मिसाल बन रहीं अविवाहित मांएं

हिना परवीन फ्रीलांस रिपोर्टर हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और कमाई भी अच्छी है. इंगलिश अखबारों में लिखती हैं. हिना अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं. जब उन के अब्बू का इंतकाल हुआ तो अम्मी अकेली न रहे, इस सोच में हिना ने शादी नहीं की. उन की अम्मी अत्यधिक मोटापे और शुगर की मरीज थीं. स्वयं कुछ कर नहीं पाती थीं. हिना ही उन के सारे काम करती थीं. उन की दवा का ख्याल रखती और वक्तवक्त पर डाक्टरी चैकअप करवाती थीं.

ऐसा नहीं था कि हिना निकाह नहीं करना चाहती थीं. बल्कि मसूद अहमद से उन के प्रेम संबंध कालेज के समय से थे. पर मसूद चाहते थे कि हिना निकाह के बाद उन के घर पर उन के परिवार के साथ रहें. लेकिन हिना अपनी असहाय और बीमार अम्मी को अकेला कैसे छोड़ देती? लिहाजा कुछ साल बाद मसूद ने अपने परिजनों की इच्छा को देखते हुए दूसरी लड़की से निकाह कर लिया.

वक्त गुजरता गया. आज हिना अपनी उम्र के 52वें पायदान पर हैं. अम्मी का इंतकाल हो चुका है. एक बड़ा घर, अच्छा बैंक बैलेंस होने के साथसाथ अम्मी के दिए हुए जेवर हिना के पास हैं. किसी चीज की कमी नहीं है मगर एक चीज जो उन्हें सालती थी वह किसी बच्चे का प्यार. हिना को बच्चों से हमेशा प्यार रहा. उम्र बढ़ने के साथ जब बच्चे की ललक बढ़ने लगी तो उन्होंने ‘कारा’ में बच्चा अडौप्ट करने के लिए फौर्म भर दिया. 4 साल के इंतजार के बाद अंतत: हिना को 8 वर्षीय प्रिया को गोद लेने का मौका मिला.

गजब का बदलाव

प्रिया को गोद लेने के बाद हिना की जिंदगी में गजब का बदलाव आ गया. अब उन के सामने एक लक्ष्य है अपनी बेटी को अच्छी परवरिश देने का, उसे अच्छी शिक्षा दिलाने और उस के लाइफ में सैटल करने का. प्रिया के रूप में अब हिना को अपने घरजायदाद का वारिस भी मिल गया है.

अम्मी के मरने के बाद हिना बहुत अकेली हो गई थीं. कई बार अवसादग्रस्त हो जाती थीं. मैडिटेशन सैंटर्स के चक्कर लगाती थीं. मगर प्रिया को पाने के बाद वे खुद में बहुत ताजगी और स्फूर्ति पाती हैं.

प्रिया के साथ वे बहुत खुश हैं. सुबह जल्दी उठती हैं. बेटी को स्कूल के लिए रैडी करती हैं. अपने और उस के लिए ब्रेकफास्ट बनाती हैं. उस का लंच पैक कर के बैग में रखती हैं. फिर कार से उसे स्कूल छोड़ने जाती हैं. पहले हिना के लिए अकेले घर में जो समय काटे नहीं कटता था अब प्रिया के इर्दगिर्द जल्दी बीत जाता है. हर संडे मांबेटी शौपिंग करने जाती हैं, रेस्तरां में लंच करती हैं और जीवन को पूरी मस्ती में जी रही हैं, बिना यह सोचे कि दुनिया उन के बारे में क्या राय रखती है.

शिक्षा, आर्थिक मजबूती, टूटते पारिवारिक बंधन, घर से दूर नौकरी और नई तकनीकों ने आज औरत को यह आजादी दी है कि वह चाहे तो बिना शादी किए किसी मनचाहे पुरुष के साथ सैक्स कर के अथवा बिना किसी पुरुष के संसर्ग के आईवीएफ तकनीक से या किसी अनाथाश्रम से बच्चा गोद ले कर मां बन सकती है. इस पर कानून ने भी अपनी पूर्ण सहमति दे दी है कि बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र पर अब पिता का नाम होना आवश्यक नहीं है. न ही स्कूल में एडमिशन के वक्त महिला से पूछा जाएगा कि बच्चे का बाप कौन है?

