कहानी में एक अदद बूढ़े मांबाप और जवान बहूबेटे हों तो बिना कहे और बिना पढे़ इंसान समझ सकता है कि हाय रे कलियुग, मांबाप ने पेट काट कर बच्चों को पालापोसा और बच्चे हैं कि कपूत निकल गए. मांबाप पर ध्यान ही नहीं देते. बुढ़ापे में जिंदगी नरक कर दी और खुद ऐश कर रहे हैं. घरघर की कहानी ऐसी ही है. बच्चों को धिक्कार और मांबाप के लिए सहानुभूति का सागर हिलोरें लेने लगता है. ऐसा शाश्वत किस्म का किस्सा है जो कहानियों में, हिंदी फिल्मों में बहुत पसंद किया गया है. आंख में उंगली गड़ा कर आंसू निकलवाने की दास्तां.
अगर दास्तां वही है तो फिर से उसे कहनेसुनने की क्या दरकार? अगर दुखी पिता का रोल ओम प्रकाश, नासिर हुसैन और ए के हंगल की जगह अमिताभ बच्चन करने लगें तो फिर कहानी बागबान हो जाती है. बूढ़ा आदमी नायक हो जाता है और नौजवान जो है सो खलनायक.
किसी कहानी में खलनायक ही न हो तो कहानी क्या बने? यह बिना बनी कहानी यों शुरू होती है कि एक ठीकठाक उच्च मध्यवर्गीय परिवार. पिता उच्च अधिकारी, मां कालेज में. एक बेटा, एक बेटी. पढ़ालिखा सभ्य, शिष्ट परिवार. बेटी का ब्याह हुआ. अपने घरबार की हुई. बेटे का भी जीवन बढ़ा. ब्याह हुआ. बच्चे हुए. सुखसमृद्धि वगैरह का सब सामान घर में.
बस यों लगा कि घर में शांति की उपस्थिति कुछ कम हो रही है. अपनापन कुछ बढ़ रहा है. बेटा प्रौढ़ हो चला था. घर में पैसा भरपूर था. बेटाबहू दोनों डाक्टर. शहर में शानदार क्लिनिक. डाक्टर बहू और डाक्टर बेटे ने एक बड़ी कोठी बनवाई. कोठी में यों व्यवस्था की कि निचली मंजिल पर डाक्टर साहब यानी बेटाबहू. ऊपर की मंजिल पर पोते के लिए व्यवस्था, उस का भी परिवार बढ़ेगा.
डाक्टर साहब ने अपने मातापिता यानी दोनों बूढ़ों के लिए एक टू रूम सैट अलग से बनवाया. बाकायदा एसी वगैरह से लैस. एक ड्राइवर सहित गाड़ी मातापिता के लिए. एक फुलटाइम नौकर अलग. मांबाप का चूल्हा अलग न किया. घर में उन का निवास भी निचली मंजिल पर. आंगन के इस पार डाक्टर साहब और उस पार मातापिता. दोनों ओर बरामदा. मातापिता के कमरे में भी अटैच्ड बाथरूम.
डाक्टर बेटा और डाक्टर बहू सोचते कि मातापिता की व्यवस्था ठीक है. अब एक अच्छीखासी प्रैक्टिस वाले बेटाबहू के पास रुपयापैसा बहुत और समय कम था. सबकुछ मुहैया कराने के बाद बेटाबहू निश्चिंत थे. श्रवणकुमार वही नहीं होता जो मांबाप को कांवर में ढोता हो. वह भी होता है जो उन की सही व्यवस्था कर पाता हो.
जितना किस्सा अभी तक आप ने पढ़ा, इस में कोई झोल नहीं है. झोल तो वहां हुआ कि जब बहूजी ने सुना कि बूढ़ेबुढि़या को पिछवाड़े डाल कर ही फर्ज अदाएगी कर ली. घर की चौकीदारी करो मुफ्त में अपने से. नौकर की सी गति. बस, बहूजी का मुखड़ा तन गया. वह जो आतेजाते दुआसलाम, मुसकराना वगैरह होता था, सो कम हो गया. इस से ज्यादा कोई कर ही क्या सकता है, इस पर भी चैन नहीं. ऐसा बहू ने न केवल सोचा बल्कि कहा भी.
बूढ़ेबुढि़या ने भी जो सोचा सो कहा. बात अपने पेट में न पचे तो दूसरे के पेट में क्या पचेगी और क्यों पचेगी? बात जो थी सो निकलती गई. उस मुंह से निकली, इस कान में घुसी. इस मुंह और कान की यात्रा के बीच में वह कई शब्द छोड़ देती, कई वाक्य ओढ़ लेती. बात ही रहती बाकी उस के तेवर और जेवर बदल जाते. कमज्यादा हो जाते. अर्थ नए हो जाते, अनर्थ हो जाते.
होतेहोते यों हुआ कि वह बेटा प्यारा न रहा. पिता बेचारा हो गया. बेटाबहू मस्त. अपने में मगन. सुबह निकलते, रात गए लौटते. मांबाप स्वस्थ हैं, घर में हैं और हर तरह की सारी सुखसुविधाएं हैं और क्या चाहिए?
चाहिए यह कि बातबात पर पूछें. सिर्फ क्या कि आतेजाते गुडमार्निंग हो जाए, यह तो काफी नहीं, न कुछ कहना न सुनना. बात करने का तो समय ही नहीं. न कुछ पूछना न बताना. बस घर में पड़े हैं तो पड़े हैं मरने के इंतजार में. बुढि़या को यह रास न आता था. अपने मन की बात बूढ़े से कहती, बेटा कुछ नहीं पूछता. चौकीदार की तरह पड़े हैं घर में. रोजरोज कहीं जाना नहीं होता, ड्राइवर का क्या करें? रसोई तो अलग है नहीं. अगर नौकर न आए तो उधर वाले को आवाज देदे कर थक जाओ उस के कान पर जूं नहीं रेंगती. हां, अगर डाक्टर साहब या डाक्टरनी आ जाएं तो कैसे चक्करघिन्नी से घूमते हैं. कोई सोचे भी न कि ये लोग कैसे मुंह में दही जमा कर बैठ जाते हैं.
इधर, साहब लोग गए और नौकरचाकरों की मौज हुई. बात सुनी तो सुनी नहीं सुनी तो नहीं सुनी. इन लोगों के जो मालिक लोग हैं सो हैं तो इन बुड्ढेबुढि़या के बेटेबहू, जो पाव भर अन्न खाते हैं, को समझना है कि कब, कहां, क्यों और कितना सुनना चाहिए और कब सुने बिना भी काम चल जाता है.
ऐसी अनसुनी फरियादें एक दिन जब नौकरों के कानों से टकरा कर लौटलौट आईं तो भरी दोपहरी में बुड्ढे यानी मालिक के बाप के हाथ में लटका पोंछा लटका का लटका ही रह गया. कारण, आंगन के पार उधर वाले बरामदे में अचानक डाक्टरनी साहिबा दिखाई दीं. उन के ठीक पीछे डाक्टर साहब. पता नहीं डाक्टरनी साहिबा को सचमुच बूढ़े ससुर के हाथ में लटका पोंछा बुरा लगा या पति को सुनाने के लिए उन की आवाज में आंधीतूफानभूकंप सब एकसाथ समा गए. आवाज ऊंची कर के पूछा, ‘‘आप पोंछे से क्या कर रहे हैं?’’
ससुरजी सन्न, चुप.
‘‘नौकर कहां गए? पोंछा क्यों लगाना पड़ गया?’’
अब बीच के समस्त घरेलू किस्म के संवाद, जिरह और पड़ताल वगैरह को वहीं का वहीं छोड़ दूं तो सारांश यह कि बुढि़या दौड़ कर बाथरूम तक न जा सकी तो कार्यवाही आंशिक रूप से बाथरूम के द्वार से पहले संपन्न हो गई. नौकरों ने एक तो सुनी नहीं और दूसरे, ससुरजी को यह लगा कि इस से बुढि़या उर्फ उन की पत्नी उर्फ डाक्टरनी साहिबा की सास को शर्मिंदगी न झेलनी पड़े. बात इतनी होती तो शायद क्षम्य होती, बात इस से जरा आगे थी.
डाक्टरनी साहिबा उर्फ उन की बहू को बात इस से बहुत ज्यादा ही नहीं बल्कि बहुतबहुत ज्यादा लगी. ससुरजी पोंछे न पहचानते थे. बहूजी न केवल पहचानती थीं बल्कि वे रसोई के, कमरों के और बाथरूम के झाड़ूपोंछे व बालटी अलगअलग रखवाती थीं. उन्होंने न केवल पोंछा पहचाना बल्कि घोषित भी किया कि बूढ़े ससुर ने रसोई के स्लैब पोंछने के पोंछे से बुढि़या का पेशाब पोंछा है. पोंछा न केवल रसोई से बल्कि घर से भी खारिज हो गया. खारिज भी यों ही नहीं, ऊंची और तल्ख आवाज के साथ हुआ, ‘पोंछे को कूड़े में फेंको.’
आप चाहें तो उसे डाक्टरनी साहिबा का सफाई/स्वच्छता प्रेम मानें, बूढ़े और बुढि़या ने इसे अपना अपमान माना. आंखों से आंसू बरसे. उदास घटाएं घिरीं. सास ने दुखड़ा अपनी बेटी से रोया. देखने डाक्टरनी साहिबा की ननद आईं. स्नौब. भाई से कहा, ‘दिस इज नौट डन?’ भाई चुप. भाभी गाल फुला कर उठ गईं. आगे बस ‘मम्मीपापा अब यहां नहीं रहेंगे.’
इतनी ही कहानी कि बेटी ने घोषणा की, ननद यों ही बिजुरिया नहीं कही जाती. इस फसाने में जिन का जिक्र नहीं आया वे 2 पोंछे उठा कर ननदरानी ने आंगन के बीचोंबीच फेंक दिए, ‘देखिए, यह ला कर पापा के हाथ में आ कर पकड़ा गईं आप की वाइफ.’
डाक्टरनी साहिबा ने वे पोंछे फिंकवाए और नए से रिप्लेस कराए. अगर सिर्फ 2 पोंछे रख दिए जाते तब कोई बात न थी. नौकर को दे देतीं, तब भी कुछ आपत्ति- जनक न था. पोंछे बेशक नए थे पर ला कर पापाजी के हाथ में दिए गए थे. इस बात को उन्होंने इतना साधारण समझा कि डाक्टर साहब को न बताया. बताया बूढ़े बाप ने भी नहीं. बताया मां ने रो कर और बहन ने आंखें तरेर कर. मान लीजिए तो सिर्फ स्वच्छता की बात, न मानिए तो घनघोर अपमान. बूढ़े ससुर के हाथ में ला कर बहू ने पोंछे पकड़ा दिए. यह तो न हुआ कि पोंछे ट्रे में रख कर लाए गए हों या पेश किए गए हों.
पोंछों की दास्तां बढ़ी और इतनी बढ़ी कि ससुरजी मय सामान और श्रीमतीजी के बेटी के घर प्रस्थान कर गए कि बस, अब बहुत हुआ. अब और अपमान न सहा जाएगा. बेटाबेटी एक समान. ऊपर से यह कि किसी के आश्रित नहीं हैं, ठीकठाक पैंशन मिलती है. अपना भरणपोषण आराम से होता है. क्या जरूरत कि किसी के बोल सुनें?
डाक्टरनी साहिबा ने ननद को कहा कि अपने सासससुर को क्यों साथ नहीं रखतीं? यहां सब ठीकठाक चल रहा था, आ कर भड़का दिया था. जो सुनेगा सो थूथू करेगा कि डाक्टर को मांबाप की दो रोटी भारी पड़ गईं.
डाक्टर साहब सपत्नीक सौरी वगैरह कह कर मांबाप को वापस बुला लाए हैं. व्यवस्था वही है जो पहले थी. वही टू रूम सैट. एसी, सुविधाएं सब पूर्ववत. एक चीज और अतिरिक्त रूप से जुड़ गई है, जो पहले नहीं थी, बस, दिखाई ही नहीं देती लेकिन हवा की तरह हर समय महसूस की जा सकती है, वह है एक दरार.