Valentine’s Special: एक रिश्ता किताब का- क्या सोमेश के लिए शुभ्रा का फैसला सही था

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एक रिश्ता किताब का: भाग 1- क्या सोमेश के लिए शुभ्रा का फैसला सही था

‘‘बीमार हो तुम, इलाज कराओ अपना. तुम तो इनसान ही नहीं लगते हो मुझे…’’

‘‘तो क्या मैं जानवर हूं?’’

‘‘शायद जानवर भी नहीं हो. जानवर को भी अपने मालिक पर कम से कम भरोसा तो होता है…उसे पता होता है कि उस का मालिक उस से प्यार करता है तभी तो खाना देने में देरसवेर हो जाए तो उसे काटने को नहीं दौड़ता, जैसे तुम दौड़ते हो.’’

‘‘मैं काटने को दौड़ता हूं तुम्हें? अरे, मैं तुम से बेहद प्यार करता हूं.’’

‘‘मत करो मुझ से प्यार…मुझे ऐसा प्यार नहीं चाहिए जिसे निभाने में मेरा दम ही घुट जाए. मेरी एकएक सांस पर तुम ने पहरा लगा रखा है. क्या मैं बेजान गुडि़या हूं जिस की अपनी कोई पसंदनापसंद नहीं. तुम हंसो तो मैं हंसू, तुम नाचो तो मैं नाचूं…हद होती है हर चीज की…तुम सामान्य नहीं हो सोमेश, तुम बीमार हो, कृपा कर के तुम किसी समझदार मनोचिकित्सक को दिखाओ.’’

ऐसा लग रहा था मुझे जैसे मेरे पूरे शरीर का रक्त मेरी कनपटियों में समा कर उन्हें फाड़ने जा रहा है. आवेश में मेरे हाथपैर कांपने लगे. मैं जो कह रही थी वह मेरी सहनशक्ति समाप्त हो जाने का ही नतीजा था. कोई इस सीमा तक भी स्वार्थी और आधिपत्य जताने वाला हो सकता है मेरी कल्पना से भी परे था. ऐसा क्या हो गया जो सोमेश ने मेरी पसंद की उस किताब को आग ही लगा दी. वह किताब जिसे मैं पिछले 1 साल से ढूंढ़ रही थी. आज सुबह ही मुझे सोमेश ने बताया था कि शाम 4 बजे वह मुझ से मिलने आएगा. 4 से 5 तक मैं उस का इंतजार करती रही, हार कर पास वाली किताबों की दुकान में चली गई.

समय का पाबंद सोमेश कभी नहीं होता और अपनी जरूरत और इच्छा के अनुसार फैसला बदल लेना या देरसवेर करना उस की आदत है, जिसे पिछले 4 महीने से मैं महसूस भी कर रही हूं और मन ही मन परेशान भी हो रही हूं यह सोच कर कि कैसे इस उलझे हुए व्यक्ति के साथ पूरी उम्र गुजार पाऊंगी.

कुछ समय बीत गया दुकान में और सहसा मुझे वह किताब नजर आ गई जिसे मैं बहुत समय से ढूंढ़ रही थी. किताब खरीद कर मैं बाहर चली आई और उसी कोने में सोमेश को भुनभुनाते हुए पाया. इस से पहले कि मैं किताब मिल जाने की खुशी उस पर जाहिर करूं उस ने किताब मेरे हाथ से छीन ली और जेब से लाइटर निकाल यह कहते हुए उसे आग लगा दी, ‘‘इसी की वजह से मुझे यहां इंतजार करना पड़ा न.’’

10 मिनट इंतजार नहीं कर पाया सोमेश और मैं जो पूरे घंटे भर से यहां खड़ी थी जिसे हर आताजाता घूर रहा था. अपनी वजह से मुझे परेशान करना जो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है और अपनी जरा सी परेशानी का यह आलम कि उस वजह को आग ही लगा दी.

अवाक् रह गया सोमेश मुझे चीखते देख कर जिसे पुन: हर आताजाता रुक कर देख भी रहा था और सुन भी रहा था. मेरा तमाशा बनाने वाला अपना भी तमाशा बनना सह नहीं पाया और झट से मेरी बांह पकड़ अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने का प्रयास करने लगा.

