औरतों के हाथ कुछ नहीं

अप्रैल मई में होने वाले चुनावों में औरतों की भूमिका मुख्य रहेगी, क्योंकि अब की बार बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिन का औरतों पर सीधा असर होगा. 2014 के चुनाव से पहले मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था जो अखबारों की सुर्खियां तो बनता था पर आम जनजीवन पर उस का असर न था. अब नरेंद्र मोदी इस चुनाव को भारत पाकिस्तान मुद्दे का बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हरेक को डराया जा सके कि पाकिस्तान को खत्म करना भारत के लिए आवश्यक है. जो इसे मुद्दा नहीं मानेगा, वह देशद्रोही होगा.

इस झूठी देशभक्ति और देश प्रेम के पीछे असल में औरतों को मानसिक व सामाजिक गुलाम रखने वाली धार्मिक परंपराओं को न केवल बनाए रखना है, बल्कि उन्हें मजबूत भी करना है. पिछले 5 सालों में देश में आर्थिक मामलों से ज्यादा धार्मिक या धर्म या फिर धर्म की दी गई जाति से जुड़े मामले छाए रहे हैं.

गौरक्षा सीधा धार्मिक मामला है. पौराणिक ग्रंथों में गायों की महिमा गाई गई है. असल में यह एक ऐसा धन था जिसे किसी भी गृहस्थ से पंडे बड़ी आसानी से बिना सिर पर उठाए दान में ले जा सकते थे.आज गायों के नाम पर जम कर राजनीति की जा रही है, चाहे इस की वजह से शहर गंदे हो रहे हों, घर सुरक्षित न रहें, किसानों की फसलें नष्ट हो रही हों.

इस की कीमत औरतों को ही देनी होती है. एक तरफ वे इस वजह से महंगी होती चीजों को झेलती हैं तो दूसरी ओर उन्हें पट्टी पढ़ा कर गौसेवा या संतसेवा में लगा दिया जाता है. इन 5 सालों में कुंभों, नर्मदा यात्राओं, तीर्थों, मूर्तियों, मंदिरों की बातें ज्यादा हुईं. वास्तविक उद्धार के नाम पर कुछ सड़कों, पुलों का उद्घाटन हुआ जिन पर काम वर्षों पहले शुरू हो चुका था.

भारत तरक्की कर रहा है, इस में संदेह नहीं है पर यह आम आदमी की मेहनत का नतीजा है, इस मेहनत का बड़ा हिस्सा सरकार संतसेवा, गौसेवा, तीर्थसेवा या सेनासेवा में लगा देगी तो घरवाली के हाथ क्या आएगा?

आज रिहायशी मकानों की भारी कमी है, जबकि उन के दाम नहीं बढ़ रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि लोगों के पास पैसा बच ही नहीं रहा. बदलते लाइफस्टाइल के बाद घरवाली इतना पैसा नहीं बचा पाती कि युवा होने के 10-15 साल में अपना खुद का घर खरीद सके. उसे किराए के दड़बों में अपनी स्टाइलिश जिंदगी जीनी पड़ रही है. औरतों को चुनावों में जीत के लिए लड़ाई में झोंक दिया गया तो यह एक और मार होगी.

पुराने राजा अपनी जनता से टैक्स वसूलने के लिए अकसर उन्हें साम्राज्य बनाने के लिए बलिदान के लिए उकसाते थे, लोगों को सेना में भरती कराते थे, ज्यादा काम करा कर टैक्स वसूलते थे और ज्यादा बंधनों में बांधते थे. आज भी कितने ही देशों में इस इतिहास को दोहराया जा रहा है.

औरतों को जो आजादी चाहिए वह शांति लाने वाली और कम जबरदस्ती करने वाली सरकार से मिल सकती है धर्मयुद्ध की ललकार लगाने वालों से नहीं. धर्म है तभी तो धंधा है औरतों की गुरुओं पर अपार श्रद्धा होती है और वे खुद को, पतियों को, बच्चों को ही नहीं सहेलियों को भी गुरुओं के चरणों के लिए उकसाती रहती हैं.

रजनीश, आसाराम, रामरहीम, रामपाल, निर्मल बाबा जैसों की पोल खुलने के बाद भी वे इन गुरुओं और स्वामियों की अंधभक्ति में लगी रहती हैं. अब औरतों की क्या कहें जब अरबों खरबों का व्यवसाय सफलतापूर्वक चलाने वाला रैनबैक्सी कंपनी का शिवेंद्र सिंह भी इसी तरह के गुरुकुल का सहसंचालक बन बैठा है और उसे धंधे की तरह चला रहा है, जहां सफेद कपड़े पहने हजारों भक्तिनें दिखती हैं.

शिवेंद्र की शिकायत और किसी ने नहीं उस के भाई और पार्टनर मानवेंद्र सिंह ने ही की है. पुलिस से अपनी शिकायत में मानवेंद्र सिंह ने कहा है कि राधा स्वामी सत्संग के मुख्य गुरु गुरिंद्र सिंह ढिल्लों और उस की वकील फरीदा चोपड़ा ने उसे जान से मारने की धमकी दी है. भाइयों की कंपनियों में बेईमानी के आरोप मानवेंद्र सिंह ने खुल कर लगाए हैं. पैसों को इधर से उधर करने का आरोप भी लगाया गया है.

राधा स्वामी सत्संग के संपर्क में आने के बावजूद शिवेंद्र सिंह शराफत का पुतला नहीं बना है. उस की कंपनियों को एक जापानी कंपनी को धोखे से बेचने पर 3,500 करोड़ का हरजाना देना भी अदालत ने मंजूर किया हुआ है. नकली दस्तखत तक करने के आरोप लगाए गए हैं.

सारे स्वामियों के आश्रम, डेरे, केंद्र इस तरह के आरोपों से घिरे हैं. इन स्वामियों का रोजाना औरतों को बलात्कार करना तो आम होता ही है, ये भक्तों का पैसा भी खा जाते हैं, सरकारी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं, विरोधी को मार डालते हैं, विद्रोही कर्मचारियों को लापता तक कर देते हैं. फिर भी इन्हें भक्तिनों की कभी कमी नहीं होती.

आमतौर पर इन आश्रमों में भीड़ औरतों की ही होती है जो घरों की घुटन से निकलने के लिए गुरुओं की शरणों में आती हैं पर दूसरे चक्रव्यूहों में फंस जाती हैं. इन आश्रमों में नाचगाना, बढि़या खाना, पड़ोसिनों की बुराइयों के अवसर भी मिलते हैं. बहुतों को गुरुओं से या उन के चेलों से यौन सुख भी जम कर मिलता है. आश्रम में जा रही हैं, इसलिए घरों में आपत्तियां भी नहीं उठाई जातीं. भक्तिनें अपने घर का कीमती सामान तो आश्रमों में चढ़ा ही आती हैं, अपनी अबोध बेटियों को भी सेवा में दे आती हैं.

केरल का एक मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था जहां एक 16 साल की लड़की को उस की मां खुद स्वामी को परोस आई थी कि इस से उस को पुण्य मिलेगा. शिवेंद्र सिंह और मानवेंद्र सिंह का विवाद जिस में राधा स्वामी सत्संग पूरी तरह फंसा है साफ करता है कि इस तरह के गुरुओं के गोरखधंधों को पनपने देना समाज के लिए सब से ज्यादा हानिकारक है.

अफसोस यह है कि इक्कादुक्का नेताओं को छोड़ कर ज्यादातर नेता भी इन गुरुओं के चरणों में नाक रगड़ते हैं, शिवेंद्र, मानवेंद्र सिंह और लाखों भक्तिनों की तरह. आप भी क्या ऐसी ही भक्तिन तो नहीं

भरोसा करें तो किस पर

वृद्धों की देखभाल करने में अब ब्लैकमेल और सैक्स हैरसमैंट से भी बेटों को जूझना पड़ सकता है. हालांकि, मुंबई का एक मामला जिस में 68 वर्षीय पिता के लिए रखी नर्स ने पिता की मालिश करते हुए वीडियो बनवा लिया और फिर उस वीडियो के सहारे 25 करोड़ रुपए की मांग कर डाली. भले अकेला ऐसा मामला सामने आया हो पर ऐसे और मामले नहीं होते होंगे, ऐसा नहीं हो सकता.

वृद्धों के लिए रखे गए नौकर अकसर शिकायत करते हैं कि वृद्ध उन से मारपीट करते हैं. यह कह कर वे नौकरी छोड़ने की धमकी दे कर बेटेबेटियों से पैसा भी वसूलते हैं. कुछ नौकरनौकरानियां धीरेधीरे शातिर बन कर पैसा वसूलने के बीसियों तरीके सीख लेते हैं. कामकाजी बेटेबेटियां वृद्ध मातापिता की जिद को पहचानते हैं, क्योंकि इस उम्र तक आते आते वृद्धों के मन में शंका भरने लगती है कि कहीं कोई उन्हें छोड़ न दे, किसी कागज पर दस्तखत न करा ले, कुछ लूट न ले. वे कभी उस नौकर या नौकरानी पर भरोसा करते हैं जो 24 घंटे उन के साथ होता है तो कभी 24 घंटे उस पर शक करते रहते हैं.

वीडियो बना कर ब्लैकमेल करना बहुत आसान है और अच्छे घरों के बेटेबेटियों के पास न तो माता पिता से पूछताछ करने की हिम्मत होती है और न ही वे बदनामी सहना चाहते हैं. वे पुलिस में चले जाएं तो भी खतरा बना रहता है कि घर के हर राज को जानने वाला नौकर या नौकरानी न जाने क्या क्या गुल खिलाए.

इस समस्या का आसान हल नहीं है. दुनियाभर में युवा बेटे बेटियों की गिनती घट रही है और वृद्धों की बढ़ रही है. अब तो यह बोझ पोतेपोतियों पर पड़ने लगा है. जब तक वृद्ध वास्तव में असहाय होते हैं तब तक पोते पोतियां युवा हो चुके होते हैं और उन्हें भी इन नौकर नौकरानियों से जूझना पड़ता है.

हमारे समाज ने पहले तो व्यवस्था कर रखी थी कि वानप्रस्थ आश्रम ले लो यानी किसी जंगल में जा कर मर जाओ पर आज का सभ्य, तार्किक, संवेदनशील व उत्तरदायी समाज उसे पूरी तरह नकारता है. वृद्धों को झेलना पड़ेगा, यह ट्रेनिंग तो अब बाकायदा दी जानी चाहिए. इस के कोर्स बनने चाहिए. यह समस्या विकराल बन रही है, यह न भूलें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें