भाभी: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

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भाभी- भाग 2: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

थोड़ी देर में वह फिर आ कर मेरे पास बैठ गई, बोली, ‘‘गौरव, तुम आज ही चले जाओ, पता नहीं भाभी किस मुसीबत में हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘हां बेला, यदि मैं ने उन की आज्ञा नहीं मानी तो मैं स्वयं को क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘इतने बड़े भक्त हो भाभी के?’’

‘‘हां, बेला. मेरे लिए वे भाभी ही नहीं, मेरी मां भी हैं, उन का मुझ पर बहुत कर्ज है, बस यों समझ ले, भाभी न होतीं तो मैं आज जो हूं वह न होता, एक आवारा होता और फिर तुम जैसी इतनी सुंदर, इतनी कुशल पत्नी मुझे कहां मिलतीं.’’

‘‘हांहां, बटरिंग छोड़ो, हमेशा भाभी, भाभी की रट लगाए रहते हो.’’

‘‘अरे, मैं बेला, बेला भी तो रटता हूं, पर तुम्हारे सामने नहीं,’’ कह कर मैं मुसकराया.

‘‘दूसरों के सामने बेला ही बेला रहता है मेरी जबान पर, मेरे सारे फ्रैंड्स से पूछ कर तो देखो,’’ कह कर मैं चुप हो गया और सोचने लगा कि हो सकता है कि वहां भाभी का मन न लग रहा हो, टैलीफोन पर रहरह कर भाभी का असंतोष झलकता रहता है, बेटेबहुओं से वे प्रसन्न नहीं. ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? क्या भाभी को यहां ले आऊं? यहां ले आया तो क्या बेला निभा पाएगी उन से? बेला को निभाना चाहिए, उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया है, मुझ जैसे आवारा को एक सफल आदमी बनाया है.

वह घटना रहरह कर मेरी आंखों के सामने घूमती रहती है जब मैं बी.एससी. फाइनल में था. मेरी बुद्धि प्रखर थी, परीक्षा में सदा फर्स्ट आता था, पर कुछ साथियों की सोहबत में पड़ कर मैं सिगरेट पीने लगा था. पैसों की कमी कभी भाभी ने होने नहीं दी. एक दिन…

‘‘भाभी…ओ भाभी.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘जल्दी से एक सौ का नोट निकालो, जल्दी करो, नहीं तो भैया आ जाएंगे.’’

‘‘डरता है भैया से?’’

‘‘हां, उन से डर लगता है.’’

‘‘और मुझ से नहीं?’’ कह कर वे मुसकराईं.

‘‘अरे, तुम से क्या डरना? भाभी मां से भी कोई डरता है?’’ कह कर मैं ने उन की कोली भर ली और उन का एक चुंबन ले लिया.

वे मुसकरा कर गुस्सा दिखाती हुई बोलीं, ‘‘हट बेशर्म कहीं का… बचपना नहीं गया अब तक.’’

‘‘मेरा बचपना चला गया तो तुम बूढ़ी न हो जाओगी, फिर कौन बेटा मां को चूमता है, अच्छा है, यों ही बच्चा बना रहूं.’’

उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘चल हट, ले 100 रुपए का नोट.’’

एक दिन भाभी ने आवाज लगाई, ‘‘गौरव, मशीन लगा रही हूं कपड़े हों तो दे दो.’’

मैं ने अपनी कमीज, पैंट, बनियान उन्हें दे दिए. जब वे कपड़े मशीन में डालती थीं तो पैंट, कमीजों की जेबें देख लिया करती थीं. वे मेरी कमीज की जेब में हाथ डालते हुए बड़बड़ाईं, ‘यह भी नहीं होता इस से कि अपनी जेबें देख लिया करे, देख यह क्या है?’

जेब में सिगरेट का पैकेट था. उसे देख कर वे वहीं माथा पकड़ कर बैठ गईं, गौरव और सिगरेट. वे चिल्लाईं, ‘‘गौरव.’’

‘‘हां, भाभी?’’

‘‘यह क्या है?’’ मुझे पैकेट दिखाते हुए वे लगभग चीखीं.

‘‘यह, यह…’’ और मैं चुप.

‘‘बोलता क्यों नहीं, क्या है यह?’’ कह कर मेरे मुंह पर एक जोर का तमाचा मारा और फिर फफकफफक कर रो पड़ीं.

काफी देर बाद वे चुप हुईं, अपने आंसू पोंछते हुए कुछ सोचती सी मुझ से बोलीं, ‘‘गौरव, सौरी, मैं ने तुम्हें थप्पड़ मारा… अब कभी नहीं मारूंगी. मारने का मेरा हक खत्म हुआ.’’

थोड़ी देर मौन रह कर वे पुन: बोलीं, ‘‘अपने भैया से मत कहना, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ उन्होंने हाथ जोड़ते हुए मेरी ओर कातर नजरों से देखा.

मैं काठ की मूर्ति बना खड़ा रहा. बहुत कुछ बोलना चाहता था, पर मुंह से शब्द नहीं फूटे अपनी सफाई में… मैं कुछ कह भी नहीं सकता था, क्योंकि वह सब झूठ होता, मैं ने सिगरेट पीनी शुरू कर दी थी. बस, इतना ही कह पाया था, ‘‘सौरी भाभी मां.’’

भाभी ने मुझ से बोलचाल बंद कर दी. दिन में 2 बार ही वे मुझे आवाज लगाती थीं, ‘‘गौरव नाश्ता तैयार है, गौरव खाना तैयार है, गौरव कपड़े हों तो दे दो.’’

भाभी मेरे कमरे में आतीं और मेरी मेज पर 100 रुपए का नोट रखते हुए कहतीं, ‘‘और जरूरत हो तो बोल देना.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘जब आप मुझ से कोई संबंध ही नहीं रखना चाहतीं तो रुपए क्यों देती हैं?’’

‘‘इसलिए कि एक ऐब के साथ तुम दूसरे ऐब के शिकार न हो जाओ, चोरी न करने लगो. सिगरेट की तलब बुझाने के लिए तुम्हें पैसों की जरूरत पड़ेगी, पैसे न मिलने पर तुम चोरी करने लगोगे और मैं नहीं चाहती कि तुम चोर भी बन जाओ.’’

‘‘आप की बला से, मैं चोर बनूं या डाकू.’’

इस पर वे बोलीं, ‘‘सिर्फ इंसानियत के नाते मैं नहीं चाहती कि कोई भी नवयुवक किसी ऐब का शिकार हो कर अपनी प्रतिभा को कुंठित करे, तुम मेरे लिए एक इंसान से अधिक कुछ नहीं,’’ कह कर वे चली गईं.

मैं काफी परेशान रहा. फिर सिगरेट न पीने का संकल्प कर लिया. भाभी का स्वास्थ्य दिन ब दिन गिरता जा रहा था. वे पीली पड़ती जा रही थीं, हर समय उदास रहती थीं, जैसे उन के भीतर एक झंझावात चल रहा हो. भैया ने भी कई बार कहा था कि सुमित्रा, क्या तबीयत खराब है? वे हंस कर टाल जाती थीं. उन की बनावटी हंसी से मैं दहल उठता था. एक दिन वे मेरे कमरे में आईं. मेज पर 100 का नोट रखते हुए बोलीं, ‘‘और चाहिए तो बोल देना.’’

जैसे ही वे बाहर जाने को हुईं, मैं ने उन का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘भाभी.’’

उन्होंने झटके से हाथ खींच लिया, बोलीं, ‘‘मत कहो मुझे भाभी, उसे मरे तो काफी दिन हो गए.’’

‘‘माफ नहीं करोगी?’’

‘‘माफ तो अपनों को किया जाता है, गैरों को कैसी माफी? रोजाना इतने जुर्म होते हैं, क्या सभी को माफी देने का ठेका मैं ने ले रखा है? मैं कोई जज हूं, जो अपराधी की अपील को सुन कर उसे माफ कर दूं?’’

‘‘क्या सौमित्र के साथ भी ऐसा ही बरताव करतीं?’’

‘‘अरे, उस से तो यही कहती कि घर से बाहर हो जाओ.’’

‘‘फिर मुझे क्यों नहीं कहा?’’

‘‘तुम मेरे पेट के जाए जो नहीं.’’

‘‘ठीक, यही मैं सुनना चाहता था, मैं तुम्हारा दिखावे का बेटा था, मतलब सगे और पराए में अंतर बना ही रहता है. मैं पराया हूं,

मैं ने भूल की जो आप को अपना समझा. ठीक है, अब मेरा आप का वास्तव में कोई रिश्ता नहीं, अब के बाद आप मेरी सूरत नहीं देखेंगी… गुड बाय,’’ कह कर मैं किताब के पन्ने पलटपलट कर पढ़ने का बहाना करने लगा.

मैं आत्मग्लानि के भंवर में फंसा था, अपराध तो मुझ से हुआ था, इतना बड़ा विश्वासघात? मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे, मैं ने निर्णय किया कि मैं घर छोड़ कर चला जाऊंगा,

जब मांबाप ही नहीं रहे तो भैयाभाभी पर कैसा अधिकार?

अगले दिन भैया दफ्तर चले गए तो मैं ने अपनी पुस्तकें, कुछ कपड़े अटैची में रखे और घर छोड़ कर निकल जाने को तैयार हुआ. भाभी ने देख लिया था कि मैं अटैची लगा रहा हूं. वे कमरे में आईं, ‘‘यह क्या हो रहा है? कहीं जाने की तैयारी है?’’

‘‘हां, आप का घर छोड़ कर जा रहा हूं.’’

‘‘घर आप का भी है, मेरा ही नहीं. इस के आधे के मालिक हैं आप, आप घर छोड़ कर क्यों जाएंगे, घर छोड़ कर तो मुझे जाना चाहिए, क्योंकि असली कसूरवार तो मैं हूं.

भाभी- भाग 1: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

आज सुबहसुबह ही भाभी का फोन आया कि जरूरी बात करनी है, जल्दी आ जाओ और फोन काट दिया. मैं ने चाय का प्याला मेज पर रख दिया और अखबार एक ओर रख कर सोचने लगा कि कोई बात जरूर है, जो भाभी ने एक ही बात कह कर फोन काट दिया. लगता है, भाभी परेशान हैं… सोचतेसोचते मैं अपनी युवावस्था में पहुंच गया जब मैं बी.एससी. का छात्र था.

‘‘अरे, चाय ठंडी हो गई है… क्या सोच रहे हैं?’’ बेला ने आवाज लगाई, तो मैं जैसे सोते से जाग उठा और बोला, ‘‘अरे, ध्यान ही नहीं रहा.’’ मैं ने चाय का प्याला उठाया. चाय वाकई ठंडी हो गई थी. मैं ने कहा, ‘‘पी लूंगा, कोई खास ठंडी नहीं हुई है.’’

‘‘ऐसे कैसे पी लोगे? मैं अभी दूसरी चाय बना लाती हूं,’’ बेला ने मेरे हाथ से चाय का प्याला पकड़ा और फिर ‘न जाने बैठेबैठे क्या सोचते रहते हैं,’ कहती हुई चली गई.

मैं ने अखबार उठा कर पढ़ना शुरू किया ही था कि बेला चाय ले कर आ गई, ‘‘लो, चाय पी लो पहले वरना फिर ठंडी हो जाएगी,’’ कह कर वह खड़ी हो गई.

मैं ने कहा, ‘‘पी लेता हूं भई, अब तुम खड़ी क्यों हो, जाओ अपने काम निबटा लो.’’

‘‘नहीं, पहले चाय पी लो… मैं ऐसे ही खड़ी रहूंगी.’’

‘‘मैं कोई बच्चा हूं?’’

‘‘हां… कुछ भी ध्यान नहीं रहता, न जाने कहां खोए रहते हैं. बताइए न, क्या बात है?’’ कह कर बेला मेरे बराबर वाली कुरसी पर बैठ गई.

मैं ने चाय का घूंट भरा और बोला, ‘‘देखो बेला, कुछ समस्याएं व्यक्ति की पारिवारिक हो कर भी कभीकभी निजी बन जाती हैं. बस, समझ लो कि यह मेरी निजी समस्या है, इसे मुझे ही हल करना है.’’

‘‘अब तुम्हारी कोई भी समस्या निजी नहीं हो सकती, कहीं न कहीं वह मुझ से जुड़ी होगी. अत: मिलजुल कर ही हमें उसे सुलझाना है… अच्छा, बताओ क्या बात है?’’

मैं ने चाय का खाली प्याला मेज पर रख दिया और बोला, ‘‘सुबह ही भाभी का फोन आया था कि कोई जरूरी बात करनी है, ‘जल्दी आ जाओ’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. काफी दिनों से मैं महसूस कर रहा हूं कि भाभी परेशान हैं. लगता है, बेटेबहुओं के साथ कुछ खटपट चल रही है. जब से भैया गए हैं, वे अकेली हो गई हैं… अपने मन की बात किस से करें?’’

‘‘क्यों, बेटेबहुएं उन के अपने नहीं हैं? मंजरी उन की अपनी नहीं है? क्यों नहीं बांट सकतीं वे अपनी परेशानियों को अपने बच्चों के साथ?’’ बेला ने कहा.

‘‘अरे, मंजरी तो अब दूसरे घर की हो गई है. रह गए सौमित्र और राघव, वे दोनों अपने व्यापार और गृहस्थी में मशगूल हैं. तीनों बच्चों में कोई ऐसा नहीं, जिस से भाभी अपने मन की बात कह सकें.’’

‘‘आप हैं न उन की समस्याओं के समाधानकर्ता?’’ बेला ने कहा.

‘‘मैं…हां, मैं हो सकता हूं. मुझे वे अपना मानती हैं, सौमित्र और राघव के साथ वे मुझे अपना तीसरा बेटा मानती हैं. वे बेटों से अकसर कहा करती थीं कि नालायको, तुम बुढ़ापे में हमारे सुखदुख में काम नहीं आओगे. गौरव मेरा तीसरा बेटा है, उस के होते मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत नहीं.’’ कह कर मैं चुप हो गया.

बेला बोली, ‘‘ठीक है, अगर आप कुछ कर सकते हैं तो जरूर करिए… मैं समझती हूं कि उन्हें कोई आर्थिक परेशानी तो नहीं होनी चाहिए. भैया काफी रुपया, बड़ी कोठी, जायदाद छोड़ कर गए हैं. हमारे पास तो उन से आधा भी नहीं. वही पारंपरिक सासबहू या बेटों की समस्या होगी, मुझे तो इस के अलावा कुछ नजर नहीं आता.’’

‘‘लगता तो मुझे भी ऐसा ही है. भाभी बड़े घर की हैं, उन्होंने सदा हुक्म चलाया है, भैया और अपने बच्चों पर ही नहीं, मुझ पर भी. अब जमाना बदल गया है, उन की हुक्मउदूली हो रही होगी, जो उन्हें बरदाश्त नहीं हो रही होगी,’’ कह कर मैं ने बेला की ओर देखा.

‘‘ऐसा करो तुम आज ही चले जाओ… भाभी से मिल कर देखो कि क्या बात है और उसे किस प्रकार सुलझाया जा सकता है,’’ कह कर बेला चली गई.

कालेज के दिनों की मेरी स्मृतियां मेरी आंखों के सामने रहरह कर घूमने लगीं…

‘‘भाभी, ओ भाभी… सुनती हो…’’

‘‘आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो, यही न?’’ कह कर भाभी ने मेरा वाक्य पूरा किया.

‘‘भाभी, सच्चीमुच्ची, आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो कुछ नहीं, बस लग रही हो, मन करता है तुम्हारी कोली भर लूं और तुम्हारी पप्पी ले लूं. भाभी प्लीज, एक पप्पी…’’

‘‘जरूर,’’ कह कर वे आगे बढ़ीं और ‘‘ले पप्पी,’’ कह कर मेरी कमर पर प्यार से धौल जमा दी, ‘‘कैसी लगी?’’

इस पर मैं ने कहा, ‘‘बहुत मीठी.’’

वे चली गईं.

ठीक है, ले कर ही रहूंगा पप्पी, मैं ने उन्हें पीछे से सुनाया. उन से पैसे झटकने का मेरा यह अपना अंदाज था. एक दिन मैं ने उन से कहा, ‘‘भाभी, आज तो गजब ढहा रही हो, बड़ी सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिना किसी बात के ही मैं सुंदर लग रही हूं?’’

‘‘हां भाभी, बिना किसी बात के.’’

‘‘थैंक्स.’’

मैं बोला, ‘‘भाभी, बस थैंक्स और कुछ नहीं?’’

‘‘और क्या… बोलो, लग रही हूं सुंदर? बिना बात तो मैं सुंदर लगती नहीं, मैं ने तो पूछा था, बता क्या बात है, क्यों लग रही हूं

मैं आज सुंदर? तू ने नहीं बताया तो क्या मैं थैंक्स भी नहीं देती?’’ कह कर वे मुसकाईं

और बोलीं, ‘‘अच्छा बता, आज कितने रुपए चाहिए?’’