‘‘बस, सोमेश, अब और नहीं,’’ इतना कह कर मैं ने अपना हाथ खींच लिया और मैं ने सामने खड़े रिकशा को इशारा किया.

रिकशा पर बैठ गई मैं. सोमेश के चेहरे के उड़ते रंग और उस के पैरों के पास पड़ी धूधू कर जलती मेरी प्रिय किताब इतना संकेत अवश्य दे गई मुझे कि सोमेश सामान्य नहीं है. उस के साथ नहीं जी पाऊंगी मैं.

पापा के दोस्त का बेटा है सोमेश और उसे मैं इतनी पसंद आ गई थी कि सोमेश के पिता ने हाथ पसार कर मुझे मांग लिया था जबकि सचाई यह थी कि सोमेश की हैसियत हम से कहीं ज्यादा थी. लाखों का दहेज मिल सकता था उसे जो शायद यहां नहीं मिलता क्योंकि मैं हर महीने इतना कमा रही थी कि हर महीने किस्त दर किस्त दहेज उस घर में जाता.

मैं ही दहेज के विरुद्ध थी जिस पर उस के पिता भारी मन से ही राजी हुए थे. बेटे की जिद थी जिस पर उन का लाखों का नुकसान होने वाला था.

‘‘मेरे बेटे में यही तो कमी है, यह जिद्दी बहुत है…और मेरी सब से बड़ी कमजोरी है मेरा बेटा. आज तक इस ने जिस भी चीज पर हाथ रखा मैं ने इनकार नहीं किया…बड़े नाजों से पाला है मैं ने इसे बेटी. तुम इस रिश्ते से इनकार मत करो.’’

दिमाग भन्ना गया मेरा. मैं ने बारीबारी से अपने मांबाप का चेहरा देखा. वे भी परेशान थे मेरे इस निर्णय पर. शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी.

‘‘मैं तुम्हारे लिए वे सारी किताबें लाऊंगा शुभा बेटी जो तुम चाहोगी…’’ हाथ जोड़ता हूं मैं. शादी से इनकार हो गया तो मेरा बेटा पागल हो जाएगा.’’

‘‘आप का बेटा पागल ही है चाचाजी, आप समझते क्यों नहीं? सवाल किताबों का नहीं, किताबें तो मैं भी खरीद सकती हूं, सवाल इस बात का है कि सोमेश ने ऐसा किया ही क्यों? क्या उस ने मुझे भी कोई खिलौना ही मान लिया था कि उस ने मांगा और आप ने लाखों का दहेज ठुकरा कर भी मेरा हाथ मांग लिया…सच तो यही है कि उस की हर जायजनाजायज मांग मानमान कर ही आप ने उस की मनोवृत्ति ऐसी स्वार्थी बना दी है कि अपनी खुशी के सामने उसे सब की खुशी बेतुकी लगती है. बेजान चीजें बच्चे की झोली में डाल देना अलग बात है, आज टूट गई कल नई भी आ सकती है. लेकिन माफ कीजिए, मैं बेजान खिलौना नहीं जो आप के बच्चे के लिए शहीद हो जाऊं.

‘‘हाथ क्यों जोड़ते हैं मेरे सामने. क्यों अपने बेटे के जुनून को हवा दे रहे हैं. आप रोकिए उसे और अपनेआप को भी. सोमेश का दिमाग संतुलित नहीं है. कृपया आप इस सत्य को समझने की कोशिश कीजिए…’’

‘‘मैं कुछ भी समझना नहीं चाहता. मुझे तो बस मेरे बच्चे की खुशी चाहिए और तुम ने शादी से इनकार कर दिया तो वह पागल हो जाएगा. वह बहुत प्यार करता है तुम से.’’

मन कांप रहा था मेरा. क्या कहूं मैं इस पिता समान इनसान से? अपनी संतान के मोह में वह इतना अंधा हो चुका है कि पराई संतान का सुखदुख भी उसे नजर नहीं आ रहा.

‘‘अगर शुभा ऐसा चाहती है तो तुम ही क्यों नहीं मान जाते?’’ पापा ने सवाल किया जिस पर सोमेश के पिता तिलमिला से गए.

‘‘तुम भी अपनी बेटी की बोली बोलने लगे हो.’’

‘‘मैं ने भी अपनी बच्ची बड़े लाड़प्यार से पाली है, जगदीश. माना मेरे पास तुम्हारी तरह करोड़ों की विरासत नहीं है, लेकिन इतना भूखा भी नहीं हूं जो अपनी बच्ची को पालपोस कर कुएं में धकेल दूं. शादी की तैयारी में मेरा भी तो लाखों खर्च हो चुका है. अब मैं खर्च का हिसाब तो नहीं करूंगा न…जब बेटी का भविष्य ही प्रश्नचिह्न बन सामने खड़ा होगा…चलो, मैं साथ चलता हूं. सोमेश को किसी मनोचिकित्सक को दिखा लेते हैं.’’

सोमेश के पिता माने नहीं और दनदनाते हुए चले गए.

‘‘कहीं हमारे हाथों किसी का दिल तो नहीं टूट रहा, शुभा? कहीं कोई अन्याय तो नहीं हो रहा?’’ मां ने धीरे से पूछा, ‘‘सोमेश बहुत प्यार करता है तुम से.’’

‘‘मां, पहली नजर में ही उसे मुझ से प्यार हो गया, समझ नहीं पाई थी मैं. न पहले देखा था कभी और न ही मेरे बारे में कुछ जानता था…चलो, माना… हो गया. अब क्या वह मेरी सोच का भी मालिक हो गया? मां, इतना समय मैं चुप रही तो इसलिए कि मैं भी यही मानती रही, यह उस का प्यार ही है जो कोई मुझे देख रहा हो तो उसे सहन ही नहीं होता. एक दिन रेस्तरां में मेरे एक सहयोगी मिल गए तो उन्हीं के बारे में हजार सवाल करने लगा और फिर न मुझे खाने दिया न खुद खाया. वजह सिर्फ यह कि उन्होंने मुझ से बात ही क्यों की. उस में समझदारी नाम की कोई चीज ही नहीं है मां. अपनी जरा सी इच्छा का मान रखने के लिए वह मुझे चरित्रहीन भी समझने लगता है…मेरी नजरों पर पहरा, मैं ने उधर क्यों देखा, मैं ने पीछे क्यों देखा, कभीकभी तो मुझे अपने बारे में भी शक होने लगता है कि क्या सच में मैं अच्छी लड़की नहीं हूं…’’

आगे पढ़ें- हाथ जोड़ कर जगदीश चाचा से…

एक रिश्ता किताब का: भाग 2- क्या सोमेश के लिए शुभ्रा का फैसला सही था

पापा मेरी बातें सुन कर अवाक् थे. इतने दिन मैं ने यह सब उन से क्यों नहीं कहा इसी बात पर नाराज होने लगे.

‘‘तुम अच्छी लड़की हो बेटा, तुम तो मेरा अभिमान हो…लोग कहते थे मैं ने एक ही बेटी पर अपना परिवार क्यों रोक लिया तो मैं यही कहता था कि मेरी बेटी ही मेरा बेटा है. लाखों रुपए लगा कर तुम्हें पढ़ायालिखाया, एक समझदार इनसान बनाया. वह इसलिए तो नहीं कि तुम्हें एक मानसिक रोगी के साथ बांध दूं. 4 महीने से तुम दोनों मिल रहे हो, इतना डांवांडोल चरित्र है सोमेश का तो तुम ने हम से कहा क्यों नहीं?’’

‘‘मैं खुद भी समझ नहीं पा रही थी पापा, एक दिशा नहीं दे पा रही थी अपने निर्णय को…लेकिन यह सच है कि सोमेश के साथ रहने से दम घुटता है.’’

रिश्ता तोड़ दिया पापा ने. हाथ जोड़ कर जगदीश चाचा से क्षमा मांग ली. बदहवासी में क्याक्या बोलने लगे जगदीश चाचा. मेरे मामा और ताऊजी भी पापा के साथ गए थे. घर वापस आए तो काफी उदास भी थे और चिंतित भी. मामा अपनी बात समझाने लगे, ‘‘उस का गुस्सा जायज है लेकिन वह हमारा ही शक दूर करने के लिए मान क्यों नहीं जाता. क्यों नहीं हमारे साथ सोमेश को डाक्टर के पास भेज देता.

शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा, एक ही रट मेरे तो गले से नीचे नहीं उतरती. शादी क्या कोई दवा की गोली है जिस के होते ही मर्ज चला जाएगा. मुझे तो लगता है बापबेटा दोनों ही जिद्दी हैं. जरूर कुछ छिपा रहे हैं वरना सांच को आंच क्या. क्या डर है जगदीश को जो डाक्टर के पास ले जाना ही नहीं चाहता,’’ ताऊजी ने भी अपने मन की शंका सामने रखी.

‘‘बेटियां क्या इतनी सस्ती होती हैं जो किसी के भी हाथ दे दी जाएं. कोई मुझ से पूछे बेटी की कीमत…प्रकृति ने मुझे तो बेटी भी नहीं दी…अगर मेरी भी बेटी होती तो क्या मैं उसे पढ़ालिखा कर, सोचनेसमझने की अक्ल दिला कर किसी कुंए में धकेल देता?’’ रो पड़े थे ताऊजी.

मैं दरवाजे की ओट में खड़ी थी. उधर सोमेश लगातार मुझे फोन कर रहा था, मना रहा था मुझे…गिड़गिड़ा रहा था. क्या उस के पास आत्मसम्मान नाम की कोई चीज नहीं है. मैं सोचने लगी कि इतने अपमान के बाद कोई भी विवेकी पुरुष होता तो मेरी तरफ देखता तक नहीं. कैसा है यह प्यार? प्यार तो एहसास से होता है न. जिस प्यार का दावा सोमेश पहले दिन से कर रहा है वह जरा सा छू भर नहीं गया मुझे. कोई एक पल भी कभी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कोई ऐसा धागा है जो मुझे सोमेश से बांधता है. हर पल यही लगा कि उस के अधिकार में चली गई हूं.

‘‘मैं बदनाम कर दूंगा तुम्हें शुभा, तेजाब डाल दूंगा तुम्हारे चेहरे पर, तुम मेरे सिवा किसी और की नहीं हो सकतीं…’’

मेरे कार्यालय में आ कर जोरजोर से चीखने लगा सोमेश. शादी टूट जाने की जो बात मैं ने अभी किसी से भी नहीं कही थी, उस ने चौराहे का मजाक बना दी. अपना पागलपन स्वयं ही सब को दिखा दिया. हमारे प्रबंधक महोदय ने पुलिस बुला ली और तेजाब की धमकी देने पर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया सोमेश को.

उधर जगदीश चाचा भी दुश्मनी पर उतर आए थे. वह कुछ भी करने को तैयार थे, लेकिन अपनी और अपने बेटे की असंतुलित मनोस्थिति को स्वीकारना नहीं चाहते थे. हमारा परिवार परेशान तो था लेकिन डरा हुआ नहीं था. शादी की तारीख धीरेधीरे पास आ रही थी जिस के गुजर जाने का इंतजार तो सभी को था लेकिन उस के पास आने का चाव समाप्त हो चुका था.

शादी की तारीख आई तो मां ने रोक लिया, ‘‘आज घर पर ही रह शुभा, पता नहीं सोमेश क्या कर बैठे.’’

मान गई मैं. अफसोस हो रहा था मुझे, क्या चैन से जीना मेरा अधिकार नहीं है? दोष क्या है मेरा? यही न कि एक जनून की भेंट चढ़ना नहीं चाहती. क्यों अपना जीवन नरक बना लूं जब जानती हूं सामने जलती लपटों के सिवा कुछ नहीं.

मेरे ममेरे भाई और ताऊजी सुबह ही हमारे घर पर चले आए.

‘‘बूआ, आप चिंता क्यों कर रही हैं…हम हैं न. अब डरडर कर भी तो नहीं न जिआ जा सकता. सहीगलत की समझ जब आ गई है तो सही का ही चुनाव करेंगे न हम. जानबूझ कर जहर भी तो नहीं न पिआ जा सकता.’’

मां को सांत्वना दी उन्होंने. अजीब सा तनाव था घर में. कब क्या हो बस इसी आशंका में जरा सी आहट पर भी हम चौंक जाते थे. लगभग 8 बजे एक नई ही करवट बदल ली हालात ने.

जगदीश चाचा चुपचाप खड़े थे हमारे दरवाजे पर. आशंकित थे हम. कैसी विडंबना है न, जिन से जीवन भर का नाता बांधने जा रहे थे वही जान के दुश्मन नजर आने लगे थे.

पापा ने हाथ पकड़ कर भीतर बुलाया. हम ने कब उन से दुश्मनी चाही थी. जोरजोर से रोने लगे जगदीश चाचा. पता चला, सोमेश सचमुच पागलखाने में है. बेडि़यों से बंधा पड़ा है सोमेश. पता चला वह पूरे घर को आग लगाने वाला था. हम सब यह सुन कर अवाक् रह गए.

‘‘मुझे माफ कर दो बेटी. तुम सही थीं. मेरा बेटा वास्तव में संतुलित दिमाग का मालिक नहीं है. मेरा बच्चा पागल है. वह बचपन से ही ऐसा है जब से उस की मां चली गई.’’

सोमेश की मां तभी उन्हें छोड़ कर चली गई थी जब वह मात्र 4 साल का था. यह बात मुझे पापा ने बताई थी. पतिपत्नी में निभ नहीं पाई थी और इस रिश्ते का अंत तलाक में हुआ था.

‘‘…मैं क्या करता. मांबाप दोनों की कमी पूरी करताकरता यह भूल ही गया कि बच्चे को ना सुनने की आदत भी डालनी चाहिए. मैं ने ना सुनना नहीं न सिखाया, आज तुम ने सिखा दिया. दुनिया भी सिखाएगी उसे कि जिस चीज पर भी वह हाथ रखे, जरूरी नहीं उसे मिल ही जाए,’’ रो रहे थे जगदीश चाचा, ‘‘सारा दोष मेरा है. मैं ने अपनी शादी से भी कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं कर ली थीं जो पूरी नहीं उतरीं. जिम्मेदारी न समझ मजाक ही समझा. मेरी पत्नी की और मेरी निभ नहीं पाई जिस में मेरा दोष ज्यादा था. मेरे ही कर्मों का फल है जो आज मेरा बच्चा बेडि़यों में बंधा है…मुझे माफ कर दो बेटी और सदा सुखी रहो… हमारी वजह से बहुत परेशानी उठानी पड़ी तुम्हें.’’

हम सब एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. जगदीश चाचा का एकाएक बदल जाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. कहीं कोई छलावा तो नहीं है न उन का यह व्यवहार. कल तक मुझे बरबाद कर देने की कसमें खा रहे थे, आज अपनी ही बरबादी की कथा सुना कर उस की जिम्मेदारी भी खुद पर ले रहे थे.

‘‘बेटी, मैं ने सच में औरों से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगाई हैं. सदा लेने को हाथ बढ़ाया है देने को नहीं. सदा यही चाहा कि सामने वाला मेरे अनुसार अपने को ढाले, कभी मैं भी वह करूं जो सामने वाले को अच्छा लगे, ऐसा नहीं सोचा. जैसा मैं था वैसा ही सोमेश को भी बनाता गया…बेहद जिद्दी और सब पर अपना ही अधिकार समझने वाला…ऐसा इनसान जीवन में कभी सफल नहीं होता बेटी. न मेरी शादी सफल हुई न मेरी परवरिश. न मैं अच्छा पति बना न अच्छा पिता. अच्छा किया जो तुम ने शादी से मना कर दिया. कम से कम तुम्हारे इनकार से मेरी इस जिद पर एक पूर्णविराम तो लगा.’’

आगे पढ़ें- तूफान के बाद की शांति घर भर में…

एक रिश्ता किताब का: भाग 3- क्या सोमेश के लिए शुभ्रा का फैसला सही था

निरंतर रो रहे थे जगदीश चाचा. पापा भी रो रहे थे. शायद हम सब भी. इस कथा का अंत इस तरह होगा किस ने सोचा था. जगदीश चाचा सब रिश्तों को खो कर इतना तो समझ ही गए थे कि अकेला इनसान कितना असहाय, कितना असुरक्षित होता है. सब गंवा कर दोस्ती का रिश्ता बचाना सीख लिया यही बहुत था, एक शुरुआत की न जगदीश चाचा ने. पापा ने माफ कर दिया जगदीश चाचा को. सिर से भारी बोझ हट गया, एक रिश्ता तोड़ एक रिश्ता बचा लिया, सौदा महंगा नहीं रहा.

तूफान के बाद की शांति घर भर में पैर पसारे थी. दोपहर का समय था जब मेरे एक सहयोगी ने दरवाजा खटखटाया. कंधे पर बैग और हाथ में शादी का तोहफा लिए मामा ने उन्हें अंदर बिठाया. मैं मिलने गई तो विजय को देख कर सहसा हैरान हो गई.

‘‘अरे, शादी वाला घर नहीं लग रहा आप का…आप भी मेहंदी से लिपीपुती नहीं हैं…पंजाबी दुलहन के हाथ में तो लंबेलंबे कलीरे होते हैं न. मुझे तो लगा था कि पहुंच ही नहीं पाऊंगा. सीधा स्टेशन से आ रहा हूं. आप पहले यह तोहफा ले लीजिए. अभी फुरसत है न. रात को तो आप बहुत व्यस्त होंगी. जरा खोल कर देखिए न, आप की पसंद का है कुछ.’’

एक ही सांस में विजय सब कह गए. उन के चेहरे पर मंदमंद मुसकान थी, जो सदा ही रहती है. आफिस के काम से उन को मद्रास में नियुक्त किया गया था. अच्छे इनसान हैं. मेरी शादी के लिए ही इतनी दूर से आए थे. आसपास भी देख रहे थे.

‘‘क्या बात है शुभाजी, घर में शादी की चहलपहल नहीं है. क्या शादी का प्रबंध कहीं और किया गया है? आप जरा खोल कर देखिए न इसे…माफ कीजिएगा, मुझे रात ही वापस लौटना होगा. आप को तो पता है कि छुट्टी मिलना कितना मुश्किल है…मैं तो किसी तरह जरा सा समय खींच पाया हूं. आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था. आप के हाथों में वह सब कैसा लगता वह सब देखने का लोभ मैं छोड़ ही नहीं पाया.’’

विजय के शब्दों की बेलगाम दौड़ कभी मेरे हाथ में दिए गए तोहफे पर रुकती और कभी आसपास के चुप माहौल पर. इतनी दूर से मुझे बस दुलहन के रूप में देखने आए थे. चाहते थे तोहफा अभी खोल कर देख लूं.

‘‘आप बहुत अच्छी हैं शुभाजी, सोेमेशजी बहुत किस्मत वाले हैं जो आप उन्हें मिलने वाली हैं. आप सदा सुखी रहें. मेरी यह दिली ख्वाहिश है.’’

सहसा उन का हाथ मेरे सिर पर आया. सिहर गया था मेरा पूरा का पूरा अस्तित्व. नजरें उठा कर देखा कुछ तैर रहा था आंखों में.

‘‘क्या बात है, शुभाजी, सब ठीक तो है न…घबराहट हो रही है क्या?’’

क्या कहूं मैं सोेमेश के बारे में, और विजय को भी क्या समझूं. विजय तो आज भी वहीं खड़े हैं जहां तब खड़े थे जब मेरी सोमेश के साथ सगाई हुई थी. एक मीठा सा भाव रहता था सदा विजय की आंखों में. कुछ छू जाता था मुझे. इस से पहले मैं कुछ समझ पाती सोमेश से मेरी सगाई हो गई और जितना समय सगाई को हुआ उतने ही समय से विजय की नियुक्ति भी मद्रास में है, जिस वजह से यह प्रकरण पुन: कभी उठा ही नहीं था. भूल ही गई थी मैं विजय को.

