सास: यह रिश्ता है कुछ खास

अंकुश की मां अपनी बहू दीपा के व्यवहार से बहुत दुखी रहती थीं. दीपा उन्हें पोते से मिलने नहीं देती थी. पहले अलग घर लिया और अब एक शहर में रहने के बावजूद बच्चे को उन से दूर रखती. अंकुश ने जब मां का पक्ष ले कर बीवी से जिरह की तो उस ने हर महीने एक बार दादी को पोते से मिलने की अनुमति दी. इस के अलावा न कोई फोन पर बातचीत और न गिफ्ट का आदानप्रदान.

अगर सास बिना बताए बच्चे से मिलने आ जाती तो वह मुंह बना लेती. दीपा का यह रवैया अंकुश की मां को बहुत तकलीफ देता. इधर अंकित के मन में भी दादी के लिए प्यार और लगाव कम होता जा रहा था. वह महीने में 1-2 बार भी दादी से मिलने से कतराने लगा था.

समय के साथ अंकुश की मां ने इसी तरह जीना सीख लिया था. मगर एक दिन परिस्थितियां बदल गईं. उस दिन दीपा की तबीयत खराब हो गई थी. मेड भी छुट्टियों पर थी. दीपा ने अपनी बहन को फोन किया तो उस ने ऐग्जाम की वजह से हैल्प के लिए आने को इनकार कर दिया. दीपा की मां के पैरों में भी चोट लगी थी इसलिए वह नहीं आ सकीं.

दीपा ने अंकुश को अपनी समस्या बताई तो अंकुश ने सु  झाव दिया, ‘‘अंकित को मां के पास छोड़ देता हूं ताकि वे उस के खानेपीने का खयाल रख सकें. खुद भी वहीं खा कर तुम्हारे लिए खाना लेता आऊंगा.’’

दीपा को थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई. उसे लग रहा था कि सास हैल्प करने से मना कर देंगी. मगर अंकुश को विश्वास था कि मां सब संभाल लेंगी. ऐसा ही हुआ. सास ने न सिर्फ अंकित और अंकुश को संभाला बल्कि दोपहर में समय मिलने पर आ कर दीपा का घर भी साफ कर दिया. दीपा को फल काट कर खिलाए और सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘तु  झे जब भी जरूरत हो मु  झे याद कर लेना.’’

दीपा की आंखें भर आईं. प्यार से उन का हाथ थामते हुई बोली, ‘‘आप के जैसी प्यारी मां के साथ मैं ने ज्यादती की. आप को अंकित से दूर रखा जबकि आप से ज्यादा प्यार उसे कौन कर सकता है? अपनों के साथ की अहमियत तकलीफ में ही पता चलती है.’’

इस घटना के बाद दीपा बिलकुल बदल गई. उसे सम  झ में आ चुका था कि सास कितने काम की हैं. साथ न रहते हुए भी उन्होंने उसे सहारा दिया था और इसलिए अब दीपा ने अंकित को दादी से मिलने पर लगी रोक हटा ली. वह खुद कोशिश करती कि अंकुश दादी से बातें करे और उन का प्यार महसूस करे. वह सम  झ चुकी थी कि दादी का प्यार हमेशा उस का साथ देगा.

सास की असलियत समझें

अकसर बहुएं सास की अहमियत नहीं सम  झ पातीं और उन्हें घर और बच्चों से दूर करने का प्रयास करने लगती हैं. मगर समय के साथ जब उन्हें अपनी गलतियों का एहसास होता है तो वे अपने किए पर बहुत पछताती हैं.

एक और घटना पर गौर करें

राजदेव ने मु  झे फोन किया और बोला, ‘‘मेरे बेटे राहुल की शादी हो रही है और पता है, सब से अच्छा क्या है?’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकतावश पूछा.

‘‘लड़की का उस की मां के साथ अच्छा रिश्ता नहीं है.’’

उस का जवाब सुन कर मैं चौंक उठी, ‘‘मगर आप इस के लिए खुश क्यों हैं?’’

‘‘क्योंकि वह लड़की हमारे परिवार का हिस्सा बनना चाहती है. मां से अच्छे रिश्ते न होने का मतलब है वह छुट्टियों में अपनी मां के पास जाने की जिद नहीं करेगी,’’ राजदेव ने हंसते हुए बताया.

मैं सोच में पड़ गई और धीरे से बोली, ‘‘शायद आप सही ही कह रहे हो. लड़की अकसर मायके जाने की जिद करती है ताकि अपना सुखदुख मां के साथ बांट सके. कुछ समय उन की ममताभरी हाथों का खाना खा सके. अकसर मां ही सास से अलग होने की सलाह देती है और मां के भरोसे ही बहुएं अपनी सास की अवहेलना करनी शुरू कर देती हैं क्योंकि परेशानी के समय उन्हें मां का सहारा होता है.

‘‘मेरी बहू ने भी तो ऐसा ही कुछ किया और मु  झे मेरे बेटे और पोते से भी दूर कर दिया. उस ने तो अपनी मां के घर के पास किराए का घर ले लिया और मु  झे मेरे पति के साथ पुश्तैनी घर में अकेला छोड़ दिया. पर जब लड़की का अपनी मां से रिश्ता ही सही नहीं तो वह वहां जाएगी क्यों?’’

‘‘जी हां, हेमाजी, आप के साथ जो हुआ उसे याद कर ही मु  झे इस लड़की के साथ बेटे का रिश्ता जोड़ना अच्छा लग रहा है,’’ राजदेव ने बताया.

जीवन आसान बन जाता है

सच है, जब एक लड़की दुलहन बन कर नए घर में आती है तो उसे अपनी मां का बहुत सहारा होता है. वह मां को हर बात बता कर उन की सलाह लेती रहती है. मगर एक बहू को इस बात का एहसास होना चाहिए कि मां के साथसाथ सास का सपोर्ट भी उसे काफी फायदा पहुंचा सकता है. यदि वह अपनी मां का खयाल रखती है तो अपने पति की मां का सम्मान करना भी उसी का कर्तव्य है.

वैसे भी याद रखें कि शादी के बाद एक लड़की बीवी के साथसाथ एक बहू भी बनती है. ऐसे में पति का प्यार पाने के साथसाथ सास ससुर के साथ भी बहू का रिश्ता अच्छा होना चाहिए. आप सास से   झगड़े कर के पति के साथ सुखी नहीं रह सकतीं. थोड़ा कंप्रोमाइज कर यदि आप सास के साथ भी सही तालमेल बैठाने में कामयाब हो जाती हैं तो फिर आप का जीवन काफी आसान हो जाएगा. सास आप के बहुत काम आती है. भले ही वह घर में साथ न रहती हो फिर भी यदि वह उसी शहर में आसपास है तो आप को बहुत तरह से आराम मिल सकता है. खासकर बच्चे को संभालने और बेहतर व्यक्तित्व देने में में सास बहुत मदद करती हैं.

यूरोपीय देश चेक रिपब्लिक में साल 2007 में बच्चों के बरताव और बड़े होने पर किरदार के बीच रिश्ता तलाशने का रिसर्च हुआ. मनोवैज्ञानिकों ने इस के लिए 12 से 30 महीने के बच्चों पर रिसर्च की. इन्हीं बच्चों को 40 बरस की उम्र में फिर से परखा गया. इन सभी की शख्सियत के बहुत से पहलू सामने आए. जो लोग बचपन में ज्यादा सक्रिय और बोलने वाले थे बड़े होने पर वे आत्मविश्वास से लबरेज पाए गए. यानी बच्चे को बचपन में जैसा माहौल मिलता है उस का बहुत गहरा असर बड़े होने के बाद भी उस के पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है. यही वजह है कि अगर बचपन में बच्चे को एकल परिवार में अकेलेपन से गुजरना पड़े तो बड़े हो कर वह स्वार्थी और अक्खड़ इंसान बनेगा. लेकिन बचपन में दादादादी का प्यार, दुलार और संस्कार मिलें तो वह खुशमिजाज और संतुलित व्यक्तित्व का स्वामी बनेगा.