मिसाल हैं नीना गुप्ता

अनब्याही मां की बात उठी है तो फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता का किस्सा याद होगा. नीना का वेस्टइंडीज के मशहूर क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स से अफेयर था. दोनों के बीच शारीरिक संबंध थे, जिस के चलते नीना प्रैगनैंट हुई थीं. हालांकि वे जानती थीं कि विवियन रिचर्ड्स उन से शादी नहीं करेंगे क्योंकि वे पहले से शादीशुदा और बच्चों वाले थे, फिर भी नीना ने गर्भ नहीं गिराया और वे विवियन की बच्ची की अनब्याही मां बनीं.

उन्होंने अपनी बच्ची को अपने ही दम पर पाला और उन की बेटी मसाबा आज एक मशहूर फैशन डिजाइनर है. हालांकि बहुत बाद में नीना गुप्ता ने एक इंटरव्यू में कहा था कि किसी स्त्री को अकेले मां बनने का चुनाव नहीं करना चाहिए. यह बहुत कठिन है.

ऐसा नीना ने इसलिए कहा क्योंकि उस समय माहौल अलग था. समाज की सोच दकियानूसी, परंपरावादी और औरत की पवित्रता को उस के कुंआरेपन से आंकने वाली थी. हालांकि फिल्मी दुनिया में औरतों को ले कर काफी खुलापन था मगर उस वक्त शादीशुदा पुरुष कलाकार भी अपनी शादी की बात छिपा कर फिल्मों में काम करते थे क्योंकि शादीशुदा होने की बात सामने आने पर फिल्में नहीं मिलती थीं. ऐसे में फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियों को बच्चे तो छोडि़ए, अपने संबंधों तक को छिपाना पड़ता था.

वे अपने बौयफ्रैंड के बारे में किसी को नहीं बताती थीं. यही नहीं, वे फिल्मी पत्रिकाओं में अकसर अपने कुंआरे होने की घोषणाएं भी करती रहती थीं. उन्हें बताया जाता था कि इस से उन की फिल्में चलेंगी.

लेकिन अब ऐसा नहीं है. समाज की सोच और व्यवहार में काफी बदलाव आ चुका है. आज बौलीवुड की अधिकांश अभिनेत्रियां विवाहित हैं. कई तो बच्चों वाली हैं और उन की फिल्में सफल भी होती हैं.

समाज का डर

नैटफ्लिक्स पर आने वाली ‘मेड’ सीरीज सिंगल मदर की कठिनाइयों को बताती है. इस की कहानी अविवाहित युवा मां पर केंद्रित है जो एक अपमानजनक रिश्ते से बच जाती है और घरों की साफसफाई का काम कर के अपनी बेटी का भरणपोषण करने के लिए संघर्ष करती है. इस सीरीज में किसी स्त्री ने अपने बच्चों को त्यागा नहीं, न ही समाज के डर से उन्हें छिपाया.

उन्होंने खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए सम्मानजनक स्थान पाने के लिए संघर्ष किया और अंतत: समाज ने उन्हें स्वीकार कर लिया. हमारे धार्मिक ग्रंथों में अनब्याही मां के रूप में कुंती का उदाहरण मिलता है, मगर कुंती ने कर्ण को त्याग दिया था, जिस के लिए कर्ण ने कभी कुंती को माफ नहीं किया.

आज महिलाओं के सामने स्थितियां भिन्न हैं. आज काफी पढ़ीलिखी महिलाएं धर्म, समाज और परिवार द्वारा पैदा की जाने वाली परेशानियों, तनावों और मनोस्थिति से बाहर निकल आई हैं. कुछ साल पहले राजस्थान की एक आईएएस अधिकारी आईवीएफ तकनीक की मदद से मां बनीं.

उन्होंने अपने मातापिता की देखभाल के लिए विवाह नहीं किया. शादी की उम्र निकल गई. लेकिन मां बनने की इच्छा उन्होंने इस तरह से पूरी की.

इसी तरह हाल ही में मध्य प्रदेश की एक मशहूर रेडियो कलाकार भी अविवाहित मां बनी हैं. अभिनेत्री सुष्मिता सेन, एकता कपूर, रवीना टंडन आदि फिल्मी हस्तियों ने अविवाहित रहते हुए भी बच्चों को गोद लिया, उन्हें पाला और उन को अपना नाम दिया है.

अधिकार में कोई फर्क नहीं

वक्त बदलता है तो नैतिकता के चले आ रहे मानदंडों को भी उसी हिसाब से बदलना पड़ता है. हमारे यहां कानून ने अब स्त्री को मां बनने के चुनाव की आजादी दे दी है. वह अविवाहित है, विवाहित है, अकेली है, इस से एक औरत के मां बनने के अधिकार में कोई फर्क नहीं पड़ता. यहां तक कि अब स्कूलों में भी बच्चे के पिता का नाम बताना जरूरी नहीं है.

6 जुलाई, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे पर मां के नैसर्गिक हक पर मुहर लगाते हुए अविवाहित मां को कानूनी पहचान प्रदान कर दी है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि अविवाहित मां को बच्चे का संरक्षक बनने के लिए पिता से मंजूरी लेना जरूरी नहीं. इतना ही नहीं कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर कोई अविवाहित या अकेली रह रही मां बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करती है तो सिर्फ एक हलफनामा देने पर उसे उस के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा.

एक केस की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र हासिल करने में आने वाली दिक्कतों पर विचार करते हुए यह फैसला दिया था. कोर्ट ने कहा कि अभी तक  याचिकाकर्ता मां को अपने 5 साल के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र नहीं मिल सका है जोकि आगे चल कर बच्चे के लिए समस्या बनेगा. कोर्ट सरकार को निर्देशित करती है कि वह तुरंत उस मां को उस के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र मुहैया कराए. कोर्ट ने कहा कि स्कूल में बच्चे के एडमिशन और पासपोर्ट हासिल करने के लिए आवेदन करते समय पिता का नाम देना जरूरी नहीं है, लेकिन इन दोनों ही मामलों में जन्म प्रमाणपत्र लगाना पड़ता है.

मां की पहचान के बारे में कभी संदेह नहीं रहा. कानून गतिशील होता है और उसे समय के साथ चलना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि जब कभी भी एकल संरक्षक या अविवाहित मां अपने गर्भ से जन्मे बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवेदन करेगी तो जिम्मेदार अधिकारी सिर्फ एक हलफनामा ले कर उसे जन्म प्रमाणपत्र जारी करेंगे.

यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है

कि कोई भी नागरिक इस कारण परेशानी न भुगते कि उस के मातापिता ने उस के जन्म को रजिस्टर नहीं कराया.

अधिकार और आजादी

हालांकि इस अधिकार और आजादी के बाद भी आम कम पढ़ीलिखी और आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर औरतें बिनब्याही मां बनने का रिस्क नहीं उठाती हैं. औरतें प्रेम में गर्भधारण करने के बाद प्रेमी पर जल्द से जल्द विवाह करने का दबाव बनाती हैं. कभीकभी प्रेमी उस लड़की से शादी नहीं करना चाहता है और छोड़ कर भाग जाता है. ऐसे में लड़की या तो किसी प्राइवेट डाक्टर के क्लीनिक में गर्भपात करवा लेती है

या महीने ज्यादा हो जाने के कारण यदि गर्भपात

न हो सके तो बच्चा पैदा कर के यहांवहां फेंक देती है.

देशभर में ऐसे सैकड़ों नवजात पुलिस को प्रतिदिन ?ाडि़यों में, नालों में या सुनसान जगहों पर रोते मिलते हैं, जिन्हें उन की मांओं ने पैदा कर के मरने के लिए फेंक दिया. कई नवजात बच्चों को तो कुत्ते नोंच डालते हैं.

दिल्ली सहित देशभर के अनाथाश्रमों में ऐसे दुधमुंहे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है जो अपनी मांओं द्वारा पैदा कर के फेंक दिए गए. अनेक अनाथाश्रमों ने अपने दरवाजों पर पालने लगा रखे हैं. इन पालनों में आएदिन कोई न कोई नवजात बच्चा पड़ा मिलता है.

साउथ दिल्ली के अनेक छोटेछोटे प्राइवेट अस्पतालों में एक और धंधा डाक्टर, नर्सों, दाइयों और बच्चा बेचने वाले गिरोहों की सांठगांठ में बड़े धड़ल्ले से चल रहा है. इन अस्पतालों में अनब्याही मांओं की डिलिवरी करवाई जाती है और पैदा हुए नवजात को तुरंत बच्चा बेचने वाले गिरोह के सदस्य के हवाले कर दिया जाता है. यह गिरोह शहर के उन अनाथाश्रमों पर नजर रखता है जहां बेऔलाद मांबाप बच्चा गोद लेने के लिए चक्कर काटते हैं.

