एक अधूरा लमहा- भाग 2: क्या पृथक और संपदा के रास्ते अलग हो गए?

एक दिन उस ने ही चाय के लिए कहा. उसी के चैंबर में बैठे थे हम. मुझे बात बनती सी नजर आई. कई बातें हुईं पर मेरे मतलब की कोई नहीं हुई.

आगे चल कर चायकौफी का दौर जब बढ़ गया तो वैभव ने कहा कि तुम्हारी बात सिर्फ चाय तक ही है या आगे भी बढ़ी? मैं ने एक टेढ़ी सी स्माइल दी और खुद को यकीन दिलाया कि मैं उसे कुछ ज्यादा ही पसंद हूं. कभी कोई कहता कि सिगरेटशराब पीती है, तो कोई कहता ढेरों मर्द हैं इस की मुट्ठी में, तो कोई कहता कि देखो साड़ी कहां बांधती है? सैंसर बोर्ड इसे नहीं देखता क्या? जवाब आता कि इसे जीएम देखता है न.

ऐसी बातें मुझे उत्तेजित कर जातीं. कब वह आएगी मेरे हाथ? और तो और अब तो मुझे अपनी बीवी के सारे दोष जिन्हें मैं भूल चुका था या अपना चुका था, शूल की भांति चुभने लगे. उसे देखता तो लगता कैक्टस पर पांव आ पड़ा है. क्यों कभीकभी लगता है जिसे हम सुकून समझे जा रहे थे वह तो हम खुद को भुलावा दे रहे थे. कभी अचानक सुकून खुद कीमत बन जाता है सुख की… हर चीज की एक कीमत जरूर होती है.

ये बीवियां ऐसी क्यों होती हैं? कितना फर्क है दोनों में? वह कितनी सख्त दिल और संपदा कितनी नर्म दिल. वह किसी शिकारी परिंदे सी चौकस और चौकन्नी… और संपदा नर्मनाजुक प्यारी मैना सी. कोई खबर रखने की कोशिश नहीं करती कि कहां क्या हो रहा है, कोई उस के बारे में क्या कह रहा है.

संपदा की फिगर कमाल की है. और पत्नी को लाख कहता हूं ऐक्सरसाइज करने को, पर नहीं. कैसी लगेगी वह नीची साड़ी में? उस की कमर तोबा? शरीर में कोई कर्व ही नहीं है, परंतु इस के बाद भी घर में मेरा व्यवहार ठीक रहा. कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया.

एक दिन संपदा ने पूछ ही लिया परिवार के बारे में. मैं ने बताया बीवी के अलावा 1 बेटा और 1 बेटी है. तब उस ने भी बताया कि उस की भी 1 बिटिया है, टिनी नाम है. पति के बारे में उस ने न तो कुछ बताया और न ही मैं ने कुछ पूछा. पूछ कर मूड नहीं खराब करना चाहता था. हो सकता है कह देती कि मैं आज जो कुछ हूं उन्हीं की वजह से हूं या बहुत प्यार करते हैं मुझे. उन के अलावा मैं कुछ सोच भी नहीं सकती. अमूमन बीवियां या पति भी यही कहते हैं. हां, अगर वह ऐसा कह देती तो यह जो थोड़ीबहुत नजदीकी बढ़ रही है वह भी खत्म हो जाती.

लेकिन उस से बात करने के बाद, उसे जानने के बाद एक बात हुई थी. वह मुझे कहीं से भी वैसी नहीं लग रही थी जैसा सब कहते थे. पहली बार लगा संपदा मेरे लिए जिस्म के अलावा कुछ और भी है. क्या मेरी राय बदल रही थी?

औफिस की ओर से न्यू ईयर पार्टी रखी गई थी. संपदा गजब की सुंदर लग रही थी. लो कट ब्लाउज के साथ गुलाबी शिफौन की साड़ी पहनी थी. उस ने जिन भी पी थी शायद. मेरी सोच फिर डगमगा सी गई. अजीब सी खुशी भी हो रही थी. एक उत्तेजना भी थी. यह तो बहुत बाद में जाना कि डांस करने, हंसने, पुरुषों से हाथ मिलाने से औरत बदचलन नहीं हो जाती, अगली सुबह संपदा फिर वैसी की वैसी. पहले जैसी थोड़ी सोबर, थोड़ी चंचल.

चाय पीते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘कल तुम बहुत खूबसूरत लग रही थीं. मैं ने पहली बार किसी औरत को इतना खुल कर हंसते व डांस करते देखा था. कुछ खास है तुम में.’’

उस ने आंखें फैलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें डांस करते हुए ग्रेसफुल लगी? वैरी स्ट्रेज, बट दिस इज ए नाइस कौंप्लिमैंट. मैं तो उम्मीद कर रही थी कि आज सुनने को मिलेगा जानेमन कल बहुत मस्त लग रही थी या क्या चीज है यार यह औरत भी?’’

उस की हंसी नहीं रुक रही थी. अब मैं कैसे कहूं कि मैं भी उन्हीं मर्दों में से एक था. चीज तो मैं भी कहता था उसे.

अगले हफ्ते उस ने टिनी के जन्मदिन पर बुलाया था.

‘‘सुनो, मैं ने सिर्फ तुम्हें ही बुलाया है. मेरा मतलब औफिस में से.’’

मेरी उत्सुकता चौकन्नी हो गई थी. उस की चमकती आंखों में क्या था, मेरे प्रति भरोसा या कुछ और? क्यों सिर्फ मुझे ही बुलाया है? उसे ले कर वैभव से झगड़ा भी कर लिया था.

‘‘क्यों, पटा लिया तितली को?’’ कितने गंदे तरीके से कहा था उस ने.

‘‘किस की और क्या बात कर रहे हो?’’

‘‘उस की, जिस से आजकल बड़ी छन रही है. वही जिस ने सिर्फ तुम्हें दावत दी है. गजब की चीज है न.’’

बस बात बढ़ी और अच्छेखासे झगड़े में बदल गई. मैं यह सब नहीं चाहता था न ही कभी मेरे साथ यह सब हुआ था. खुद पर ही शर्म आ रही थी मुझे. मैं सोचता रहा, हैरान होता रहा कि ये सब क्या हो गया? क्यों बुरा लगा मुझे? खैर, इन सारी बातों के बावजूद मैं गया था. उस ने बताया कि इस साल टिनी 15 साल की हो जाएगी. मेरी आंखों के सामने मेरी बेटी का चेहरा आ गया. वह भी तो इसी उम्र की है. मैं ने देखा टिनी की दोस्तों के अलावा मैं ही आमंत्रित था. अच्छा भी लगा और अजीब भी. थोड़ी देर बाद पूछा था मैं ने, ‘‘टिनी के पापा कहां हैं?’’

‘‘हम अलग हो चुके हैं. उन्होंने दूसरी शादी कर ली है. मैं अपनी बिटिया के साथ रहती हूं.’’

कायदे से, अपनी मानसिकता के हिसाब से तो मुझे यह सोचना चाहिए था कि तलाकशुदा औरत और ऐसे रंगढंग? कहीं कोई दुखतकलीफ नजर नहीं आती. ऐसे रहा जाता है भला? जैसे कि तलाकशुदा या विधवा होना कोई कुसूर हो जाता है और ऐसी औरतों को रोतेबिसूरते ही रहना चाहिए. लेकिन यह जान कर पहली बात मेरे मन में आई थी कि तभी इतना आत्मविश्वास है. आज के वक्त में अकेले रह कर अपनी बच्ची की इतनी सही परवरिश करना वाकई सराहनीय बात है. वह मुझे और ज्यादा अच्छी लगने लगी, बल्कि इज्जत करने लगा मैं उस की. एक और बात आई मन में कि ऐसी खूबसूरत और अक्लमंद बीवी को छोड़ने की क्या वजह हो सकती है?

अब मैं उस के अंदर की संपदा तलाशने में लग गया. उस के जिस्म का आकर्षण खत्म तो नहीं हुआ था, पर मैं उस के मन से भी जुड़ने लगा था. मेरी आंखों की भूख, मेरे जिस्म की उत्तेजना पहले जैसी नहीं रही. हम काफी करीब आते गए थे. मैं कभीकभी उस के घर भी जाने लगा था. उस ने भी आना चाहा था पर मैं टालता रहा. अब उसे ले कर मैं पहले की तरह नहीं सोचता था. मैं उसे समझना चाहता था.

एक शाम टिनी का फोन मोबाइल पर आया,  ‘‘अंकल, मां को बुखार है, आप आ सकते हैं क्या?’’

कई दिन लग गए थे उसे ठीक होने में. मैं ने उस की खूब देखभाल की थी और वह मना भी नहीं करती थी. हम दोनों को ही अच्छा लग रहा था. इस दौरान मैं ने कितनी बार उसे छुआ. दवा पिलाई, सहारा दे कर उठायाबैठाया पर मन बिलकुल शांत रहा.

एक अधूरा लमहा- भाग 3: क्या पृथक और संपदा के रास्ते अलग हो गए?

एक दिन चाय पी कर एकदम मेरे पास बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कंधे से सिर टिका कर बैठ गई. मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उस का हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. यह बड़ी स्निग्ध सी भावना थी. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गई मुझ से. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैं ने मुसकरा कर उस का चेहरा अपने हाथों में लिया और कुछ पल उसे यों ही देखता रहा और फिर धीरे से उसे चूम लिया और घर आ गया.

मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतजार में काट दी. सुबह संपदा औफिस आई. बदलीबदली सी लगी वह. कुछ शरमाती सी, कुछ ज्यादा ही खुश. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि उस के मन की कोमल जमीन को छू लिया है मैं ने. मुझे समझ में आ रही थी यह बात, यह बदलाव. उस से मिल कर मैं ने यह भी जाना था कि कोई भी रिश्ता मन की जमीन पर ही जन्म लेता और पनपता है. सिर्फ देह से देह का रिश्ता रोज जन्म लेता है और रोज दफन भी हो जाता है. रोज दफनाने के बाद रोज कब्र में से कोई कब तक निकालेगा उसे. इसलिए जल्द ही खत्म हो जाता है यह…

कितनी ठीक थी यह बात, मैं खुद ही मुग्ध था अपनी इस खोज से. फिर मन से जुड़ा रिश्ता देह तक भी पहुंचा था. कब तक काबू रखता मैं खुद पर. अब तो वह भी चाहती थी शायद… स्त्री को अगर कोई बात सब से ज्यादा पिघलाती है, तो वह है मर्द की शराफत. हां, अपनी जज्बाती प्रकृति के कारण कभीकभी वह शराफत का मुखौटा नहीं पहचान पाती.

उस का बदन तो जैसे बिजलियों से भर गया था. अधखुली आंखें, तेज सांसें, कभी मुझ से लिपट जाती तो कभी मुझे लिपटा लेती. यहांवहां से कस कर पकड़ती. संपदा जैसे आंधी हो कोई या कि बादलों से बिजली लपकी हो और बादलों ने झरोखा बंद कर लिया हो अपना, आजाद कर दिया बिजली को. कैसे आजाद हुई थी देह उस की. कोई सीपी खुल गई हो जैसे और उस का चमकता मोती पहली बार सूरज की रोशनी देख रहा हो. सूरज उस की आंखों में उतर आया और उस ने आंखें बंद कर लीं. जैसे एक मोती को प्रेम करना चाहिए वैसे ही किया था मैं ने. धीरेधीरे झील सी शांत हो गई थी वह. पर मैं जानता था कि वह अब इतराती रहेगी, कैद नहीं रह सकती…

इस वक्त तो मुझे खुश होना चाहिए था कि संपदा की देह मेरी मुट्ठी में है. उस के जिस्म की सीढि़यां चढ़ कर जीत हासिल की थी. ये मेरे ही शब्द थे शुरूशुरू में. पर नहीं, कुछ नहीं था ऐसा. संपदा बिलकुल भी वैसी नहीं थी. जैसा उस के बारे में कहा जाता था. यह रिश्ता तो मन से जुड़ गया था. मैं सोच रहा था कि क्यों पुरुष सुंदर औरत को कामुक दृष्टि से ही देखता है और जब स्त्री उन नजरों से बचने के लिए खुद को आवरण के नीचे छिपा लेती है तब वही पुरुष समाज उसे पा न सकने की कुंठा में कैसेकैसे बदनाम करता है. संपदा के साथ भी यही हुआ था. पर जब मैं ने उस के भीतर छिपी सरल, भोली और पवित्र औरत को जाना तब मैं मुग्ध था और अभिभूत भी…

संपदा ने धीरे से कहा, ‘‘अब तक तो खुले आसमान के नीचे रह कर भी उम्रकैद भुगत रही थी मैं. सारी खुशियां, सारी इच्छाएं इतने सालों से पता नहीं देह के किस कोने में कैद थीं? तुम्हारा ही इंतजार था शायद…’’

और यही संपदा जिस ने मुझे सिखाया कि दोस्ती के बीजों की परवरिश कैसे की जाती है वह जा रही थी.

उसी ने कहा था कि इस परवरिश से मजबूत पेड़ भी बनते हैं और महकती नर्मनाजुक बेल भी.

‘‘तो तुम्हारी इस परवरिश ने पेड़ पैदा किया या फूलों की बेल?’’ पूछा था मैं ने.

यही संपदा जो मेरे वक्त के हर लमहे में है. अब नहीं होगी मेरे पास. उस के पास आ कर मैं ने मन को तृप्त होते देखा है… मर्द के मन को देह कैसे आजाद होती है जाना… पता चला कि मर्द कितना और कहांकहां गलत होता है.

मुझे चुपचुप देख कर उस की दोस्त मीता ने एक दिन कहा, ‘‘उस से क्यों कट रहे हो पृथक? उसे क्यों दुख पहुंचा रहे हो? इतने सालों बाद उसे खुश देखा तुम्हारी वजह से. उसे फिर दुखी न करो.’’

दोस्ती का बरगद बन कर मैं बाहर आ गया अपने खोल से. मैं ने ही उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाया. मकान व सामान बेचने में उस की मदद की. ढेरों और काम थे, जो उसे समझ नहीं आ रहे थे कि कैसे होंगे. मुझे खुद को भी अच्छा लगने लगा. वह भी खुश थी शायद…

उस दिन हम बाहर धूप में बैठे थे. टिनी इधरउधर दौड़ती हुई पैकिंग वगैरह में व्यस्त थी. संपदा चाय बनाने अंदर चली गई. बाहर आई तो वह एक पल मेरी आंखों में बस गया. दोनों हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए, खुले बाल, पीली साड़ी में बिलकुल उदास मासूम बच्ची लग रही थी, पर साथ ही खूबसूरत और सौम्य शीतल चांदनी के समान.

‘‘बहुत याद आओगे तुम,’’ चाय थमाते हुए वह बोली थी.

मैं मुसकरा दिया. वह भी मुसकरा रही थी पर आंखें भरी हुई थीं दर्द से, प्यार से… कई दिन से उस की खिलखिलाहट नहीं सुनी थी. अच्छा नहीं लग रहा था. क्या करूं कि वह हंस दे?

चाय पीतेपीते मैं बोला, ‘‘चलो संपदा छोटी सी ड्राइव पर चलते हैं.’’

‘‘चलो,’’ वह एकदम खिल उठी. अच्छा लगा मुझे.

‘‘टिनी, चलो घूमने चलें,’’ मैं ने उसे बुलाया.

‘‘नहीं, अंकल, आप दोनों जाएं. मुझे बहुत काम है… रात को हम इकट्ठे डिनर पर जा रहे हैं, याद है न आप को?’’

‘‘अच्छी तरह याद है,’’ मैं ने कहा. फिर देखा था कि वह हम दोनों को कैसे देख रही थी. एक बेबसी सी थी उस के चेहरे पर. थोड़ा आगे जाने पर मैं ने संपदा का हाथ अपने हाथ में लिया, तो वह लिपट कर रो ही पड़ी.

मैं ने गाड़ी रोक दी, ‘‘क्या हो गया संपदा?’’

उस के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर बोली, ‘‘मुझे लगा कि तुम अब अच्छी तरह नहीं मिलोगे, ऐसे ही चले जाओगे. नाराज जो हो गए हो, ऐसा लगा मुझे.’’

‘‘तुम से नाराज हो सका हूं मैं कभी? नहीं रानी, कभी नहीं,’’ मैं जब उसे बहुत प्यार करता था तो यही कह कर संबोधित करता था, ‘‘प्रेम में नाराजगी तो होती ही नहीं. हां, रुठनामनाना होता है. मैं क्या तुम से तो कोई भी नाराज नहीं हो सकता. हां, उदास जरूर होंगे सभी. जरा जा कर तो देखो दफ्तर में, बेचारे मारेमारे फिर रहे हैं.’’

वह मुसकरा दी.

‘‘अब अच्छा लग रहा है रोने के बाद?’’ मैं ने मजाक में पूछा तो वह हंस दी.

‘‘संपदा तुम ऐसे ही हंसती रह… बिलकुल सब कुछ भुला कर समझीं?’’

उस ने बच्ची की तरह हां में सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘और तुम? तुम क्या करोगे?’’

‘‘मैं तुम्हें अपने पास तलाश करता रहूंगा. रोज बातें करूंगा तुम से. वैसे तुम कहीं भी चली जाओ, रहोगी मेरे पास ही… मेरे दिल का हिस्सा हो तुम… मेरा आधा भाग… तुम से मिल कर मुझ में मैं कहां रहा? तुम मिली तो लगा अज्ञात का निमंत्रण सा मिला मुझे…’’

‘‘और क्या करोगे?’’

‘‘और परवरिश करता रहूंगा उन रिश्तों की, जिन की जड़ें हम दोनों के दिलों में हैं.’’

‘‘एक गूढ़ अवमानना हो, कुछ जाना है कुछ जानना है. आदर्श हो, आदरणीय हो, चाहत हो स्मरणीय हो.’’

वह चुप रही.

मैं ने संपदा से कहा, ‘‘जानती हो, मैं तुम्हारे जाने के खयाल से ही डर गया था. प्यार में जितना विश्वास होता है उतनी ही असुरक्षा भी होती है कभीकभी… रोकना चाहता था तुम्हें… इतने दिनों तक घुटता रहा पर अब… अब सब ठीक लग रहा है…’’

संपदा शांत थी. फिर जैसे कहीं खोई सी बोली, ‘‘विवाहित प्रेमियों की कोई अमर कहानी नहीं है, क्योंकि विवाह के बाद काव्य खो जाता है, गणित शेष रहता है. गृहस्थी की आग में रोमांस पिघल जाता है. यदि सचमुच किसी से प्रेम करते हो, तो उस के साथ मत रहो. उस से जितना दूर हो सके भाग जाओ. तब जिंदगी भर आप प्रेम में रहोगे. यदि प्रेमी के साथ रहना ही है, तो एकदूसरे से अपेक्षा न करो. एकदूसरे के मालिक मत बनो, बल्कि अजनबी बने रहो. जितने अजनबी बने रहोगे उतना ही प्रेम ताजा रहेगा. यह जान लो कि रोमांस स्थाई नहीं होता. वह शीतल बयार की तरह है, जो आती है तो शीतलता का अनुभव होता है और फिर वह चली जाती है. प्रेम की इस क्षणिकता के साथ रहना आ जाए तो तुम हमेशा प्रेम में रहोगे.’’

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वह मुसकरा दी.

संपदा ने कार रोकने के लिए कहा. फिर बोली, ‘‘हर रिश्ते की अपनी जगह होती है… अपनी कीमत… जो तुम्हें पहले लगा वह भी ठीक था, जो अब लग रहा है वह भी ठीक है. पर एक बात याद रखना यह प्यार की बेचैनी कभी खत्म नहीं होनी चाहिए. मुझे पाने की चाह बनी रहनी चाहिए दिल में… क्या पता संपदा कब आ टपके तुम्हारे चैंबर में… कभी भी आ सकती हूं अपना हिसाबकिताब करने,’’ और वह खिलखिला कर हंस दी, ‘‘पृथक, शुद्ध प्रेम में वासना नहीं होती, बल्कि समर्पण होता है. प्रेम का अर्थ होता है त्याग. एकदूसरे के वजूद को एक कर देना ही प्रेम है… प्रेम को समय नहीं चाहिए. उसे तो बस एक लमहा चाहिए… उस अधूरे लमहे में युगों की यात्रा करता है और वह लमहा कभीकभी पूरी जिंदगी बन जाता है.’’

मैं उसे एकटक देखता रह गया…

एक अधूरा लमहा- भाग 1: क्या पृथक और संपदा के रास्ते अलग हो गए?

जिंदगी ट्रेन के सफर की तरह है, जिस में न जाने कितने मुसाफिर मिलते हैं और फिर अपना स्टेशन आते ही उतर जाते हैं. बस हमारी यादों में उन का आना और जाना रहता है, उन का चेहरा नहीं. लेकिन कोई सहयात्री ऐसा भी होता है, जो अपने गंतव्य पर उतर तो जाता है, पर हम उस का चेहरा, उस की हर याद अपने मन में संजो लेते हैं और अपने गंतव्य की तरफ बढ़ते रहते हैं. वह साथ न हो कर भी साथ रहता है.

ऐसा ही एक हमराही मुझे भी मिला. उस का नाम है- संपदा. कल रात की फ्लाइट से न्यूयौर्क जा रही है. पता नहीं अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पूरा यकीन है कि वह भी जाना नहीं चाहती. लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. संपदा ने कहा था कि पृथक, अकेले अभिभावक की यही समस्या होती है. फिर टिनी तो मेरी इकलौती संतान है. हम एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते. हां, एक वक्त के बाद वह अकेले रहना सीख जाएगी. इधर वह कुछ ज्यादा ही असुरक्षित महसूस करने लगी है. पिछले 2-3 सालों में उस में बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफदेह हो.

मैं उसे देखता रहा. पिछले 2 सालों से उस में बदलाव आया है यानी जब से मैं संपदा से मिला हूं. हो सकता है कि उस की बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, दुख हुआ.

संपदा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, ‘‘पृथक, तुम्हें छोड़ कर जाने से मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी, इस का दुख मुझे भी है पर अब मेरे लिए टिनी का भविष्य ज्यादा जरूरी है.’’

‘‘टिनी होस्टल में भी रह सकती है… तुम्हारा जाना जरूरी है?’’ मैं ने संपदा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उस की भी आंखें देख कर मुझे खुद पर गुस्सा आ गया था. मनुष्य का मन चुंबक के समान है और वह अपनी इच्छित वस्तु को अपनी ओर आकर्षित कर उसे प्राप्त कर लेना चाहता है. परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों.

मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है? आज समझ में आ रहा है. हमदोनों की एकदूसरे की जिंदगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नजर में कोई नाम भी नहीं है. समाज को भी रिश्तों में खून का रंग ज्यादा भाता है. अनाम रिश्तों में प्रेम के छींटे समाज नहीं देख पाता. अगर मेरी बेटी को जाना होता पढ़ने, तो मैं क्या करता? मैं उसे आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता.

मुझे चुप देख कर संपदा ने नर्म स्वर में कहा, ‘‘हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन 2 सालों में तुम ने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता है. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे…’’ उस के चेहरे पर उदासी छा गई.

कितनी जल्दी रंग बदलती है उस के चेहरे की धूप… रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अंधेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.

मैं उसे उदास नहीं देख पाता. अत: मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें… इसीलिए पजैसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुम ने बिलकुल ठीक फैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा. पर इस फैसले से खुश भी कैसे हो सकता हूं,’’ यह कह कर मैं एकदम से उठ कर अपने चैंबर में आ गया. अपने इस बरताव पर मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया कि मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.

यह वही संपदा है, जिस ने अपनी प्रमोशन पिछली बार सिर्फ इसलिए छोड़ दी थी कि उसे मुझे से दूर दूसरे शहर में जाना पड़ रहा था और वह मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहती. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था. तब उस ने कहा था कि तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?

जब मैं अपनी कंपनी की इस ब्रांच में आया था अच्छाभला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुखसुविधाएं, बीवी और 2 बच्चों का परिवार, जो अमूमन सुखी कहलाता है… सुखी ही था. मेरी कसबाई तौरतरीकों वाली बीवी, जो शादी के बाद से ही खुद को बदलने में लगी है, पता नहीं यह प्रक्रिया कब खत्म होगी? शायद कभी नहीं. बच्चे हर लिहाज से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी पूर्वाग्रहों से मुक्त न थी.

एक दिन आपस में लंच टाइम में बैठे न जाने क्यों एक लैक्चर सा दे दिया. स्त्रीपुरुष के विकास की चर्चा सुन कर मुझ से संपदा ने जो कहा उस ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘विकास के नियम स्त्रीपुरुष दोनों के लिए अलग नहीं हैं. किंतु पुरुष अविकसित पत्नी के होते हुए भी अपना विकास कर लेता है. लेकिन अविकसित पति के संग रह कर स्त्री अपना विकास असंभव पाती है, क्योंकि वह उस की प्रतिभा को पहचान नहीं पाता और व्यर्थ की रोकटोक लगाता है, जिस से स्त्री का विकास बाधित होता है. कम विकसित व्यक्तित्व वाली स्त्री जब अधिक विकसित परिवार में जाती है, तो वह अनुकूल विवाह है यह व्यावहारिक है, क्योंकि वहां उस के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध नहीं होता. लेकिन ऐसा परिवार जो उस के व्यक्तित्व की अपेक्षा कम विकसित है, उस परिवेश में उस का व्यक्तिगत विकास अधिक संभव नहीं होता तो यह अनुकूल विवाह नहीं है. वहां स्त्री का दम घुट जाएगा. विकास से मेरा तात्पर्य बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक विकास से है. यह आर्थिक विकास नहीं है. ज्यादातर आर्थिक समृद्धि के साथ आत्मिक पतन आता है. स्त्री शक्ति है. वह सृष्टि है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति योग्य है. वह विनाश है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति अयोग्य है. इसीलिए जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है वह अयोग्य है या कायर और दोनों ही व्यक्ति पूर्ण नहीं हैं…’’

मैं उस का मुंह देखता रह गया. मैं ने तो बड़े जोर से उसे इंप्रैस करने के लिए बोलना शुरू किया था पर उस के अकाट्य तर्कसंगत सत्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. वह बिलकुल ठीक थी. कितनी अलग लगी थी संपदा ऐसी बातें करते हुए? पहले मैं क्याक्या सोचता था उस के बारे में.

इस औफिस में पहले दिन संपदा को देखा तो आंखों में चमक आ गई थी. चलो रौनक तो है. तनमन दोनों की सेहत ठीक रहेगी. पहले दिन तो उस ने देखा तक नहीं. बुझ सा गया मैं. फिर ऐसी भी क्या जल्दी है सोच कर तसल्ली दी खुद को. उस के अगले दिन फौर्मल इंट्रोडक्शन के बीच हाथ मिलाते हुए बड़ी प्यारी मुसकान आई थी उस के होंठों पर. देखता रह गया मैं. कुल मिला कर इस नतीजे पर पहुंचा कि मस्ती करने के लिए बढि़या चीज है. औफिस में खासकर मर्दों में भी उस के लिए कोई बहुत अच्छी राय नहीं थी. वह उन्हें झटक जो देती थी अपने माथे पर आए हुए बालों की तरह. खैर, कभीकभी की हायहैलो गुड मौर्निंग में बदली.

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