‘‘चलो, आप जिद कर रही हैं तो बस 1 नोट.’’

भाभी ने झट 5 रुपए का नोट मेरी ओर बढ़ाया.

मैं ने कहा, ‘‘मैं बैरा हूं क्या? फिर 5 रुपए तो आजकल उन्हें भी टिप नहीं दी जाती. मेरी औकात 5 रुपए?’’

‘‘अरे, तो बोल न कितने की औकात है तेरी, 10, 20, 50 कितने की?’’

‘‘50 से आगे गिनती नहीं आती क्या?’’

भाभी ने 100 रुपए का नोट मेरी ओर बढ़ाया और फिर मेरे मुंह पर हलकी सी चपत लगाई और मुसकरा कर चली गईं.

भैया यह सब देख रहे थे. उन्होंने भाभी से कहा, ‘‘देखो सुमित्रा, तुम गौरव को बिगाड़ रही हो, उस से यह भी नहीं पूछतीं कि किसलिए चाहिए, तुझे रुपए?’’

‘‘अरे बच्चा है, अपने सौमित्र और राघव भी तो ऐसे ही जिद करते हैं, गौरव को रुपए दे देती हूं तो क्या हुआ?’’

‘‘इस तरह रुपए दे कर तुम सौमित्र और राघव को भी बिगाड़ोगी तो मैं बरदाश्त नहीं करूंगा. मानता हूं तुम गौरव को बेटे जैसा मानती हो, पर इस तरह बच्चे बिगड़ जाते हैं.’’

उस दिन भाभी का मूड खराब हो गया. वे भैया से बोलीं, ‘‘मेरी अजीब मुश्किल है. गौरव पर सख्ती बरतती हूं तो अजीब सी उथलपुथल मच उठती है दिल में, ढील देती हूं तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता. सोच नहीं पाती हूं कि मुझे क्या करना चाहिए.’’

भाभी जब बैठी हुई होती थीं तो मैं अकसर पीछे से जाता और उन के गले में दोनों बांहें डाल कर उन की पीठ पर झूल जाया करता था.

वे कह उठती थीं, ‘‘हट रे, मेरी जान निकालेगा क्या?’’

मैं कहता, ‘‘क्या भैया से भारी हूं?’’

‘‘तो क्या उन्हें अपनी पीठ पर बैठाती हूं?’’

‘‘पीठ पर नहीं, सिर पर तो बैठाती हो.’’

वे बोलीं, ‘‘अरे, सिर पर तो मैं ने तुझे चढ़ा रखा है. तेरे भैया यही शिकायत करते हैं कि मैं ने तुझे सिर पर चढ़ाया हुआ है, उसे बिगाड़ कर छोड़ेगी.’’

‘‘उन्होंने कभी मेरे मजाक का बुरा नहीं माना. जब तक तुम नहीं आई थीं बेला, भाभी के साथ जिंदगी हंसीमजाक में कटती थी.’’

‘‘फिर रोतेझींकते कटने लगी जिंदगी मेरे साथ, यही कहना चाहते हो न?’’ बेला तुरंत बोली.

मैं ने कहा, ‘‘ऐसा तो मैं नहीं सोचता, लेकिन इतना सुखी, इतना दुविधारहित जीवन मैं ने फिर कभी नहीं देखा, न किसी की फिक्र न फाका. मां तो बचपन में ही मर गई थीं और जब भैया की शादी हुई तो मैं ज्यादा छोटा नहीं था, 10वीं कक्षा में पढ़ता था. मां मुझे बहुत याद आती थीं. लेकिन भाभी के प्यार ने मां की याद भुला दी. मेरे हर सुखदुख की साथी बनीं भाभी.’’

तभी बेला चौंक पड़ी, ‘‘अरे दूध?’’ कह कर रसोई की ओर भागी.

मैं जोर से चिल्लाया, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

‘‘होना क्या था, सारा दूध उबल कर बह गया तुम्हारे भाभीपुराण के चक्कर में.’’

भाभी- भाग 6: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

‘बहुओं की क्यों नहीं आएगी, आखिर बड़े चाव से उन्हें घर लाई हूं, उन के सभी अरमान पूरे कर के मैं ने अपने ही मन की साध पूरी की है, पहनओढ़ कर कितनी सुंदर लगती हैं, जब कभी शृंगार कर लेती हैं तो मेरा मन उन की नजर उतारने को करता है, उन्हें देख कर तो मेरी चाल में एक घमंड उभर आता है. पता है गौरव कभीकभी तो मैं रिश्तेदारों की बहुओं से उन की तुलना करने बैठ जाती हूं कि पासपड़ोस में, रिश्तेदारों में है कोई जो मेरी बहुओं से अधिक सुंदर हो.’’

तभी बेला बोल उठी, ‘‘और भाभी मैं?’’

‘‘अरी, तू किसी और की पसंद की है क्या? तुझे भी तो मैं ही ठोकबजा कर लाई थी, तू किसी से कम कैसे हो सकती है? बहुएं छांटने में मैं ने कोई समझौता नहीं किया, मैं दहेज के लोभ में कभी नहीं आई, बस गुण, शील, सौंदर्य के पीछे ही भागी.’’

तभी फोन की घंटी बजी, तो गौरव ने रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, चाचाजी, प्रणाम. सौमित्र बोल रहा हूं… वहां सब ठीक है?’’

‘‘हां बेटा सब ठीकठाक है और तुम लोग?’’

‘‘यहां सब कुशलमंगल हैं, जरा मां से बात करा दो.’’

‘‘हांहां,’’ कह कर मैं ने भाभी को रिसीवर थमा दिया, ‘‘भाभी, सौमित्र का फोन है.’’

‘‘हैलो मां, प्रणाम.’’

‘‘सुखी रह, इतने दिनों बाद मां की याद आई, नालायक. इतने दिनों तक फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘फोन किसलिए करता, आप कहीं गैर जगह थोड़े ही न गई हैं, अपने तीसरे बेटे के पास गई हैं, बड़े के पास आप हो तो क्या हालचाल पूछता? वैसे मैं उन से बातचीत करता रहता हूं. हां मां, फोन इसलिए किया है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है. परसों ही वे कह रहे थे कि सौमित्र तुम्हारी माताजी को जरूर आना है. आप आ जाइए. कहें तो मैं लेने आ जाऊं? पूछ लीजिए चाचाजी से.’’

भाभी बोलीं, ‘‘अरे गौरव, सौमित्र बुला रहा है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है, आ जाएं, मुझे जाना चाहिए. डा. योगेश हमारे फैमिली डाक्टर हैं, उन से बिलकुल घर जैसे संबंध हैं. सौमित्र पूछ रहा है कि मैं लेने आ जाऊं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं भाभी, वह क्या करेगा आ कर, कल शनिवार है, मेरी छुट्टी है. मैं छोड़ आऊंगा आप को.’’

मैं भाभी को शनिवार की प्रात: आगरा छोड़ कर शाम को ही वापस दिल्ली लौट आया.

उस के बाद जो वहां हुआ उस की खबर मुझे सौमित्र ने एक दिन फोन पर दी.

भाभी… के आदेशानुसार दोनों बहुएं डा. योगेश की लड़की की शादी के लिए सजधज कर तैयार हो गईं.

भाभी ने आदेश दिया, ‘‘अरी, बड़की, छुटकी जल्दी करो, बरात आने का समय हो चला है.’’

दोनों बहुओं ने साड़ी और गहने पहने, शृंगार किया और फिर सिर पर साड़ी का पल्लू रखा, आ कर भाभी के सामने खड़ी हो गईं और बोलीं, ‘‘चलिए मम्मीजी, हम तैयार हैं.’’

बैंकटहाल की सजावट से आंखें चौंधिया रही थीं. ऐसा लगता था मानो बच्चों से ले कर बड़ेबूढ़ों तक सभी नरनारियों की कोई सौंदर्य प्रतियोगिता हो, नवयुवतियां, बहुएं खासतौर से जम रही थीं. सभी की नजर वहां उपस्थित बहुओं पर थी, पर पता ही नहीं लग रहा था कि कौन बहू है, कौन बेटी. हाथ में चूड़ा पहने कोईकोई नववधू तो पहचानी जा सकती थी.

अधिकतर बहुएं, लड़कियां घाघरे पहने थीं, जो फर्श पर घिसटते हुए पोंछा सा लगाते प्रतीत हो रहे थे. कुछ स्त्रियां साड़ी पहने हुए थीं, सभी नंगे सिर, मात्र छोटा सा ब्लाउज पहने थीं. चुन्नी शायद ही किसी के सिर पर हो. यदि किसी के पास चुन्नी थी भी तो वह एक कंधे पर लटकी हुई, मात्र कंधे की शोभा बढ़ा रही थी.

भाभी की दोनों बहुएं, जरी की भारी कीमती साड़ी पहने हुए थीं, सिर साड़ी के पल्लू से ढके थे. भाभी को अपनी बहुएं सब से अलगथलग सी लग रही थीं. अजीब सी दिखाई दे रही थीं, भाभी ने सोचा कि इतने प्यारे लंबे, घने, काले बालों के जूड़े बनाए हुए हैं बहुओं ने… क्या फायदा? सिर ढके हुए हैं.

भाभी को बहुओं का यह रंगढंग कुछ जंचा नहीं. इतनी महंगी साडि़यां पहने हुए हैं बहुएं, जो किसी के पास ऐसी नहीं, लेकिन जो चीप तो नहीं कहनी चाहिए, पर अपेक्षाकृत सस्ती हैं, उन में जो बात नजर आती है, वह बात मेरी बहुओं के परिधान में नहीं दिखाई दे रही थी.

भाभी सारे समारोह का गहराई से निरीक्षण कर रही थीं, सब के हावभाव, एकदूसरे से हंसहंस कर बातें करना, मटकमटक कर चलना. भाभी को लगा कि मेरी बहुएं तो इन के सामने सेठानी सी लग रही हैं. उन्हें बरदाश्त नहीं हुआ, वे बहुओं के पास गईं. वे अकेली बैठी हुई थीं.

भाभी ने धीरे से कहा, ‘‘गवारों की तरह सिर क्यों ढके बैठी हो?’’

बहुओं ने झट से सिर से साड़ी के पल्लू उतार लिए. भाभी को वे पहले से अच्छी लगीं.

घर लौटतेलौटते रात का 1 बजने जा रहा था. रास्ते में भाभी ने कहा, बेटों से पूछा ‘‘तुम लोग कहां थे, दिखाई नहीं पड़े?’’

‘‘वहीं तो थे यारदोस्तों के साथ,’’ सौमित्र ने कहा.

‘‘और बीवियां कहां हैं, यह पता ही नहीं रहा तुम दोनों को? अपनीअपनी पत्नी के साथ क्यों नहीं थे? मैं देख रही थी कि सब अपनीअपनी पत्नी के साथ घूमघूम कर खापी रहे थे. कितना अच्छा लग रहा था. उन के प्यार को देख कर, लगता था कितने खुश हैं ये लोग और तुम्हारा कुछ पता नहीं, कहां छिप गए थे? जरा भी मैनर्स नहीं तुम लोगों में.’’

अगले दिन भाभी ने सुबह ही बहुओं को हुक्म दिया, ‘‘अरी बड़की, छुटकी सुनो, आज मार्केट चलना है, थोड़ी शौपिंग करनी है. खाने से जल्दी निबट लेना.’’

दोपहर के बाद भाभी बहुओं को ले कर एक प्रसिद्ध मौल में पहुंची. सब से पहले साडि़यों के शोरूम में प्रविष्ट हुईं. बोलीं, ‘‘देखो बड़की, छुटकी अपनीअपनी पसंद की कुछ डिजाइनर साडि़यां ले लो.’’

‘‘पर मम्मीजी, हमारे पास तो एक से बढ़ कर कीमती साडि़यों से अलमारियां भरी पड़ी हैं, क्या करना है और साडि़यां ले कर?’’ बड़की ने कहा और पीछे से छुटकी को चुटकी काटी.

छुटकी बोली, ‘‘दीदी ले लेंगी, मुझे नहीं चाहिए.’’

बड़की बोली, ‘‘अरी, मैं बड़ी हूं, तेरे सामने पहनती क्या मैं अच्छी लगूंगी? नहीं, तू ही ले ले.’’

भाभी- भाग 5: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अगली प्रात: मैं भाभी को ले कर दिल्ली आ गया, बेटेबहुओं ने बहुत विनती की कि मां मत जाओ, पर मैं उन्हें यह कह कर ले आया कि मेरा अपना घर भी उन का अपना ही घर है.

भाभी को दिल्ली आए हुए 15 दिन बीत गए. मैं सूक्ष्मता से परख रहा था उन के चेहरे को. मैं ने महसूस किया कि उन के चेहरे की उत्फुल्लता का ग्राफ दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा है और उदासी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है.

मैं ने बेला से पूछा, ‘‘लगता है भाभी की मुखकांति कुछ फीकी सी पड़ने लगी है. क्या तुम भी ऐसा ही सोचती हो?’’

‘‘हां, लगता तो मुझे भी ऐसा ही है.’’

‘‘आखिर क्यों?’’

‘‘कह नहीं सकती गौरव. पर मैं सतर्क हूं कि कोई भी ऐसा काम न करूं, जो उन्हें बुरा लगे. कई बार उन के सामने मेरे मुंह से ‘गौरव’ निकलते निकलते बचा है. मैं जो कुछ भी करती हूं, पहले सोच लेती हूं कि उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा. उन के उठने से पहले सो कर उठ जाती हूं, उन के उठते ही उन के पास जा कर उन के चरणस्पर्श करती हूं, उन के पास बैठ कर पूछती हूं, ‘‘भाभी, नींद ठीक से आई?’’

‘‘हां, बहू, बहुत अच्छी आई.’’

‘‘चाय ले आऊं भाभी?’’

‘‘अभी ठहर जा जरा फ्रैश हो लूं.’’

‘‘रात को जब वे कई बार कहती हैं कि अरी उठ, जा देख गौरव तेरे इंतजार में जाग रहा होगा, जा अब छोड़ मुझे, कब तक मेरे पैर दबाती रहेगी.’’

तब कहीं रात में उन के पास से आती हूं. आज सुबह थोड़ी देर उन के पलंग पर बैठी ही थी तो बोलीं, ‘‘अरी उठ, यहां बैठी रहेगी क्या? जा उठ कर गौरव को चाय दे, उठा उसे, सूरज चढ़ आया है, कब तक सोता रहेगा आलसियों की तरह?’’

‘‘वे तो नहा कर तैयार भी हो चुके.’’

यह सुनते ही वे आंखें फाड़ कर देखने लगीं, ‘‘अच्छा?’’

‘‘हां, भाभी.’’

तभी मैं वहां पहुंच गया. भाभी के चरणस्पर्श किए तो भाभी ने आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘अरे, गौरव आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यही गौरव सुबह कान पकड़ कर उठाने से उठता था और आंखें बंद किएकिए ही चाय का प्याला हाथ में पकड़ लिया करता था और आज वही गौरव…’’

‘‘सच कहूं भाभी, कान पकड़ कर उठाने वाली तो चली गईं और कोई ऐसा है नहीं, जो कान पकड़ कर उठाने की हिम्मत करे?’’

‘‘बेला नहीं है?’’ भाभी बोलीं.

भाभी के इतना कहते ही बेला बोली, ‘‘भाभी, मैं इन के कान पकड़ूं? मेरी तो रूह कांपती है इन के गुस्से से, हर वक्त डरीडरी रहती हूं, तो इन के डर के मारे मैं आप से इन की शिकायत भी नहीं कर सकती. ये बस डरते हैं तो आप से.’’ कह कर बेला चुप हो गई.

मैं बोला, ‘‘सच पूछो तो भाभी, आप की अनुपस्थिति, आप की उपस्थिति से ज्यादा महसूस होती है, हर समय यही लगता है कि भाभी छिप कर देख रही हैं, सावधान रहता हूं कि आप को कुछ बुरा न लग जाए.’’

इस पर बेला बोली, ‘‘सच भाभी, मैं तो हर वक्त डरीडरी रहती हूं कि कहीं भाभी को बुरा न लग जाए,’’

भाभी बोलीं, ‘‘इतनी चिंता करती हो मेरी, हर वक्त डरती हो मुझ से? तुम्हें भी कुछ अच्छा लगता है, यह नहीं सोचती?’’

बेला बोली, ‘‘अपने बारे में तो तब न सोचूं भाभी, जब मुझे आप के बारे में सोचने में कोई कष्ट हो, आप के बारे में सोचने में, आप की भावनाओं की कद्र करने में ही सुख महसूस करती हूं मैं तो. मैं जानती हूं भाभी कि जब मां को अपने बच्चे का टट्टीपेशाब साफ करने में कोई कष्ट नहीं होता तो बड़ा हो कर उस बच्चे के मन में भी क्यों तकलीफ हो मां के लिए कुछ करने में?’’

‘‘नहीं बेला, यह गलत है, मैं क्या हौआ हूं, जो तुम मुझ से हर वक्त डरीडरी सी रहो, बच्चे अपना मन मारें तो क्या मां को अच्छा लगेगा? मैं कोई जेलर हूं? तुम्हें कैदी बना कर रखने में मुझे सुख मिलेगा? ‘‘नहींनहीं, यह सब नहीं चलेगा गौरव. तुम भी सुन लो, अपने को मेरा नौकर समझते हो? क्या मैं चाहती हूं कि मुझ तानाशाह के सामने तुम बाअदब, बामुलाहिजा, पेश आओ? मैं हंटर वाली हूं? क्या समझ रखा है मुझे? मैं देख रही हूं कि तुम लोगों ने घर में एक शून्य फैला दिया है, मरघटी चुप्पी नजर आती है मुझे यहां.

‘‘अरे, यह घर किलकारियों से जब गूंजेगा तब गूंजेगा, लेकिन तब तक तो तुम लोग चहकतेफुदकते रहो, एकदूसरे के शिकवेशिकायत करते रहो. तुम कभी एकदूसरे की शिकायतें क्यों नहीं करते? अरे, छोटों की शिकायतें सुनने और उन का फैसला करने में भी एक सुख होता है.

‘‘मुझे तुम उस से वंचित रख रहे हो. क्या मैं देख नहीं रही हूं बेला कि तुम गौरव को टाइम नहीं देती. गौरव शाम को लौटता है, तुम मुझ से चिपकी बैठी रहती हो, वह चुपचाप आता है, कपड़े बदल कर चुपचाप नौकर से चाय को कह देता है और अकेला अपने कमरे में चाय पी लेता है.

‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग मेरे सामने न खिलखिला कर हंसते हो, न ही एकदूसरे के साथ अपनत्व की बातें करते हो, मुझे सब कुछ बनावटी लगता है. दिखावट क्या अच्छी लगती है?

‘‘अरे, बहूबेटे खिलखिलाते अच्छे लगते हैं, तुम ने एक बार भी अब तक शिकायत नहीं की कि देख लो भाभी ये मुझे चिढ़ा रहे हैं, मुझे तंग कर रहे हैं, न ही कभी मैं ने गौरव को देखा कि वह तुझे डांट रहा है. अरे शिकवेशिकायत, रूठनामनाना, ये सब तो स्वस्थ जीवन के मिर्चमसाले हैं, ये न हों तो जीवन स्वादहीन सा बन जाता है. साफ सुन लो, इन्हीं सब कारणों से मैं यहां सहज अनुभव नहीं कर रही हूं, एक घुटन सी महसूस करती हूं. ‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग दब्बू से, सहमेसहमे से रहते हो, यह सब मेरे भीतर एक अपराधबोध जगाता है, जैसे मैं आतंकी हूं तुम लोगों के लिए,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

थोड़ी देर रुक कर भाभी फिर बोलीं, ‘‘मैं देख रही हूं मैं किसी नए गौरव के पास आई हूं, पता नहीं मेरा पुराना गौरव कहां खो गया? कहता है भाभी उदास हो? उसे मेरी उदासी तो दिखाई दी, कहां गई मेरी वह सुंदरता… भाभी आज तो बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘भाभी तब तो रुपए ऐंठने होते थे.’’

‘‘मतलब कि मैं सुंदर नहीं थी? मुझे धोखा दे कर रुपए ठगा करता था?’’

‘‘न भाभी, न, सुंदर तो तुम अब भी उतनी ही हो, पाला पड़ने से मुरझाए फूल का सौंदर्य खत्म हो जाता है क्या? मेरी भाभी, अतीव सुंदरी थीं, हैं और सदा रहेंगी,’’ कह कर मैं ने उन की कोली भर ली.

‘‘अरे, हट. अभी भी मस्ती सूझ रही है, बता कितने रुपए चाहिए?’’ भाभी शरमाती हुई बोलीं.

फिर हम तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘बस, ऐसा ही वातावरण चाहिए मुझे घर में एकदम निर्द्वंद्व, उत्फुल्ल, उन्मुक्त,’’ कह कर भाभी मौन हो गईं.

15-20 दिनों बाद मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, उदास सी लग रही हो, क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं, पता नहीं बच्चे कैसे हैं?’’ भाभी ने कहा.

‘‘ठीक ही होने चाहिए, कोई बात होती तो फोन आ जाता,’’ मैं बोला.

‘‘लगता है वे परेशान हैं, नाराज हैं, उस दिन से फोन भी नहीं आया.’’

‘‘फोन तो कई बार आ चुका, मैं ने तुम्हें बताया नहीं.’’

‘‘क्यों? उन्होंने मुझे फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम से डरते हैं भाभी, कह रहे थे कि पता नहीं मम्मी किस बात पर डांट दें?’’

‘‘और अब जो डांटूंगी कि अपनी खैरखबर क्यों नहीं दी मुझे?’’

‘‘अरी भाभी, क्यों चिंता करती हैं, वे अब ज्यादा सुखी होंगे.’’

‘‘नहीं, सौमित्र, राघव दोनों को मैं जानती हूं, दोनों बहुत प्यार करते हैं मुझे… उन की याद आ रही है.’’

‘‘और बहुओं की नहीं?’’ मैं ने तपाक से पूछा.

भाभी- भाग 4: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अपनी बात को पानी देती हुई वे बोलीं, ‘‘क्या मैं इतनी नासमझ हूं कि यह भी नहीं जानती कि दो दूनी चार होते हैं, पांच नहीं? मुझे क्या एकदम बेवकूफ समझ रखा है? तू यह बता कि जब बहू के चेहरे पर सास यह लिखा पढ़ ले कि इस बुढि़या ने तो हमारा जीना हराम कर दिया, हमारी सारी प्राइवेसी पर बंदूक ताने सिपाही की तरह पहरा देती रहती है, तो कौन बरदाश्त करेगा? इस का अर्थ क्या है? बता कोई दूसरा अर्थ हो सकता है इस का? इसे अपराध न मानूं? क्या यह मेरा अपमान नहीं? दब्बुओं की तरह इस कान से सुन कर उस कान से निकालती रहूं? क्या मैं उन के पतियों का दिया खाती हूं? क्या लाई थीं वे अपनेअपने घर से? हम ने दहेज के नाम पर ‘छदाम’ भी न लिया?

‘‘कौन सा ऐसा शौक है इन का जो मैं ने पूरा नहीं किया? अरे, हमारी सुहागरात तो घर में ही मनी थी, पर मैं ने एक को ऊटी भेजा तो दूसरी को गोवा. कौन सी कमी छोड़ी है मैं ने इन के अरमानों को पूरा करने में? आते ही बेटों को अपने काबू में कर लिया.’’

मैं ने भाभी के प्रश्नों की बौछारों पर एकदम ढाल सी तानते हुए कहा, ‘‘छोड़ो भी भाभी, यह सब मुझे क्या बता रही हो, मैं नहीं जानता? नयानया जोश है, बच्चे ही तो हैं सब, इन्हें दीनदुनिया की क्या खबर?’’

‘‘अरे, सुगृहिणियों के कुछ तौरतरीके होते हैं कि नहीं? सुबह 8 बजे तक सोते रहो, नौकर चाय ले कर पहुंचे… महारानियां बिस्तर पर ही चाय पीती हैं. सुबह उठ कर किसी को नमस्कार, प्रणाम, नहीं… उठते ही टूट पड़ो चाय के प्याले पर… अपने मजनुओं के साथ मेरे सामने मटकमटक कर निर्लज्जों की तरह बातें करती हैं, बेटों पर ऐसा हक जमाती हैं जैसे अपने बाप के यहां से लाई हुई कोई जायदाद हो, हुक्म चलाती हैं, नाम ले कर पुकारती हैं. अरे सौमित्र सुनो तो… अरे राघव तुम ने यह काम नहीं किया, कितनी बार कहना पड़ेगा यार, तुम समझते क्यों नहीं? पति को यार कहती हैं, काम पूरा क्यों नहीं किया, इस का स्पष्टीकरण मांगती हैं… यह तमीज है पति से बात करने की? अब तू कहेगा गौरव कि भाभी पति को पति मानने का जमाना गया. अरे, पति को पति न माने तो क्या बाप माने, भाई माने या बेटा? क्या माने?’’

‘‘भाभी, पति को दोस्त भी तो माना जा सकता है,’’ कह कर मैं ने भाभी की प्रतिक्रिया को परखने की कोशिश की.

‘‘ठीक है, गौरव. तुझे भी मुझ में ही बुराई नजर आई.’’

‘‘फिर गलत समझ रही हो, भाभी. मेरा आशय यह नहीं. मैं तो इतना जानता हूं भाभी कि बहूबेटों में किसी की हिम्मत नहीं, जो आप का अपमान कर सके. यदि कोई आप का अपमान करता है, तो क्या मैं बरदाश्त कर लूंगा? बस मेरा तो यही कहना है कि चीजों को देखने के अपने दृष्टिकोण को बदल कर देखो, फिर देखो कि कुछ अच्छा नजर आता है कि नहीं?’’

तभी सौमित्र आ गया, ‘‘चाचाजी प्रणाम,’’  कह झुक कर उस ने मेरे पैर छुए.

‘‘खुश रहो बेटा. ठीक हो?’’

‘‘जी, चाचाजी.’’

‘‘तुम्हारा कामधाम कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब बढि़या है, राघव भी साथ ही है, हम दोनों भाई मिलजुल कर हंसीखुशी अपने काम को बढ़ाते जा रहे हैं. अच्छा चाचाजी, मैं अभी आता हूं, जरा फ्रैश हो लूं,’’ कह कर सौमित्र उठ कर चला गया.

शाम हो चली थी. भाभी मुझे ड्राइंगरूम में ले गईं. मैं ड्राइंगरूम में जा कर बैठा ही था कि दोनों बहुएं बाहर से आ गईं. मुझे देख कर दोनों मेरे पास आईं और मेरे पैर छुए.

बड़ी बोली, ‘‘कितनी देर हो गई चाचाजी आप को आए हुए? चाची नहीं आईं?’’

‘‘बस अभी आ कर बैठा हूं. उन्हें कुछ काम था. कैसी हो तुम लोग?’’

‘‘हम ठीक हैं,’’ कह कर बड़ी मुसकरा पड़ी.

छोटी ने भी मुसकान बिखेरी और बोली, ‘‘चाचाजी, सब कुशलमंगल तो है न?’’

‘‘हां बेटा, सब ठीक है, जाओ तुम लोग… थक गई होगी.’’

वे भीतर चली गईं.

भाभी बोलीं, ‘‘गौरव जब से आया है यों ही कसा हुआ बैठा है. जा हाथमुंह धो कर कपड़े बदल ले, डिनर का समय हो रहा है.’’

भाभी, मैं और चारों बहूबेटे खाने की मेज पर बैठ गए. आधे घंटे में डिनर समाप्त हो गया. मैं ने रामू से कहा, ‘‘रामू, एकएक प्याला चाय तो बना ला.’’

थोड़ी ही देर में रामू ने चाय ला कर मेज पर रख दी. मैं ने उस से कहा, ‘‘रामू, अब तू घर जा. कल जल्दी आ जाना.’’

चाय पीतेपीते मैं ने उन चारों को डांटना शुरू किया, ‘‘क्यों भई, आप चारों, भाभी का बोझ उठातेउठाते थक गए हो क्या?’’

सभी चौंक पड़े मानो अचानक बिजली कड़क उठी हो. सौमित्र बोला, ‘‘क्या मतलब चाचाजी! हम समझे नहीं. हम उठाएंगे मां का बोझ?’’

‘‘हां, मुझे ऐसा ही लगता है,’’ मैं ने थोड़ा तेज स्वर में कहा.

इस पर सौमित्र कुछ आहत सा बोला, ‘‘बोझ तो अकेली ये उठा रही हैं हम सब का, हम कौन होते हैं इन का बोझ उठाने वाले? मां के कारण ही तो समाज में हमारी एक अलग पहचान बनी है, सभी एक स्वर से कहते हैं कि बच्चों का भविष्य बनाना कोई सुमित्रा से सीखे, कितने गुणी, सुशील, सभ्य और होनहार बच्चे हैं. पिताजी का नाम कोई नहीं लेता, आज जो हम राजा बने फिर रहे हैं, मां की ही बदौलत.’’

तभी राघव ने पूछा, ‘‘क्या मां ने कुछ कहा आप से?’’

मैं बोला, ‘‘क्यों, भाभी तुम्हारी शिकायत क्या मुझ से करेंगी? क्या उन्हें तुम ने इतना कमजोर समझा है कि वे तुम्हें ठीक करने के लिए मेरी सहायता मांगेंगी? वे तो तुम्हें क्या मुझे भी ठीक कर सकती हैं,’’ कह कर मैं रुक गया और मेरे चेहरे पर एक रोष उभर आया.

सौमित्र बोला, ‘‘चाचाजी, क्या मुझे इस का प्रमाण देना पड़ेगा कि इस घर में मां की इजाजत के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता?’’

इस पर मैं ने कहा, ‘‘आगे भी उन्हीं का हुक्म चलेगा, वे इस घर की मालकिन हैं, उन्हीं की इजाजत से सब कुछ होगा.’’

‘‘हम कब इनकार करते हैं, चाचाजी?’’ इस बार राघव बोला.

‘‘और सुन लो बहुओ!’’ मैं ने कहना शुरू किया, ‘‘सब लोग अच्छी तरह सुन लो, अगर तुम में से कोई भी दाएंबाएं चला तो ये तो बाद में कहेंगी मैं ही तुम सब को यह कह दूंगा कि तुम ने जो कुछ कमाया है, उसे उठाओ और अपनीअपनी पत्नी की उंगली पकड़ कर दफा हो जाओ इस घर से, समझ क्या रखा है तुम लोगों ने? न बड़े की शर्म न छोटे का लिहाज. कुल की कुछ परंपराएं होती हैं, उन का पालन करते तुम्हें शर्म आती है, बेशर्मों की तरह मां के सामने नंगा नाचनाच कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते हो, समाज में उन्होंने जो प्रतिष्ठा बनाई है, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते हो.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है चाचाजी… आखिर बात क्या है?’’ सौमित्र ने पूछा.

‘‘बात कुछ नहीं, बेटा. मैं समझता हूं, तुम चारों के भीतर इतनी अक्ल जरूर है कि यह पहचान सको कि मां को क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा. इतना भी त्याग नहीं कर सकते तुम अपनी मां के लिए कि कोई ऐसा काम न करो, जिस से उन्हें पीड़ा पहुंचे? मैं समझता हूं तुम लोगों में त्याग की भावना है ही नहीं, स्वार्थी हो तुम सब लोग. एक बार आंखें बंद कर के यह तो सोच लिया करो कि मां न होतीं तो तुम क्या होते? ये भी अपने ऐशोआराम के लिए मनमानी करतीं तो तुम लोग क्या होते? बस, इस से अधिक मैं कुछ और नहीं कहूंगा.’’ कह कर मैं शांत हो गया.

कुछ देर शांत रह कर मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, कल सुबह यहां से हम दिल्ली के लिए निकल लेंगे, मुझे आप की जरूरत है, आप के प्यार और आशीर्वाद की जरूरत है. अब आप मेरे साथ रहेंगी, जब इन लोगों का मन करेगा, ये मिलने आ जाया करेंगे, जब आप का मन करे, आप यहां आ जाना… यह आप का घर है.’’

भाभी- भाग 7: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

भाभी कुछ रोष दिखाते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, दोनों बुढि़या हो गईं… जुम्माजुम्मा 8 दिन तो नए जीवन में प्रवेश किए हुए नहीं कि अभी से अपने को बुढि़या समझने लगीं. अरी, यही तो उम्र है पहननेओढ़ने की, उछलनेकूदने की, जब बच्चे हो जाएंगे, तो क्या सुध रहेगी अपनी? चलो मैं कहती हूं, खरीदो.’’

दोनों बहुएं मन ही मन मुसकरा रही थीं. बड़की बोली, ‘‘मम्मीजी, आप कह रही हैं, तो खरीद तो हम लेंगी, पर आप ने पहले ही हमें जेवर, कपड़ेलत्तों से लादा हुआ है कि अब जरूरत ही महसूस नहीं होती, क्या करना है?’’

छुटकी ने भी हां में हां मिलाई.

भाभी ने कहा, ‘‘अरी सुना नहीं, बहस किए जा रही हो, जब कह दिया कि खरीदो, तो बस खरीदो, नो कमैंट.’’

दोनों बहुओं ने जी भर कर डिजाइनर साडि़यां खरीदीं. हर साड़ी पर यह कहना नहीं भूलती थीं, ‘‘मम्मीजी, यह कैसी है?’’

‘‘हांहां, अच्छी है,’’ की मुहर लगवाती जाती थीं.

बड़की बोली, ‘‘बस मम्मीजी, बहुत हो गईं, अब रहने दीजिए.’’

‘‘अरी, अभी मेरी पसंद की तो खरीदी ही नहीं,’’ कह कर मम्मी ने दोनों के लिए अपनी पसंद की कुछ साडि़यां, लहंगे आदि और खरीदे. दोनों बहुओं के मन में लड्डू फूट रहे थे. दोनों सासूमां के साथ खुशीखुशी घर लौट आईं.

शाम को सौमित्र और राघव लौटे. आते ही बिना कपड़े चेंज किए, मां से चिपट कर बैठ गए.

‘‘अरे, उठो भी यहां से. कब तक मेरा दिमाग चाटते रहोगे? जाओ, अपनेअपने कमरे में और कपड़े चेंज करो,’’ और फिर जोर से बोलीं, ‘‘अरी बड़की, छुटकी, मैं देख रही हूं कि तुम दोनों के रंगढंग बिगड़ते जा रहे हैं.’’

दोनों ही घबराई हुई सी भागी आईं, ‘‘क्यों क्या हुआ मम्मीजी?’’ बड़की बोली.

‘‘हुआ ही कुछ नहीं, तुम्हें पता है दोनों लड़के कब के घर आ चुके हैं? उन दोनों को कुछ चायवाय चाहिए या नहीं, खयाल है तुम लोगों को? पतियों के घर आते ही पत्नियां उन की ओर दौड़ी चली जाती हैं, उन का हालचाल पूछती हैं, चायपानी देती हैं, कुछ मैनर्स भी आते हैं तुम्हें या नहीं? जाओ, यों खड़ीखड़ी मेरा मुंह क्या ताक रही हो, उन की खैरखबर लो.

‘‘इतनी भी तमीज नहीं कि शाम को घर लौटा पति क्या चाहता है? यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा कि उस ने अगर पत्नी के मुख पर खिलखिलाहट नहीं देखी, यदि उस के सामने उस की पत्नी फूहड़ सी आ कर खड़ी हो जाए तो कैसा लगेगा उसे? तुम लोगों के पास अच्छे कपड़े नहीं रहे क्या? नौकरानियां सी लग रही हो… जाओ यहां से.’’

दोनों बहुएं चली गईं.

सभी लोगों ने रात को खाना एकसाथ खाया. खाना खाते ही सौमित्र, राघव, भाभी के कमरे में चले गए. दोनों मां से लिपट कर बैठ गए और बातें करने लगे.

थोड़ी देर में ही भाभी बोलीं, ‘‘जाओ, बहुएं इंतजार कर रही होंगी, सुबह की थकीमांदी हैं, जाग रही होंगी.’’

‘‘जागने दो मां, जब नींद आएगी तो सो जाएंगी.’’

‘‘नहींनहीं, उठो तुम लोग यहां से मुझे भी नींद आ रही है.’’

वे उठ कर गए तो दोनों बहुएं भाभी के पास आ पहुंचीं.

‘‘अरी, तुम लोग क्या करने आई हो यहां?’’

‘‘आप जब सो जाएंगी मम्मीजी, तभी हम सोएंगी. लाइए, आप के पैर दबा दें.’’

‘‘नहींनहीं, जाओ यहां से, मुझे नींद आ रही है.’’

दोनों बहुएं भाभी के चरण छू कर चली गईं.

अगले दिन भाभी ने डिनर पर कहा, ‘‘देख रही हूं सौमित्र, राघव तुम दोनों बहुओं की उपेक्षा कर रहे हो और बहुएं भी कम नहीं, वे भी तुम्हारी परवाह नहीं कर रही हैं. सारे काम मेरे सिर पर डालते जा रहे हो. मम्मीजी, नौकरों को तनख्वाह देनी है पैसे दे दीजिए, अखबार वाले का बिल देना है, बाजार से सामान लाना है, पैसे दे दीजिए, मुझे जैसे और कोई काम ही नहीं रह गया, हर वक्त उठती रहूं, सेफ खोल कर पैसे देती रहूं, बस तुम्हारे कामों में फिरकी बनी घूमती रहूं.’’

‘‘पर चाबी तो आप के पास ही रहती है मम्मीजी,’’ बड़की बोली.

‘‘तू खुद क्यों नहीं रख लेती बड़की? चाबी भी मैं संभालू, घर के सारे खर्चों का हिसाब भी मैं ही रखूं, तुम सब लोग खाली पड़े रहो, यह लो गुच्छा, संभालो सब कुछ अपनेआप करो, मुझ से अब नहीं होती तुम्हारी चौकीदारी, अब लेनदेन के मामले में मुझे डिस्टर्ब मत करना, मैं क्या सदा तुम लोगों के चक्करों में ही फिरती रहूंगी? अब से तुम जानो तुम्हारा काम, जो चाहो जैसे चाहो, खर्च करो, अब तुम लोग समर्थ हो, अपना भलाबुरा सब समझती हो,’’ और भाभी ने चाबियों का गुच्छा बड़की को थमा दिया.

बड़की बोली, ‘‘आप के जितनी अक्ल कहां से लाएं हम लोग, हम तो अभी बच्चे हैं, आप जैसेजैसे कहती रहेंगी, हम करते रहेंगे, हमारे बुरेभले की तो आप ही सोचेंगी, आप को ऐसे कैसे फ्री कर दें, अपने इन पौधों को सींचना तो आप को ही है,’’ और दोनों बच्चियों की भांति सास के दाएंबाएं बैठ गईं.

‘‘अरी, मैं कहीं भागी जा रही हूं क्या? जो कुछ गलत होगा, मैं कह दिया करूंगी, पर अब मैं स्वतंत्र होना चाहती हूं. और सुन लो सौमित्र, राघव. घर में मनहूसियत मुझे बरदाश्त नहीं, मुझे हर समय सन्नाटा सा महसूस होता है इस घर में. क्या यह एक घर है? न हल्लागुल्ला, न हंसीमजाक, न बच्चों की किलकारियां, न किसी का रूठनामनाना,’’ कहतेकहते भाभी भावुक हो उठीं. ‘‘तुम चारों ही तो हो, जिन में मैं अपनी खुशी ढूंढ़ती हूं, घर की यह चुप्पी, यह शांति मुझे खाने को दौड़ती है. मैं ने गौरव से भी कहा था कि गौरव, फूल खिले ही अच्छे लगते हैं, मुरझाए फूल देखने की मेरी आदत नहीं. तुम लोग भी कान खोल कर सुन लो, घर में मुझे शांति नहीं, खिलखिलाहट भरा माहौल चाहिए,’’ कह कर भाभी ने साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछ लीं.

भाभी- भाग 3: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

आप के भैया के लाख मना करने पर भी मैं ने आप को ऐबी बना दिया है… आप के पतन की दोषी मैं ही हूं…आप कहीं नहीं जाएंगे, जाना ही होगा तो मैं जाऊंगी,’’ कह कर उन्होंने अटैची से मेरे कपड़े निकाल कर हैंगर में डाल अलमारी में लटका दिए और पुस्तकें मेज पर लगा दीं.

‘‘किस अधिकार से आप मुझे रोक रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अधिकार की बात मत कीजिए, मैं नहीं जानती कि अधिकार किसे कहते हैं, बस आप कहीं नहीं जाएंगे, कह दिया सो कह दिया, कोई मेरी बात टाले, मुझे बरदाश्त नहीं.’’

‘‘सौमित्र और राघव की हुक्मउदूली तो आप बरदाश्त कर लेंगी,’’ सुनते ही उन्होंने मेरे मुंह पर तड़ातड़ चांटे बरसाने शुरू कर दिए. बदहवास सी सौमित्र… राघव… सौमित्र… राघव…चीखे जा रही थीं और मेरे मुंह पर थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रही थीं. मैं हाथ पीछे बांधे मूर्तिवत खड़ा थप्पड़ खाता रहा और फिर मैं ने उन की कोली भर ली और उन के मुंह को दोनों हथेलियों के बीच ले कर उन से आंखें मिलाते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे माफ कर दे, मैं ने तो कभी की सिगरेट पीनी छोड़ दी है. देखो, ये रहे सारे रुपए,’’ और मैं ने अपने बैड के नीचे रखे सौसौ के नोटों की ओर इशारा किया. फिर फफकफफक कर रो पड़ा.

उन्होंने मुझे कस कर अपनी छाती से लगा लिया. कुछ देर वे यों ही खड़ी रहीं, फिर साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘ठीक है, मैं एक बार फिर विश्वास कर लेती हूं,’’ कह कर वे जाने लगीं.

मैंने उन का हाथ पकड़ कर उन्हें रोका और बोला, ‘‘भाभी मां, मैं वादा करता हूं कि अब कोई गलती नहीं करूंगा.’’

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ कह कर वे चली गईं.

‘‘और यह उसी का फल है बेला कि मैं आज इस रूप में तुम्हारे सामने हूं.’’

बेला बोली, ‘‘खैर छोडि़ए, अब सुधरे हुए हैं तो क्या हुआ, हैं तो आप ऐक्सऐबी,’’ और मुसकराते हुए जातेजाते कह गई, ‘‘आप आज ही चले जाइए भाभी से मिलने.’’

‘‘तुम भी चलो.’’

‘‘नहीं, शायद वे तुम से कोई प्राइवेट बात करना चाहती हों, मेरी उपस्थिति शायद उन्हें अच्छी न लगे. आप अकेले ही जाइए.’’

‘‘ठीक है, मैं अकेला ही जाता हूं, ड्राइवर को आज छुट्टी दे दो.’’

बेला बोली, ‘‘उसे भी साथ ले जाते तो क्या बुराई थी? कोई साथ में हो तो अच्छा है.’’

‘‘अरी, यह रहा आगरा, दोढाई घंटे का ही तो सफर है.’’

थोड़ी देर बाद तैयार हो कर मैं आगरा के लिए निकल पड़ा और 3 बजे आगरा पहुंच गया. कोठी के गेट में घुसते ही देखा कि भाभी सामने ही लौन में कुरसी पर बैठी हैं.

मुझे देखते ही वे खिल उठीं, ‘‘आ गए गौरव.’’

‘‘हां भाभी,’’ कहते हुए मैं ने उन्हें प्रणाम किया.

‘‘अकेले ही चले आए हो, बेला को भी ले आते.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे कुछ जरूरी काम था.

मैं जल्दी में चला आया इसलिए कि ऐसी क्या बात है, जो आप ने बुलाया है और कारण भी नहीं बताया. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां, यहां सब ठीकठाक है, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘बात तो कुछ जरूर है भाभी, वरना आप इतनी जल्दी फोन छोड़ने वाली कहां थीं? बताइए क्या बात है?’’

‘‘अरे दम तो ले, चायपानी पी, फिर बैठ कर आराम से बातें करेंगे,’’ कह कर भाभी ने नौकर को आवाज लगाई, ‘‘अरे रामू.’’

रामू भागता हुआ आया और बोला, ‘‘कहिए बीबीजी.’’

‘‘जा, 2 कप चाय बना ला.’’

चाय पीतेपीते कुछ देर बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसी हो भाभी?’’

‘‘यों तो सब ठीकठाक है गौरव, पर यहां अब मन नहीं लगता, मुझे अपने साथ दिल्ली ले चल.’’

‘‘इस में क्या मुझे किसी की आज्ञा लेनी होगी? जब चाहिए चलिए,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां आज्ञा लेनी होगी, बेला की,’’

वे बोलीं.

‘‘कैसी बात करती हो भाभी, आप को साथ ले चलने के लिए बेला की आज्ञा? बेला कौन होती है आज्ञा देने वाली? नहीं भाभी नहीं, अपने इस बेटे पर तुम्हारा कितना अधिकार है, यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा? पर बताओ तो सही कि बात क्या है? सौमित्र, राघव, दोनों बहुएं क्या नाराज चल रहे हैं? किसी ने कुछ कहा है आप से?’’

‘‘मुझे कुछ कहने की हिम्मत कौन करेगा? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, बस मन नहीं लगता. अब मेरा दम घुटता है यहां,’’ कह कर वे कुछ उदास सी हो गईं.

‘‘भाभी, साफसाफ बताओ न? कुछ बात तो जरूर है.’’

‘‘समझो तो बहुत कुछ है, न समझो तो कुछ भी नहीं. बस यों समझ ले, बहूबेटों के रंगढंग मुझे अच्छे नहीं लगते. मुझे लगता है कि ये बहुएं तुम्हारे भैया की इज्जत खाक में मिलाने पर तुली हुई हैं. इन की चालढाल, इन का रंगढंग, इन का लाइफस्टाइल मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’’

मुझे इस के अतिरिक्त कोई और कारण नहीं दिखाई दे रहा था, भाभी की परेशानी का. मैं पहले ही जानता था, हो न हो वही सासबहू का, मांबेटे का पारंपरिक तनाव है.

थोड़ी देर बाद भाभी फिर बोलीं, ‘‘गौरव, अब सहन नहीं होती मुझ से बहुओं की यह चालढाल… सौमित्र और राघव तो जोरू के पक्के गुलाम बन गए हैं… दब्बू कहीं के, उन के ही रंग में रंग गए हैं, जन्म से जवानी तक चढ़ा हुआ मां का रंग इतना कच्चा पड़ गया कि बहुओं के आते ही उतर गया? अरे, मैं तो इन से बड़े खानदान की थी, पढ़ीलिखी भी इन से कम नहीं हूं, इन से हर बात में आगे हूं. चलो और कुछ न सही, इन की सास तो हूं, यह सब कुछ मेरा ही तो है, फिर भी…’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं समझ तो रहा हूं, पर यह भी जानता हूं भाभी, मेरे कहे को उपदेश मत समझना, यह भी मत समझना कि मैं तुम्हें बोझ समझ कर टालना चाहता हूं, मैं मानता हूं भाभी कि तुम प्रसन्न नहीं हो, परेशान हो, पर क्या तुम सुख खोजने का अपना दृष्टिकोण नहीं बदल सकतीं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह भाभी कि सुख तो हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है, उसे बीनने और संजो कर रखने का ढंग बदल दो तो तुम्हारी झोली में सुख ही सुख होगा. स्पष्ट कहूं, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी रुचि बेटेबहुओं के दोष ढूंढ़ने तक ही सीमित हो गई हो, अच्छाई देखने की इच्छा ही नहीं हो?’’

‘‘अरे, तू तो मुझे उपदेश ही देने बैठ गया,’’ इतना ही कह पाई थीं कि मैं बोल उठा, ‘‘देखो भाभी, मुझे तुम से यह आशा कदापि नहीं है कि तुम अपने गौरव को उपदेश झाड़ने वाला समझोगी. मैं ने कभी तुम से कुछ नहीं छिपाया, अपने मन की बात सदा ही साफसाफ करता रहा हूं, आज भी मैं तुम से उसी रूप में अपने मन की बात कह रहा हूं. जरूरी तो नहीं कि मेरे मन में आई हर बात सही हो, मैं गलत भी हो सकता हूं, बिना किसी लागलपेट के मैं ने अपने मन की बात आप से कह दी, आप प्लीज अन्यथा न लें.’’

इस पर वे बोलीं, ‘‘तू बता गौरव, बहुएं जींस पहन कर बाहर निकलें, यह गलत नहीं तो और क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बड़े भैया की बड़ी बेटी एम.ए.कर रही है, कालेज जींस पहन कर जाती है या नहीं?’’

‘‘जाती तो है, पर वह तो बेटी है.’’

‘‘बस, यही तो गड़बड़ है भाभी, बहुएं क्या तुम्हारी बेटियां नहीं?’’

‘‘जो कुछ भी हो, पर बेटीबहू में अंतर तो रहता ही है, बहुएं बड़ेबूढ़ों का इतना भी लिहाज न करें कि उन्हें देख कर तिनके की ओट जितना परदा कर लें?’’

‘‘और बेटी भले ही नौजवान लड़कों के साथ बेलिहाज घूमती फिरे?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह तो भाभी एक कोल्डवार है, न जाने कब से जारी है, इस का अंत होता नजर नहीं आता. सास, मां नहीं बन सकती और बहू, बेटी. इस में मैं आप को दोषी नहीं ठहराता, कदाचित आप ठीक कह रही हैं,’’ मैं ने मन ही मन सोचा कि कहीं मैं यह भाभी के डर से तो नहीं कह गया. पर मैं डर जरूर रहा था कि कहीं वे मेरी बात को अन्यथा न ले लें.

वही हुआ, वे बोलीं, ‘‘अरे, तू तो वाकई मुझे उपदेश झाड़ने लगा. लगता है अब तू बड़ा हो गया है, मुझे उपदेश देने लगा.’’

‘‘वही हुआ न भाभी, जिस का मुझे अंदेशा था. निश्छल बात मैं ने आप से कही तो आप बुरा मान गईं, सौरी. सोचता हूं आप ठीक कहती हैं- एक दिन में ही बेटा, मां का न हो कर बहू का हो जाए, तो गलत तो है ही,’’ और मैं चुप हो गया.

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