एक कहानी का अंत: सुख के दिन क्यों न देख सकी पुष्पा

‘‘मेरे पूरे जिस्म में दर्द हो रहा है. पूरा जिस्म अकड़ रहा है. आह, कम से कम अब तो मुक्ति मिल जाए. कोई तो बुलाओ डाक्टर को,’’ पुष्पा कराहते हुए बोल रही थी.

‘‘शांत हो जाओ, मां. लो, मुंह खोलो, दवा पिलानी है,’’ मंजू बोली.

‘‘मेरी बच्ची, अब समय आ गया, मैं नहीं बचूंगी,’’ कहते हुए पुष्पा ने गिलास लगभग छीनते हुए पकड़ा और दवा एकदम गटक ली.

मंजू को लगा कि मां के जिस्म में चेतना आ रही है और वे सही हो जाएंगी. वैसे भी, पहले भी कई बार ऐसा ही कुछ हुआ था. अभी वह सोच ही रही थी कि गिलास के गिरने की आवाज आई और उस की मां पुष्पा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मां, मां, उठो, बात करो मु झ से. आंखें खोलो न.’’ पर मां तो जा चुकी थीं, दूर, बहुत दूर.

कमरे में सन्नाटा छा गया था. अगर कोई विलाप कर रहा था तो वह थी मंजू. रोते हुए उस ने अपने पति को सूचना दी और वहीं बैठ गई. वह मां के पार्थिव शरीर को पत्थर बनी ताकती रही.

‘‘रात के डेढ़ बजे हैं, सब काम सुबह होंगे,’’ कह कर भाईभाभी अपने कमरे की तरफ चल दिए. वह बारबार मां को छू कर देखती, उम्मीद लिए कि शायद वापस आ जाएंगी वे. फिर सब की शिकायत करेंगी उस से.

कितना दुखी जीवन था उस की मां पुष्पा का. मंजू ने जब से होश संभाला हमेशा मां को रोते ही देखा…एक जल्लाद पति, बृजेश, हमेशा नशे में धुत. कहने को तो स्कूल अध्यापक था, पर ताश खेलना और शराब पीना, बस, यही उस की दिनचर्या थी. जब देखो तब वह पुष्पा को जलील करता, नशे में मारता, गालियां देता. कई बार उस ने पुष्पा को जान से मारने की भी कोशिश की थी. लेकिन आदमी जो ठहरा, रात में अपने शरीर की पिपासा बु झाने से भी वह बाज न आता.

सबकुछ सह रही थी पुष्पा. सिर्फ और सिर्फ अपने 3 छोटे बच्चों के लिए. कहां जाती वरना. न तो सासससुर का साया था और न ही मातापिता का. नाम का भाई था जो कभीकभी पत्नी से छिप कर मिलने आ जाता था और चुपचाप कुछ रुपए उस के हाथ में रख जाता.

बृजेश की आधी से ज्यादा कमाई ऐयाशी में उड़ जाती. जैसेतैसे घर की गाड़ी चल रही थी, बच्चों के साथ परेशानियां भी बड़ी होने लगीं.

बृजेश के काले मन को पुष्पा भांप गई थी, इसलिए साए के जैसे वह मंजू के साथ रहती. एक दिन पड़ोस में गमी में जाना पड़ गया, तो वह मंजू की जिम्मेदारी अपने बड़े बेटे पर सौंप कर चली गईं. बृजेश को जैसे भनक लग गई थी, उस ने अपने बेटे को किसी काम से बाजार भेज दिया और मंजू को अपनी बांहों में दबोच लिया. वह अपने को छुड़ाने के लिए छटपटा रही थी पर बृजेश पर तो शैतान हावी था.

अचानक पुष्पा आ गई. यह देखते ही वह गुस्से से पागल हो गई. वहीं एक बांस रखा था, आव देखा न ताव, वह बृजेश को पीटने लगी, ‘कमीने, बेशर्म, चला जा यहां से. बाप के नाम पर धब्बा है तू. कभी सूरत मत दिखाना. मैं नहीं चाहती तेरा साया भी पड़े मेरे बच्चों पर.’ मंजू सहमी सी खड़ी देख रही थी यह सब. धमकी दे कर बृजेश वहां से चला गया.

अब पुष्पा सिलाई और बिंदी बनाने का काम करने लगी. उसी से घरखर्च चल रहा था. बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी. उसे शराब और सट्टेबाजी की लत लग गई. अकसर नशे में वह मां को कोसता और गाली देता. वह बाप के जाने का दोषी मां को ठहराता था.

पुष्पा खून के आंसू पी कर रह जाती. पुष्पा को अब बड़े होते बच्चों की चिंता सताने लगी थी. सो, म झले बेटे को उस के मामा के घर भेज दिया आगे पढ़ने के लिए. इंटर पूरा करते ही मंजू के हाथ पीले कर दिए. म झले बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लग गई बैंक में. पुष्पा ने उस का भी विवाह कर दिया. जबकि बड़ा अभी कुंआरा था.

आशा के विपरीत म झले बेटे की बहू ने सब की जिम्मेदारी से बचने के लिए अलग घर बसाने की पेशकश की और शहर से बाहर चली गई. फिर कभी नहीं आई. कितनी बार पुष्पा ने उसे बुलाना चाहा पर उसे नहीं आना था सो नहीं आई. टूट चुकी थी पुष्पा. अब बड़े बेटे की जिम्मेदारी से निबटने के लिए उस का भी विवाह कर दिया.

इसी बीच, बृजेश को कैंसर हो गया. दरदर भटकते अब उसे घर की याद आई थी. पुष्पा को याद करता हुआ किसी तरह पहुंच ही गया उस के पास. अपने आखिरी दिनों में उस ने अपने किए की कई बार पुष्पा से क्षमा मांगी. पुष्पा ने उसे घर में रुकने की इजाजत तो दे दी पर दिल से माफ नहीं कर पाई. अब घर एक जंग का मैदान हो गया था.

पुष्पा कुछ भी कहती, बहू दानापानी ले कर चढ़ जाती. आखिरकार एक दिन बृजेश ने इस दुनिया से विदा ली. धीरेधीरे गमों को पीते हुए पुष्पा भी बिस्तर से लग गई, उस के पैर बेकार हो चुके थे. बहू उस की कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, उलटा आएदिन अपना हिस्सा मांगती. पुष्पा के पास अगर कुछ था तो यही एक मकान, जहां अब वह जिंदगी के बाकी बचे दिन काट रही थी. सब की नजर उस मकान पर थी. शायद पुष्पा की आंख बंद होने का इंतजार था.

पुष्पा ने एक आया सुनीता लगा ली थी. वही उस के सब काम नहलानाधुलाना आदि करती थी. आएदिन पुष्पा मंजू को फोन कर के उस से घर के सदस्यों की शिकायत करती. मंजू जब भी भाभी को सम झाना चाहती, वह टका सा जवाब देती. हार कर फिर वह मां को ही सम झाती. पुष्पा अकसर मंजू से बोलती, ‘लल्ली, तू नहीं सम झेगी, मेरे जाने के बाद पता चलेगा. सारा जीवन दे दिया पर कोई अपना नहीं हुआ. यह दुनिया पैसे की है. मु झे कोई नहीं पूछता, सारे दिन गफलत में पड़ी रहती हूं. जिस दिन कुछ खाने को मांग लिया उसी दिन तूफान.’

‘‘जीजी, जीजी,’’ सुनीता की आवाज से मंजू चौंकी. ‘‘जीजाजी आ गए. पति को देखते ही उस के सब्र का बांध टूट गया. वह खूब रोई. इतने में सुनीता ने एक पत्र उस के पति को देते हुए कहा, ‘‘अम्मा लिख गई हैं, कह रही थीं, मेरे बाद मंजू को देना.’’ शायद, पुष्पा को अपने आखिरी समय का एहसास हो गया था.

मंजू ने पत्र पति के हाथ से ले लिया. आंसू पोंछते हुए पत्र पढ़ने लगी.

‘मंजू बेटी, तू दुनिया की सब से अच्छी बेटी है. तू ने मेरी बहुत सेवा की. मेरी एक विनती है कि मेरे बाद मेरा क्रियाकर्म संबंधी काम एक दिन में ही पूरा कर देना, जिन बहूबेटों के पास जीतेजी मेरे लिए समय नहीं था उन को बाद में भी परेशान होने की जरूरत नहीं.

‘पिछले महीने ही तू मेरे लिए कपड़े लाई थी, वे सब बांट देना. मेरी रोटी के लिए जिन के पास रुपए नहीं थे वे मेरे बाद मु झ पर खर्च न करें. दामादजी, आप इस घर का सौदा कर दें. उस सौदे से मिलने वाली रकम के 3 हिस्से करना. एक हिस्सा इन दोनों लड़कों का और दो हिस्से में से एक सुनीता को दे देना. बेचारी ने बहुत ध्यान रखा मेरा. अगले महीने उस की लड़की की शादी है. एक हिस्सा मेरी नातिन का है. मंजू बेटी, तू मेरा बेटा भी थी. मेरी हर छोटी से छोटी जरूरत और इच्छा का खयाल रखा तू ने. शायद मैं जिंदा ही तेरी वजह से थी. कर्जदार हूं मैं तेरी. सदा खुश रहो. सब को तेरी जैसी बेटी मिले.’

‘‘मां.’’

सब की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. मां के कहेनुसार एक ही दिन में सब कार्य कर मंजू अपने पति के साथ भारी मन से वापस अपने घर चली गई.

मां के साथ ही उस के दुखों का अंत हो गया था. बड़ी दुखदायी, एक कहानी का अंत हो गया था. बड़ा लंबा वनवास था यह. 70 साल का सफर कम नहीं होता, जो पुष्पा ने अकेले ही तय किया था. जीवन जिया तो था उस ने लेकिन सुख के दिन क्या होते हैं, कभी नहीं देख सकी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें