बेटे नहीं बेटियां हैं बुढ़ापे की लाठी

कुछ अरसा पहले दिल्ली से सटे गे्रटर नोएडा की यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी कि मां के शव को ले कर 4 बेटियां भाई के दरवाजे पर 3 घंटे तक अंतिम संस्कार के लिए रोती रहीं, लेकिन भाई ने दरवाजा नहीं खोला. सैक्टरवासियों और पुलिस के समझाने पर भी उस का दिल नहीं पसीजा, तो अंतत: बेटियों ने ही मां के शव को मुखाग्नि दी. भाई के अपनी मां को मुखाग्नि न देने का कारण चाहे जो भी हो, मगर आज भी घर में बेटा पैदा होने पर मातापिता बेहद खुश होते हैं, क्योंकि आज भी समाज में ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि बेटा घर का कुलदीपक होता है और वही वंश को आगे बढ़ाता है. जबकि आज के बदलते परिवेश में बेटों की संवेदनाएं अपने मातापिता के प्रति दिनबदिन कम होती जा रही हैं. बेटियां जिन्हें पराया धन कहा जाता है, जिन के पैदा होने पर न ढोलनगाड़े बजते हैं, न जश्न मनाया जाता है और न ही लड्डू बांटे जाते हैं. डोली में बैठ कर वे ससुराल जरूर जाती हैं पर वही आज के परिवेश में मांबाप के बुढ़ापे की लाठी बन रही हैं.

बेटियों ने दिया सहारा

कुछ महीने पहले बरेली की रहने वाली कृष्णा जिन की उम्र 80 वर्ष है, रात सोते समय पलंग से गिर गईं. डाक्टरों ने कहा कि कौलर बोन टूट गई है अत: इन्हें बैड रैस्ट पर रहना पड़ेगा. वकील बेटे की पत्नी को उन की देखरेख यानी कपड़े बदलवाना, खाना खिलाना आदि करना ठीक नहीं लगा, तो रोज पतिपत्नी के बीच झगड़ा होने लगा. अंतत: लखनऊ से बेटीदामाद ऐंबुलैंस ले कर आए और मां को अपने घर ले गए. अब बेटी के घर उन की अच्छी तीमारदारी हो रही है. पर बेटे ने वहां जाना तो दूर एक बार फोन कर के भी मां का हालचाल नहीं पूछा. जबकि मां की नजरें हर समय बेटे को खोजती रहती हैं.

ये भी पढ़ें- तोलमोल कर बोलने के फायदे

ऐसे न जाने कितने मांबाप होंगे जिन्हें उन के बेटे अपने पास नहीं रखना चाहते. अब रामकुमारजी को ही लें. 10 साल पहले रिटायर हो गए थे. सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर थे. पत्नी रही नहीं. बेटे की शादी की. फिर घर के एक कोने में पड़े रहते थे. बेटे ने पूरे घर में अपना कब्जा कर रखा था. बहू उन से बात नहीं करती थी. हाल ही में उन्हें कैंसर होने का पता चला तो बेटी आ कर ले गई. वह पिता का इलाज करवा रही है. बेटे को इस से कोई मतलब नहीं है. घर रामकुमारजी का पर अधिकार बेटे का. रामकुमारजी बताते हैं कि बेटी ने जब लव मैरिज की थी तो वे उस से काफी समय तक नाराज रहे थे. फिर भी आज वही बेटी मेरे बुढ़ापे का सहारा बन रही है. कई महिलाएं तो वृद्धाश्रम में इसलिए रह रही हैं कि उन के बेटे उन की देखभाल नहीं करते और बेटी कोई है नहीं. कर्नाटक की रहने वाली 73 वर्षीय शकुंतला बताती हैं कि उन के पति का बिजनैस था. पति के निधन के बाद इकलौते बेटे ने बिजनैस संभाला. फिर वह गुड़गांव आ कर रहने लगा और घर में पोते के लिए जगह कम होने का हवाला दे कर उसे वृद्धाश्रम में छोड़ गया. इसी तरह केरल की रहने वाली 65 वर्षीय विजयलक्ष्मी का बेटा उन्हें अपने परिवार के साथ मस्कट ले गया. वहां वे घर का काम करती थीं व बेटे के छोटे बच्चे को संभालती थीं. पर जब वे बीमार हुईं और घर का काम करने में असमर्थ हो गईं तो बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. तब केरल के ही रहने वाले एक व्यक्ति को उन पर दया आई और उस ने उन की भारत वापसी का इंतजाम कराया. अब वे अपनी बेटी के पास हैं. वही उन की देखभाल कर रही है.