आसान नहीं प्रक्रिया

‘कारा’ की गाइडलाइन बहुत सख्त होने के चलते बच्चा गोद लेना चूंकि आसान प्रक्रिया नहीं है और इस के लिए कपल को कई साल इंतजार करना पड़ता है, कई कठिन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है और बच्चा भी उन्हें बड़ी उम्र का मिलता है. ऐसे में बच्चा बेचने वाले गिरोह के सदस्य ऐसे मातापिता से नवजात बच्चों का सौदा तय कर लेते हैं. यह सौदा डेढ़ लाख रुपए से 5 लाख रुपए तक में तय होता है, जिस में से कभीकभी तो बच्चा पैदा करने वाली मां को धनराशि का कुछ हिस्सा दिया जाता है, पर ज्यादातर में नहीं देते हैं.

उस को तो यही बात बड़ी संतोषजनक लगती है कि अनचाहे बच्चे से उसे मुक्ति मिल गई. अस्पताल वाले बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र पर उस महिला का नाम चढ़ा देते हैं जो बच्चा खरीदती है.

कानून द्वारा औरत को शादी से पहले या शादी के बाद मां बनने और अपने बच्चे का पूर्ण अभिभावक होने का अधिकार दिए जाने के बावजूद चूंकि भारतीय समाज और परिवार में अभी भी अनब्याही मां को धिक्कार की नजर से देखा जाता है, उस पर छींटाकशी की जाती है, खासतौर पर छोटे शहरों और कसबों में इसलिए अधिकांश औरतें न चाहते हुए भी अपने बच्चे को अपने से अलग करने की पीड़ा ?ोल रही हैं.

उन औरतों की तादाद बहुत कम है जो

धर्म, समाज और परिवार की जकड़न से खुद को मुक्त कर के अपने पैदा किए शिशु के साथ खुशीखुशी जी रही हैं. इस तसवीर को और बेहतर बनाने की कोशिश होनी चाहिए ताकि कोई औरत मां बनने से वंचित न रहे और कोई बच्चा नाजायज न कहलाए.

खूबसूरत दिखने की होड़ क्यों?

प्रिया मेट्रो स्टेशन की लिफ्ट में लगे मिरर में खुद को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें ,लंबे ,काले ,लहराते बाल, चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मीठी सी मुस्कान। आज उस ने गुलाबी रंग का सूट पहना था जो बहुत सुंदर लग रहा था। प्रिया को अपना व्यक्तित्व काफी आकर्षक लग रहा था. वह अपनी खूबसूरती
पर इतरा ही रही थी कि फर्स्ट फ्लोर पर लिफ्ट रुकी और एक खूबसूरत सी लड़की ने प्रवेश किया।
वह लड़की प्रिया से कहीं अधिक गोरी ,लंबी और तीखे नैन नक्श वाली थी। प्रिया ने एक बार फिर मिरर देखा। उस लड़की के आगे वह काफी सांवली, नाटी और साधारण सी लग रही थी. प्रिया के चेहरे की मुस्कुराहट गायब हो गई. अब उसे अपना चेहरा बहुत फीका लगने लगा।वह  यह सोच कर दुखी हो गईकि उस का रंगरूप कितना साधारण सा है. वह बिल्कुल भी खूबसूरत नहीं।

बस एक लमहा गुजरा था. कहां प्रिया अपनी खूबसूरती पर इतरा रही थी को और कहां अब उस के चेहरे पर उदासी के बादल घनीभूत हो चुके थे. वजह साफ़ है , उस एक पल में प्रिया ने दूसरे से खुद की तुलना की थी और इस चक्कर में अपना नजरिया बदल लिया था। खुद को देखने और महसूस करने का नजरिया, जमाने की भीड़ में अपने वजूद को पहचानने का नजरिया , सब बदल गया था. बहुत साधारण सी बात थी मगर प्रियाकी जिंदगी में बहुत कुछ बदल गया. उस के चेहरे की मुस्कान छिन गई. जीवन के प्रति सकारात्मकता खो गई.एक पल के अंतर ने प्रिया को आसमान से जमीन पर ला पटका.

तुलना क्यों

प्रिया की तरह सामान्य जिंदगी में हम अक्सर अनजाने खुद के साथ ऐसा करते रहते हैं. दूसरों से तुलना कर अपनी कमियां देखते हैं और फिर जो है उस की खुशी भूल कर जो नहीं है उस का गम मनाने लगते हैं. इस से चेहरे की मुस्कान खो जाती है और पूरा व्यक्तित्व फीका लगने लगता है. इस के बाद हम शुरू करते हैं जो नहीं है उसे पाने की जंग। काले हैं तो गोरा होने की मशक्कत।
नाटे हैं तो लम्बा होने की चाहत। मोटे हैं तो पतले होने की कसरत। समय के साथ हम खुद को बदलने की जद्दोजहद में कुछ इस कदर मशरूफ हो जाते हैं कि अपने  असली किरदार से रूबरू ही नहीं हो पाते। दिमाग में तनाव और मन में निराशा लिए घूमते रहते हैं.

नजरिये का भेद

हम यदि खुद को देखने का सकारात्मक नजरिया अपनाते हैं तो हम जैसे हैं उसे अच्छा समझते हुए अपने गुणों को उभारने का काम कर सकते हैं. पर यदि नकारात्मक  नजरिया अपनाते हैं तो हमेशा अपनी खामियों को ही हाईलाइट करते रहेंगे। इस से हमारा आत्मविश्वास तो टूटेगा ही दिमाग भी खुद को बेहतर
दिखाने की उलझनों में ही डूबा रहेगा और हम हर काम में पिछड़ते  जाएंगे। पैसे बरबाद करेंगे सो अलग. इस से अच्छा है कि सकारात्मक नजरिया अपनाऐं। जैसे हैं उसे कुबूल करते हुए दूसरी खूबियों को उभारने का प्रयास करें।

मोटी हैं तो बातूनी बनें

यदि आप मोटी हैं तो पतले होने की जद्दोजहद के बजाय बातूनी बनिए और लोगों का दिल जीतने का प्रयास कीजिए।बातूनी का मतलब बेवजह बोलते रहना नहीं बल्कि लोगों को बोर न होने देना है. आप अपने अंदर ऐसी क्वालिटी पैदा कीजिए कि लोग आप का साथ चाहें. अपने दिल में कोई बात दबा कर न रखें. वैसे भी कहा जाता है कि मोटे लोग हंसाने में माहिर होते हैं। तो फिर क्यों न आप भी मस्ती भरे पल चुराने का प्रयास करें। जिस महफिल में जाएं वहां हंसी और ठहाकों की मजलिस जमा दें. गुदगुदी की फुलझड़ियां छोड़े। लोग आप के पास आने और आप को अपना हमराही बनाने को बेताब हो उठेंगे. अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाना जरूरी है न कि परफेक्ट फिगर की चाह में तनमन खराब कर लेना।

सांवली है तो कौन्फिडेंस लाइए

यदि आप का रंग सांवला है तो इस बात पर अफसोस करते रहने और रंग फेयर करने के प्रयास में लाखों रुपए खर्च करने से बेहतर है आप अपनी रंगत को स्वीकार
करें और रंग निखारने के बजाय खूबियों को उभारने का प्रयास करें अपना व्यवहार खूबसूरत बनाए ताकि लोग आप की कद्र करें और आप को सम्मान दे। गोरी रंगत तो 4 दिन की चांदनी होती है. मगर अच्छी सीरत हमेशा लोगों के दिलों पर राज करती है.स्टाइलिश कपड़े पहने। स्मार्ट हेयर कटिंग करवाऐं और सधी
हुई कॉन्फिडेंस से भरी चाल से अपना व्यक्तित्व आकर्षक बनाएं। त्वचा की रंगत सुधारने के बजाए चेहरे पर ग्लो और आंखों में विश्वास की चमक लाएं।

नाटी है तो नौटी बनें और फैशन सेंस के जलवे बिखेरे

आप का कद छोटा है तो निराश होने की जरूरत नहीं। नाटी लड़कियां यदि चुलबुली और शोख हो तो यह स्वभाव उन पर काफी सूट करता है। कपड़े ऐसे पहने जो आप को लंबा दिखाएं। मगर इस के पीछे अपने फैशन सेंस का दिवालिया न निकाले। स्टाइलिश कपड़े पहने। वैसे कपड़े जो आप को अच्छे लगते हो। जिन्हे पहन कर आप फैशन की दृष्टि से अपडेट नजर आए. इस से आप दूर से ही लोगों की
निगाहों पर छा जाएंगी. आप के अंदर की हीन भावना को पनपने के लिए धरातल नहीं मिलेगा।

हमें हरदम चमत्कार ही क्यों चाहिए

अभिनेता आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘बधाई हो’ की सफलता  ने आयुष्मान खुराना की पिछली फिल्मों ‘विकी डोनर’ व ‘बरेली की बर्फी’ की तरह लीक से हट कर मगर साधारण लोगों की जिंदगियों पर बेस होने के कारण सफल हुई है. विज्ञापन फिल्में बनाने वाले अमित शर्मा ने इस फिल्म में वास्तविकता दिखाई है और यही वजह है कि थोड़ा टेढ़ा विषय होने पर भी उस ने क्व100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया और बड़ी उम्र की औरतों को मां बनने के लिए एक रास्ता खोल दिया.

परिवार नियोजन से पहले बच्चे जब चाहे, हो जाते थे. जब पहला बच्चा 14-15 साल की उम्र में हो रहा हो तो आखिरी 40-45 वर्ष की उम्र में होना बड़ी बात नहीं थी और उसी समय पहले बच्चे का बच्चा भी हो सकता था. अब जब बच्चों की शादियां 30 के आसपास होने लगी हैं और परिवार नियोजन के तरीके आसान हैं, तो देर से होने वाले बच्चे पर आंखभौं चढ़ती हैं.

मामला देर से हुए बच्चे का उतना नहीं. ‘बधाई हो’ आम मध्यम परिवारों के रहनसहन की कहानी बयां करती है जो जगह की कमी, बंधीबंधाई सामाजिक मान्यताओं, पड़ोसियों के दखल के बीच जीते हैं. अमित शर्मा ने दिल्ली के जंगपुरा इलाके में बचपन बिताया और उसी महौल को उन्होंने फिल्म में उकेरा. इसीलिए फिल्म में बनावटीपन कम है. दर्शकों को इस तरह की फिल्में अच्छी लगती हैं क्योंकि ऐसी फिल्में आसपास घूमती हैं और बिना भारीभरकम प्रचार के चल जाती हैं.

हमारे यहां धार्मिक कहानियों का बोलबाला रहा है और इसीलिए हर दूसरी फिल्म में काल्पनिक सैटों, सुपरहीरो के सुपर कारनामे, मेकअप से पुती हीरोइनें होती हैं. हम असल में रामलीलाओं के आदी हैं जिन में जंगल में भी सीताएं सोने का मुकुट लगाए घूमती हैं. उन्हें देखतेदेखते हमारी तार्किक शक्ति जवाब दे चुकी है और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्म के टिपिकल मध्यम परिवार का दर्शन पचता नहीं है.

असल में हमारी दुर्दशा की वजह ही यह है कि हम आमतौर पर वास्तविक समस्याओं से भागते हैं. हमें हरदम चमत्कार चाहिए. राममंदिर और सरदार पटेल की मूर्तियों को ले कर अरबोंखरबों रुपए खर्च इसीलिए करते हैं कि उस से कुछ ऐसा होगा कि सर्वत्र सुख संपदा संपन्नता फैल जाएगी. यह खामखयाली बड़ी मेहनत से हमारे पंडे हमारे मन में भरते हैं, जो फिल्मों में दिखता है और जहां लोग महलों में रहते हैं, बड़ी गाडि़यों में घूमते हैं और हीरो चमत्कारिक काम करते हैं. ‘बधाई हो’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्में सफल हुईं तो इसलिए कि इस में रोजमर्रा की समस्याओं से जूझते आम लोगों को दिखाया गया उन्हीं के असली वातावरण में.

जीवन बड़ा कठिन और कठोर है. इसे समझनेसमझाने की जरूरत है. यह मंत्रोंतंत्रों से नहीं होगा. इस के लिए ऐसी कहानी कहने वाले चाहिए जो आम लोगों के सुखदुख को समझ सकें, भजन करने वाले और रामरावण युद्ध कराने वाले नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें