दुविधा: क्या रघु को छोड़ पाई बुआ

कपड़े तहियाते हुए आरती के हाथ थम गए. उस की आंखें नेपथ्य में जा टंगीं. मन में तरहतरह के विचार उमड़नेघुमड़ने लगे. उसे लगा कि वह एक स्वप्नलोक में विचर रही है. उसे अभी भी विश्वास न हो रहा था कि पूरे 10 साल बाद उस का प्रेमी मिहिर फिर उस की जिंदगी में आया था और उस ने उस की दुनिया में हलचल मचा दी थी. वह बैंक में अपने केबिन में सिर झुकाए काम में लगी थी कि मिहिर उस के सामने आ खड़ा हुआ. ‘‘अरे तुम?’’ वह अचकचाई. उस चिरपरिचित चेहरे को देख कर उस का दिल जोरों से धड़क उठा.

‘‘चकरा गईं न मुझे देख कर,’’ मिहिर मुसकराया.

‘‘हां, तुम तो विदेश चले गए थे न?’’ उस ने अपने चेहरे का भाव छिपाते हुए पूछा,

‘‘इस तरह अचानक कैसे चले आए?’’

‘‘बस यों ही चला आया. अपने देश की मिट्टी की महक खींच लाई. तुम अपनी सुनाओ, कैसी गुजर रही है हालांकि मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. देख ही रहा हूं कि तुम मैनेजर की कुरसी पर विराजमान हो. इस का मतलब है कि तुम्हारी तरक्की हो गई है. लेकिन लगता है कि तुम्हारे निजी जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया है. तुम वैसी ही हो जैसी तुम्हें छोड़ कर गया था.’’

‘‘हां, मेरे जीवन में अब क्या नया घटने वाला है? जिंदगी एक ढर्रे से लग गई है. सब दिन एकसमान, न कोई उतार, न चढ़ाव,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘यह रास्ता तुम्हारा खुद का अपनाया हुआ है,’’ मिहिर ने उलाहना दिया, ‘‘मैं ने तो तुम्हें शादी का औफर दिया था. तुम्हीं न मानीं.’’

आरती कुछ न बोली.

‘‘अच्छा यह बताओ, लंच के लिए चलोगी? तुम से मिले अरसा हो गया. मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं.’’

वे दोनों काफी देर तक रेस्तरां में बैठे रहे. बातों के दौरान मिहिर ने कहा, ‘‘आरती, मेरा भाई अमेरिका में रहता है. उस ने मुझे वहां बुलवा लिया. शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा पर अब मुझे अच्छी नौकरी मिल गई है. मुझे वहां की नागरिकता भी मिल गई है. मैं ने वहां अपना घर खरीद लिया है. केवल गृहिणी यानी पत्नी की कमी है. मैं ने अभी तक शादी नहीं की है. मैं अभी भी तुम्हें दिलोजान से चाहता हूं. तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. इतने दिन तुम्हारी याद के सहारे जिया. अब मैं चाहता हूं कि हम दोनों विवाहबंधन में बंध जाएं. बोलो, क्या कहती हो?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूं?’’ वह सिर झुकाए बोली.

‘‘वाह, तुम नहीं तो तुम्हारी जिंदगी के अहम फैसले क्या कोई और लेगा? आरती, तुम्हारा भी जवाब नहीं. तुम्हें कब अक्ल आएगी. मैं और तुम बालिग हैं, अपनी मरजी के मालिक. हमें अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक है.’’

‘‘मुझे सोचने का थोड़ा वक्त दो,’’ उस ने कहा.

‘‘हरगिज नहीं,’’ मिहिर ने दृढ़ता से कहा, ‘‘सोचविचार में तुम ने अपनी आधी जिंदगी गंवा दी. अब मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा. तुम्हें फैसला अभी, इसी वक्त लेना होगा. अभी नहीं तो कभी नहीं.’’

आरती के मन में उथलपुथल मच गई. जी में आया कि वह तुरंत अपनेआप को मिहिर की बांहों में डाल दे और उस से कहे, मैं तुम्हारी हूं, तुम जो चाहे करो, मुझे मंजूर है. इस के सिवा उस के पास और कोई चारा भी तो न था. वह अपनी एकाकी गतिहीन जिंदगी से बहुत उकता गई थी. अब तक मांबाप का साया सिर पर था पर आगे की सोच कर वह मन ही मन कांप जाती थी. उसे एक सहारे की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी. उस ने तय कर लिया कि वह मिहिर का हाथ थाम लेगी. यह निर्णय लेते ही उस के सिर से एक भारी बोझ उतर गया. उस के मन में हिलोरें उठने लगीं.

‘‘ठीक है,’’ वह बोली.

उसे वह दिन याद आया जब मिहिर से पहली बार मिली थी. पहली नजर में ही वह उस की ओर आकर्षित हो गई थी. वह बड़ा हंसोड़ और जिंदादिल था. धीरेधीरे उन में नजदीकियां बढ़ती गईं और एक दिन मिहिर ने विवाह का प्रस्ताव किया. आरती के मन में रस की फुहार फूट निकली. वह भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गई. लेकिन उस के मातापिता को उस का प्रेमप्रसंग रास न आया. उन्होंने मिहिर का जम कर विरोध किया. उन्हें मिहिर में खामियां ही खामियां नजर आईं. वह पिछड़ी जाति का था और गरीब घर से था. उन्होंने आरती को समझाने की कोशिश की कि मिहिर उस के लायक नहीं है और वह उस से शादी कर के बहुत पछताएगी. जब उन्होंने देखा कि आरती पर उन की बातों का कोई असर नहीं हो रहा है तो उन्होंने अपना आखिरी दांव चलाया, ‘ठीक है, यदि तू अपनी मनमरजी करने पर तुली है तो यही सही. तू जाने, तेरा काम जाने. लेकिन इस के बाद हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म. हम मरते दम तक तेरा मुंह न देखेंगे.’ आरती बहुत रोईधोई पर पिता की बात मानो पत्थर की लकीर थी. और मां ने भी पिता की हां में हां मिलाई.

आरती के मन में भय का संचार हुआ. उस में इतनी हिम्मत न थी कि वह मांबाप से बगावत कर के, समाज की अवहेलना कर के मिहिर से शादी रचाती. वह उधेड़बुन करती रही, सोच में डूबी रही, आगापीछा सोचती रही. दिन बीतते गए और एक दिन मिहिर उस से नाराज हो कर, उस से नाता तोड़ कर उस की दुनिया से दूर चला गया. आरती के मातापिता ने उस के लिए और लड़के तलाश किए पर आरती ने सब को नकार दिया. वह तो मिहिर से लौ लगाए थी. यादों में खोई आरती को मिहिर की आवाज ने झिंझोड़ा, ‘‘मैं कल शाम को तुम्हारे घर आऊंगा. हम अपने भावी जीवन के बारे में बात करेंगे और मैं तुम्हारे मातापिता से भी मिल लूंगा. पिछली बार उन्होंने हमारी शादी में अड़ंगा लगाया था. आशा है इस बार उन्हें कोई आपत्ति न होगी.’’

‘‘नहीं, और होगी भी तो अब मैं उन की सुनने वाली नहीं हूं,’’ वह जरा हिचकिचाई और बोली, ‘‘केवल एक समस्या है.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘रघु की समस्या.’’

‘‘यह रघु कौन है? क्या वह मेरा रकीब है?’’

‘‘हटो भी,’’ आरती हंस पड़ी, ‘‘रघु मेरा भतीजा है. मेरे बड़े भाई का बेटा. कुल 12 साल का है.’’

‘‘तो उस के साथ क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘तुम कल घर आ रहे हो न. वहीं पर बातें होंगी.’’

मिहिर आरती के यहां बरामदे में बैठा हुआ था. आरती ने उसे रघु के बारे में विस्तार से बताया. उस के भाई सुरेश ने एक अति सुंदर कन्या से प्रेमविवाह कर लिया था. वे अपने नवजात शिशु को ले कर मुंबई रहने चले गए थे जहां सुरेश की नौकरी लगी थी. पर किन्हीं वजहों से उन में अनबन रहने लगी और एक रोज उस की पत्नी उस से लड़झगड़ कर उसे छोड़ कर चली गई. साथ ही, बच्चे को भी छोड़ गई. सुरेश मजबूरन रघु को बैंगलुरु ले आया क्योंकि मुंबई में उसे देखने वाला कोई न था. ‘तू चिंता मत कर,’ पिता माधवराव ने उसे आश्वासन दिया, ‘बच्चे को यहां छोड़ जा, यह यहां पल जाएगा.’ उन्होंने बच्चे को आरती की गोद में डालते हुए कहा, ‘ले बिटिया, अब तू ही इसे पाल. हमेशा कुत्तेबिल्ली के बच्चों के साथ खेलती रहती है. यह जीताजागता खिलौना आज से तेरे जिम्मे.’

आरती ने शिशु को हृदय से लगा लिया. उस के दिल में ममता का स्रोत फूट निकला. उस नन्ही सी जान के प्रति उस के दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आया. वह सचमुच बच्चे में खो गई. वह बैंक से लौटती तो रघु की देखभाल में लग जाती. रघु भी उस से बहुत हिलमिल गया था और हमेशा उस के आगेपीछे घूमता रहता. वह उसे छोड़ कर एक पल भी न रहता था. कभीकभी रघु को कलेजे से लगा कर वह सोचती कि क्या यही मेरी नियति है? और लड़कियों की तरह उस ने भी सपने देखे थे. उस के हृदय में भी अरमान मचलते थे. वह भी अपना एक घरबार चाहती थी, एक सहचर चाहती थी जो उस को दुलार करे, उस के नाजनखरे उठाए, उस के सुखदुख में साथी हो. पर वह अपनी अधूरी आकांक्षाएं लिए मन ही मन घुटती रही. उसे लगता कि प्रकृति ने उस के साथ अन्याय किया है. और उस के अपनों ने भी उस की अनदेखी की है. सुरेश ने दोबारा शादी कर ली और उस ने रघु को अपने साथ ले जाना चाहा. ‘बेशक ले जाओ,’ माधवराव बोले, ‘तुम्हारी ही थाती है आखिर. इतने दिन हम ने उस की देखभाल कर दी. अब अपनी अमानत को तुम संभालो. मैं और तुम्हारी मां बूढ़े हो चले. अशक्त हो गए हैं. कब हमारी आंखें बंद हो जाएं, इस का कोई ठिकाना नहीं.’

रघु से बिछड़ने की कल्पना से ही आरती का दिल बैठने लगा. ‘यदि मुझे मालूम होता कि इस बालक से एक दिन बिछड़ना होगा तो मैं इस के मोहजाल में न फंसती,’ उस ने आह भर कर सोचा. और जब 7 साल के रघु ने सुना कि उसे मुंबई जाना होगा तो उस ने रोरो कर सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘मैं हरगिज मुंबई नहीं जाऊंगा. वहां मेरा मन नहीं लगेगा. मैं बूआ को छोड़ कर नहीं रह सकता.’ पर उस की कौन सुनने वाला था. सुरेश उसे जबरन ले गया. आरती ने बताया कि जबतब रघु फोन पर बहुत रोता और झींकता था. उसे वहां बिलकुल भी अच्छा न लगता था. एक दिन अचानक सुरेश का फोन आया कि रघु गायब है. सुबह स्कूल गया तो घर नहीं लौटा. वे सब परेशान हैं और उसे तलाश कर रहे हैं. घर के लोग चिंतातुर टैलीफोन के इर्दगिर्द जमे रहे. सुबह द्वार की घंटी बजी तो देखा कि रघु खड़ा है, अस्तव्यस्त, बदहवास.

आरती ने दौड़ कर उसे लिपटा लिया.

‘अरे रघु बेटा, तू अचानक ऐसे कैसे चला आया?’

‘बूआ,’ रघु सिसकने लगा, ‘मैं घर से भाग आया हूं. अब कभी लौट कर नहीं जाऊंगा. मुझे वहां बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था. मैं वहां रोज रोता था.’

‘सो क्यों मेरे बच्चे,’ आरती ने उस का सिर सहलाते हुए पूछा.