सास की सलाह मानें

सास आप के साथ हैं तो संभव है कि थोड़ाबहुत आपसी कलह चलता रहे. मगर यदि वे उसी शहर में कुछ दूर रहती हैं तो दूरी आप दोनों के बीच की यह कलह को कम करने में मददगार साबित होगी. मगर इस दूरी की वजह से दादीपोते के बीच दूरी न आने दें. आप का अपनी सास से मेल न जमता हो तो भी इस का खामियाजा बच्चे को न भुगतने दें. बच्चे के जन्म के बाद के कुछ सालों में आप को अपनी सास के सपोर्ट की जरूरत काफी रहती है.

इसलिए सास को कभी बच्चे को ले कर जलीकटी न सुनाएं. वह बच्चे को ले कर कुछ सलाह देती हैं तो उन की बात पर गौर करें और उन की सलाह को अमल में लाएं. आखिर उन्हें बच्चे को पालने का अनुभव आप से ज्यादा है.

सुरक्षा को ले कर निश्चिंतता

आजकल हर दूसरी महिला जौब कर रही है. ऐसे में उसे सुबहसुबह औफिस के लिए निकल जाना होता है और शाम तक लौट कर आना होता है. बच्चा थोड़ा बड़ा है तो उस का आधा समय स्कूल में बीत जाता है पर स्कूल से लौट कर या तो बच्चे को खाली घर में अकेले रहना होता है या किसी मेड के भरोसे समय बिताना होता है. ये दोनों ही औप्शन उतने सुरक्षित नहीं.

यही वजह है कि औफिस में रहते हुए भी महिला का मन घर में बच्चे के पास बना रहता है और वह उस की चिंता में परेशान रहती है. इस से उस के काम पर भी असर पड़ता है. इस के विपरीत यदि बच्चा अपने दादा या दादी के पास रहे तो महिला बेफिक्र अपना काम कर सकती है. दादी के पास बच्चा पूरी तरह सुरक्षित रहता है और उस का मन भी लगा रहता है. दादी थोड़ी पढ़ीलिखी है तो वे उसे खाली समय में पढ़ा भी सकती हैं.

औफिस से जल्दी लौटने की अनिवार्यता नहीं

कामकाजी महिलाओं का आधा ध्यान अपने बच्चों पर ही रहता है. वह औफिस से जल्दी से जल्दी निकल कर अपने बच्चे के पास जाना चाहती हैं क्योंकि उन्हें चिंता लगी रहती है कि वह क्या कर रहा होगा, कुछ खाया होगा या नहीं. मगर यदि उस ने बच्चे को सास के पास छोड़ा है तो फिर उसे जल्दी भागने की टैंशन नहीं रहती. उस के लिए जरूरी काम से कुछ दिनों के लिए बाहर जाना भी संभव हो जाता है.

अगर आप की सास साथ नहीं रहती है तो भी आप बच्चे का उस से प्यार बढ़ा सकती हैं. छोटी छोटी कोशिशों से आप उन्हें एकदूसरे के करीब आने में मदद कर सकती हैं. इस के लिए आप कुछ बातों का खयाल रखें:

द्य हर संडे आप बच्चे की बात वीडियो कौल पर अपनी दादी से कराएं. जब बच्चा दादी से बात कर रहा हो तो जरूरी नहीं कि आप वहां बैठ कर बच्चे को निर्देश देती रहें. आप अपने काम में व्यस्त हो जाएं फिर देखें बच्चा कैसे खुल कर दादी से बातें करता है.

द्य पोतेपोतियों की फरमाइशें पूरी करने में दादी को एक अलग ही आनंद आता है. इस बात की चिंता कतई न करें कि उन के रुपए खर्च होंगे या फिर बुढ़ापे में उन्हें बाजार जाना पडेगा. उलटा ऐसा कर के दादी की तबियत और चंगी हो जाएगी.

तौबा यह गुस्सा

चाहें या न चाहें अक्सर हमें गुस्सा आ ही जाता है और अक्सर इसे हम अपने बच्चों पर निकालते हैं. गुस्सा भले ही उन पर आ रहा हो या नहीं पर हाथ उठाने में देर नहीं लगती. कभी बच्चे पर अंकुश लगाने के लिहाज से तो कभी कम नंबर लाने पर, कभी उस की किसी मांग को पूरी कर पाने में असमर्थ होने पर तो कभी घरबाहर के तनावों की वजह से हम अपने बच्चे की पिटाई शुरू कर देते हैं. पर क्या आप जानते हैं कि इस का असर क्या होता है.

बच्चे के कौन्फिडेंस पर पड़ता है असर

कई शोध बताते हैं कि अभिभावकों का मारनापीटना बच्चों के आत्मविश्वास पर असर डालता है, उन में हिंसा की भावना को जन्म देता है और डिप्रेशन पैदा करता है.चाइल्ड साइकोलौजिस्ट्स के मुताबिक ऐसे बच्चे जो घर में शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं वे आगे चल कर आत्मविश्वास की कमी और कमजोर निर्णय क्षमता के साथ बड़े होते हैं. परिवार के साथ उन की दूरी इतनी बढ़ जाती है कि वे समाज में नए अपराधी की शक्ल में सामने आने लगते हैं.

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14 साल के सोनू को जब गुस्सा आता है तो वह अपना आपा खो देता है. कभी दीवार पर हाथ मारता है तो कभी सिर. कभी सामने वाले पर बुरी तरह चीखनेचिल्लाने लगता है तो कभी हाथ में जो भी चीज़ है जमीन पर दे मारता है. स्कूल और पासपड़ोस से सोनू की शिकायतें आने लगीं तो घरवाले चिंतित हो उठे. घरवाले यह नहीं समझ पा रहे थे कि सोनू के ऐसे बर्ताव के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं. घरवालों ने उस के साथ बचपन में जैसा व्यवहार किया वही बर्ताव अधिक उग्र रूप में सोनू का स्वभाव बन गया था. घरवालों ने शुरू में कभी भी उस के गुस्से को सीरियसली नहीं लिया. उस की सीमाएं और गुस्से के खतरे से आगाह नहीं किया.  न ही उन्होंने अपने बर्ताव में बदलाव लाये. नतीजा अब सोनू का स्वभाव समाज में स्वीकार नहीं किया जा रहा.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की साल 2017 में आई रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों के हिंसक बर्ताव की वजह घरों में हिंसा देखना भी है. जिस में पति का पत्नी को पीटना या मातापिता का बच्चों को मारना शामिल है. पहले वे अपने से छोटों पर हिंसा करते हैं. वयस्क हो जाने पर पत्नी पर और बाद में कभीकभी कमजोर हो गए मांबाप पर भी हिंसा कर डालते हैं.

गुस्सा हर चीज का इलाज नहीं

अक्सर हिंसा कर के आप बच्चे से अपनी बात मनवाते कम हैं और अपना नुकसान ज्यादा करते हैं. आप का मानसिक सुकून तो खोता ही है बच्चे का व्यक्तित्व पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. बच्चो को प्यार से भी समझाया जा सकता है और उस का इम्पैक्ट भी ज्यादा अच्छा रहता है.

देख कर ही सीखते हैं बच्चे

कई बार अभिभावक बात मनवाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करते हैं. वे बच्चो को बातबेबात थप्पड़ मार देते हैं. सब के आगे उन्हें डपट देते हैं. ऐसा होने पर बच्चों के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि हिंसा का इस्तेमाल सही है.

सख्त रवैया क्यों

देखा जाए तो किसी भी घर में बच्चें आंख के तारे होते हैं. लेकिन ज्यादा लाड़प्यार में बच्चे बिगड़ते है यह थ्योरी बच्चों के प्रति सख्त रवैया भी लाती है. कहना न मानने पर डांटफटकार और मारपीट का चलन भी आम है. डिजीटल और सोशल मीडिया के दौर में वैसे भी बच्चे एकाकी जीवन जी रहे हैं. अभिभावक बच्चों को अपना समय नहीं दे पाते. जो बातें और जो संस्कार घर में एक माँ अपने बच्चे को दे सकती है वह कामकाजी माँ नहीं दे सकती. एकल परिवारों की वजह से दादादादी तो घर में होते नहीं जो पीछे से बच्चे को संभाल ले. भाईबहन भी आजकल मुश्किल से एक होते है या नहीं भी होते. ऐसे में अकेला बच्चा घर में बैठ कर क्या करेगा. उस का भटकना संभव है. मगर इस वजह से वह कुछ गलती करता है तो क्या उसे मारनापीटना उचित है?

जहां तक बात एजुकेशन सिस्टम की है तो कहना न होगा कि नर्सरी क्लास से जो कम्पटीशन का दौर शुरू होता है वह अंत तक बना रहता है.बस्तों का बोझ ऐसा मानों बच्चे पूरा स्कूल कंधे पर लिए घूम रहे हों. स्कूल से छूटे तो कोचिंग की टेंशन शुरु. हर २ माह पर एग्जाम और उस एग्जाम में बेहतरीन करने का दवाब ताकि बच्चे का भविष्य संवर सके. बच्चा हमारी खींची लकीर पर न चलें तो हम नाराज और हिंसक हो उठते हैं. लेकिन अभिभावक के रूप में कभी बच्चों की बेचैनी नहीं समझते.

क्या मांबाप होने की जिम्मेदारी का मतलब बच्चों के साथ मारपीट का अधिकार है ? अपनी उम्मीदों की गठरी हम अपने बच्चों के सिर रख कर क्यों चलते हैं ? हमारी यह आस होती है कि हमारा बच्चा हमारी सारी उम्मीदों पर खरा उतरे. वह हमारे अधूरे सपनों को पूरा करे और इस के लिए छुटपन से ही हम उसे अनुशासन में रखने लगते हैं. अभिभावक अमीर हों, मध्यम वर्ग के हों या फिर गरीब तीनों वर्ग के लोग बच्चों के साथ हिंसा करते हैं भले ही तरीका अलगअलग क्यों न हो.

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भविष्य की फिक्र में हम यह भूल रहे हैं कि बच्चों की जिंदगी में यह दौर दोबारा नहीं आएगा. बच्चों को ले कर समाज का नजरिया भी ज़रा अजीब है. हम नें ‘अच्छी परवरिश’ का पैमाना सिर्फ बड़े स्कूल, हाई परसेंटेज और कामयाबी तक सीमित कर रखा है. यह कहा जाता है कि परवरिश बच्चों का भविष्य तय करती है तो क्या बच्चों में बढ़ते अपराध या आत्महत्या के बढ़ते मामलों के लिए हम अपनी जिम्मेदारी से बच जाएंगे?

अभिभावकों के हिंसक होने की मूल वजह

अगर अभिभावक ने खुद बचपन में हिंसा का सामना किया होतो बड़े हो कर वे बच्चों पर हाथ उठाते हैं.

कुछ अभिभावक अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाते.

वैसे अभिभावक बच्चों की जयादा पिटाई करते हैं जिन का सेल्फ एस्टीम लो होता है.

कुछ अभिभावक खुद मानसिक रोगी होते हैं और अल्कोहल या ड्रग्स का सेवन करते हैं सामान्यतः वे ही इस तरह की हरकतें करते हैं.

जो एक्स्ट्रा मेरीटल अफेयर्स के चक्कर में होते हैं वे भी ऐसी हरकतें करते हैं.

आर्थिक समस्याएं होने पर भी माँबाप अपनी झल्लाहट बच्चों पर उतार सकते हैं.

इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर चिल्ड्रन एंड फैमिलीज के अनुसार बच्चों के व्यवहार को सुधारने के लिए और खुद की अपनी इस हरकत पर अंकुश लगाने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरुरी है;

मातापिता करें बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार;

कई दफा ऐसा होता है जब बच्चे मां-बाप की बिल्कुल नहीं सुनते. मां-बाप को भलाबुरा कहने में जरा भी नहीं डरते. इसी कारणवश मातापिता भी अपने बच्चों के साथ बिना सोचेसमझे मारपीट और डांटफटकार करने लगते हैं. उन्हें अपमानित करने में भी पीछे नहीं रहते. यह रवैय्या उचित नहीं.

अगर आप के बच्चे ने कोई गलत व्यवहार किया है जिस से आप को शर्मसार होना पड़ रहा है तो बेहतर होगा की हिंसा के बजाय प्यार से उन्हें समझाने का प्रयास करें. सही गलत का भेद बताएं.

यही नहीं बच्चों को जीवन में अनुशासन के महत्व से परिचित कराना भी जरुरी है. बातव्यवहार, पढ़ाईलिखाई के साथसाथ दूसरों के आगे अनुशाशन और कायदे से पेश आना भी सिखाएं ताकि आप को दूसरों के आगे उन्हें डपटना न पड़े.

जरूरी है कि अभिभावक खुद के लिए पर्याप्त समय निकालें. जीवन को सुकून के साथ जीएं.व्यायाम करने, पढ़ने, टहलने और मनोरंजन के लिए समय जरूर निकालें ताकि वे बच्चों के आगे झल्लाया हुआ व्यवहार न करें.

अभिभावक उस समय ज्यादा गुस्सा करते हैं जब बच्चा बार-बार उन के द्वारा दी गई हिदायतों को नहीं मानता और वही चीजें दुहराता है. ऐसे में प्यार से बच्चे को कम शब्दों में समझाएं. चिल्ला कर या झल्लाते हुए न बोले. अपना गुस्सा न दिखाएं.

अपने बच्चों की पिटाई की बजाय उस के सामने कुछ विकल्प दें. उदाहरण के लिए अगर वह खाने की मेज पर बदतमीजी कर रहा है तो उसे स्पष्ट शब्दों में कहें कि वह या तो ठीक से खाए या फिर डाइनिंग टेबल से उठ जाए. ऐसे में या तो वह उठ जाएगा या फिर माफ़ी मांग लेगा. अगर वह माफ़ी मांग ले तो उसे वापस बैठने दें और प्यार से उस की गलती समझाएं. दोनों ही स्थितियों में वह आगे से खुद पर कंट्रोल रखना सीख जाएगा.

अपने बच्चे को कभी भी शारीरिक दंड न दें. अपनी बातों को तर्क से प्रूव करें. अगर उसने किसी का नुकसान किया है और गुस्से में आप उसे मारेंगे तो उस समय तो वह चुप हो जाएगा, लेकिन बाद में अपनी ऐसी गलतियों को छिपाएगा. उसे डर रहेगा कि आप उसकी पिटाई करेंगे, इसलिए बच्चे को अपनी गलती की जिम्मेदारी लेने को कहें.

अगर बच्चा आप से ठीक से बात नहीं कर रहा तो बजाय उसे पीटने या चिल्लाने के उस कमरे से बाहर निकल जाएं. उसे कहें कि आप दूसरे कमरे में हैं और जब उस की इच्छा हो और वह ढंग से बात करना चाहता हो आप से बात करने आ सकता है. इस से वह खुद ही अपनी गलती मह्सूस कर सकेगा.

बच्चों की पिटाई की जाए या नहीं

स्वीडन पहला यूरोपीय देश बना जहां बच्चों को मारना-पीटना गैरकानूनी बनाया गया. साल 2013 में फ्रांस की एक अदालत ने फ़ैसला किया था कि एक आदमी ने अपने नौ साल के बेटे को पीटने में ज़्यादती कर दी है. उस ने पीटने से पहले अपने बेटे की कमीज़ उतरवा दी थी. उस पर 500 यूरो का जुर्माना लगाया गया लेकिन इस फैसले से देश2 भागों में बंट गया.

फ्रांस में बच्चों की पिटाई का इतिहास काफी पुराना है. कहा जाता है कि फ्रांसीसी राजा लुइस तेरहवें को एक साल की उम्र से पिता के आदेश पर लगातार पीटा जाता रहा था.

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अन्य यूरोपीय देशों की तरह फ्रांस में भी बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा को अपराध बना दिया गया है लेकिन यह अभिभावकों को अपने बच्चों को हल्के हाथ से अनुशासित करने का अधिकार भी देता है.

यह ‘हल्का हाथ’ से अनुशासन क्या है और आपराधिक हिंसा क्या है, यह तय करने का अधिकार अदालतों को है जिस से अक्सर विवाद होते रहे हैं. हालांकि ब्रिटेन और फ्रांस में हुए एक सर्वे में बच्चों को पीटने पर कानूनी प्रतिबंध के परिणाम करीबकरीब एक जैसे थे. हाल में ब्रिटेन में सर्वे में शामिल 69 प्रतिशत इस के ख़िलाफ़ थे वहीं फ्रांस में साल 2009 में 67 प्रतिशत लोग इस के विरोध में थे.

अब समय आ गया है कि हम इस पर गंभीरता से विचार करें कि क्या सचमुच संस्कार और शिक्षा थोपने की आड़ में चाहेअनचाहे हम बच्चों के साथ अन्याय कर जाते हैं.

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