इसी तरह एटा के रहने वाले शर्माजी की पत्नी नहीं रहीं तो वे अपने इंजीनियर बेटे के पास नोएडा आ गए. उन के आते ही बहू ने भी जौब शुरू कर दी और अपने बच्चे को क्रैच में न भेज कर उसे सुबह स्कूल की बस में चढ़ाना, दोपहर को घर लाना और खाना खिलाना आदि सभी काम शर्माजी पर डाल दिए. एक दिन वे गिर पडे़ और पैर की हड्डी टूट गई. बस तभी से बेटेबहू ने उन से मुंह मोड़ लिया. अपनी बेटी से मोबाइल पर बात करते थे तो मोबाइल भी उन्होंने ले लिया. वे उन से बात नहीं करते थे. खाना भी मुश्किल से एक समय और वह भी बेसमय मिलता. अंतत: बेटी आई और अपने पिता को देहरादून अपने साथ ले गई. अब वे ठीक हैं. बेटे ने तो उन का हालचाल भी नहीं पूछा. ऐसे किस्से आज समाज के हर वर्ग में और हर दूसरेतीसरे घर में घट रहे हैं.

बेटों के विचार

सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है जो बेटे अपने जन्म देने वाले मांबाप की देखभाल करना नहीं चाहते? क्या उन की संवेदनाएं मर गई हैं अथवा अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? आइए, जानें कुछ बेटों ने इस संबंध में क्या बताया: बेटे चाहते हैं कि बुढ़ापे में अपने मातापिता की देखभाल करें, पर नौकरी के कारण दूसरे शहर में जाना, बारबार ट्रांसफर होना, छोटा घर, बच्चों की पढ़ाई का बढ़ता खर्चा और सब से मुख्य बात पत्नी का भी नौकरीपेशा होना अथवा सहयोग न देना, जिस की वजह से वे ऐसा नहीं कर पाते. फिर बड़े शहरों में एक तो विश्वासपात्र नौकर नहीं मिलते और अगर कोई मिल भी जाता है तो मोटा वेतन मांगता है. तो भी डर बना रहता है कि कहीं घर में कोई दुर्घटना न घट जाए. उस पर मातापिता का जिद्दी होना, हर समय की टोकाटोकी, खानपान में नुक्ताचीनी जैसी कई समस्याएं हैं. घर आने पर हर व्यक्ति सुकून चाहता है, पर ऐसे हालात में यह संभव नहीं हो पाता. कई बार मातापिता स्वयं भी साथ नहीं रहना चाहते. फिर आज के माहौल में छोटा परिवार की धारणा को भी बढ़ावा मिल रहा है.

ये भी पढ़ें- पति से न कहें ये 6 बातें वरना हो सकती हैं परेशानी

ऐसा क्यों हो रहा

सवाल यह उठता है कि आज के समय में ऐसा क्यों हो रहा है, जबकि मातापिता भी शिक्षित हैं और बच्चे भी?

मनोचिकित्सक दिव्या बताती हैं कि बेटा और बेटी के साथ समान व्यवहार करना व बेटी को भी प्रौपर्टी में समान हिस्सा देने से लड़कों के मन में यह विचार आने लगा है कि मांबाप के देखभाल की जितनी जिम्मेदारी उन की है उतनी ही बेटी की भी यानी मांबाप की देखभाल की जिम्मेदारी अकेले उन की नहीं है. वैसे भी भावनात्मक रूप से लड़कियां अपने मातापिता से ज्यादा जुड़ी रहती हैं. दूसरे अब वे भी आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो रही हैं, अत: ससुराल वाले भी उन से कुछ नहीं कह पाते. अब पतियों को भी यह समझ में आने लगा है कि पत्नी के मातापिता भी उतने ही जरूरी हैं जितने अपने. इसी कारण वे पत्नी को पूरापूरा सहयोग देते हैं.

मातापिता स्वयं भी जिम्मेदार होते हैं. बहू में हर समय कमी देखते हैं, उस के साथ जुड़ाव नहीं कर पाते. कोई बात करनी हो तो भी बेटे से अलग करते हैं. बहू के सामने नहीं. दूसरे हर बात में अपनी बेटी को बहू के मुकाबले ज्यादा आंकते हैं. गाहेबगाहे बेटी को तो तोहफे देते रहते हैं पर बहू को नहीं. यह सच है कि उम्र के साथ कुछ बीमारियों का लगना आम बात है तो भी वे मांबाप हैं और उन्हें भावनात्मक सहारा अपने बच्चों से मिलना ही चाहिए ताकि वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर खुद को उपेक्षित न महसूस करें.

आजादी से निखरती बेटियां

मैं कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी. वहां 5 से 9-10 साल के बीच की 3 बहनों को देखा, जो अपने पिता के पीछेपीछे चलती हुईं रैक पर सजे सामान को छूतीं और फिर ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ पता चल रहा था कि इन की बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जाएगा जो इन का पिता चाहेगा. पिता धीरगंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. बच्चियों की मां पीछे गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी. वह भी कुछ भी छूने से पहले पति की तरफ देखती थी.

अगलबगल कई और परिवार भी शौपिंग कर रहे थे, जिन की बेटियां अपनी मां को सुझाव दे रही थीं या पिता पूछ रहे थे कि कुछ और लेना है? उन हिजाब संभालती बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख मेरे मन में आ रहा था कि न जाने वे क्या सोच रही होंगी. उन की कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटती रही.

भेदभाव क्यों

इसी तरह देखती हूं कि घरों में लड़के अकसर ज्यादा अच्छे होते हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर बनते हैं, जबकि उसी घर की लड़कियों को बहुत कम पढ़ा कर उन की शादी कर दी जाती है. ऐसा कैसे होता है कि लड़कियां ही कमजोर निकलती हैं उन के भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊंचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने की आजादी ही नहीं होती है, पाने को वह मौका ही नहीं मिलता है, जो उन के पंख पसार उड़ने में सहायक बने.

ये भी पढ़ें- अंधेरा उनके दिलों में भी न रहे

एक आम धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है. इसलिए उन्हें दबा कर रखना चाहिए. उन के मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए, क्योंकि कल को जब वे ससुराल जाएंगी तो उन्हें तकलीफ होगी. बचपन से ही उन पर इतनी टोकाटाकी और पाबंदियां लगा दी जाती हैं कि उन का विश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है.

आज भी उन से उम्मीद की जाती है कि वे वही काम करें, वैसा ही करें जो उन की मां, दादी या बूआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण एहसास दिलाया जाता है कि वे लड़कियां हैं और उन्हें इन अधिकारों का हक नहीं है, कहीं अकेले नहीं जा सकती हैं, अपनी पसंद के कपड़े नहीं पहन सकती हैं. उन्हें अपने पिता, भाई की हर बात माननी ही होगी. अपनी पसंद के विषय या खेल चुनना तो दूर की बात है.

ऐसा भी नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. उच्चवर्ग और निम्नवर्ग तो हमेशा पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है, यह सारी पाबंदियां, वर्जनाएं मध्य वर्ग के सिर हैं. शहरी मध्य वर्ग के लोगों की सोच में भी बहुत बदलाव आ चुका है, वे अपनी बेटियों को कम या ज्यादा आजादी दे रहे हैं. पूरी आजादी तो शायद ही अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को मिली हो.

आजादी के माने

आजादी देने का मतलब छोटे कपड़े पहनना, शराब पीना या देर रात बाहर घूमना ही नहीं होता है. आजादी का मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घरबाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उस का ऐसा बौद्घिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता, भाई या पति पर निर्भर न रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों तक ही सीमित न हो, बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वे आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकें.

बेटियों के गुण व रुझान की पहचान कर उन के विकास में सहयोग करना हर मातापिता का फर्ज है. नियम ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जीया जाता है,’ यह बचपन से सीख सके वरना यहां ससुराल और पति के लिए ही किसी बेटी का लालनपालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल या गीता फोगट के मातापिता की होती तो देश कितनी ही प्रतिभाओं के परिचय से भी वंचित रह जाता.

बदलाव थोड़ा पर अच्छा

बेटेबेटियों के लालनपालन का अंतर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वे भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को जाहिर करने लगी हैं. शादी की उम्र भी अब खिंचती दिख रही है. पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी, आज अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच बनने लगी है और इस का असर समाज में दिखने भी लगा है. चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजूमदार आज लड़कियों की रोल मौडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलाव से बेटियों की प्रतिभा भी सामने आने लगी है.

ये भी पढ़ें- हंस कर रहने में ही चतुराई

ह्यूमन कैपिटल देश की सब से कीमती संपत्ति है. बेटियों का विकास ही देश को विकसित बनाता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है, तो देश का विकास भी नामुमकिन है. जरूरत है प्रतिभाओं के विकास और उन्हें सही दिशा देने की. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभाओं को खोज उन्हें सामने लाना ही होगा. आजादी से निखरती ये बेटियां घरपरिवार, समाज के साथसाथ खुद और देश को भी विकसित कर रही हैं. अनैतिकता के नाम पर लड़कियों को काबू में रखने की कोशिश न करें. संस्कृति, धर्म और सुरक्षा के नाम पर जो रोकटोक लगाई जा रही है, वह भारी पड़ेगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें