औरतें धर्म नहीं शिक्षा से आगे बढ़ेंगी

सरकार शिक्षा के साथ जो भी कर रही है वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इशारे पर कर रही है, यह कुछ समय पहले संघ संचालक सर मोहन भागवत के भाषण से स्पष्ट है. हमें जो शिक्षा ब्रिटिश युग में दी गई थी वही आजादी की लड़ाई में काम आई. उसी शिक्षा के बल पर न केवल हम ने ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, घरघर में क्रांति भी आई.

उस समय सैकड़ों स्कूल सरकार ने खोले तो भारतीय उद्योगपतियों व व्यापारियों ने भी. दोनों में शिक्षा वह दी गई, जो जरूरी थी. भूगोल, इतिहास, समाज की जानकारी के साथसाथ लेखन कला का भी विकास कराया गया पर आजादी आते ही तेवर बदल गए और शिक्षा में लगातार धर्म धकेला जाने लगा. धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा का हिस्सा कांग्रेस के जमाने में ही हो गई, क्योंकि कट्टरपंथियों ने शिक्षा पर कब्जा कर रखा था.

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मोहन भागवत कहते हैं कि शिक्षा की रचना भी भारतीय दृष्टि से करनी पड़ेगी. यह भारतीय दृष्टि क्या है? मुख्यतया यही कि औरतें शिक्षा न पाएं, वे संस्कारों में बंधी रहें, वे गुरुओं की सेवा करें, पति की सेवा करें, पूजापाठ करें. ‘स्वभाषा, स्वभूषा, स्वसंस्कृति का सम्यक परिचय तथा उस के बारे में गौरव प्रदान करने वाली शिक्षापद्धति हमें चाहिए,’ इन शब्दों का क्या अर्थ है? स्वभूषा यानी औरतें न जींस पहनें न टौप. वे घूंघट में रहें. उन्हें क्या पहनना है वह कोई शास्त्र पढ़ कर बताएगा- मोहन भागवत के अनुसार. स्वभाषा का क्या अर्थ है? आप सिर्फ हिंदी बोलें, पढ़ें भी नहीं. हमारी स्वभाषा तो संस्कृत ही है, जो लिखी जाती है. अन्य भाषाओं को तो लिखने की कला पश्चिम से आई. छपाई की तकनीक पश्चिम से आई. मोहन भागवत इस के विरोधी हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि औरतें, दलित, पिछड़े ही नहीं वैश्य और क्षत्रिय भी पढ़ें. स्वभाषा का सैद्धांतिक अधिकार तो केवल एक विशिष्ट जाति के लिए है न? इस का पाठ भी आज जम कर पढ़ाया जा रहा है स्वसंस्कृति के नाम पर.

स्वसंस्कृति का क्या अर्थ है? यही न कि औरतें घरों में रहें. विधवा होने पर सबकुछ त्याग दें. निपूति हों तो पति को हक हो कि दूसरा विवाह कर ले. यहां तो आज भी यह गाथा सुनाई जाती है कि कैसे एक पत्नी अपने कोढ़ी पति को वेश्या के पास खुशीखुशी ले जाती थी या दूसरी पति के शव को ढकने के लिए अपना अंतिम वस्त्र भी देती है, यह संस्कृति भी हम पर थोपी जाए.

हम किस मुंह से गौरव की बात करें? अगर 1956 में हिंदू विवाह व उत्तराधिकारी कानून नहीं बनते तोे गौरव का अर्थ होता औरतों को सौतनों को सहना और पति या पिता की संपत्ति में हिस्सा न मिलना.

संघ असल में हिंदूमुसलिम विवाद खड़ा कर के औरतों, शूद्रों, अछूतों को गुलाम बनाए रखना चाहता है. उस का कोई निर्णय या कार्यक्रम ऐसा नहीं है, जो हिंदू औरतों को निरंतर धार्मिक चक्रव्यूहों और सामाजिक बंधनों से मुक्ति दिलाए. तीन तलाक पर 3 करोड़ तालियां बजवाने में पीछे नहीं रहता पर हिंदू औरतों के उद्धार की सोचने की उस की इच्छा नहीं, क्योंकि मोहन भागवत के शब्दों में तो ‘परिवारों में संस्कारों का क्षरण हो चुका है’ और आज के परिवार ‘निष्ठा विरहित आचरण’ की समस्याओं से जू झ रहे हैं जबकि सच यह है कि आज की हिंदू औरतें सदियों पुरानी विरासत की गुलामी, दोयमदर्जे का व्यवहार सह रही हैं, क्योंकि वे हिंदू औरतें हैं, पश्चिमी देशों की औरतें नहीं हैं.

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शिक्षा के माध्यम से सरकार और कट्टरपंथी असल में औरतों को प्राचीन संस्कारिक ढांचे में ढालना चाहते हैं जब उन्हें मुंह खोलने की इजाजत न थी और उन की स्वर्ण मृग की इच्छा या मनचाहा पति चाहने पर महाकाव्य लिख डाले गए. उन्हें ही रामायण और महाभारत के युद्धों के लिए दोषी ठहराया गया.

आज ऐसी शिक्षा की जरूरत है कि वह जाति और जैंडर के भेदभाव को भुला कर बराबरी कैसे पाएं का रास्ता बताए. बराबरी होगी तो इज्जत होगी. बराबरी होगी तो जाति आड़े नहीं आएगी. बराबरी होगी तो छेड़खानी और बलात्कार नहीं होंगे, शिक्षा यह दे सकती है.

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