फर्क: इरा की कामयाबी सफलता थी या किसी का एहसान

इरा की स्कूल में नियुक्ति इसी शर्त पर हुई थी कि वह बच्चों को नाटक की तैयारी करवाएगी क्योंकि उसे नाटकों में काम करने का अनुभव था. इसीलिए अकसर उसे स्कूल में 2 घंटे रुकना पड़ता था.

इरा के पति पवन को कामकाजी पत्नी चाहिए थी जो उन की जिम्मेदारियां बांट सके. इरा शादी के बाद नौकरी कर अपना हर दायित्व निभाने लगी.

वह स्कूल में हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ का नाट्य रूपांतर कर बच्चों को उस की रिहर्सल करा रही थी. प्रधानाचार्य ने मुख्य पात्र के लिए 10वीं कक्षा के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझाया क्योंकि वह शहर के बड़े उद्योगपति का बेटा था और उस के सहारे पिता को खुश कर स्कूल अनुदान में खासी रकम पा सकता था.

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह कुशलता से करने लगा था. उसी नाटक के पूर्वाभ्यास में इरा को घर जाने में देर हो जाती है. वह घर जाने के लिए स्टाप पर खड़ी थी कि तभी एक कार रुकती है. उस में मुकुल अपने पिता के साथ था. उस के पिता शरदजी को देख इरा चहक उठती है. शरदजी बताते हैं कि जब मुकुल ने नाटक के बारे में बताया तो मैं समझ गया था कि ‘इरा मैम’ तुम ही होंगी.

इरा उन के साथ गाड़ी में बैठ जाती है. तभी उसे याद आता है कि आज उस के बेटे का जन्मदिन है और उस के लिए तोहफा लेना है. शरदजी को पता चलता है तो वह आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की तरफ गाड़ी घुमा देते हैं. वह इरा को कंप्यूटर गेम दिलवाने पर उतारू हो जाते हैं. इरा बेचैन थी क्योंकि पर्स में इतने रुपए नहीं थे. अब आगे…

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एक महंगा केक और फूलों का बुके आदि तमाम चीजें शरदजी गाड़ी में रखवाते चले गए. वह अवाक् और मौन रह गई.

शरदजी को घर में भीतर आने को कहना जरूरी लगा. बेटे सहित शरदजी भीतर आए तो अपने घर की हालत देख सहम ही गई इरा. कुर्सियों पर पड़े गंदे,  मुचड़े, पहने हुए वस्त्र हटाते हुए उस ने उन्हें बैठने को कहा तो जैसे वे सब समझ गए हों, ‘‘रहने दो, इरा… फिर किसी दिन आएंगे… जरा अपने बेटे को बुलाइए… उस से हाथ मिला लूं तब चलूं. मुझे देर हो रही है, जरूरी काम से जाना है.’’

इरा ने सुदेश और पति को आवाज दी. वे अपने कमरे में थे. दोनों बाहर निकल आए तो जैसे इरा शरम से गड़ गई हो. घर में एक अजनबी को बच्चे के साथ आया देख पवन भी अचकचा गए और सुदेश भी सहम सा गया पर उपहार में आई ढेरों चीजें देख उस की आंखें चमकने लगीं… स्नेह से शरदजी ने सुदेश के सिर पर हाथ फेरा. उसे आशीर्वाद दिया, उस से हाथ मिला उसे जन्मदिन की बधाई दी और बेटे मुकुल के साथ जाने लगे तो सकुचाई इरा उन्हें चाय तक के लिए रोकने का साहस नहीं बटोर पाई.

पवन से हाथ मिला कर शरदजी जब घर से बेटे मुकुल के साथ बाहर निकले तो उन्हें बाहर तक छोड़ने न केवल इरा ही गई, बल्कि पवन और सुदेश भी गए.

उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठने से पहले अपना कार्ड दे कर बोले, ‘‘इरा, कभी पवनजी को ले कर आओ न हमारे झोंपड़े पर… तुम से बहुत सी बातें करनी हैं. अरसे बाद मिली हो भई, ऐसे थोड़े छोड़ देंगे तुम्हें… और फिर तुम तो मेरे बेटे की कैरियर निर्माता हो… तुम्हें अपना बेटा सौंप कर मैं सचमुच बहुत आश्वस्तहूं.’’

पवन और सुदेश के साथ घर वापस लौटती इरा एकदम चुप और खामोश थी. उस के भीतर एक तीव्र क्रोध दबे हुए ज्वालामुखी की तरह भभक रहा था पर किसी तरह वह अपने गुस्से पर काबू रखे रही. इस वक्त कुछ भी कहने का मतलब था, महाभारत छिड़ जाना. सुदेश के जन्मदिन को वह ठीक से मना लेना चाहती थी.

सुदेश के जन्मदिन का आयोजन देर रात तक चलता रहा था. इतना खुश सुदेश पहले शायद ही कभी हुआ हो. इरा भी उस की खुशी में पूरी तरह डूब कर खुश हो गई.

बिस्तर पर जब वह पवन के साथ आई तो बहुत संतुष्ट थी. पवन भी संतुष्ट थे, ‘‘अरसे बाद अपना सुदेश आज इतना खुश दिखाई दिया.’’

‘‘पर खानेपीने की चीजें मंगाने में काफी पैसा खर्च हो गया,’’ न चाहते हुए भी कह बैठी इरा.

‘‘घर वालों के ही खानेपीने पर तो खर्च हुआ है. कोई बाहर वालों पर तो हुआ नहीं. पैसा तो फिर कमा लिया जाएगा… खुशियां हमें कबकब मिलती हैं,’’ पवन अभी तक उस आयोजन में डूबे हुए थे.

‘‘सोया जाए… मुझे सुबह फिर जल्दी उठना है. सुदेश का कल अंगरेजी का टेस्ट है और मैं अंगरेजी की टीचर हूं अपने स्कूल में. मेरा बेटा ही इस विषय में पिछड़ जाए, यह मैं कैसे बरदाश्त कर सकती हूं? सुबह जल्दी उठ कर उस का पूरा कोर्स दोहरवाऊंगी…’’

‘‘आजकल की यह पढ़ाई भी हमारे बच्चों की जान लिए ले रही है,’’ पवन के चेहरे पर से प्रसन्नता गायब होने लगी, ‘‘हमारे जमाने में यह जानमारू प्रतियोगिता नहीं थी.’’

‘‘अब तो 90 प्रतिशत अंक, अंक नहीं माने जाते जनाब… मांबाप 99 और 100 प्रतिशत अंकों के लिए बच्चों पर इतना दबाव बनाते हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य तक चौपट हुआ जा रहा है. क्यों दबा रहे हैं हम अपने बच्चों को… कभीकभी मैं भी बच्चों को पढ़ाती हुई इन सवालों पर सोचती हूं…’’

‘‘शायद इसलिए कि हम बच्चों के भविष्य को ले कर बेहद डरे हुए हैं, आशंकित हैं कि पता नहीं उन्हें जिंदगी में कुछ मिलेगा या नहीं… कहीं पांव टिकाने को जगह न मिली तो वे इस समाज में सम्मान के साथ जिएंगे कैसे?’’ पवन बोले, ‘‘हमारे जमाने में शायद यह गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थी पर आजकल जब नौकरियां मिल नहीं रहीं, निजी कामधंधों में बड़ी पूंजी का खेल रह गया है. मामूली पैसे से अब कोई काम शुरू नहीं किया जा सकता, ऐसे में दो रोटियां कमाना बहुत टेढ़ी खीर हो गया है, तब बच्चों के कैरियर को ले कर सावधान हो जाने को मांबाप विवश हो गए हैं… अच्छे से अच्छा स्कूल, ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं, साधन, अच्छे से अच्छा ट्यूटर, ज्यादा से ज्यादा अंक, ज्यादा से ज्यादा कुशलता और दक्षता… दूसरा कोई बच्चा हमारे बच्चे से आगे न निकल पाए, यह भयानक प्रत्याशा… नतीजा तुम्हारे सामने है जो तुम कह रही हो…’’

‘‘मैं तो समझती थी कि तुम इन सब मसलों पर कुछ न सोचते होंगे, न समझते होंगे… पर आज पता चला कि तुम्हारी भी वही चिंताएं हैं जो मेरी हैं. जान कर सचमुच अच्छा लग रहा है, पवन,’’ कुछ अधिक ही प्यार उमड़ आया इरा के भीतर और उस ने पवन को एक गरमागरम चुंबन दे डाला.

पवन ने भी उसे बांहों में भर, एक बार प्यार से थपथपाया, ‘‘आदमी को तुम इतना मूर्ख क्यों मानती हो? अरे भई, हम भी इसी धरती के प्राणी हैं.’’

‘‘यह नाटक मैं ठीक से करा ले जाऊं और शरदजी को उन के बेटे के माध्यम से प्रसन्न कर पाऊं तो शायद उस एहसान से मुक्त हो सकूं जो उन्होंने मुझ पर किए हैं. जानते हो पवन, शरदजी ने अपने निर्देशन में मुझे 3 नाटकों में नायिका बनाया था. बहुत आलोचना हुई थी उन की पर उन्होंने किसी की परवा नहीं की थी. अगर तब उन्होंने मुझे उतना महत्त्व न दिया होता, मेरी प्रतिभा को न निखारा होता तो शायद मैं नाटकों की इतनी प्रसिद्ध नायिका न बनी होती. न ही यह नौकरी आज मुझे मिलती. यह सब शरदजी की ही कृपा से संभव हुआ.’’

नाटक उम्मीद से कहीं अधिक सफल रहा. मुकुल ने इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में वह समां बांधा कि पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. स्कूल प्रबंधक और प्रधानाचार्या अपनेआप को रोक नहीं सके और दोनों उठ कर इरा के पास मंच के पीछे आए, ‘‘इरा, तुम तो कमाल की टीचर हो भई.’’

मुकुल के पिता शरदजी तो अपने बेटे की अभिनय क्षमता और इरा के कुशल निर्देशन से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने वहीं, मंच पर आ कर स्कूल के लिए एक वातानुकूलित कंप्यूटर कक्ष और 10 कंप्यूटर अत्यंत उच्च श्रेणी के देने की घोषणा कर प्रबंधक और प्रधानाचार्या के मन की मुराद ही पूरी कर दी.

जब वे आयोजन के बाद चायनाश्ते पर अन्य अतिथियों के साथ प्रबंधक के पास बैठे तो न जाने उन के कान में क्या कहते रहे. इरा ने 1-2 बार उन की ओर देखा भी पर वे उन से ही बातें करते रहे. बाद में इरा को धन्यवाद दे वे जातेजाते पवन और सुदेश की तरफ देख हाथ हिला कर बोले, ‘‘इरा…मुझे अभी तक उम्मीद है कि किसी दिन तुम आने के लिए मुझे दफ्तर में फोन करोगी…’’

‘‘1-2 दिन में ही तकलीफ दूंगी, सर, आप को,’’ इरा उत्साह से बोली थी.

‘‘जो आदमी खुश हो कर लाखों रुपए का दान स्कूल को दे सकता है, उस से हम बहुत लाभ उठा सकते हैं, इरा… और वह आदमी तुम से बहुत खुश और प्रभावित भी है,’’ अपना मंतव्य आखिर पवन ने घर लौटते वक्त रास्ते में प्रकट कर ही दिया.

परंतु इरा चुप रही. कुछ बोली नहीं. किसी तरह पुन: पवन ने ही फिर कहा, ‘‘क्या सोच रही हो? कब चलें हम लोग शरदजी के घर?’’

‘‘पवन, तुम्हारे सोचने और मेरे सोचने के ढंग में बहुत फर्क है,’’ कहते हुए बहुत नरम थी इरा की आवाज.

‘‘सोच के फर्क को गोली मारो, इरा. हमें अपने मतलब पर ध्यान देना चाहिए, अगर हम किसी से अपना कोई मतलब आसानी से निकाल सकते हैं तो इस में हमारे सोच को और हमारी हिचक व संकोच को आड़े नहीं आना चाहिए,’’ पवन की सूई वहीं अटकी हुई थी, ‘‘तुम अपने घरपरिवार की स्थितियों से भली प्रकार परिचित हो, अपने ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं, यह भी तुम अच्छी तरह जानती हो. इसलिए हमें निसंकोच अपने लिए कुछ हासिल करने का प्रयास करना चाहिए.’’

‘‘मैं तुम्हें और सुदेश को ले कर उन के बंगले पर जरूर जाऊंगी, पर एक शर्त पर… तुम इस तरह की कोई घटिया बात वहां नहीं करोगे. शरदजी के साथ मैं ने नाटकों में काम किया है, मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं. वह इस तरह से सोचने वाले व्यक्ति नहीं हैं. बहुत समझदार और संवेदनशील व्यक्ति हैं. उन से पहली बार ही उन के घर जा कर कुछ मांगना मुझे उन की नजरों में बहुत छोटा बना देगा, पवन. मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.’’

दूसरे दिन इरा जब स्कूल में पहुंची तो प्रधानाचार्या ने उसे अपने दफ्तर में बुलाया, ‘‘हमारी कमेटी ने तय किया है कि यह पत्र तुम्हें दिया जाए,’’ कह कर एक पत्र इरा की तरफ बढ़ा दिया.

एक सांस में उस पत्र को धड़कते दिल से पढ़ गई इरा. चेहरा लाल हो गया, ‘‘थैंक्स, मेम…’’ अपनी आंतरिक प्रसन्नता को वह मुश्किल से वश में रख पाई. उसे प्रवक्ता का पद दिया गया था और स्कूल की सांस्कृतिक गतिविधियों की स्वतंत्र प्रभारी बनाई गई थी. साथ ही उस के बेटे सुदेश को स्कूल में दाखिला देना स्वीकार किया गया था और उस की इंटर तक फीस नहीं लगेगी, इस का पक्का आश्वासन कमेटी ने दिया था.

शाम को जब घर आ उस ने वह पत्र पवन, ससुरजी व घर के अन्य सदस्यों को पढ़वाया तो जैसे किसी को विश्वास ही न आया हो. एकदम जश्न जैसा माहौल हो गया, सुदेश देर तक समझ नहीं पाया कि सब इतने खुश क्यों हो गए हैं.

इरा ने नजदीकी पब्लिक फोन से शरदजी को दफ्तर में फोन किया, ‘‘आप को हार्दिक धन्यवाद देने आप के बंगले पर आज आना चाहती हूं, सर. अनुमतिहै?’’

सुन कर जोर से हंस पड़े शरदजी, ‘‘नाटक वालों से नाटक करोगी, इरा?’’

‘‘नाटक नहीं, सर. सचमुच मैं बहुत खुश हूं. आप के इस उपकार को कभी नहीं भूलूंगी,’’ वह एक सांस में कह गई, ‘‘कितने बजे तक घर पहुंचेंगे आप?’’

‘‘मेरा ड्राइवर तुम्हें लगभग 9 बजे घर से लिवा लाएगा… और हां, सुदेश व पवनजी भी साथ आएंगे,’’ उन्होंने फोन रख दिया था.

अपनी इरा मैम को अपने घर पर पाकर मुकुल बेहद खुश था. देर तक अपनी चीजें उन्हें दिखाता रहा. अगले नाटकों में भी इरा मैम उसे रखें, इस का वादा कराता रहा.

पूरे समय पवन कसमसाते रहे कि किसी तरह इरा मतलब की बात कहे शरदजी से. शरदजी जैसे बड़े आदमी के लिए यह सब करना मामूली सी बात है, पर इरा थी कि अपने विश्वविद्यालय के उन दिनों के किए नाटकों के बारे में ही उन से हंसहंस कर बातें करती रही.

जब वे लोग वापस चलने को उठे तो शरदजी ने अपने ड्राइवर से कहा, ‘‘साहब लोगों को इन के घर छोड़ कर आओ…’’ फिर बड़े प्रेम से उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और उन की जेब में एक पत्र रखते हुए बोले, ‘‘घर जा कर देखना इसे.’’

रास्ते भर पवन का दिल धड़कता रहा, माथे पर पसीना आता रहा. पता नहीं, पत्र में क्या हो. जब घर आ कर पत्र पढ़ा तो अवाक् रह गए पवन… उन की नियुक्ति शरदजी ने अपने दफ्तर में एक अच्छे पद पर की थी.

फर्क

भाग-1

कहानी- दिनेश पालीवाल

इरा को स्कूल से लौटते हुए देर हो गई थी. बस स्टाप पर इस वक्त तक भीड़ बहुत बढ़ गई थी. पता नहीं बस में चढ़ भी पाएगी या नहीं… कंधे पर भारी बैग लटकाए, पसीना पोंछती स्कूल के फाटक से निकल वह तेजी से बस स्टाप की ओर चल दी. यह बस छूट गई तो पूरे 1 घंटे की देर हो जाएगी… और 1 घंटे की देर का मतलब, पूरे घर की डांटफटकार सुननी पड़ेगी.

नौकरी के वक्त इरा ने जो प्रमाणपत्र लगाए थे उन में अनेक नाटकों में भाग लेने के प्रमाणपत्र भी थे और देश के नामीगिरामी नाटक निर्देशकों के प्रसिद्ध नाटकों में काम करने का अनुभव भी… प्रधानाचार्या ने उसी समय कह दिया था, ‘हम आप को रखने जा रहे हैं पर आप को यहां अंगरेजी पढ़ाने के अलावा बच्चों को नाटक भी कराने पड़ेंगे और इस के लिए अकसर स्कूल समय के बाद आप को घंटे दो घंटे रुकना पड़ेगा. अगर मंजूर हो तो हम अभी नियुक्तिपत्र दिए देते हैं.’

‘नाटक करना और नाटक कराना मेरी रुचि का काम है, मैडम…मैं तो खुद आप से कह कर यह काम करने की अनुमति लेती,’ बहुत प्रसन्न हुई थी इरा.

इंटरव्यू दिलवाने पति पवन संग आए थे, ‘जवाब ठीक से देना. तुम तो जानती हो, हमारे लिए तुम्हारी यह नौकरी कितनी जरूरी है.’

इरा को वह दिन अनायास याद आ गया था जब पवन अपने मातापिता के साथ उसे देखने आए थे. मां ने साफ कह दिया था, ‘लड़की सुंदर है, यह तो ठीक है पर अंगरेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. है, हम इसलिए आप की बेटी को पसंद कर सकते हैं…लड़की को कहीं नौकरी करनी पड़ेगी. इस में तो आप लोगों को एतराज न होगा?’

कहा तो मां ने था पर बात शायद पवन की थी, जो वे लोग घर से ही तय कर के आए होंगे. शादीब्याह अब एक सौदे के ही तहत तो किए जाते हैं. इरा के मांबाप ने हर लड़की के मांबाप की तरह खीसें निपोर दी थीं, ‘शादी से पहले लड़की पर मांबाप का हक होता है, उसे उन की इच्छानुसार चलना पड़ता है. पर शादी के बाद तो सासससुर ही उस के मातापिता होते हैं. उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है. आप लोग और पवन बाबू जो चाहेंगे, इरा वह हंसीखुशी करेगी. उसे करना चाहिए. हर बहू का यही धर्म होता है. इरा जरूर अपना धर्म निबाहेगी.’

बहू का धर्म, बहू के कर्तव्य, बहू के काम, बहू की मर्यादाएं, बहू के चारों ओर ख्ंिची हुई लक्ष्मण रेखाएं, बहू की अग्निपरीक्षाएं, बहू का सतीत्व, पवित्रता, चरित्र, घरपरिवार चलाने की जिम्मेदारियां… न जाने कितनी अपेक्षाएं बहुओं से की जाती हैं.

इंटरव्यू के बाद इरा को कुछ समय एक ओर कमरे में बैठने को कह दिया गया था. इस बीच किसी क्लर्क को बुलाया गया था. स्कूल के पैड पर जल्दी एक पत्र टाइप कर के मंगवाया गया था. प्रधानाचार्या ने वहीं हस्ताक्षर कर दिए थे और उसे बुला कर नियुक्तिपत्र थमा दिया था, ‘बधाई, आप चाहें तो कल से ही आ जाएं काम पर…’

धन्यवाद दे कर वह खुशी मन से बाहर आई तो पवन बड़ी बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’

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जवाब में इरा ने नियुक्तिपत्र पवन को थमा दिया. एक सांस में पढ़ गए उसे पवन और एकदम खिल गए, ‘अरे, यानी 10 हजार की यह नौकरी तुम्हें मिल गई?’

