Monsoon Special: 2020 पर टिकी है अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की उम्मीद

भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. बेरोजगारी की आधिकारिक दर 20 फीसदी से ऊपर पहुंच गई है और गैरसरकारी आंकड़ों की बात करें तो यह 35 फीसदी से भी ऊपर है. जो मनरेगा कभी गांव के कामरहित मजदूरों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया था, अब उस पर चार करोड़ से ज्यादा नये बेरोजगारों का बोझ है और 120 दिन की बजाय कम से कम 250 दिन काम देने का भी दबाव है. कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बुरे दौर से गुजर रही है.

कृषि पर 2018-19 में जहां देश की 30 से 35 फीसदी वर्कफोर्स को काम देने का दबाव था, अब उसी कृषि पर 50 फीसदी से ज्यादा वर्कफोर्स को काम देने का दबाव है. कुटीर और लघु उद्योग दोनो ही लाॅकडाउन से तहस-नहस हो गये हैं और 20 लाख करोड़ की पैकेज में बहुत बड़ी बड़ी मगर पैचिंदी उम्मीदें दिखायी गई थीं, लेकिन उन उम्मीदों का व्यवहार में कोई भी असर नहीं हो रहा. छोटे, मझौले शहरों और कस्बों तो छोड़िए देश के टाॅप ग्रेड महानगरों में भी 60 फीसदी से ज्यादा ढाबे और खाने के छोटे होटल लाॅकडाउन के बाद खुलने की अनुमति होने के बाद भी नहीं खुले और शायद नहीं खुलेंगे.

वैसे भी अर्थव्यवस्था के बारे में खासकर औद्योगिक अर्थव्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि एक बार शटर डाउन होने के बाद उसे दोबारा खुलवाने में बहुत मुश्किलें आती हैं और तमाम सफलताओं के बावजूद 20 प्रतिशत शटर कभी नहीं उठते. कुल मिलाकर हालात आशंका से कहीं ज्यादा खराब है. सिर्फ उत्पादन के क्षेत्र में ही स्थिति बुरी नहीं है, सेवा क्षेत्र भी तहस-नहस हो चुका है. टूर एंड ट्रैवेल इंडस्ट्री लाॅकडाउन के बाद 5 फीसदी अभी तक रिवाइव नहीं हो सकी. होटल इंडस्ट्री का भी अभी यही हाल है. बैंकिंग सेक्टर भी अभी बुरी स्थिति से गुजर रहा है और बीमा क्षेत्र तो इस साल अपने मार्च के टारगेट पूरा नहीं ही कर पाया, जानकारों को डर है कि अगले मार्च तक भी वह टारगेट नहीं पूरा कर पायेगा.

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कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की इस भयावह स्थिति में अब बहुत कुछ दारोमदार अच्छे मानसून पर आकर टिक गया है. इसकी वजह यह है कि आज भी देश की 40 से 60 फीसदी तक कृषि मानसून के भरोसे ही है. जिस साल मानसून कमजोर होता है या सूखा पड़ जाता है तो तमाम संसाधनों के इस्तेमाल के बावजूद देश में इतना अनाज पैदा नहीं हो पाता, जितना सालभर के लिए जरूरी होता है. इसलिए भारत में तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नति के बावजूद आज भी कृषि क्षेत्र के लिए मानसून उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना 1960 और 70 के दशक में हुआ करता था. इसलिए अगर मानसून सही रहा तो देश में कृषि उत्पाद की दिक्कत नहीं होगी.

मानसून सही रहा तो बड़े पैमाने पर लगभग 20 अरब रोजगार के घंटे पैदा होंगे, जो भयानक रूप से पैदा हुई बेरोजगारी को किसी हद तक थामेंगे. यही नहीं जब मानसून अच्छा होता है, कृषि पैदावार भरपूर होती है तो देश के दूसरे औद्योगिक क्षेत्रों विशेषकर कुटीर उद्योग के क्षेत्र में भी उम्मीदों और आशाओं का संचार होता है और कुटीर उद्योग ऐसे सालों में जब मानसून अच्छा हो डेढ़ से दो करोड़ लोगों को अतिरिक्त रोजगार देते हैं. बाजार में खाने पीने और दूसरी रोजमर्रा के चीजों की कालाबाजारी की आशंकाएं कम हो जाती है और महंगाई पर भी लगाम रहती है; क्योंकि जिंस के क्षेत्र में फ्यूचर ट्रेडिंग उपभोक्ताओं के पक्ष में रहती है. इसे अगर और सरल शब्दों में कहें तो यह कह सकते हैं कि जब बारिश कम होती है या सूखा पड़ जाता है, तब 10 से लेकर 35 फीसदी तक महंगाई भी बढ़ जाती है. अच्छे मानसून से महंगाई पर लगाम लगती है.

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चूंकि मौसम विभाग ने इस साल सामान्य से अच्छी बारिश होने की भविष्यवाणी की है. इसका मतलब यह है कि 96 फीसदी से ज्यादा बारिश होगी. क्योंकि अगर 80 से 85 फीसदी तक ही बारिश होती है तो वह कम संकट का समय होता है और अगर 75 फीसदी से कम बारिश होती है तो यह बहुत बड़े संकट का द्योतक होती है. इसलिए विशेषज्ञों के मुताबिक हर तरफ से बुरे माहौल में एक मानसून ही है जो सकारात्मक साथ देने के लिए तैयार रहता है. अगर मानसून सकारात्मक रहता है तो उम्मीद है कि पटरी से उतर गई भारतीय अर्थव्यवस्था किसी हद तक फिर पटरी पर आ जाए, भले वह तेज गति इस साल हासिल न कर सके, जिसकी कोरोना संकट के पहले तक बहुत ही जरूरत थी और अब तो उससे भी ज्यादा जरूरत है. लेकिन जो हालात हैं उसमें इतनी ज्यादा उम्मीदें लगाना एक किस्म से उम्मीदों पर से भी बेईमानी करना है.

आर्थिक विनाश की ओर भारत

केंद्र सरकार की दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के चलते देश की अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. हाल यह है कि अप्रैल महीने में तेजी से आगे बढ़ रही दुनिया की 10 अर्थव्यवस्थाओं में भारत सबसे पीछे है.

कोरोना और लौकडाउन की वजह से हुई आर्थिक तबाही को ही नहीं, बल्कि इसके पहले के तीनचार वर्षों के नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में हुई आर्थिक बदहाली को भी दुरुस्त करना होगा.

उधर, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने कहा है कि इस साल सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी ग्रोथ नैगेटिव रहेगी. आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा कि दुनियाभर में हालात चिंताजनक बने हुए हैं और लौकडाउन के कारण मांग में कटौती हुई है. दास ने कहा, ‘कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था को नुक़सान हुआ है.’

वहीं, भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि देश आर्थिक महाविनाश की कगार पर खड़ा है और अर्थव्यवस्था को सुधारना अकेले प्रधानमंत्री कार्यालय के बूते की बात नहीं है. इसलिए, पीएमओ व पूरी सरकार को पूर्व वित्त मंत्रियों समेत कई अर्थशास्त्रियों की मदद लेनी चाहिए और इसमें यह नहीं देखना चाहिए कि वह ऐक्सपर्ट किस राजनीतिक दल का है. उन्होंने इस पर चिंता जताई और कहा कि स्थिति बदतर हो सकती है.

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‘द वायर’ पोर्टल के साथ लंबी बातचीत में रघुराज राजन ने यह भी कहा कि सिर्फ नोवल कोरोना वायरस और लौकडाउन की वजह से हुई आर्थिक तबाही को ही नहीं, बल्कि इसके पहले के तीनचार वर्षों के दौरान हुई आर्थिक बदहाली को भी दुरुस्त करना होगा.

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने ज़ोर देकर कहा कि कोरोना वायरस से लड़ना जितना ज़रूरी है, उतना ही जरूरी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाना भी है.

रघुराम राजन ने कहा कि एअरलाइंस, पर्यटन, निर्माण और औटोमोटिव जैसे सैक्टर्स वाकई संकट में हैं. सरकार अमेरिका की तरह बड़े राहत पैकेज का एलान नहीं कर सकती, पर इन लोगों के लिए वह क़र्ज़ का इंतजाम कर सकती है.

बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज का एलान किया. उसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने काफी विस्तार से 5 चरणों में उस पैकेज के बारे में बताया. लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस पैकेज का बड़ा हिस्सा पहले की रियायतों का है, जिसे इसमें जोड़ दिया गया है.

पैकेज का जो बचा हिस्सा है, वह बड़े पैमाने पर क़र्ज़ की गारंटी है. इसके अलावा कई बड़े और दूरगामी आर्थिक सुधारों को भी पैकेज में डाल दिया गया है. ये वैसे सुधार हैं, जिनका असर कई वर्षों बाद दिखेगा. पर ज़रूरत तो लोगों की स्थिति सुधारने की आज है.

वहीं, बदहाल अर्थव्यवस्था पर लौकडाउन का चाबुक पड़ने से उत्पादन, निर्यात और स्टौक मार्केट एकदम नीचे हो गए हैं. हाल इतना बुरा है कि पूरी दुनिया में सिर्फ तुर्की और मेक्सिको ही अप्रैल महीने में भारत से पीछे थे. लाइवमिंट ने एक अध्ययन में यह पाया है.

लाइवमिंट का ‘इमर्जिंग मार्केट्स ट्रैकर’ 7 संकेतकों को आधार बना कर अध्ययन करता है और पता लगाता है कि कौन देश किस स्थिति में है.

अप्रैल में एकत्रित किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत के निर्यात में 60 प्रतिशत की कमी आई. यह आगे बढ़ रही 10 अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गिरावट है. ज्यादातर देशों में 5 से 25 फीसदी की कमी देखी गई. सिर्फ 2 देशों चीन और थाईलैंड का निर्यात इस दौरान बढ़ा है.

भारत का उत्पादन अप्रैल में 27.4 प्रतिशत गिरा. यह 10 इमर्जिंग मार्केट में सबसे बड़ी गिरावट है. एकमात्र चीन ऐसा देश है, जहाँ इस दौरान भी उत्पादन बढ़ा है.

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भारत ने जनवरी-मार्च के दौरान सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का आंकड़ा जारी नहीं किया है. इन्वैस्टमैंट बैंकिंग कंपनी गोल्डमैन सैक्स ने 17 मई को कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 45 फीसदी सिकुड़ जाएगी.

कुलमिला कर गरीबभारत की आर्थिक हालत बहुत ज्यादा दयनीय हो गई है. वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अपना ईगो त्याग कर विपक्षी दलों व योग्य अर्थशास्त्रियों की सलाह के साथ प्रभावी कदम बढ़ाए, वरना…

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