एक नदी पथभ्रष्टा: किस डगर पर चल रही थी मानसी?

लेखक- पूर्वा श्रीवास्तव 

‘‘आज तुम्हारी वही प्रिय सखी फिर मिली थी,’’ टाई की गांठ ढीली करते हुए रंजीत ने कहा.

रंजीत के बोलने के ढंग से शुभा समझ तो गई कि वह किस की बात कर रहा है, फिर भी अनजान बनते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन? कौन सी सखी?’’

‘‘अब बनो मत. शुभी, तुम जानती हो मैं किस की बात कर रहा हूं,’’ सोफे पर बैठते हुए रंजीत बोला, ‘‘वैसे कुछ भी कहो पर तुम्हारी वह सखी है बड़ी ही बोल्ड. उस की जगह और कोई होता तो नजर बचा कर कन्नी काटने की कोशिश करता, लेकिन वह तो आंखें मिला कर बड़े ही बोल्ड ढंग से अपने साथी का परिचय देती है कि ये मिस्टर फलां हैं. आजकल हम साथ रह रहे हैं.’’

उस की हूबहू नकल उतारता रंजीत सहसा गंभीर हो गया, ‘‘समझ में नहीं आता, शुभी, वह ऐसा क्यों करती है. भला किस बात की कमी है उसे. रूपरंग सभी कुछ इतना अच्छा है. सहज ही उस के मित्र भी बन जाते हैं, फिर किसी को अपना कर सम्मानित जीवन क्यों नहीं बिताती. इस तरह दरदर भटकते हुए इतना निंदित जीवन क्यों जीती है वह.’’

यही तो शुभा के मन को भी पीडि़त करता है. वह समझ नहीं पाती कि मोहित जैसे पुरुष को पा कर भी मानसी अब तक भटक क्यों रही है? शुभा बारबार उस दिन को कोसने लगती है, जब मायके की इस बिछुड़ी सखी से उस की दोबारा मुलाकात हुई थी.

वह शनिवार का दिन था. रंजीत की छुट्टी थी. उस दिन शुभा को पालिका बाजार से कुछ कपड़े खरीदने थे, सो, रंजीत के साथ वह जल्दी ही शौपिंग करने निकल गई. पालिका बाजार घूम कर खरीदारी करते हुए दोनों ही थक गए थे. रंजीत और वह पालिका बाजार के पास बने पार्क में जा बैठे. पार्क में वे शाम की रंगीनियों का मजा ले रहे थे कि अचानक शुभा की नजर कुछ दूरी पर चहलकदमी करते एक युवा जोड़े पर पड़ी थी. युवक का चेहरा तो वह नहीं देख पाई, क्योंकि युवक का मुंह दूसरी ओर था, किंतु युवती का मुंह उसी की तरफ था. उसे देखते ही शुभा चौंक पड़ी थी, ‘मानसी यहां.’

बरसों की बिछुड़ी अपनी इस प्रिय सखी से मिलने की खुशी वह दबा नहीं पाई. रंजीत का हाथ जोर से भींचते हुए वह खुशी से बोली थी, ‘वह देखो, रंजीत, मानसी. साथ में शायद मोहित है. जरूर दोनों ने शादी कर ली होगी. अभी उसे बुलाती हूं,’ इतना कह कर वह जोर से पुकार उठी, ‘मानसी…मानसी.’

उस की तेज आवाज को सुन कर कई लोगों के साथ वह युवती भी पलटी थी. पलभर को उस ने शुभा को गौर से देखा, फिर युवक के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर वह तेजी से भागती हुई आ कर उस से लिपट गईर् थी, ‘हाय, शुभी, तू यहां. सचमुच, तुझ से मिलने को मन कितना तड़पता था.’

‘रहने दे, रहने दे,’ शुभा ने बनावटी गुस्से से उसे झिड़का था, ‘मिलना तो दूर, तुझे तो शायद मेरी याद भी नहीं आती थी. तभी तो गुपचुप ब्याह कर लिया और मुझे खबर तक नहीं होने दी.’

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अपनी ही धुन में खोई शुभा मानसी के चेहरे पर उतर आई पीड़ा को नहीं देख पाई थी. मानसी ने जबरन हंसी का मुखौटा चेहरे पर चढ़ाते हुए कहा था, ‘पागल है तू तो. तुझ से किस ने कह दिया कि मैं ने शादी कर ली है.’

‘तब वह…’ अचानक अपनी तरफ आते उस युवक पर नजर पड़ते ही शुभा चौंक पड़़ी, यह मोहित नहीं था. दूर से मोहित जैसा ही लगता था. शुभा अचकचाई सी बोल पड़ी, ‘‘तब यह कौन है? और मोहित?’’

बीच में ही मानसी शुभा की बात को काटते हुए बोली, ‘छोड़ उसे, इन से मिल. ये हैं, मिस्टर बहल. हम लोग एक ही फ्लैट शेयर किए हुए हैं. अरे हां, तू अपने श्रीमानजी से तो मिलवा हमें.’

मानसी के खुलेपन को देख कर अचकचाई शुभा ने जैसेतैसे उस दिन उन से विदा ली, किंतु मन में कहीं एक कांटा सा खटकता रहा. मन की चुभन तब और बढ़ जाती जब आएदिन रंजीत उसे किसी नए मित्र के साथ कहीं घूमते देख लेता. वह बड़े चटखारे ले कर मानसी और उस के मित्रों की बातें करता, रंजीत के स्वर में छिपा व्यंग्य शुभा को गहरे तक खरोंच गया.

कुछ भी हो, आखिर मानसी उस की बचपन की सब से प्रिय सखी थी. बचपन के लगभग 15 साल उन्होंने साथसाथ बिताए थे. तब कहीं कोई दुरावछिपाव उन के बीच नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में मोहित के आने और उस से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह शुभा से कह दिया करती थी. उस ने मोहित से शुभा को मिलवाया भी था. ऊंचे, लंबे आकर्षक मोहित से मिल कर शुभा के मन में पलभर को सखी से ईर्ष्या का भाव जागा था, पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मानसी जैसी युवती के लिए मोहित के अतिरिक्त और कोई सुयोग्य वर हो ही नहीं सकता था.

कुदरत ने मानसी को रूप भी अद्भुत दिया था. लंबी छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी घनी पलकों से ढकी गहरी काली आंखें, घने काले केश और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी जो सहज ही किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी.

शुभा अकसर उसे छेड़ती थी, ‘‘मैं लड़का होती तो अब तक कब की तुझे भगा ले गई होती. मोहित तो जैसे काठ का उल्लू है, जो अब तक तुझे छोड़े हुए है.’’

मानसी का चेहरा लाज से लाल पड़ जाता. वह चिढ़ कर उसे चपत जमाती हुई घर भाग जाती. अचानक ही शुभा का विवाह तय हो गया और रंजीत के साथ ब्याह कर शुभा दिल्ली चली आई. कुछ दिनों तक तो दोनों तरफ से पत्रों का आदानप्रदान बड़े जोरशोर से होता रहा, लेकिन कुछ तो घर जमाने और कुछ रंजीत के प्रेम में खोई रहने के कारण शुभा भी अब पहले जैसी तत्परता से पत्र नहीं लिख पाती थी, फिर भी यदाकदा अपने पत्रों में शुभा मानसी को मोहित से विवाह कर के घर बसाने की सलाह अवश्य दे देती थी.

अचानक ही मानसी के पत्रों में से मोहित का नाम गायब होने से शुभा चौंकी तो थी, किंतु मोहित और मानसी के संबंधों में किसी तरह की टूटन या दरार की बात वह तब सोच भी नहीं सकती थी.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम, कहीं अपनी सखी के सुख से तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही. अरे भाई, और किसी का न सही, कम से कम हमारा खयाल कर के ही तुम मानसी जैसी महान जीवन जीने वाली का विचार त्याग दो,’’ रंजीत की आवाज से शुभा का ध्यान भंग हो गया. उसे रंजीत का मजाक अच्छा नहीं लगा. रूखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से इस तरह का मजाक मत किया करो तुम. अब अगर मानसी ऐसी हो गई है तो उस में मेरा क्या दोष? पहले तो वह ऐसी नहीं थी.’’

शुभा के झुंझलाने से रंजीत समझ गया कि शुभा को सचमुच उस की बात बहुत बुरी लगी थी. उस ने शुभा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा. ‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई. अब इस तरह की बात नहीं करूंगा. आओ, थोड़ी देर मेरे पास तो बैठो.’’

शुभा चुपचाप रंजीत के पास बैठी

रही, पर उस का दिमाग मानसी

के ही खयालों में उलझा रहा. वह सचमुच नहीं समझ पा रही थी कि मानसी इस राह पर इतना आगे कैसे और क्यों निकल गई. रोजरोज किसी नए पुरुष के साथ घूमनाफिरना, उस के साथ एक ही फ्लैट में रात काटना…छि:, विश्वास नहीं होता कि यह वही मानसी है, जो मोहित का नाम सुनते ही लाज से लाल पड़ जाती थी.

पहली बार मोहित के साथ उस के प्रेमसंबंधों की बात स्वयं मानसी के मुंह से सुन कर भी शुभा को विश्वास नहीं हुआ था. भला उस के सामने क्या कहसुन पाती होगी वह छुईमुई. चकित सी शुभा उसे ताकती ही रह गई थी. किंतु जो बीत गया, वह भी एक सच था और जो आज हो रहा है, वह भी एक सच ही तो है.

उसे अपने ही खयालों में खोया देख कर रंजीत कुछ खीझ सा उठा, ‘‘ओफ, अब क्या सोचे जा रही हो तुम?’’

शुभा ने खोईखोई आंखों से रंजीत की ओर देखा, फिर जैसे अपनेआप से ही बोली, ‘‘काश, एक बार मानसी मुझे अकेले मिल जाती तो…’’

‘‘तो? तो क्या करोगी तुम?’’ रंजीत उस की बात बीच में काट कर तीखे स्वर में बोला.

‘‘मैं उस से पूछूंगी कल की मानसी से आज की इस मानसी के जन्म की गाथा और मुझे पूरा विश्वास है मानसी मुझ से कुछ भी नहीं छिपाएगी.’’

‘‘शुभा, मेरी मानो तो तुम इस पचड़े में मत पड़ो. सब की अपनीअपनी जिंदगी होती है. जीने का अपना ढंग होता है. अब अगर उस को यही तरीका पसंद है तो इस में मैं या तुम कर ही क्या सकते हो?’’ रंजीत ने उसे समझाने का प्रयास किया.

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‘‘नहीं रंजीत, मैं उस मानसी को जानती हूं, उस के मन में, बस, एक ही पुरुष बसता था. उस पुरुष को अपना सबकुछ अर्पित कर उस में खो जाने की कामना थी उस की. यह मानसी एक ही पुरुष से बंध कर गौरव और गरिमामय जीवन जीना चाहती थी. किसी की पत्नी, किसी की मां होने की उस के मन में लालसा थी. मैं तो क्या, खुद मानसी ने भी अपने इस रूप की कल्पना नहीं की होगी, फिर किस मजबूरी से वह पतन की इस चिकनी राह पर फिसलती जा रही है?’’

शुभा को अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने में बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा. एक दिन दोपहर के समय मानसी उस के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. शुभा ने उसे बिठाया और कोल्डडिं्रक देने के बाद जैसे ही अपना प्रश्न दोहराया, मानसी का खिलखिलाता चेहरा सहसा कठोर हो गया. फिर होंठों पर जबरन बनावटी मुसकान बिखेरती हुई मानसी बोली, ‘‘छोड़ शुभी, मेरी कहानी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो किसी का मन बहला सके. हां, डरती जरूर हूं कि कहीं तेरे मन में भी वही टीस न जाग उठे, जिसे दबाए मैं यहीं आ पहुंची हूं.’’

‘‘लेकिन क्यों? क्यों है तेरे मन में टीस? जिस आदर्श पुरुष की तुझे कामना थी, वह तो तुझे मिल भी गया था. वह तुझ से प्रेम भी करता था, फिर तुम ने उसे क्यों खो दिया पगली?’’

‘‘तुझे याद है, शुभी, बचपन में जब दादी हम लोगों को कहानियां सुनाती थीं तो अकसर पोंगापंडित की कहानी जरूर सुनाती थीं, जिस ने वरदान के महत्त्व को न समझ कर उसे व्यर्थ ही खो दिया था. और तुझे यह भी याद होगा कि दादी ने कहानी के अंत में कहा था, ‘दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए, अन्यथा देने वाले और पाने वाले किसी का कल्याण नहीं होता.’

‘‘हां, याद है. पर यहां उस कहानी का क्या मतलब?’’ शुभा बोली.

‘‘मोहित वह सुपात्र नहीं था, शुभी, जो मेरे प्रेम को सहेज पाता.’’

‘‘लेकिन उस में कमी क्या थी, मानू? एक पूर्ण पुरुष में जो गुण होने चाहिए, वह सबकुछ तो उस में थे. फिर उसे तू ने पूरे मन से अपनाया था.’’

‘‘हां, देखने में वह एक संपूर्ण पुरुष ही था, तभी तो उस के प्रति तनमन से मैं समर्पित हो गई थी. पर वह तो मन से, विचारों से गंवार व जाहिल था,’’ क्षोभ एवं घृणा से मानसी का गला रुंध गया.

‘‘लेकिन इतना आगे बढ़ने से पहले कम से कम तू ने उसे परख तो लिया होता,’’ शुभा ने उसे झिड़की दी.

‘‘क्या परखती? और कैसे परखती?’’ आंसुओं को पीने का प्रयास करती मानसी हारे स्वर में बोली, ‘‘मैं तो यही जानती थी कि कैसा ही कुपात्र क्यों न हो, प्रेम का दान पा कर सुपात्र बन जाता है. मेरा यही मानना था कि प्रेम का पारस स्पर्श लोहे को भी सोना बना देता है,’’ आंखों से टपटप गिरते आंसुओं की अनवरत धार से मानसी का पूरा चेहरा भीग गया था.

पलभर को रुक कर मानसी जैसे कुछ याद करने लगी.

शुभा चुपचाप मानसी के भीतर जमे हिमखंड को पिघलते देखती रही. मानसी फिर खोएखोए स्वर में बोलने लगी, ‘‘मैं यही तो नहीं जानती कि पत्थर की मूर्ति में भगवान बसते हैं या नहीं. अम्मा का बेजान मूर्ति के प्रति दृढ़ विश्वास और आस्था मेरे भी मन में जड़ जमाए बैठी थी. मोहित को समर्पित होते समय भी मेरे मन में किसी छलफरेब की कोई आशंका नहीं थी. अम्मा तो पत्थर को पूजती थीं, किंतु मैं ने तो एक जीतेजागते इंसान को देवता मान कर पूजा था. फिर समझ में नहीं आता कि कहां क्या कमी रह गई, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकल गया.’’ यह कह कर वह सूनीसूनी आंखों से शून्य में ताकती बैठी रही.

शुभा कुछ देर तक उस का पथराया चेहरा देखती चुप बैठी रही. फिर कोमलता से उस के हाथों को अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तो क्या मोहित धोखेबाज…’’

‘‘नहीं. उसे मैं धोखेबाज नहीं कहूंगी,’’ फिर होंठों पर व्यंग्य की मुसकान भर कर बोली, ‘‘वह तो शायद प्रेम की तलाश में अभी भी भटकता फिर रहा होगा. यह और बात है कि इस कलियुग में ऐसी कोई सती सावित्री उसे नहीं मिल पाएगी, जो पुजारिन बनी उसे पूजती हुई जोगन का बाना पहन कर उस के थोथे अहं को तृप्त करती रहे. बस, यही नहीं कर पाई मैं. अपना सबकुछ समर्पित करने के बदले में उस ने भी मुझ से एक प्रश्न ही तो पूछा था, मात्र एक प्रश्न, जिस का जवाब मैं तो क्या दुनिया की कोई नारी किसी पुरुष को नहीं दे पाई है. मैं भी नहीं दे पाई,’’ मानसी की आंखें फिर छलक आईं, जैसे बीता हुआ कल फिर उस के सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘जाने दे मानू, जो तेरे योग्य ही नहीं था, उस के खोने का दुख क्यों?’’ शुभा ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. लेकिन मानसी अपने में ही खोई बोलती रही, ‘‘आज भी मेरे कानों में उस का वह प्रश्न गूंज रहा है, मैं यह कैसे मान लूं कि जो लड़की विवाह से पहले ही एक परपुरुष के साथ इस हद तक जा सकती है, वह किसी और के साथ…’’

‘‘छि:,’’ शुभा घृणा से सिहर उठी.

उस के चेहरे पर उतर आई घृणा को देख कर मानसी हंस पड़ी, ‘‘तू घृणा तो कर सकती है, शुभी, मैं तो यह भी नहीं कर सकी थी. आज सोचती हूं तो तरस ही आता है खुद पर. जिसे मैं देवता मान रही थी, वह तो एक मानव भी नहीं था. और हम मूर्ख औरतें… क्या है हमारा अस्तित्व? हमारे ही त्याग और समर्पण से विजेता बना यह पुरुष हमारी कोमल भावनाओं को कुचलने के लिए, बस, एक उंगली उठाता है और हम औरतों का अस्तित्व कुम्हड़े की बत्तिया जैसे नगण्य हो जाता है.’’ आवेश से मानसी का चेहरा तमतमा उठा.

अपने गुस्से को पीती हुई मानसी आगे बोली, ‘‘जानती है शुभा, उस दिन उस के प्रश्न के धधकते अग्निकुंड में मैं ने अपना अतीत होम कर दिया था और साथ ही भस्म कर डाला था अपने मन में पलता प्रेम और निष्ठा. पुरुष जाति के प्रति उपजी घृणा, संदेह और विद्वेष का बीज मेरे मन में जड़ जमा कर बैठ गया.’’

‘‘तो फिर यह नित नए पुरुषों के साथ…’’ शुभा हिचकिचाती हुई पूछ बैठी.

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‘‘यह भी मैं ने मोहित से ही सीखा था. शुरूशुरू में मैं जब हिचकती या झिझकती तो वह यही कहता था, ‘इस में इतनी शरम या झिझक की क्या बात है. जैसे भूख लगने पर खाना खाते हैं, वैसे ही देह की भूख मिटाना भी एक सहज धर्म है,’ सो उस के दिखाए रास्ते पर चलती हुई उसी धर्म का पालन कर रही हूं मैं,’’ रोती हुई मानसी कांपते स्वर में बोली, ‘‘जब भूख लगती है, ठहर कर उसे शांत कर लेती हूं, फिर आगे बढ़ जाती हूं.’’

शुभा के चेहरे पर नफरत के भाव को भांप कर मानसी पलभर चुप रही, फिर ठंडी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘निष्ठा और प्रेम के कगारों से हीन मैं वह पथभ्रष्टा नदी हूं, जो एक भगीरथ की तलाश में मारीमारी फिर रही है. मैं ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है, फिर भी सोचती हूं कि इस अस्तित्वहीन हो चुकी नदी को उबारने के लिए कोई भगीरथ कहां से आएगा?’’

देर तक दोनों सखियां गुमसुम  अपनेअपने खयालों में खोई रहीं. फिर सहसा जैसे कुछ याद आ गया. मानसी एकदम से उठ खड़ी हुई, ‘‘अच्छा, चलती हूं.’’

‘‘कहां?’’ शुभा एकदम चौंक सी पड़ी.

अपने होंठों पर वही सम्मोहक हंसी छलकाती हुई मानसी इठलाते स्वर में बोली, ‘‘किसी भगीरथ की तलाश में.’’

उस के स्वर में छिपी पीड़ा शुभा को गहरे तक खरोंच गई. तेज डग भरती मानसी को देखती शुभा ने मन ही मन कामना की, ‘सुखद हो इस पथभ्रष्टा नदी की एकाकी यात्रा का अंत.’

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