‘मेरा वहां कोई दोस्त नहीं है. स्कूल से वापस आता हूं तो मां पढ़ने बिठा देती हैं. जरा सा खेलने भी नहीं देतीं. टीवी भी नहीं देखने देतीं. पापा के सामने मुझे प्यार करने का दिखावा करती हैं पर उन की पीठपीछे मुझे फटकारती रहती हैं.’

‘अच्छा, अभी थोड़ा सुस्ता ले. बाद में बातें होंगी.’

‘बूआ, मुझे बहुत भूख लगी है. मैं ने कल से कुछ नहीं खाया.’ उस ने उस का मनपसंद नाश्ता बना कर अपनी गोद में बिठा कर उसे खिलाते हुए कहा, ‘यह तो बता कि तू इस तरह बिना किसी को बताए क्यों भाग आया? तुझे पता है, घर में सब तेरी कितनी फिक्र कर रहे हैं?’ रघु ने अपराधी की तरह सिर झुका लिया. जब सुरेश को सूचना दी गई तो वह बहुत आगबबूला हुआ, ‘इस पाजी लड़के को यह क्या पागलपन सूझा? यहां ऐसा कौन सा कांटों पर लेटा हुआ था? नर्मदा दिनरात उस की सेवाटहल करती थी. सच तो यह है कि आप लोगों के प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. खैर, मैं आ रहा हूं उसे लेने.’ रघु ने सुना तो रोना शुरू कर दिया, ‘मैं हरगिज वापस मुंबई नहीं जाऊंगा. अगर आप लोगों ने मुझे जबरदस्ती भेजा तो फिर घर से भाग जाऊंगा और इस बार वापस यहां भी न आऊंगा.’

‘छि: ऐसा नहीं कहते. हम तेरे पिता से बात करेंगे. कुछ हल निकालेंगे.’

मिहिर ने आरती की ये बातें सुनीं तो बोला, ‘‘इतना तो मेरी समझ में आ गया कि तुम ने रघु को बचपन से पाला है और तुम्हारा उस से गहरा लगाव है पर देखा जाए तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी तो नहीं है. तुम ने उस की जिंदगी का ठेका नहीं लिया है. इतने दिन तुम ने उसे संभाल दिया, सो ठीक है. अब उस के मातापिता को उस की फिक्र करने दो. तुम अपनी सोचो.’’ आरती के माथे पर पड़े बल को देख कर उस ने झुंझला कर कहा, ‘‘आरती, मैं तुम्हें समझ नहीं पा रहा हूं. हमेशा दूसरों के लिए जीती आई हो. कभी अपने लिए भी सोचो. यह जीना भी कोई जीना है? बस, मैं ने कह दिया, सो कह दिया, कल हम कचहरी जाएंगे. तुम तैयार रहना.’’

‘‘ठीक है,’’ आरती ने कहा. उस ने एक विश्वास छोड़ा. वह मिहिर को कैसे समझाए कि अपना न होते हुए भी वह भावनात्मक रूप से रघु से जुड़ी हुई है. उस बालक ने मां की ममतामयी गोद न जानी. उस ने पिता का स्नेह व संरक्षण न पाया. आरती ही उस के लिए सबकुछ थी. आरती का उदास चेहरा देख कर मिहिर द्रवित हुआ, ‘‘आरती, अगर तुम रघु से बिछड़ना नहीं चाहतीं तो एक उपाय है. हम कानूनन रघु को गोद ले सकते हैं.’’

‘‘क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं. अमेरिका से कई संतानहीन दंपती भारत के अनाथालयों से अनाथ बच्चों को गोद लेते हैं. हां, इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है. बहुत कागजी कार्यवाही करनी पड़ती है, बहुत दौड़धूप करनी पड़ती है. अगर तुम चाहो और सुरेश इस के लिए राजी हो तो इस के लिए कोशिश की जा सकती है.’’

‘‘तुम इतना सब करोगे मेरे लिए?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए कुछ भी कर सकता है.’’

आरती ने उसे स्नेहसिक्त नेत्रों से देखा. मिहिर उसे एकटक देख रहा था. उस की आंखों में कुछ ऐसा भाव था कि वह शरमा गई.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

आरती ने चाय बना कर रघु को आवाज दी, ‘‘बेटा, जरा यह चाय बाहर बरामदे में बैठे अंकल को दे आओ. मैं कुछ गरम पकौड़े बना कर लाती हूं.’’

