इमोशनल अत्याचार: क्या पैसों से प्यार करने वाली नयना को हुई पति की कदर

 

 

 

Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 3

‘‘मैं अभी तकलीफ में हूं… बातें करने में असमर्थ हूं. तुम चाहो तो बाद में फोन करूंगा.’’

‘‘सुनो, जरा अपना क्रैडिट कार्ड की लिमिट बढ़वा दो मु झे एक बड़ी स्क्रीन वाला टीवी लेना है और तुम्हारे कार्ड की लिमिट पूरी हो गई है. अब मुंबई जैसे शहर के खर्चे हजार होते हैं तुम क्या सम झोगे? मैं अपनी दोस्त के साथ दुकान गई थी और कार्ड डिक्लाइन हो गया. मु झे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई. तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है…’’

नयना बोल रही थी और जतिन का दिल छलनी हो रहा था कि उस ने एक बार भी मेरी खैरियत नहीं पूछी. सिर्फ और सिर्फ पैसों का ही नाता रह गया है क्या? चूंकि सारी बातें प्रेरणा के समक्ष ही हो रही थीं, सो उस का भी मन पसीज गया. शाम होतेहोते जतिन के मातापिता ही रायपुर से रांची होते हुए पिपरवार पहुंच गए. उन के आ जाने के बाद प्रेरणा भी थोड़ी निश्चिंत हुई और कालोनी के और लोग भी. जतिन की मां को तो पता ही नहीं था कि उन की नवब्याहता बहू उन के बेटे के साथ न रह कर मुंबई रहने लगी है. बेटे की शादी के बाद उन्हें ज्यादा पूछताछ उन की गृहस्थी में सेंध सरीखी लगती थी. जतिन ने भी घरपरिवार में किसी से इस बात की चर्चा तक नहीं की कि नयना अब उस के साथ नहीं रह रही. यह बात उसे एक तरह से खुद की हार सम झ आती थी और वह इस दर्द को दबाए घुल रहा था.

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अब जब मां के सामने सारी बातें स्पष्ट हो गईं तो उस का मन भी कुछ हलका हुआ और वह अपने टूटे पैर और चोटिल दिलदिमाग व शरीर की तरफ उत्प्रेरित हुआ. अपने शुभचिंतक और मददगार भी दिखने लगे. जतिन की मां ने नयना को फोन लगा कर कहा कि वह पिपरवार आ कर उस की देखभाल करे. उन्होंने उसे भलाबुरा भी कहा कि पति की दुर्घटना के विषय में जान कर भी वह नहीं आई.

नयना ने भोलेपन से कहा, ‘‘मम्मीजी, अब मेरे पास इतने पैसे अभी नहीं हैं कि मैं मुंबई से रांची फ्लाइट का किराया भर सकूं. जतिन के कार्ड की लिमिट भी पार हो गई है इस महीने.’’

जतिन के मातापिता सिर पकड़ कर बैठ गए कि कैसी मानसिकता है उस की? खैर, उसे टिकट भेजा गया और एहसान जताती हुए नयना आ भी गई. महीनों बाद अपनी  पत्नी को घर में देख जतिन खिल उठा. उसे शुरुआती दिनों की याद आने लगी जब उस ने और नयना ने गृहस्थी की शुरूआत की थी. परंतु नयना के नखरों का अंत नहीं था, साधारण से परिवार की साधारण सी नौकरी करने वाली लड़की पति के पैसों पर ऐश करती उच्चाकांक्षी हो उन्मुक्त हो चुकी थी. घर में घुसते हुए ही उस की उस जगह से शिकायतों का पुलिंदा अनावृत होने लगा था. जतिन का ड्राइवर, नयना को रिसीव करने गया. उस के जूनियर के समक्ष ही वह कोयला वाली सड़कों, सूने रास्ते और पसरी मनहूसियत का रोना ले कर बैठ गई.

जतिन बिस्तर पर है, लाचार है, इस बात का भी एहसास उसे कुछ समय बाद ही चला. फिर उसे बढ़े हुए कामों से भी परेशानी होने लगी. सासससुर के समक्ष ही वह अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने लगी. उस की आने की खबर सुन, अगले दिन जतिन के सहकर्मी और कालोनी की महिलाएं भी मिलने आ गईं. वैसे भी सब नियमित हालचाल तो जतिन का करते ही थे.

सब ड्राइंगरूम में बैठे ही थे कि नयना कमरे में जतिन को ऊंचे स्वर में कहने लगी, ‘‘यही बात मु झे पसंद नहीं… यहां हर वक्त लोग नाक घुसाए रहते हैं, प्राइवेसी किस चिडि़या का नाम है मानो खबर ही नहीं, बाई द वे, वह लड़की नहीं दिखाई दे रही है, जिस का हाथ पकड़ तुम ने केक काटा था?’’

‘‘नयना, ऐसे न बोलो जब मेरा ऐक्सिडैंट हुआ तो इन्हीं लोगों ने मु झे संभाला था और प्रेरणा का तो तुम्हें शुक्रगुजार होना चाहिए.’’

नयना के आने के 2-3 दिनों के बाद ही जतिन के मातापिता रायपुर लौट गए ताकि बेटेबहू एकांत में अपनी टूटती गृहस्थी की मौली को फिर से लपेट लें.

मां ने एक बार कहा भी, ‘‘जतिन तू क्यों नहीं मुंबई या किसी अन्य महानगर में नौकरी खोज लेता है ताकि बहू भी खुश रह सके?’’

‘‘मां मैं ने एक माइनिंग यानी खनन अभियंता की पढ़ाई की है और मेरी नौकरी हमेशा ऐसी जगहों पर ही होगी. अब खदान तो महानगरों में नहीं न होंगे?’’

जतिन की बात सही ही थी. अगले 3-4 दिनों में ही महानगरीय पंछी के  पंख फड़फड़ाने को व्याकुल होने लगे. उसे मुंबई की चकाचौंध की कमी महसूस होने लगी.  झारखंड के उस अंदरूनी भाग की हरियाली और सघन वन के बीच सुंदर कालोनी शांत वातावरण और खुशमिजाज लोग मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते. बंगला, गाड़ी, ड्राइवर, इज्जत उसे नहीं लुभाते थे. लोगों की परवाह और स्नेह उसे बंधन लगने लगा. वह वहां से निकलने के बहाने खोजने लगी. हां, सभी से वह उस लड़की के विषय में जरूर पूछती जो केक कटवाते वक्त साथ थी. पर किसी ने उसे कुछ भी नहीं बताया, प्रेरणा के विषय में. उलटे लोगों को लगने लगा कि यदि नयना की जगह प्रेरणा से जतिन की शादी हुई होती तो ज्यादा सफल और सुखी होती उस की जिंदगी.

‘‘जतिन मैं ने बुधिया को सबकुछ सम झा दिया है, वह तुम्हारा खयाल रख लेगी. मु झे वापस जाना ही होगा, यहां मेरा दम घुटता है. मैं 2-3 महीनों में फिर आती हूं. तुम तो जानते ही हो मु झे वर्क फ्रौम होम बिलकुल पसंद नहीं,’’ कहते हुए नयना अपना सामान समेटने लगी.

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जतिन बिस्तर पर प्लास्टर वाले पैर लिए उसे देख रहा था, जिसे कटने में अभी 5 हफ्ते शेष थे. भावुक, संवेदनशील जतिन पत्नी के इस अवतार को देख अचंभित हो रहा था. दिल की गहराई में बहुत कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. उस ने जाती हुई नयना को इस बार कुछ नहीं कहा, बल्कि करवट ले उस की तरफ पीठ कर दी ताकि उस के आंसुओं को देख नयना उसे कमजोर न सम झ ले और फिर और ज्यादा इमोशनल अत्याचार न करने लगे.

जतिन ने इस बार उसे दिल से ही नहीं जिंदगी से भी विदा कर दिया. इस एक पहिए की गृहस्थी से उस का भी मन उचाट हो गया. नयना ने सोचा भी नहीं था कि उस के जाते ही राघव उसे तलाक के पेपर भिजवा देगा. कहां वह उस के पैसों पर ऐश करने की सोच रही थी, सीधासाधा सा पढ़ाकू गंवार टाइप का लड़का कुछ ऐसा कर जाएगा जो उस के स्वप्नों पर वज्रपात सरीखा होगा. नयना ने सम झा था कि वह इस तरह जतिन को इमोशनल मूर्ख बना अपनी मनमानी करती रहेगी. ठुकराए जाने के बाद उसे उस छप्पन भोग थाली का महत्त्व याद आ रहा था. मगर जिंदगी बारबार मौके नहीं देती है.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 1

नयना अपने हाथों में लिए उस कागज के टुकडे़ को न जाने कब से निहार रही थी. उसे तो खुश होना चाहिए था पर न जाने क्यों नहीं हो पा रही थी. जब तक कुछ हासिल नहीं होता है तब तक एक जुनून सा हावी रहता है जेहन पर. इस कागज के टुकड़े ने मानो उस का सर्वस्व हर रखा था. पर क्या करे इस शाम को जब हर दिन की वह जद्दोजहद एक  झटके में समाप्त हो गई. अब जो भी हो इस शाम को इस हासिल का जश्न तो बनता ही है.

अगले ही पल गहरे मेकअप तले खुद को, खुद की भावनाओं को छिपाए एक डिस्को में जा पहुंची. यही तो चाहिए था उसे. इसी को तो पाना था उसे, पर फिर ये आंसू क्यों निकल रहे हैं? क्यों नहीं  झूम रही? क्यों नहीं थिरक रही? क्यों यह शोर, ये गाने जिन के लिए वह बेताब थी, आज कर्णफोड़ू और असहनीय महसूस हो रहे हैं?

यही चाहिए था न, फिर पैर थिरकने की जगह जम क्यों गए हैं… उफ…

फिर ये अश्रु, यह मूर्ख बनाती बूंदाबांदी, जब देखो उसे गुमराह करने को टपक पड़ती है. यह वही बूंदाबांदी है जिस ने नयना के जीवन को पेचीदा बना दिया है. कहते हैं ये आंसू मन के अबोले शब्द होते हैं, पर क्षणक्षण बदलते मन के साथ ये भी अपनी प्रकृति बदलते रहते हैं और मानस की उल झनों को जलेबीदार बना बावला साबित कर देते हैं. तेज बजता संगीत, हंसतेचिल्लाते लोग, रंगीन रोशनी और रहस्यमय सा अंधकार का बारबार आनाजाना, बिलकुल उस की मनोस्थिति की तरह.

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काश यह शोर कम होता, काश थोड़ी नीरवता होती.

अजीबोगरीब विक्षिप्त सी सोच होती जा रही है उस क. मन उन्हीं छूटी गलियों की तरफ क्यों भाग रहा है, जिन्हें छोड़ने को अब तक तत्पर थी, आतुर थी.

नयना की शादी एक अभियंता जतिन से हुई थी, जो देश के एक टौप इंजीनियरिंग कालेज से पढ़ा हुआ होनहार कैंडिडेट था उस वक्त अपनी बिरादरी में. नयना ने भी इंजीनियरिंग की ही डिगरी हासिल की थी और किसी आईटी फर्म के लिए काम करती थी. शादी के वक्त सबकुछ बहुत रंगीन था, शादी खूब धूमधड़ाके से हुई थी नयना के शहर मुंबई से. शादी के बाद वह विदा हो कर जतिन के शहर रायपुर गई और फिर दोनों हनीमून मनाने चले गए.

जतिन चूंकि खनन अभियंता था तो लाजिम था कि उस की पोस्टिंग खदान के पास ही होगी. वह  झारखंड के कोयला खदान में कार्यरत था और पिपरवार नामक कोलयरी में उस की पोस्टिंग थी. कोयला खदान के पास ही सर्वसुविधा संपन्न कालोनी थी, जहां अफसरों और श्रमिकों के परिवार कंपनी के क्वार्टरों में रहते थे. जतिन को भी एक बंगला मिला हुआ था, जिस में एक छोटा सा बगीचा भी था और सर्वैंट क्वाटर्स भी. हनीमून से लौट कर जतिन बड़ी खुशी से नयना को ले कर पिपरवार अपने बंगले पर अपनी गृहस्थी शुरू करने गया. अब तक वह गैस्ट हाउस में ही रहता था सो अब पत्नी और घर दोनों की खुशी उसे प्रफुल्लित कर रही थी. जिंदगी के इस नवीकरण से उत्साहित जतिन अपने क्वार्टर को घर में तबदील करने में लग गया. नयना भी उसी उत्साह से इस नूतनता का आनंद लेने लगी.

नवविवाहित जोड़े को हर दिन कोई न कोई कालोनी में अपने घर खाने पर निमंत्रित करता था. शहर से दूर उस छोटी सी कालोनी में सभी बड़ी आत्मीयता से रहते थे. आपस के सौहार्द और जुड़ाव की जड़ें गहरी थीं, किसी सीनियर अफसर की पत्नी ने खुद को नयना की भाभी बता एक रिश्ता बना लिया तो किसी ने बहन, तो किसी ने बेटी. नयना को 1 हफ्ते तक अपनी रसोई शुरू करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. कोई न कोई इस बात का ध्यान रख लेता था.

इस बीच एक बूढ़ी महिला बुधनी को उन्होंने काम पर रख लिया जो बंगले से लगे सर्वैंट क्वार्टरों में रहने लगी. नयना भी वर्क फ्रौम होम करने लगी.

पिपरवार से नजदीकी शहर रांची कोई 80 किलोमीटर दूर था. एक महीने में ही कई बार नयना जिद्द कर वहां के कई चक्कर काट चुकी थी. जबकि जरूरत की सभी दुकानें कालोनी के शौपिंग सैंटर में उपलब्ध थीं. मगर रांची तो रांची ही था, एक सुंदर पहाड़ी नगर मुंबई की चकाचौंध वहां नदारद थी. 2 महीने होतेहोते नयना को ऊब होने लगी, औफिसर क्लब में हफ्ते में एक बार होने वाली पार्टी में उस का मन न लगता. वहां का घरेलू सा माहौल उसे रास न आता. जतिन भी दिनोंदिन व्यस्त होता जा रहा था, खदान की ड्यूटी बहुत मेहनत वाली होती है और जोखिम किसी सैनिक से कम नहीं. थक कर चूर, कोयले की धूल से अटा जब वह लौटता तो नयना का मन वितृष्णा से भर जाता. जतिन उसे बताता खदान में चलने वाले बड़ेबड़े डोजरडंपरों के बारे में कि कैसे वे गहरी खदानों में चलते हैं, कैसे कोयला काटा जाता है. उन भारीभरकम मशीनों के साथ काम करने के जोखिम की भी चर्चा करता या बौस की शाबाशी या डांट इत्यादि का जिक्र करता तो नयना उबासी लेने लगती. उस के अनमनेपन को भांपते हुए जतिन अगली छुट्टी का प्रोग्राम बनाने लगता.

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मगर जो था सो था ही, पैसे आ तो रहे थे जो नयना को बेहद पसंद थे पर सचाई यह

थी कि वह महानगरीय जीवन की कमी महसूस करने लगी थी. उसे आश्चर्य होता कि यहां रहने वाली दूसरी स्त्रियां खुश कैसे रहती हैं. वहां के शांत वातावरण में उसे सुख नहीं रिक्तता महसूस होने लगी. न कोई मौल, न कोई मल्टीप्लैक्स, भला कोई इन सब के बिना रहे कैसे?

वह इतवार था जब उन दोनों ने शादी के 2 महीने पूरा होने की खुशी में केक काटा था और 5-6 कुलीग्स को खाने पर बुलाया था. रात में वह सोशल मीडिया पर अपनी सहेली की तसवीरें देख रही थी, जो उस ने दिल्ली के किसी मौल में घूमते हुए खींची थीं.

अचानक उसे अपना जीवन बरबाद लगने लगा और बहुत खराब मूड के साथ उस ने जतिन को जता भी दिया. जतिन ने हर तरीके से अपने प्यार को जताने की खूब कोशिश की पर नयना पर मानो भूत सवार था.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 2

नयना को उस की मां ने पहले ही चेताया था कि जतिन की पोस्टिंग अंदरूनी जगहों पर ही रहेगी. पर उस वक्त तो नयना को जतिन की मोटी सैलरी ही आकर्षित कर रही थी. अब उसे सबकुछ फीका और अनाकर्षक लगने लगा था. वहां के लोग, वह जगह और खुद जतिन भी. प्यार का खुमार उतर चुका था. उस इतवार देर रात उस ने ऐलान कर ही दिया कि वह हमेशा यहां नहीं रह सकती है.

कुछ ही दिनों के बाद जब उस ने जतिन को सूचना दी कि उस की कंपनी अब वर्क फ्रौम होम के लिए मना कर रही है और उसे अब मुंबई जा कर औफिस जाते हुए काम करना होगा, तो जतिन को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ उस की खुशी जतिन से छिप नहीं रही थी. उस का प्रफुल्लित चेहरा उसे उदास कर रहा था. नयना बारबार कह रही थी कि वह आती रहेगी बीचबीच में. जतिन उसे रांची एअरपोर्ट तक छोड़ने गया. मुंबई में रहने के लिए फ्लैट और बाकी इंतजामों के लिए भी उस ने पैसे भेजे. अब नयना की नौकरी में इतना दम नहीं था कि वह ज्यादा शान और शौकत से रह सके.

अब सोशल मीडिया नयना की मुंबई  के खासखास जगहों पर क्लिक की तसवीरों से पटने लगा. वह जितना खुश दिख रही थी, राघव उतना ही उदास और दुश्चिंता से घिरा जा रहा था. उसे अपनी शादी का अंधकार भविष्य स्पष्ट नजर आने लगा था. बूढ़ी नौकरानी जो पका देती जतिन जैसेतैसे उसे जीवन गुजार रहा था. कालोनी की सभी महिलाएं नयना को कोसतीं कि एक अच्छेभले लड़के का जीवन बिगाड़ दिया उस ने. इंसान कार्यक्षेत्र में भी बढि़या तभी परफौर्म कर सकता है जब वह मानसिक रूप से भी स्थिर हो. जतिन हमेशा दुखीदुखी और उदास सा रहता था, कोयला खदान में उसे अति सतर्कता की जरूरत थी जबकि वह उस के उलट भाव से जी रहा था.

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उस दिन खदान में माइंस इंस्पैक्शन के लिए कोई टीम आई हुई थी. नयना को लौटे 5 महीने हो चुके थे. इस बीच जतिन 2 बार मुंबई जा चुका था, पर पता नहीं क्यों वह नयना के व्यवहार में खुद के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं कर पाया था. अपनी उधेड़बुन में वह हैरानपरेशान सा टीम के सवालों के जवाब दे रहा था. सही होते हुए भी वह कुछ गलत जानकारी देने लगा था. उस के साथ ही कंपनी जौइन करने वाली पर्सनल मैनेजर प्रेरणा उस की बातों को संभालते हुए उस की बातों को बारबार सुधारने का प्रयास कर रही थी. प्रेरणा जतिन की मनोस्थिति भांप रही थी, परंतु आज जतिन कुछ ज्यादा ही परेशान दिख रहा था.

तभी खदान के ऊंचेऊंचे रास्ते पर जतिन का पैर फिसल गया और वह खुदी हुई ढीली कोयले की ढेरी से कई फुट नीचे लुढ़क गया. बौस ने प्रेरणा को इशारा किया कि वह जतिन को संभाले, डाक्टर और ऐंबुलैंस की व्यवस्था करे और वे खुद आधिकारिक टीम को यह बोलते आगे बढ़ गए कि जतिन हमारे सब से काबिल अफसरों में से एक है.

कोयला खदानों में छोटी से छोटी घटनादुर्घटना को भी बेहद संजीदगी से लिया जाता है ताकि बड़ी दुर्घटना न घटे. जतिन की दाहिने पैर की हड्डी टूट गई थी और दोनों हाथों में भी अच्छीखासी चोट लगी थी. चेहरे पर भी काफी खरोंचें लगी थीं. कुल मिला कर वह अब बिस्तर पर आ चुका था.

डिसपैंसरी से छुट्टी होने तक प्रेरणा उस के साथ ही रही. कुछ और मित्रगण भी जुट गए थे. घर पहुंचा तब तक कालोनी की महिलाओं तक उस की दुर्घटना की खबर पहुंच गई थी. यही तो खूबसूरती थी उस छोटी सी जगह की कि सब एकदूसरे दुखसुख में सहयोग करते. नयना को यही बात नागवार गुजरती. वह इसे निजता का हनन सम झती. खैर, प्रेरणा को बातोंबातों में पता लग गया था कि जतिन का उस दिन जन्मदिन था और उस की नवविवाहिता ने उसे 2 दिनों से फोन भी नहीं किया था. हालांकि उस के क्रेडिट कार्ड से अच्छीखासी रकम खर्च होने का मैसेज आ चुका था. बूढ़ी महरी तो घबरा ही गई कि वह किस तरह साहब को संभाले. खैर, अगलबगल वाली पड़ोसिनों ने उस दिन के भोजन का इंतजाम कर दिया. रात में प्रेरणा ने एक केक और कुछ मित्रों को साथ ला कर जतिन की उदासी दूर करने की असफल कोशिश की.

इस बीच जतिन ने तो नहीं पर किसी पड़ोसिन ने केक और

उस गैटटुगैदर की तसवीरें नयना को भेज दीं. आश्चर्यजनक रूप से नयना ने तुरंत उन्हें मैसेज कर पूछा कि वह लड़की कौन है जो जतिन की बगल में बैठी केक कटवाने में मदद कर रही है. पड़ोसिन को यह बात बेहद नागवार गुजरी कि उस का ध्यान जतिन के प्लास्टर लगे पैर या चोटिल पट्टियों से बंधे हिस्सों की तरफ न जा कर इस बात पर गया.

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अनुभवी नजरों ने भांप लिया था कि जतिन की पत्नी नौकरी का बहाना कर मुंबई रहने लगी है और उस के वियोग में जतिन बावला हुए जा रहा है. प्रेरणा जतिन के प्रति एक अतिरिक्त हमदर्दी का भाव रखने लगी थी. जहां कालोनी में सब शादीशुदा थे वहीं प्रेरणा कुंआरी और जतिन जबरदस्ती कुंआरों वाली जिंदगी गुजार रहा था. उस दिन देर रात तक उसे दवा इत्यादि दे कर ही वह अपने घर गई थी, अगले दिन सुबहसुबह नाश्ता और चाय की थर्मस ले हाजिर हो चुकी थी, चूंकि जतिन खुद से दवा लेने में भी असमर्थ था.

प्रेरणा महरी का सहारा ले कर उसे बैठा ही रही थी कि नयना का फोन आ गया, ‘‘कल तो खूब पार्टी मनी है, कौन है वह जो तुम्हारा हाथ पकड़ केक कटवा रही थी? मेरी पीठ पीछे तुम इस तरह गुलछर्रे उड़ाओगे मैं सोच भी नहीं सकती. दिखने में तो बहुत भोले मालूम होते हो…’’

नयना के व्यंग्यात्मक तीर चल रहे थे और जतिन का दिल छलनी हुए जा रहा था. सारी बातें फोन की परिधि को लांघती हुई पूरे कमरे में तरंगित हो रही थीं. प्रेरणा के सामने उस की गृहस्थी की पोल खुल चुकी थी जिसे उस ने बमुश्किल एक  झूठा मुलम्मा चढ़ा कर छिपाया हुआ था.

जतिन हूंहां के सिवा कुछ नहीं बोल पा रहा था और नयना सीनाजोरी की सारी हदें पार करती जा रही थी. कौन कहता है कि नारी बेचारी होती है? कम से कम नयना के उस रूखे व्यवहार से तो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था. न संवेदनशीलता और न ही स्नेहदुलार.

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इमोशनल अत्याचार: रक्षिता की जिंदगी उसे किस मोड़ पर ले गई

रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था. अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी.

दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे. रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’ उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया. ‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा. दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया.

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रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो. एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’ ‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली. ‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’ यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं. वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी. पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था. उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे.

अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.  पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं. लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी. धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी.

उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा. नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था. अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी. नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई.

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दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से. उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी. लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’ यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

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