Mother’s Day Special: बस कुछ घंटे- क्यों मानने के लिए तैयार नही थी मां

– मंजुला श्रीवास्तव

अस्पताल का वह आईसीयू का कमरा. बैड नंबर 7 अब भी मेरे जेहन में किसी भूचाल से कम हलचल पैदा नहीं करता. हम सब उस के सामने खड़े थे. मौन, सन्नाटे को समेटे हुए अपनेआप में भयभीत. सांसें जोरजोर से चल रही थीं हरपल जैसे एक युग के बराबर गुजर रहा हो. आतेजाते डाक्टरों पर हमारी नजरें टिकी हुई, उन के चेहरे को पढ़ती रहीं.

वह रोने को आतुर थी, पर हम सब उसे दबाए हुए थे. वह हम भाईबहनों में सब से छोटी थी. शादी जैसे बंधन से मुक्त. उस की हर सांस मां की सांसों से जुड़ी थी. जुड़े तो हम भी थे पर फिर भी हमारी गृहस्थी बस चुकी थी.

‘‘कल क्या हुआ था?’’ मैं ने अपने भाई की हथेली को अपनी हथेली में समेटते हुए पूछा. उस ने मुझे भरी हुई नजरों से देखा. फिर मेरा स्पर्श पा बिलख पड़ा बच्चों की तरह. दुधमुंहे बच्चे की तरह अपनी मां की खातिर. कहते हैं न, मां के लिए बच्चा हमेशा बच्चा ही रहता है. उस की आंखों में लाल डोरे खिंच आए थे. मेरी बातें सुन कर उस ने अपनेआप को संयमित किया. फिर बताने लगा, ‘‘कुछ दिनों से मां ठीक नहीं लग रही थीं. ऐसा मैं, छोटी और पिताजी महसूस कर रहे थे. पर हम जब भी पूछते तो वे कहतीं कि मैं ठीक हूं, परेशान न करो. इधर 2 दिनों से वे खाना भी नहीं खा रही थीं. ज्यादा कहने पर बिगड़ जातीं कि खाना मुझे खाना है परेशानी तुम लोगों को है.

‘‘‘मां, लेकिन खाने के बगैर…’ मैं ने कहा था.

‘‘‘जब मुझे भूख लगेगी मैं मांग कर खा लूंगी,’ वे कहतीं. और फिर कल रात वे अचानक बाथरूम जाते वक्त गिर पड़ीं. अचेत अवस्था में थीं जब हम उन्हें यहां ले आए. दीदी, मां ठीक तो हो जाएंगी न,’’ भाई ने मुझ से ऐसे पूछा जैसे मेरे कहने मात्र से मां ठीक हो जाएंगी.

ये भी पढ़ें- बेवफा: दीपक की बहन रागिनी को क्या पता चला था 20 साल बाद

‘‘हां, वे जरूर ठीक हो जाएंगी. हमसब की दुआ उन के साथ है,’’ मैं ने कहा.

कुछ पल हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. एकदूसरे की धड़कन गिनने वाली चुप्पी.

कुछ देर बाद भाई ने मुझे थपथपाते हुए कहा, ‘‘दीदी, मां की स्थिति ठीक नहीं है. सांसें बड़ी मुश्किल से ऊपर चढ़ पाई हैं. डाक्टरों ने बताया है कि उन के हृदय की धमनियां लगभग ब्लौक हो चुकी हैं. इस स्थिति में उन का बचना शायद…’’

‘‘भैया, ऐसा मत बोलो,’’ इस बार मैं टूटती हुई नजर आ रही थी. पुरुष के सीमेंट रूपी धैर्य के आगे मेरा नारी धैर्य बालू की दीवार था जो एक झटके से ढह रहा था और शायद इसी कारण उन्होंने यह मुझे थपथपाते हुए कहा था.

मैं सुबक पड़ी थी. आंसू की बूंदें गोलगोल बनती हुई मेरे गालों पर ढुलक आई थीं.

मां के न रहने की कल्पना हमसब के लिए असहनीय थी. सच पूछो तो मैं ने अपने जीवन के 40 मौसम में मां रूपी मजबूत पेड़ नहीं देखा था जो जिंदगी के आंधीतूफान, यहां तक कि बवंडर को भी सहजता से सह लेता हो. हम छोटे थे तब पिताजी की आय सीमित थी. संयुक्त परिवार में पिताजी को ही सबकुछ देखना पड़ता था.

हम 5 भाईबहनों को पढ़ानालिखाना, दादादादी की रोज नई बीमारियों का सामना करना. दोनों बूआओं की शादी. इतने खर्च में मां अपने लिए कुछ नहीं बचा पातीं. चूड़ीबिंदी जैसी वस्तुएं भी बड़ी मुश्किल से जुट पातीं. फिर भी वे खुश रहतीं. विषम परिस्थितियों में भी हमसब ने मुसकराते हुए देखा था उन्हें.