‘‘अंकल चाय,’’ रघु ने कहा.

‘‘थैंक यू. आओ बैठो. तुम रघु हो न?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘तुम्हारी बूआ ने तुम्हारे बारे में बहुतकुछ बताया है. सुना है कि तुम पढ़ने में बहुत तेज हो. हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आते हो.’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा यह तो बताओ, तुम अमेरिका में पढ़ना चाहोगे?’’

‘‘मैं अमेरिका क्यों जाना चाहूंगा जबकि यहां एक से बढ़ कर एक अच्छे स्कूल हैं.’’

‘‘हां, यह तो है पर वहां तुम अपनी बूआ के साथ रह सकोगे.’’

‘‘बूआ का साथ कितने दिन नसीब होगा? एक न एक दिन तो मुझे उन से अलग होना ही पड़ेगा. स्कूली शिक्षा के बाद पता नहीं कौन से कालेज में, किस शहर में दाखिला मिलेगा.’’ मिहिर के जाने के बाद आरती ऊहापोह में पड़ी रही. उस की जिंदगी में भारी बदलाव आने वाला था. वह अपने कमरे में सोच में डूबी हुई बैठी थी कि रघु उस के पास आया, ‘‘बूआ, मैं तुम से एक बात कहना चाह रहा था.’’

 

‘‘बोल बेटा.’’

‘‘मैं बोर्डिंग में रह कर पढ़ना चाहता हूं.’’

‘‘अरे, सो क्यों?’’

‘‘मेरे कुछ दोस्त ऊटी के स्कूल में पढ़ने जा रहे हैं. वे मुझे बता रहे थे कि चूंकि मैं ने हमेशा अपनी क्लास में टौप किया है, मुझे आसानी से वहां दाखिला मिल सकता है. बूआ, मेरा बड़ा मन है कि मैं अपने साथियों के साथ उसी स्कूल में पढ़ूं. तुम मेरी मदद करोगी तो यह संभव होगा.’’

‘‘तू सच कह रहा है?’’

‘‘हां बूआ, बिलकुल सच.’’

आरती का मन हलका हो गया. उस ने सपने में भी न सोचा था कि उस की समस्याओं का हल इतनी आसानी से निकल आएगा. उस ने मन ही मन तय कर लिया कि रघु की स्कूली पढ़ाई समाप्त हो जाने पर वह उसे अपने पास बुला लेगी. वह तुरंत मिहिर को फोन करने बैठ गई. रघु उस के पास ही मंडराता रहा. उस ने बूआ और मिहिर की बातें सुन ली थीं. वह जान गया था कि बूआ और मिहिर एकदूसरे को चाहते हैं और विवाह करना चाहते हैं और उस ने अचानक आ कर बूआ को उलझन में डाल दिया था.

उस ने सहसा बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने का निश्चय कर लिया. और सोच लिया कि यदि वहां दाखिला न मिला तो वह मुंबई चला जाएगा. उस ने पलक मारते तय कर लिया कि वह अपनी बूआ की खुशियों के आड़े नहीं आएगा. उस ने अपनी बूआ को करीब से देखा और जाना है. उसे उन के दर्द और तड़प का एहसास है. उस ने बचपन से ही देखा है कि किस तरह उस की बूआ ने पगपग पर सब की मरजी के आगे सिर झुकाया है. वे कितना रोई और कलपी हैं.

क्या रघु भी औरों की तरह बनेगा? नहीं, वह इतना निष्ठुर नहीं बनेगा. वह अपनी बूआ के प्रति संवेदनशील है. वह हमेशा उन का ऋणी रहेगा. उस का रोमरोम बूआ का आभारी है. यदि बचपन में उन्होंने उस की सारसंभाल न की होती तो पता नहीं आज वह किस हाल में होता. उस ने मन ही मन ठान लिया कि वह भरसक कोशिश करेगा कि अपनी बूआ का आगामी जीवन सुखमय बनाए.

दुविधा: किस कशमकश में थी वह?

एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं. कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

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मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती. लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

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समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

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भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता.

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