‘इस पत्र से तो यही जाहिर हो रहा है,’ इरा इठला कर बोली थी, ‘पर जानते हो, अंगरेजी विषय की प्रथम श्रेणी उतनी काम नहीं आई जितने काम मेरे नाटक आए… नाटकों का अनुभव ज्यादा महत्त्व का रहा.’

सुन कर चेहरा मुरझा सा गया पवन का.

इरा को याद हो आया…शादी के बाद जब वह ससुराल आई थी और उस ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र पवन को दिखाए तो साथ में नाटकों के लिए मिले श्रेष्ठता के पुरस्कार और प्रमाणपत्र भी दिखाए थे. उन्हें बड़ी अनिच्छा से पवन ने एक ओर सरका दिया था, ‘अब यह नाटकसाटक सब भूल जाओ. ंिंजदगी नाटक नहीं है, इरा, एक ठोस हकीकत है. शादी के बाद जिंदगी की कठोर सचाइयों को जितनी जल्दी तुम समझ लोगी उतना ही अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए… पापा रिटायर होने वाले हैं. मेरी अकेली तनख्वाह घर का यह भारी खर्च नहीं चला सकती. बहनों की शादी, भाइयों की पढ़ाईलिखाई… बहुत सी जिम्मेदारियां हैं हमारे सामने… तुम्हें जल्दी से जल्दी अपनी अंगरेजी की एम.ए. की डिगरी के सहारे कोई अच्छी नौकरी पकड़नी होगी…अगर तुम हिंदीसिंदी में एम.ए. होतीं तो मैं हरगिज तुम से शादी नहीं करता, भले ही तुम मुझे पसंद आ गईं होतीं तो भी… असल में मुझे ऐसे ही कैरियर वाली बीवी चाहिए थी जो मुझ पर बोझ न बने, बल्कि मेरे बोझ को बंटाए, कम करे…’

बस स्टाप की भीड़ बढ़ती जा रही थी. नाटक का पूर्वाभ्यास कराने में उस की चार्टर्र्ड बस निकल गई थी. अब तो सामान्य बस में ही घर जाना पड़ेगा.

घर के नाम पर ही उस के पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी दौड़ गई. पवन अब तक लौट आए होंगे. चाय के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. देवर हाकी के मैदान से लस्तपस्त लौटा होगा, उसे दूध गरम कर के देना भी इरा की ही जिम्मेदारी है. बड़ी ननद ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही है, वहां से लौटी होगी. वह भी इरा का इंतजार कर रही होगी. बेटे का आज गणित का पेपर था. वह भी इंतजार कर रहा होगा.

सहसा इरा को याद आया कि आज तो बेटे सुदेश का जन्मदिन है. उसे हर हाल में जल्दी घर पर पहुंचना चाहिए था पर प्रधानाचार्या ने एक व्यंग्य नाटक के सिलसिले में उसे रोक लिया था. इरा ने बहुत सोचसमझ कर हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ कहानी का नाट्यरूपांतर किया और बच्चों को तैयार कराना शुरू कर दिया. चांद के लोग सीधेसादे हैं. वहां भ्रष्टाचार नहीं है. पृथ्वी के बारे में चांद के निवासियों को पता चलता है कि वहां पुलिस सब से आवश्यक है. चांद के निवासी पृथ्वी से एक इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर लिवा ले जाते हैं. वे चाहते हैं कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह एक पुलिस विभाग बनाया जाए जिस से भविष्य में अगर कोई अपराध हो तो उसे काबू किया जा सके.

इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहाते हैं कि दर्शक लोटपोट हो जाते हैं. बहुएं दहेज के कारण जलाई जाने लगीं. जेबकतरी, चोरी, हत्या, डकैती, राहजनी, लूटमार, आतंकवाद, अपहरण, वेश्याबाजार आदि इंस्पेक्टर मातादीन की कृपा से चांद पर होने लगे और चारों ओर त्राहित्राहि मच गई.

प्रधानाचार्या को जब यह कहानी इरा ने सुनाई तो वह बहुत खुश हुईं, ‘अच्छी कहानी है, इसे जरूर करो.’

इंस्पेक्टर मातादीन के लिए उन्होंने कक्षा 10 के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझा दिया.

‘मुकुल क्यों, मैम…?’ इरा ने यों ही पूछ लिया. इरा के दिमाग में कक्षा 11 का एक लड़का था.

‘उस के पिता यहां के बड़े उद्योगपति हैं और उन से हमें स्कूल के लिए बड़ा अनुदान चाहिए. उन के लड़के के सहारे हम उन्हें खुश कर सकेंगे और अनुदान में खासी रकम पा लेंगे.’

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह बहुत कुशलता से करने लगा था. अपना पार्र्ट उस ने 2 दिन में रट कर तैयार कर लिया था. उसी के पूर्वाभ्यास में इरा को आज देर हो गई थी.

मन ही मन झल्लाती, कुढ़ती, परेशान, थकीऊबी इरा, बस की प्रतीक्षा करती बस स्टाप पर खड़ी थी.

‘‘गुड ईवनिंग, मैम…’’ सहसा उस के निकट एक महंगी कार आ कर रुकी और उस में से इंस्पेक्टर मातादीन का किरदार निभाने वाला लड़का मुकुल बाहर निकला, ‘‘गाड़ी में पापा हैं, मैम… प्लीज, हमारे साथ चलें आप… पीछे, पापा बता रहे हैं कहीं एक्सीडेंट हो गया है, वहां लोगों ने जाम लगा दिया है. गाडि़यां नहीं आ रहीं. आप को बस नहीं मिलेगी. हम पहुंचा देंगे आप को.’’

एक पल को हिचकती हुई सोचती रही इरा, जाए या न जाए? तभी गाड़ी से मुकुल के पिता बाहर निकल आए. उन्हें बाहर देखते ही पहचान गई इरा, ‘‘अरे आप…मुकुल, आप का बेटा है…?’’ एकदम चहक सी उठी इरा. अरसे बाद अपने सामने शरदजी को देख कर उसे जैसे आंखों पर विश्वास ही न हुआ हो.

‘‘बेटे ने जब आप का नाम बताया और कहा कि हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं तो विश्वास हो गया कि हो न हो, यह इरा मैम आप ही होंगी जिन्हें हम ने कभी अपने नाटक में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था… अपने-

आप को रोक नहीं पाया. बेटे को    लेने के बहाने मैं स्वयं आया, शरदजी बहुत खुश थे. आगे बोले, ‘‘प्लीज, इराजी… आप संकोच छोड़ें और हमारे साथ चलें… हम आप को घर छोड़ देंगे…’’

इरा दुविधा में फंसी पिछली सीट पर बैठी रही. बेटे के लिए कहीं से कोई उपहार खरीदे या नहीं? गाड़ी रुकवाना उचित लगेगा या नहीं? कहीं से केक लिया जा सकता है?… उस ने अपने पर्स में रखे नोट गिने… कुछ कम लगे. सकुचा कर बैठी रही.

मुकुल अपने पापा की बगल में आगे की सीट पर बैठा था. सहसा इरा ने उस से कहा, ‘‘मुकुल, जरा पापा से कहो, कहीं गाड़ी रोकें… मेरे बेटे का जन्मदिन है आज… उस के लिए कहीं से कोई चीज ले लूं और मिल जाए तो केक भी…’’

शरदजी ने गाड़ी रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप भी कैसी मां हैं, इराजी? इतनी देर से आप साथ चल रही हैं और यह जरूरी बात बताई ही नहीं.’’

उन्होंने गाड़ी एक आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की पार्किंग में पार्क की और इरा को ले कर चले तो सहम सी गई इरा. बोली, ‘‘यहां तो चीजें बहुत महंगी होंगी.’’

‘‘उस सब की आप फिक्र मत करिए. आप तो सिर्फ यह बताइए कि आप के बेटे को पसंद क्या आएगा?’’ हंसते हुए साथ चल रहे थे शरदजी.

कंप्यूटर गेम का सेट दिलवाने पर उतारू हो गए वे, ‘‘अरे भाई यह सब हमारा क्षेत्र है… हम यही सब डील करते हैं… आप का बेटा आज से कंप्यूटर गेम्स का आनंद लेगा…’’

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इरा की बेचैनी बढ़ गई, उस के पर्स में तो इतने रुपए भी नहीं थे.

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