तभी पापा भीतर चले आए और मैं तोहफा वहीं मेज पर टिका कर भीतर चली आई. अपने कमरे में दुबक सुबक- सुबक कर रो पड़ी. जाहिर सा था पापा ने सारी की सारी कहानी विजय को सुना दी होगी. कुछ समय बीत गया…फिर ऐसा लगा बहुत पास आ कर बैठ गया है कोई. कान में एक मीठा सा स्वर भी पड़ा, ‘‘आप ने अभी तक मेरा तोहफा खोल कर नहीं देखा शुभाजी. जरा देखिए तो, क्या यह वही किताब है जिसे सोमेश ने जला दिया था…देखिए न शुभाजी, क्या इसी किताब को आप पिछले साल भर से ढूंढ़ रही थीं. देखिए तो…

‘‘शुभा, आप मेरी बात सुन रही हैं न. जो हो गया उसे तो होना ही था क्योंकि सोमेश इतनी अच्छी तकदीर का मालिक नहीं था और जिस रिश्ते की शुरुआत ही धोखे और खराब नीयत से हो उस का अंत कैसा होता है. सभी जानते हैं न. आप कमरे में दुबक कर क्यों रो रही हैं. आप ने तो किसी को धोखा नहीं दिया, तो फिर दुखी होने की क्या जरूरत. इधर देखिए न…’’

मेरा हाथ जबरदस्ती अपनी तरफ खींचा विजय ने. स्तब्ध थी मैं कि इतना अधिकार विजय को किस ने दिया? दोनों हाथों से मेरा चेहरा सामने कर आंसू पोंछे.

‘‘इतनी दूर से मैं आप के आंसू देखने तो नहीं आया था. आप बहुत अच्छी लगती थीं मुझे…अच्छे लोग सदा मन के किसी न किसी कोने में छिपे रहते हैं न. यह अलग बात है कि आप ने मन का कोई कोना नहीं पूरा मन ही बांध रखा था… आप का हाथ मांगना चाहता था. जरा सी देर हो गई थी मुझ से. आप की सगाई हो गई और मैं जानबूझ कर आप से दूर चला गया. सदा आप का सुख मांगा है…प्रकृति से यही मांगता रहा कि आप को कभी गरम हवा छू भी न जाए.

‘‘आप की एक नन्ही सी इच्छा का पता चला था.

‘‘याद है एक शाम आप बुक शाप में यह किताब ढूंढ़ती मिल गई थीं. आप से पता चला था कि आप इसे लंबे समय से ढूंढ़ रही हैं. मैं ने भी इसे मद्रास में ढूंढ़ा… मिल गई मुझे. सोचा शादी में इस से अच्छा तोहफा और क्या होगा…इसे पा कर आप के चेहरे पर जो चमक आएगी उसी में मैं भी सुखी हो लूंगा इसीलिए तो बारबार इसे खोल कर देख लेने की जल्दी मचा रहा था मैं.’’

पहली बार नजरें मिलाने की हिम्मत की मैं ने. आकंठ डूब गई मैं विजय के शब्दों में. मेरी नन्ही सी इच्छा का इतना सम्मान किया विजय ने और इसी इच्छा का दाहसंस्कार सोमेश के पागलपन को दर्शा गया जिस पर इतना बड़ा झूठ तारतार कर बिखर गया.

‘‘आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था, तभी तो इतनी दूर से आया हूं. आज का दिन आप की शादी का दिन है न. तो शादी हो जानी चाहिए. आप के पापा और मां ने पूछने को भेजा है. क्या आप मेरा हाथ पकड़ना पसंद करेंगी?’’

क्या कहती मैं? विजय ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. झट से एक प्रगाढ़ चुंबन मेरे गाल पर जड़ा और सर थपक दिया. शायद कुछ था जो सदा से हमें जोड़े था. बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने. कुछ ऐसा जिसे सोमेश के साथ कभी महसूस नहीं किया था.

विजय बाहर चले गए. पापा और मां से क्याक्या बातें करते रहे मैं ने सुना नहीं. ऐसा लगा एक सुरक्षा कवच घिर आया है आसपास. मेरी एक नन्ही सी इच्छा मेरी वह प्रिय किताब मेरे हाथों में चली आई. समझ नहीं पा रही हूं कैसे सोमेश का धन्यवाद करूं?

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