कुछ सीनियर्स. कुछ मरीज हैं तो कुछ मरीजों के तीमारदार. एकाध सर भी हैं. बहुत लोग हैं यहां मुहब्बत लुटाने वाले. कितने गिनाऊं तुझे कोई लिस्ट बनानी है क्या?’’

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