फिर जैसेतैसे कर के वह भंवर भी टल गया था. पिताजी की आमदनी बढ़ गई थी और खर्चे कम होने लगे. पर मां को अचानक सांस की बीमारी ने जकड़ लिया था. वह समय बिलकुल वैसा ही था जैसे बुझती हुई चिता पर एक मन लकड़ी और रख दी गई हो.

डाक्टरों के कितने चक्कर हमेशा लगते रहते पर बीमारी कम होने का नाम नहीं लेती. डाक्टरों ने कहा, ‘सांस की बीमारी तो सांस के साथ ही जाती है.’

हमसब ने जब यह सुना तो लगा जैसे एकाएक हमसब पर बिजली गिर गई हो.

पर मां पर कोई असर नहीं हुआ था. वे फिर भी खुश रहतीं. अब वे खानेपीने में परहेज करने लगी थीं. दवा समय से लेतीं और व्यायाम करने लगी थीं. वे अपना सब काम खुद करतीं. फिर धीरेधीरे हम तीनों बहनों की शादी हो गई.

समय की गाड़ी चल रही थी. लाख कोशिशों के बावजूद मां की बीमारी बढ़ती ही गई. समयसमय पर डाक्टरों के चक्कर लगने लगे थे. हम जब मां के लिए चिंतित होते तो मां कहतीं, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, चिंता की कोई बात नहीं,’’ वे हमसब को समझातीं, ‘‘इस शरीर को एक दिन खत्म होना ही है. फिर वह चाहे बीमारी से हो या यों ही हो.’’

आईसीयू का दरवाजा खुला, हम सब सतर्क हो गए. बिलकुल वैसे ही जैसे कोई भूचाल आने वाला हो. डाक्टर त्रिवेदी बाहर निकले. मेरा भाई उन की ओर लपका, ‘‘सर…’’

उन्होंने उड़ती नजरों से भाई को देखा और उसे अपने केबिन में आने का इशारा किया. भाई उन के साथ उन के केबिन में गया. हमसब परिवारजन एकदूसरे को देख कर मौन भाषा में पूछ रहे थे कि डाक्टर क्या कहेगा…

कुछ मिनटों बाद भाई दौड़ता हुआ केबिन से लौटा और हमसब के बीच बैंच पर बैठ गया. पूछने के पहले ही वह रो पड़ा. बोला कि मां की स्थिति ठीक नहीं है. डाक्टर ने कहा है कि जिस मशीन की उन्हें आवश्यकता है वह उन के पास नहीं है. या फिर उन्हें वैंटिलेटर पर ले जाना पड़ेगा तब शायद कुछ दिन और…

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: गर्भदान- एक बच्ची के लिए निष्ठुर कैसे हो सकती है मां

यह कह कर वह पिताजी की गरदन से झूल सा गया और जोर से चिल्लाने लगा, ‘‘पिताजी, वैंटिलेटर पर से लौटना भी मां के लिए मुमकिन नहीं है.’’

‘‘मां के बिना जी पाना हमारे लिए मुश्किल है, पिताजी,’’ हमसब भी उस के क्रंदन में शामिल हो गए थे.

समय की रफ्तार में पुरानी डोर, जिस में हमसब पिरोए हुए थे, टूटती नजर आ रही थी.

हम एकएक कर दौड़ पड़े थे आईसीयू के बाहर दरवाजे पर लगे शीशे से देखने के लिए. मां को बैठाया गया था. 4 डाक्टर उन के बैड के आसपास खड़े थे.  आगेपीछे कुछ मशीनें लगी थीं.

सभी लोग मां को शीशे से देख रहे थे लेकिन मैं बाहर खड़ीखड़ी एक डाक्टर से हठ करने लगी, ‘‘मैं अंदर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

डाक्टर ने बड़ी मुश्किल से मुझे अंदर जाने की इजाजत दी. मैं तेज कदमों से अंदर गई मां के पास. मां के मुंह में औक्सीजन लगी थी. आंखें उन की बंद थीं. मैं ने उन के हाथों पर अपनी हथेली रखी और पूछा, ‘‘मां, आप ठीक तो हैं न?’’

उन्होंने ‘हां’ में अपना सिर हिलाया और फिर आंखें बंद कर लीं. डाक्टर ने इशारे से मुझे बाहर जाने को कहा और मैं बाहर आ गई. मन यह मानने को तैयार नहीं था कि मां, बस कुछ घंटों की मेहमान हैं.

मैं ने डाक्टर से कहा कि वे तो कह रही हैं वे बिलकुल ठीक हैं.

वह मुसकराया और बोला, ‘‘सभी मरीज ऐसा ही कहते हैं,’’ वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘लगता है आप सब से बड़ी बेटी हैं इन की.’’

‘‘जी.’’

‘‘तो फिर मैं आप से एक बात कहता हूं कि आप अपने मन को समझा लीजिए, बस कुछ घंटे और.’’

मैं लगभग चिल्ला पड़ी, ‘‘डाक्टर, ऐसा नहीं हो सकता.’’

‘‘तो फिर वैंटिलेटर पर रखिए, शायद…’’

मैं डाक्टर की बातें सुन कर दौड़ती हुई अपनों के बीच आ गई थी. कुरसी पर बैठते ही फूटफूट कर रो पड़ी. फिर अपनेआप को संयमित कर बोली, ‘‘पापा, मां को वैंटिलेटर पर रख देते हैं.’’

पापा हमसब को निहार रहे थे. अपने बाग के माली को जाते हुए देख कर उन का मन रो रहा था. उन के लिए फैसला लेना मुश्किल हो रहा था कि क्या

किया जाए?

तब भाई ने एकाएक फैसला लिया, ‘‘मां वैंटिलेटर पर नहीं जाएंगी,’’ लगा जैसे कोई शक्ति उस का पथप्रदर्शक बन कर खड़ी हो. वह बोला, ‘‘क्योंकि मैं जानता हूं कि वैंटिलेटर से लौटना मां के लिए मुमकिन नहीं.’’

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: गर्भदान- एक बच्ची के लिए निष्ठुर कैसे हो सकती है मां

उस ने अपना फैसला डाक्टर को सुनाया, ‘‘हम इन्हें वैंटिलेटर पर नहीं रख सकते. आप अगर कुछ कर सकते हैं तो करें वरना हम इन्हें कहीं और ले जाएंगे.’’

इस समय वह चट्टान की तरह दृढ़ बन गया था.

कुछ देर डाक्टरों के बीच बातचीत होती रही. फिर उन्होंने कहा, ‘‘वाइपेप मशीन बाहर से आ गई है.’’

डाक्टरों की बातें सुन कर हम एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘कब आई यह वाइपेप मशीन…? कुछ देर पहले तक तो वह यहां नहीं थी और न ही हम ने उस मशीन को लाते देखा, फिर अचानक कहां से…’’

पर यह बहस करने का समय नहीं था. आलीशान नर्सिंगहोम की चारदीवारी के अंदर क्या कुछ होता है यह शायद हमसब को मालूम पड़ गया था.

कुछ देर बाद डाक्टर ने आ कर कहा कि मशीन ठीक से लग गई है और वह ठीक से काम कर रही है.

उस की बातें सुन कर हमारे चेहरे की मायूसी कुछ हटी थी. बवंडर के टलने के संकेत से हमसब शांत थे.

2-3 दिनों बाद हमसब यह सोचने पर विवश हुए कि आखिर कब तक इन्हें ऐसे रखना होगा क्योंकि डाक्टर के कहे अनुसार, मशीन के हटते ही उन का बचना मुश्किल था. सुबह जब नर्सिंगहोम की चार्जशीट आती तो वह हर दिन 4-5 हजार रुपए की होती. महंगीमहंगी दवाएं ही 2-3 हजार की होती थीं उस में. तब मन सोचने पर विवश हो जाता कि क्या इतनी दवाएं प्रतिदिन उन्हें दी जा रही हैं? समझ में नहीं आता.

3 दिन बाद मां हमें बुला कर बोलीं, ‘‘मैं ठीक हूं. तुम लोग मुझे यहां से ले चलो.’’

‘‘मां, लेकिन…’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं और घर जाना चाहती हूं. यहां रहूंगी तो शायद मैं सचमुच मर जाऊंगी.’’

तब हमसब मां के सामने विवश हो गए. हम जानते थे कि मां का दृढ़निश्चय, भरपूर आत्मविश्वास अपनेआप को जीवित रखने के लिए काफी था क्योंकि ‘वे’ वह स्तंभ थीं जिसे तोड़ पाना आसान नहीं था.

आज 4 साल बाद जब मैं उन के पास गई तो वे मुसकराते हुए हमारा स्वागत कर रही थीं. और मैं उन्हें गौर से निहार रही थी.

आज याद आ रहे थे डाक्टर के कहे वे शब्द, ‘बस, कुछ घंटे ही हैं इन के पास.’

ये भी पढ़ें- निर्णय आपका: सास से परेशान बेचारे दामाद की कहानी

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें