Top 10 Best Father’s Day Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

Father’s Day Stories in Hindi: एक परिवार की सबसे अहम कड़ी हमारे माता-पिता होते हैं. वहीं मां को हम जहां अपने दिल की बात बताते हैं तो वहीं पिता हमारे हर सपने को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं. हालांकि वह अपने दिल की बात कभी शेयर नहीं कर पाते. हालांकि हमारा बुरा हो या अच्छा, हर वक्त में हमारे साथ चट्टान बनकर खड़े होते हैं. इसीलिए इस फादर्स डे के मौके पर आज हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की  Best Father’s Day Story in Hindi, जिसमें पिता के प्यार और परिवार के लिए निभाए फर्ज की दिलचस्प कहानियां हैं, जो आपके दिल को छू लेगी. साथ ही आपको इन Father’s Day Stories से आपको कई तरह की सीख भी मिलेगी, जो आपके पिता से आपके रिश्तों को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो पढ़िए Grihshobha की Best Father’s Day Story in Hindi.

1. Father’s Day Story 2023: पिता का वादा

मुदित के पिता अकसर एक महिला से मिलने उस के घर जाया करते थे. कौन थी वह महिला और क्यों मुदित उस महिला के बारे में सबकुछ जानना चाहता था…

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2. Father’s Day Story 2023: अंतराल- क्या बेटी के लिए पिता का फैसला सही था?

चंद मुलाकातों के बाद ही सोफिया और पंकज ने शादी करने का निर्णय कर लिया. पर सोफिया के पिता द्वारा रखी गई शर्त सुनने पर पंकज ने शादी से इनकार कर दिया.

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3. Father’s Day Story 2023: अब तो जी लें

पिता के रिटायरमैंट के बाद उन के जीवन में आए अकेलेपन को दूर करने के लिए गौरव व शुभांगी ने ऐसा क्या किया कि उन के दोस्त भी मुरीद हो गए…

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4. Father’s day Story 2023: फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

नाजुक हालात कहें या वक्त का तकाजा पर फादर्स डे पर हुई उस एक घटना ने वरुण और मेरे बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी. इस बार उस दीवार को ढहाने का काम हम दोनों में से किसी को तो करना ही था.

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5. Father’s Day Story : दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

पति के बिना पद्मा का जीवन सूखे कमल की भांति सूख चुका था. ऐसे में कमलकांत का मिलना उस के दिल में मीठी फुहार भर गया था. दोनों के गम एकदूसरे का सहारा बनने को आतुर हो उठे थे. परंतु …

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6. Father’s day Stories : कोरा कागज- घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

बच्चे अपने मातापिता की सख्ती के चलते घर से भागने जैसी बेवकूफी तो कर देते हैं, लेकिन इस की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ती है उस से अनजान रहते हैं. इस दर्द से राहुल भी अछूता नहीं था…

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7. Father’s Day 2023: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

गुंजन व रवि ने अपने मातापिता की खुशियों के लिए एक ऐसा प्लान बनाया कि उन के चेहरे की चमक एक बार फिर वापस लौट आई. आखिर क्या था उन दोनों का प्लान?

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 8. Father’s Day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

दानव की तरह मुंह फाड़े मौत के आगे सोनू की नन्ही सी जिंदगी ने घुटने तो टेके पर हार नहीं मानी. उस के मातापिता के एक फैसले ने मरणोपरांत भी उसे जीवित रखा क्योंकि जिंदगी का मकसद ही मुसकराना है.

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9. Father’s Day 2023: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

मानव और रत्ना को अपने बेटे चिन्मय पर गर्व था क्योंकि वह कक्षा में हमेशा अव्वल आता था, उन का सपना था कि चिन्मय 10वीं की परीक्षा में देश में सब से अधिक अंक ले कर उत्तीर्ण हो.

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10. Father’s Day Story 2023: बाप बड़ा न भैया- पिता की सीख ने बदली पुनदेव की जिंदगी

 

5 बार मैट्रिक में फेल हुए पुनदेव को उस के पिता ने ऐसी राह दिखाई कि उस ने फिर मुड़ कर देखा तक नहीं. आखिर ऐसी कौन सी राह सुझाई थी उस के पिता ने.

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Father’s day Special: जिंदगी के सफर में मां जितने ही महत्वपूर्ण है पापा

आमतौर पर समाज में, साहित्य में या विभिन्न किस्म की संवेदनाओं के बीच यही मान्यता है कि संतान के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ‘मां’ की है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया में ‘मां’ की जगह कोई नहीं ले सकता. लेकिन इतना ही बड़ा सच यह भी है कि दुनिया में ‘पिता’ की भी कोई जगह नहीं ले सकता. भले मुहावरों में, कविताओं में पिता की भूमिका ने वह जगह न पायी हो, जो जगह मां की भूमिका को हासिल है लेकिन सच्चाई यही है कि जीवन में जितनी जरूरी मां की सीखें हैं, उतनी ही जरूरी पिता की मौन देखरेख है. भले पिता मां की तरह अपने बच्चों को दूध न पिलाए, उन्हें दुलराए न, उनके साथ बहुत देर तक मान मनौव्वल का खेल न खेले, लेकिन वह भी अपनी संतान से उतना ही प्यार करता है और जीवन में उसकी उतनी ही महत्ता भी है.

जिन बच्चों के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उन बच्चों में 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे अंतर्मुखी हो जाते हैं. ऐसे बच्चे अकसर बहुत आत्मविश्वास के साथ समाज का और अपनी कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाते. दरअसल पिता उनमें दुनिया से टकराने का आत्मविश्वास देता है. मां अगर संयम सिखाती है तो पिता की मौजूदगी बच्चों में प्रतिरोध का जज्बा भरती है. अगर मां नहीं होती तो बच्चे जीवन जीने के तौर तरीके कायदे से नहीं सीख पाते. अगर पिता नहीं होते तो बच्चे जीवन का सामना ही बमुश्किल कर पाते हैं. मां की देखरेख में पले बच्चों में आत्मविश्वास की कमी तो होती ही है, वे तमाम बार अपनी बात को सार्वजनिक तौरपर व्यवस्थित ढंग से रख तक नहीं पाते.

कहने का मतलब यह है कि जिंदगी में मां और बाप दोनो की ही बराबर की जरूरत होती है. पर अगर गहराई से देखें तो पिता की जरूरत थोड़ी ज्यादा होती हैय क्योंकि पिता की बदौलत ही बच्चे दुनिया से दो चार होने, उससे मुकाबला करने की हिम्मत और हिकमत पाते हैं. अगर बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ जाता है, तो बच्चों का बचपन खो जाता है. खेलन, कूदने की उम्र में बड़े बूढ़ों की तरह चिंताएं करनी पड़ती हैं, कई बार उन्हीं की तरह घर चलाने के लिए मां का हाथ बंटाना पड़ता है यानी खेलने, कूदने की उम्र में ही नौकरी या चाकरी करनी पड़ती है. ज्यादातर बार पिता के न रहने पर बच्चों की पढ़ाई या तो आधी अधूरी रह जाती है या जैसे सोचा होता है, वैसी नहीं हो पाती. हां, कई मांएं अपवाद भी होती हैं जो बच्चों को पिता की गैर मौजूदगी का एहसास नहीं होने देतीं.

पिता की मौजूदगी में बच्चों में एक अतिरिक्त किस्म का आत्मविश्वास रहता है. किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि पिता भोजन में नमक की तरह होते हैं, खाने में अगर नमक न हो तो खाना कितना ही बढ़िया, कितना ही कीमती क्यों न हो, बेस्वाद लगता है? लेकिन जब खाने में नमक की उपयुक्त मात्रा होती है तो कई बार हमें इसका एहसास तक नहीं होता. कई बार हम यह याद ही नहीं कर पाते कि हम जो कुछ खा रहे हैं उसमें नमक का भी कुछ महत्व है. पिता की मौजूदगी भी जीवन ऐसी ही होती है. जब होते हैं तो कभी यह ख्याल ही नहीं होता कि पिता के महत्व को समझें. मगर जब नहीं होते तो हर पल, हर कदम उनके न होने का दुख उठाना पड़ता है, परेशानी भोगनी पड़ती है. हर संतान को एक न एक दिन अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी या अपने जीवन का भार खुद ही उठाना पड़ता है. मगर जब तक पिता होते हैं, वह भले कुछ न करते हों, संतानें तमाम तरह के दायित्व बोझों से मुक्त रहती हैं. उनमें एक बेफिक्री रहती है. पिता मनोवैज्ञानिक रूप से संतानों की जिम्मेदारी उठाते हैं.

अकसर माना जाता है और किसी हद तक यह सही भी होता है जिन बच्चों की सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उनमें एक खास किस्म की आवरगी, एक खास किस्म का बेफिक्रापन और एक खास किस्म की आपराधिक प्रवृत्ति पैदा हो जाती है. दरअसल ऐसे बच्चों की समाज के लोग ज्यादा परवाह नहीं करते, उन्हें बहुत प्यार और इज्जत नहीं देते, जिस कारण ऐसे बच्चे भी समाज की परवाह नहीं करते, उसकी ज्यादा इज्जत नहीं करते और धीरे धीरे उनके माथे पर किसी न किसी असामाजिक श्रेणी का ठप्पा लग जाता है. समृद्धि का एक आयाम मनोविज्ञान भी होता है, जब पिता होते हैं तो बच्चे खासकर लड़के मनोवैज्ञानिक रूप से खुद को जिंदगी के बोझ से लदा-फंदा नहीं पाते. उन्हें लगता है उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिए पिता तो अभी मौजूद ही हैं. फिर चाहे भले पिता कुछ भी कर सकने की स्थिति में न हों लेकिन उनका होना ही बेटों के लिए एक बड़ा संबल होता है.

शास्त्रों में कहा गया है कि माता और पिता दोनो ही संतान के पहले गुरु होते हैं, यह सच भी है. लेकिन माता और पिता अपनी संतान को एक ही पाठ नहीं पढ़ाते, वे दोनो उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए एक ही समय में अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं. मां जहां बच्चों को पारिवारिक मूल्यों, मान मर्यादा, उठने बैठने, बोलने के तौर तरीके सिखाती है, वहीं पिता बच्चों को घर से बाहर जिंदगी से कैसे जूझें, कैसे टकराएं, कैसे उससे गले मिलें इस सबका पाठ पढ़ाते हैं. इसलिए माता पिता दोनो ही बच्चे के सबसे पहले गुरु होते हैं और दोनो ही उन्हें जिंदगी के दो अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं.

Father’s day 2023: पिताजी- जब नीला को ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

विनीता दीदी ने डाक्टर के कहे अनुसार मम्मी के लिए पतली सी खिचड़ी बनाई, चाय बनाई, भैया के लिए खाना बनाया और पैक कर के मोहन भैया को वापस अस्पताल भेज दिया. पिताजी घर पर ही बैठे रहे. विनीता दीदी ने पूरे घर के लिए खाना बनाया और खिलाया. मैं घर के काम में उन का हाथ बंटाती रही.

कालेज जाने का मन नहीं किया. एक बार पिताजी से डर भी लगा कि जरूर डांटेंगे कि कालेज क्यों नहीं गई. छोटी बहन पूर्वी तो स्कूल चली गई थी. पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी, उन के बिना बोले ही मैं ने दीदी को कहा, ‘‘आज मेरा मन कालेज जाने का नहीं है. आप मुझे कुछ मत कहना,’’ कहते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. दीदी ने मुझे हैरानगी से देखा पर पिताजी की तरफ नजर पड़ते ही वे समझ गईं कि मैं क्यों ऐसा बोल रही हूं. पिताजी भी कुछ नहीं बोले.

स्कूल से लौट कर पूर्वी को मम्मी के अस्पताल दाखिल होने का पता चला तो वह रोने लगी. मेरा भी मन कर रहा था कि उस के साथ रोने लगूं, पर यह सोच कर आंसू पी गई कि पिताजी डांटेंगे कि क्या तुम सब पागल हो गए हो जो रो रहे हो. बीमार ही तो हुई है, एकदो दिन में ठीक हो जाएगी.

मम्मी कभी इतनी बीमार तो पड़ी ही नहीं थीं कि उन्हें अस्पताल जाना पड़ता. पिताजी अपने कमरे में किताब पढ़तेपढ़ते दोपहर को सो गए, फिर शाम को पार्क में सैर करने निकल गए. पंकज भैया की प्राइवेट नौकरी थी इसलिए आफिस में खबर करनी थी. मोहन भैया की सरकारी नौकरी थी. सो उन्होंने फोन कर के आफिस में बता दिया था.

विनीता दीदी भी आफिस नहीं गईं. उन्होंने भी फोन कर दिया था. पिताजी ने तो भैया के कहने से कब से काम करना छोड़ दिया था. विनीता दीदी मुझे रात की रसोई का काम समझा कर मम्मी के पास अस्पताल चली गईं.

अब घर पर मैं, पिताजी और पूर्वी थे. पंकज भैया भी आफिस से सीधे अस्पताल चले गए. बड़े भैया जगदीश और भाभी तो अलग ही थे. वे हम लोगों से कम ही वास्ता रखते थे, ऐसे में उन्हें कोई काम कहा ही नहीं जा सकता था. पापा बोलते थे कि जगदीश जोरू का गुलाम हो गया है, वह किसी काम का नहीं अब.

दीदी कभीकभी पिताजी को सुना दिया करती थीं कि अगर पति अपनी पत्नी का हर कहना मानता है तो इस में हर्ज ही क्या है? इस पर पिताजी कहते, ‘ऐसा आदमी कमजोर होता है. मैं उसे मर्द नहीं मानता.’ वैसे भी बड़े भैया के बदले हुए स्वार्थभाव को देख कर उन का होना न होना एक बराबर ही था.

मैं ने खाना बनाया, पूर्वी मेरी सहायता करती रही. पिताजी पार्क से आ कर चुपचाप कमरे में बैठे किताब पढ़ते रहे. कुछ नहीं बोले. शाम की चाय के साथ क्या खाएंगे, इस के जवाब में उन्होंने कोई मांग नहीं की.

भैया के आते ही पिताजी बिना कुछ बोले भैया के सामने बैठ गए. भैया ने बताया कि डाक्टर ने चैकअप किया है उस की परसों रिपोर्ट आएगी, तभी पता चल पाएगा कि असल बीमारी क्या है. यानी कि कम से कम 2 दिन तो और मम्मी को अस्पताल में रहना ही होगा. मेरी हवाइयां उड़ने लगीं. पंकज मेरी सूरत भांप गया, बोला, ‘‘तू क्यों घबरा रही है. वहां मम्मी को अच्छी तरह रखा हुआ है. डाक्टर जानपहचान की मिल गई थीं. उन्होंने एक नर्स को खासतौर पर मम्मी की तबीयत देखने के लिए हिदायत दे दी है. अलग से कमरा भी दिलवा दिया है.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर आश्वासन की लकीरें देखीं पर फिर तुरंत गायब होते भी देखीं. एक?दो दिन बीते. पता चला मम्मी को ‘यूरिन इन्फेक्शन’ हो गया है. डाक्टर ने कहा कि पूरा उपचार करना होगा, एक सप्ताह तो लगेगा ही. पूरे घर का रुटीन ही गड़बड़ा गया. कौन अस्पताल भाग रहा है, कौन मम्मी के पास बैठ रहा है, कौन रात को मम्मी के पास रहेगा, कौन घर संभालेगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जिस को जो काम दिख जाता वह कर लेता था.

जो मोहन भैया कभी एक गिलास पानी उठा कर नहीं पीते थे वे सुबहसुबह मम्मी के लिए चाय बना कर थर्मस में डाल कर भागते दिखते. पूर्वी को किचन की एबीसीडी नहीं पता थी मगर वह बैठ कर सब्जी काट रही होती, कभी दाल चढ़ा रही होती, कभी दूध गरम कर रही होती.

पिताजी का तो सारा रुटीन ही बदल गया था. वे सुबह उठते, सैर कर के आते तो सब के लिए चाय बना देते. फिर बिना चिल्लाए सब को उठाते और बिना नाश्ते की मांग किए ही अस्पताल चले जाते. एक बार तो अच्छा लगा कि पिताजी मम्मी के पास जा रहे हैं पर फिर यह सोच कर डर लगा कि कहीं अस्पताल में जा कर भी तो मम्मी को डांटते नहीं हैं कि तू दवा क्यों नहीं पी रही, तू उठ कर बैठने की कोशिश क्यों नहीं करती. तू अपने आप हिला कर ताकि जल्दी ठीक हो. सौ सवाल थे जेहन में पर जवाब एक का भी नहीं मिल पाता था. मुझे कभीकभी यह भी समझ में नहीं आता था कि मैं मम्मी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हूं? क्यों लगता है कि पिताजी उन्हें डांटें नहीं, उन्हें परेशान न करें. मैं मन ही मन पिताजी से नाराज हूं या आतंकित हूं, यह भी समझ में नहीं आता था.

मैं तो पूरी तरह घरेलू महिला ही बन गई थी. पूरे घर की सफाई, कपड़े और रसोई का काम. रात अस्पताल में रह कर दीदी सुबह लौटतीं तो उन के आने से पहले अधिकतर काम मैं निबटा चुकी होती थी. वे भी मुझे देख कर हैरान होतीं. दीदी रात की जगी होतीं तो नाश्ता करते ही बिस्तर पर सो जातीं. थोड़ा काम करवा पातीं कि फिर से उन के अस्पताल जाने का वक्त हो जाता.

दोनों भाई बारीबारी से छुट्टी ले रहे थे. एकदो बार तो यों भी हुआ कि पिताजी रात को करवटें बदलते रहे और उन की नींद सुबह खुली ही नहीं. वे भी 6 बजे हमारे साथ जागे. मुझे यही लगा कि पिताजी को आदत है हर समय मम्मी को डांटते रहने की. अब मम्मी सामने नहीं हैं तो परेशान हो रहे हैं कि किसे डांटूं. हमें डांटतेडांटते भी चुप हो जाते.

उस दिन शाम को पिताजी घर लौटे तो बोले, ‘‘नीला, कितने दिन हो गए तेरी मां को अस्पताल गए हुए?’’ मैं ने बिना उन्हें देखे चाय देते हुए जवाब दिया, ‘‘10 दिन तो हो ही गए हैं.’’

पिताजी बोले, ‘‘तेरा मन नहीं किया अपनी मां से मिलने को?’’

मैं इतने दिनों से मम्मी की कमी महसूस कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. पिताजी की इस बात से मेरे मन के भीतर कुछ उबाल सा उठने लगा. इस से पहले कि मैं कोई जवाब देती, पिताजी सपाट शब्दों में फिर बोले, ‘‘तेरी मां तुझे याद कर रही थी.’’ मैं भीतर के उबाल को रोक नहीं पाई, तेजी से रसोई में जा कर काम करतेकरते रोने लगी.

‘आप को क्या पता कि मैं कितनी परेशान हूं, हर पल मम्मी के घर आने की खबर का इंतजार कर रही हूं. वहां जाऊंगी और देखूंगी कि आप फिर मम्मी को ही हर बात के लिए दोष दे रहे हो, उन्हें डांट रहे हो तो और भी दुख होगा. वैसे भी आप को क्या फर्क पड़ता है कि मम्मी घर पर रहें या अस्पताल में.

‘अस्पताल में जा कर भी क्या करते होंगे, मुझे पता है? आप से दो शब्द तो प्रेम के बोले नहीं जाते, मम्मी को टेंशन ही देते होंगे, तभी मम्मी 10 दिन अस्पताल में रहने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हो पाई हैं. हम बच्चों से पूछिए जिन्हें हर पल मां चाहिए. भले ही वे हमारे लिए कोई काम करें या न करें. मम्मी भी मुझे याद कर रही हैं. सभी तो मम्मी से मिलने अस्पताल चले गए, एक मैं ही नहीं गई.’ मैं रोतेरोते मन ही मन हर पल पिताजी को कोसती रही.

सोचतेसोचते मेरे हाथ से दूध भरा पतीला फिसल कर जमीन पर गिर गया. पूरी रसोई दूध से नहा गई और मैं यह सोच कर घबरा गई कि पिताजी अभी जोर से डांटेंगे और चिल्लाएंगे. सोचा ही था कि पिताजी हाथ में चाय का कप लिए सामने आ गए. पूर्वी और मोहन भैया भी आ गए.

पिताजी चुपचाप खड़े रहे. मोहन भैया घबरा कर बोले, ‘‘तेरे ऊपर तो गरम दूध नहीं गिरा?’’ मैं कसमसाई, ‘‘नहीं, पर सारा दूध गिर गया.’’ पूर्वी पोछा लेने दौड़ी. पिताजी ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘‘मोहन, बाजार से और दूध ले आओ,’’ और वापस अपने कमरे में चले गए. मैं पिताजी की पीठ ही देखती रह गई. मोहन भैया भी शांति से बोले, ‘‘तू अपना ध्यान रखना, कहीं जला न बैठना, मैं और दूध ले आता हूं.’’ पता नहीं क्यों फिर मम्मी की याद आ गई और मैं रोने लगी.

अगले दिन विनीता दीदी ने भी कहा कि आज रात तू मम्मी के पास रहना, मम्मी याद कर रही थीं. वैसे भी मेरी रात की नींद पूरी नहीं हो पा रही, कहीं मैं भी बीमार न हो जाऊं. मेरा मन भी मम्मी से मिलने का हो रहा था. मैं जानबूझ कर ज्यादा देर से जाना चाहती थी ताकि पिताजी अपने समय से निकल कर घर आ जाएं और मैं मम्मी के गले लग कर खूब रो सकूं. सब दिनों की कसर पूरी हो जाए.

मैं अस्पताल के आंगन में बिना वजह आधा घंटा बरबाद कर के मम्मी के स्पेशल वार्ड में पहुंची कि अब तो पिताजी निकल ही गए होंगे, पर जैसे ही अंदर जाने लगी पिताजी की आवाज सुनाई दी तो मेरे कदम वहीं रुक गए.

‘‘वीना, तू कह तो रही है मुझे जाने के लिए, लेकिन मेरा मन नहीं मानता कि तुझे अकेला छोड़ कर जाऊं. तेरे बिना मुझे घर काटने को दौड़ता है. मुझे तेरे बिना जीने की आदत नहीं है,’’ पिताजी का स्वर रोंआसा था.

‘‘आप तो इतने मजबूत दिल के हो, फिर क्यों रो रहे हो?’’

‘‘हां, हूं मजबूत दिल का, दुनिया के सामने अपनी कमजोरी दिखा नहीं सकता, मर्द हूं न, लेकिन मेरा दिल जानता है कि पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है. तू जल्दी से ठीक हो जा, अब बरदाश्त नहीं हो रहा मुझे से,’’ पिताजी बच्चों की तरह फफक रहे थे.

‘‘आप ऐसे रोएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा. जाइए न. बच्चे भी तो घर पर अकेले होंगे,’’ मम्मी का स्वर भी रोंआसा था.

‘‘तू हाथ मत छुड़ा. अगर अस्पताल वाले मुझे इजाजत देते रात भर यहां रहने की तो दिनरात तेरी सेवा कर के तुझे साथ ले कर ही घर जाता. बच्चे भी तुझ पर गए हैं. मुझ से बोलते नहीं, पर सब तेरे घर आने का ही इंतजार कर रहे हैं. कोई अब शोर नहीं मचाता, न ही कोई टीवी देखता है,’’ पिताजी के शब्द आंसुओं में फिसलने लगे थे. मम्मी भी उसी में पिघल रही थीं.

आंसुओं से मेरी भी आंखें धुंधला गई थीं. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पिताजी के पत्थर दिल के पीछे प्रेम की अमृतधारा का इतना बड़ा झरना बह रहा है, यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाई. मैं ने तो अपनी मम्मीपापा को एकसाथ बिस्तर पर हाथ में हाथ डाले बैठे नहीं देखा था लेकिन आज जो मेरे कानों ने मुझे नजारा दिखाया वह मेरी आंखें भी देखना चाह रही थीं. प्यार से लबालब भरे पिताजी की इस सूरत को देखने के लिए मैं तेजी से वार्ड में प्रवेश कर गई.

मेरे सामने आते ही पिताजी ने मम्मी के हाथ से अपना हाथ तेजी से हटा लिया. मैं एकदम मम्मी के गले लग कर जोर से रो पड़ी. मम्मी भी रो पड़ी थीं, ‘‘पागल है, रो क्यों रही है? मैं तो एकदो दिन में आ रही हूं.’’

वे नहीं जानती थीं कि मेरे इन आंसुओं में पिताजी की ओर से मेरा हर रोष धुल गया था. मैं ने पिताजी को कनखियों से देखा. पिताजी का चेहरा आंसुओं से खाली था पर अब मुझे वहां पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी दिख रहे थे, जो हमसब को खासतौर पर मम्मी को, बहुतबहुत प्यार करते थे.

Father’s Day 2023: अंतराल

25 साल बाद जरमनी से भेजा सोफिया का पत्र मिला तो पंकज आश्चर्य से भर गए. पत्र उन के गांव के डाकखाने से रीडाइरेक्ट हो कर आया था. जरमन भाषा में लिखे पत्र को उन्होंने कई बार पढ़ा. लिखा था, ‘भारतीय इतिहास पर मेरे शोध पत्रों को पढ़ कर, मेरी बेटी जूली इतना प्रभावित हुई है कि भारत आ कर वह उन सब स्थानों को देखना चाहती है जिन का शोध पत्रों में वर्णन आया है, और चाहती है कि मैं भी उस के साथ भारत चलूं.’

‘तुम कहां हो? कैसे हो? यह वर्षों बीत जाने के बाद कुछ पता नहीं. भारत से लौट कर आई तो फिर कभी हम दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, इसलिए तुम्हारे गांव के पते पर यह सोच कर पत्र लिख रही हूं कि शायद तुम्हारे पास तक पहुंच जाए. पत्र मिल जाए तो सूचित करना, जिस से भारत भ्रमण का ऐसा कार्यक्रम बनाया जा सके जिस में तुम्हारा परिवार भी साथ हो. अपने मम्मीपापा, पत्नी और बच्चों के बारे में, जो अब मेरी बेटी जूली जैसे ही बडे़ हो गए होंगे, लिखना और हो सके तो सब का फोटो भी भेजना ताकि हम जब वहां पहुंचें तो दूर से ही उन्हें पहचान सकें.’

पत्नी और बेटा अभिषेक दोनों ही उस समय कालिज गए हुए थे. पत्नी हिंदी की प्रोफेसर है और बेटा एम.बी.ए. फाइनल का स्टूडेंट है. शनिवार होने के कारण पंकज आज बैंक से जल्दी घर आ गए थे. इसलिए मन में आया कि क्यों न सोफिया को आज ही पत्र लिख दिया जाए.

पंकज ने सोफिया को जब पत्र लिखना शुरू किया तो उस के साथ की पुरानी यादें किसी चलचित्र की तरह उन के मस्तिष्क में उभरने लगीं.

तब वह मुंबई के एक बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. अभी उन की शादी नहीं हुई थी इसलिए वह एक होस्टल में रह रहे थे.

सोफिया से उन की मुलाकात एलीफेंटा जाते हुए जहाज पर हुई थी. वह भारत में पुरातत्त्व महत्त्व के स्थानों पर भ्रमण के लिए आई थी और उन के होस्टल के पास ही होटल गेलार्ड में ठहरी थी. सोफिया को हिंदी का ज्ञान बिलकुल नहीं था और अंगरेजी भी टूटीफूटी ही आती थी. उन के साथ रहने से उस दिन उस की भाषा की समस्या हल हो गई तो वह जब भी ऐतिहासिक स्थानों को घूमने के लिए जाती, उन से भी चलने का आग्रह करती.

सोफिया को भारत के ऐतिहासिक स्थानों के बारे में अच्छी जानकारी थी. उन से संबंधित काफी साहित्य भी वह अपने साथ लिए रहती थी, इसलिए उस के साथ रहने पर चर्चाओं में उन को आनंद तो आता ही था साथ ही जरमन भाषा सीखने में भी उन्हें उस से काफी मदद मिलती.

साथसाथ रहने से उन दोनों के बीच मित्रता कुछ ज्यादा बढ़ने लगी. एक दिन सोफिया ने अचानक उन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख उन्हें चौंका दिया, और जब वह कुछ उत्तर नहीं दे पाए तो मुसकराते हुए कहने लगी, ‘जल्दी नहीं है, सोच कर बतलाना, अभी तो मुझे मुंबई में कई दिनों तक रहना है.’

यह सच है कि सोफिया के साथ रहते हुए वह उस के सौंदर्य और प्रतिभा के प्रति अपने मन में तीव्र आकर्षण का अनुभव करते थे पर विवाह की बात उन के दिमाग में कहीं दूर तक भी नहीं थी, ऐसा शायद इसलिए भी कि सोफिया और अपने परिवार के स्तर के अंतर को वह अच्छी तरह समझते थे. कहां सोफिया एक अमीर मांबाप की बेटी, जो भारत घूमने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रही थी और कहां सामान्य परिवार के वह जो एक बैंक में अदने से अधिकारी थे. प्रेम के मामले में सदैव दिल की ही जीत होती है, इसलिए सबकुछ जानते और समझते हुए भी वह अपने को सोफिया से प्यार का इजहार करने से नहीं रोक पाए थे.

उन दिनों मां ने अपने एक पत्र में लिखा था कि आजकल तुम्हारे विवाह के लिए बहुत से लड़की वालों के पत्र आ रहे हैं, यदि छुट्टी ले कर तुम 2-4 दिन के लिए घर आ जाओ तो फैसला करने में आसानी रहेगी. तब उन्होंने सोचा था कि जब घर पहुंच कर मां को बतलाएंगे कि मुंबई में ही उन्होंने एक लड़की सोफिया को पसंद कर लिया है तो मां पर जो गुजरेगी और घर में जो भूचाल उठेगा, क्या वह उसे शांत कर पाएंगे पर कुछ न बतलाने पर समस्या क्या और भी जटिल नहीं हो जाएगी…

तब छोटी बहन चारू ने फोन किया था, ‘भैया, सच कह रही हूं, कुछ लड़कियों की फोटो तो बहुत सुंदर हैं. मां तो उन्हें देख कर फूली नहीं समातीं. मां ने कुछ से तो यह भी कह दिया कि मुझे दानदहेज की दरकार नहीं है, बस, घरपरिवार अच्छा हो और लड़की उन के बेटे को पसंद आ जाए…’

बहन की इन चुहल भरी बातों को सुन कर जब उन्होंने कहा कि चल, अब रहने दे, फोन के बिल की भी तो कुछ चिंता कर, तो चहकते हुए कहने लगी थी, ‘उस के लिए तो मम्मीपापा और आप हैं न.’

मां को अपने आने की सूचना दी तो कहने लगीं, ‘जिन लोगों के प्रस्ताव यहां सब को अच्छे लग रहे हैं उन्हें तुम्हारे सामने ही बुला लेंगे, जिस से वे लोग भी तुम से मिल कर अपना मन बना लें और फिर हमें आगे बढ़ने में सुविधा रहे.’

‘नहीं मां, अभी किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. अब घर तो आ ही रहा हूं इसलिए जो भी करना होगा वहीं आ कर निश्चित करेंगे…’

‘जैसी तेरी मरजी, पर आ रहा है तो कुछ निर्णय कर के ही जाना. लड़की वालों का स्वागत करतेकरते मैं परेशान हो गई हूं.’

घर पहुंचा तो चारू चहकती हुई लिफाफों का पुलिंदा उठा लाई थी, ‘देखो भैया, ये इतने प्रपोजल तो मैं ने ही रिजेक्ट कर दिए हैं…शेष को देख कर निर्णय कर लो…किनकिन से आगे बात करनी है.’

उन्होंने उन में कोई रुचि नहीं दिखाई, तो रूठने के अंदाज में चारू बोली, ‘क्या भैया, आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते. मैं ने कितनी मेहनत से इन्हें छांट कर अलग किया है, और आप हैं कि इस ओर देख ही नहीं रहे. ज्यादा भाव खाने की कोशिश न करो, जल्दी देखो, मुझे और भी काम करने हैं.’

जब वह उन के पीछे ही पड़ गई तो वह यह कहते उठ गए थे कि चलो, पहले स्नान कर भोजन कर लें…मां भी फ्री हो जाएंगी…फिर सब आराम से बैठ कर देखेंगे. मां ने भी उन का समर्थन करते हुए चारू को डपट दिया, ‘भाई ठीक ही तो कह रहा है, छोड़ो अभी इन सब को, आया नहीं कि चिट्ठियों को ले कर बैठ गई.’

दोपहर में चारू तो अपनी सहेली के साथ बाजार चली गई, मां को फुरसत में देख, वह उन के पास जा कर बैठ गए और बोले, ‘मां, आप से कुछ बात करनी है.’

‘ऐसी कौन सी बात है जिसे मां से कहने में तू इतना परेशान दिख रहा है?’

‘मां…दरअसल, बात यह है कि मुझे मुंबई में एक लड़की पसंद आ गई है.’

मां कुछ चौंकीं तो पर खुश होते हुए बोलीं, ‘अरे, तो अब तक क्यों नहीं बताया? कैसी लगती है वह? बहुत सुंदर होगी. फोटो लाया है? क्या नाम है? उस के मांबाप भी क्या मुंबई में ही रहते हैं? क्या करते हैं वे?’

मां की उत्सुकता और उन के सवालों को सुन कर वह तब मौन हो गए थे. उन्हें इस तरह खामोश देख कर मां बोली थीं, ‘अरे, चुप क्यों हो गया? बतला तो, कौन है, कैसी है?’

‘मां, वह एक जरमन लड़की है, जो रिसर्च के सिलसिले में मुंबई आई हुई है और मेरे होस्टल के पास ही होटल में रहती है. हमारी मुलाकात अचानक ही एक यात्रा के दौरान हो गई थी. मां, कहने को तो सोफिया जरमन है पर देखने में उस का नाकनक्श सब भारतीयों जैसा ही है.’

अपने बेटे की बात सुन कर मां एकदम सकते में आ गई थीं. कहने लगीं, ‘बेटा, तुम्हारी यह पसंद मेरी समझ में नहीं आई. तुम्हें अपने परिवार में सब संस्कार भारतीय ही मिले पर यह कैसी बात कि शादी एक विदेशी लड़की से करना चाहते हो? क्या मुंबई जा कर लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति को भूल कर महानगर के मायाजाल में इतनी जल्दी खो जाते हैं कि जिस लड़की से शादी करनी है उस के घरपरिवार के बारे में जानने की जरूरत भी महसूस नहीं करते? क्या अपने देश में सुंदर लड़कियों की कोई कमी है, जो एक विदेशी लड़की को हमारे घर की बहू बनाना चाहते हो?’

फिर यह कहते हुए मां उठ कर वहां से चली गईं कि एक विदेशी बहू को वह स्वीकार नहीं कर पाएंगी.

शाम को चाय पर फिर एकसाथ बैठे तो मां ने समझाते हुए बात शुरू की, ‘देखो बेटा, शादीविवाह के फैसले भावावेश में लेना ठीक नहीं होता. तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि जिस परिवेश में तुम पढ़लिख कर बड़े हुए और तुम्हारे जो आचारविचार हैं, क्या कोई यूरोपीय संस्कृति में पलीबढ़ी लड़की उन के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी? माना कि तुम्हें मुंबई में रहना है और वहां यह सब चलता है पर हमें तो यहां समाज के बीच ही रहना है. जब हमारे बारे में लोग तरहतरह की बातें करेंगे तब हमारा तो लोगों के बीच उठनाबैठना ही मुश्किल हो जाएगा. फिर चारू की शादी भी परेशानी का सबब बन जाएगी.’

‘मां, आप चारू की शादी की चिंता न करें,’ वह बोले थे, ‘वह मेरी जिम्मेदारी है और मैं ही उसे पूरी करूंगा. लोगों का क्या? वे तो सभी के बारे में कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं. रही बात सोफिया के विदेशी होने की तो वह एक समझदार और सुलझेविचारों वाली लड़की है. वह जल्दी ही अपने को हमारे परिवार के अनुरूप ढाल लेगी. मां, आप एक बार उसे देख तो लें, वह आप को भी अच्छी लगेगी.’

बेटे की बातों से मां भड़कते हुए बोलीं, ‘तेरे ऊपर तो उस विदेशी लड़की का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि तुझ से कुछ और कहना ही अब बेकार है. तुझे जो अच्छा लगे सो कर, मैं बीच में नहीं बोलूंगी.’

पापा के आफिस से लौटने पर जब उन के कानों तक सब बातें पहुंचीं, तो पहले वह भी विचलित हुए थे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘बेटे, मुझे तुम्हारी समझदारी पर पूरा विश्वास है कि तुम अपना तथा परिवार का सब तरह से भला सोच कर ही कोई निर्णय करोगे. यदि तुम्हें लगता है कि सोफिया के साथ विवाह कर के ही तुम सुखी रह सकते हो, तो हम आपत्ति नहीं करेंगे. हां, इतना जरूर है कि विवाह से पहले एक बार हम सोफिया और उस के मातापिता से मिलना अवश्य चाहेंगे.’

पापा की बातों से उन के मन को तब बहुत राहत मिली थी पर वह यह समझ नहीं पाए थे कि उन की बातों से आहत हुई मां को वह कैसे समझाएं?

उन के मुंबई लौटने पर जब सोफिया ने उन से घर वालों की राय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था, ‘मैं ने तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने यही कहा यदि तुम खुश हो तो उन की भी सहमति है और तुम्हारे मम्मीपापा के भारत आने पर उन से मिलने वे मुंबई आएंगे.’

सोफिया से यह सब कहते हुए उन्हें अचानक ऐसा लगा था कि सोफिया के साथ विवाह का निर्णय कर कहीं उन्होंने कोई गलत कदम तो नहीं उठा लिया? लेकिन सोफिया के सौंदर्य और प्यार से अभिभूत हो जल्दी ही उन्होंने अपने इस विचार को झटक दिया था.

उन के मुंबई लौटने के बाद घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. मां और चारू दोनों ही अब घर से बाहर कम ही निकलतीं. उन्हें लगता कि यदि किसी ने बेटे की शादी का जिक्र छेड़ दिया तो वे उसे  क्या उत्तर देंगी?

पापा यह कह कर मां को समझाते, ‘मैं तुम्हारी मनोस्थिति को समझ रहा हूं, पर जरा सोचो कि मेरे अधिक जोर देने पर यदि वह सोफिया की जगह किसी और लड़की से विवाह के लिए सहमत हो भी जाता है और बाद में अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहता है तो न वह ही सुखी रह पाएगा और न हम सभी. इसलिए विवाह का फैसला उस के स्वयं के विवेक पर ही छोड़ देना हम सब के हित में है.’

कुछ दिन बाद उन के फोन करने पर पापा, मां और चारू को ले कर मुंबई आ गए थे क्योंकि सोफिया के मम्मीपापा भी भारत आ गए थे.

मुंबई पहुंचने पर निश्चित हुआ कि अगले दिन लंच सब लोग एक ही होटल में करेंगे और दोनों परिवार वहीं एकदूसरे से मिल कर विवाह की संक्षिप्त रूपरेखा तय कर लेंगे. दोनों परिवार जब मिले तो सामान्य शिष्टाचार के बाद पापा ने ही बात शुरू की थी, ‘आप को मालूम ही है कि आप की बेटी और मेरा बेटा एकदूसरे को पसंद करते हैं. हम लोगों ने उन की पसंद को अपनी सहमति दे दी है. इसलिए आप अपनी सुविधा से कोई तारीख निश्चित कर लें जिस से दोनों विवाह सूत्र में बंध सकें.

पापा के इस सुझाव के उत्तर में सोफिया के पापा ने कहा था, ‘पर इस के लिए मेरी एक शर्त है कि शादी के बाद आप के बेटे को हमारे साथ जरमनी में ही रहना होगा और इन की जो संतान होगी वह भी जरमन नागरिक ही कहलाएगी. आप अपने बेटे से पूछ लें, उसे मेरी शर्त स्वीकार होने पर ही इस शादी के लिए मेरी अनुमति हो सकेगी.’

उन की शर्त सुन कर सभी चौंक गए थे. सोफिया को भी अपने पापा की यह शर्त अच्छी नहीं लगी थी. उधर वह सोच रहे थे कि नहीं, इस शर्त के लिए वह हरगिज सहमत नहीं हो सकते. वह क्या इतने खुदगर्ज हैं जो अपनी खुशी के लिए अपने मांबाप और बहन को छोड़ कर विदेश में रहने चले जाएं? पढ़ते समय वह सोचा करते थे कि जिस तरह मम्मीपापा ने उन के जीवन को संवारने में कभी अपनी सुखसुविधा की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी तरह वह भी उन के जीवन के सांध्यकाल को सुखमय बनाने में कभी अपने सुखों को बीच में नहीं आने देंगे.

उन्होंने दूर खड़ी उदास सोफिया से कहा, ‘तुम्हारे पापा की शर्त के अनुसार मुझे अपने परिवार और देश को छोड़ कर जाना कतई स्वीकार नहीं है, इसलिए अब आज से हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं, पर मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’

दरवाजे की घंटी बजी तो अपने अतीत में खोए पंकज अचानक वर्तमान में लौट आए. देखा, पोस्टमैन था. पत्नी की कुछ पुस्तकें डाक से आई थीं. पुस्तकें प्राप्त कर, अधूरे पत्र को जल्द पूरा किया और पोस्ट करने चल दिए.

कुछ दिनों बाद, देर रात्रि में टेलीफोन की घंटी बजी. उठाया तो दूसरी ओर से सोफिया की आवाज थी. कह रही थी कि पत्र मिलने पर बहुत खुशी हुई. अगले मंडे को बेटी के साथ वह मुंबई पहुंच रही है. उसी पुराने होटल में कमरा बुक करा लिया है, पर व्यस्तता के कारण केवल एक सप्ताह का समय ही निकाल पाई है. उम्मीद है आप का परिवार भी घूमने में हमारे साथ रहेगा.

टेलीफोन पर हुई पूरी बात, सुबह पत्नी और बेटे को बतलाई. वे दोनों भी घूमने के लिए सहमत हो गए. सोफिया के साथ घूमते हुए पत्नी को भी अच्छा लगा. अभिषेक और जूली ने भी बहुत मौजमस्ती की. अंतिम दिन मुंबई घूमने का प्रोग्राम था. पर सब लोगों ने जब कोई रुचि नहीं दिखाई तो अभिषेक व जूली ने मिल कर ही प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि में दोनों देर से लौटे. सोते समय सोफिया ने अपनी बेटी से पूछा, ‘‘आज अभिषेक के साथ तुम दिन भर, अकेले ही घूमती रहीं. तुम्हारे बीच बहुत सी बातें हुई होंगी? क्या सोचती हो तुम उस के बारे में? कैसा लड़का है वह?’’

‘‘मम्मी, अभि सचमुच बहुत अच्छा और होशियार है. एम.बी.ए. के पिछले सत्र में उस ने टाप किया है. आगे बढ़ने की उस में बहुत लगन है.’’

‘‘इतनी प्रशंसा? कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया?’’

‘‘हां, मम्मी, आप का अनुमान सही है.’’

‘‘और वह?’’

‘‘वह भी.’’

‘‘तो क्या अभि के पापा से तुम दोनों के विवाह के बारे में बात करूं?’’

‘‘हां, मम्मी, अभि भी ऐसा ही करने को कह रहा था.’’

‘‘पर जूली, तुम्हारे पापा को तो ऐसा लड़का पसंद है, जो उन के साथ रह कर बिजनेस में उन की मदद कर सके. क्या अभि इस के लिए तैयार होगा.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो आगे बढ़ने की उस की इच्छा के अनुकूल ही है. फिर वह क्यों मना करने लगा?’’

‘‘भारत छोड़ देने पर, क्या उस के मम्मीपापा अकेले नहीं रह जाएंगे?’’

‘‘तो क्या हुआ? भारत में इतने वृद्धाश्रम किस लिए हैं?’’

‘‘क्या इस बारे में तुम ने अभि के विचारों को जानने का भी प्रयत्न किया?’’

‘‘हां, वह इस के लिए खुशी से तैयार है. कह भी रहा था कि यहां भारत में रह कर तो उस की तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकती. लेकिन मम्मी, अभि की इस बात पर आप इतना संदेह क्यों कर रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

‘‘नहीं मम्मी, इतना सब पूछने का कुछ तो कारण होगा? बतलाइए.’’

‘‘इसलिए कि बिलकुल ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में अभि के पापा ने भारत छोड़ने से मना कर दिया था.’’

‘‘पर तब आप ने उन्हें समझाया नहीं?’’

‘‘नहीं, शायद इसलिए कि मुझे भी उन का मना करना गलत नहीं लगा था.’’

‘‘ओह मम्मी, आप और अभि के पापा दोनों की बातें और सोच, मेरी समझ के तो बाहर की हैं. मैं तो सो रही हूं. सुबह जल्दी उठना है. अभि कह रहा था, वह सुबह मिलने आएगा. उसे आप से भी कुछ बातें करनी हैं.’’

बेटी की सोच और उस की बातों के अंदाज को देख, सोफिया को लग रहा था कि पीढ़ी के ‘अंतराल’ ने तो हवा का रुख ही बदल दिया है.

Father’s day 2023: पिता और पुत्र के रिश्तों में पनपती दोस्ती

‘‘हाय डैड, क्या हो रहा है? यू आर एंजौइंग लाइफ, गुड. एनीवे डैड, आज मैं फ्रैंड्स के साथ पार्टी कर रहा हूं. रात को देर हो जाएगी. आई होप आप मौम को कन्विंस कर लेंगे,’’ हाथ हिलाता सन्नी घर से निकल गया.

‘‘डौंट वरी सन, आई विल मैनेज ऐवरीथिंग, यू हैव फन,’’ पीछे से डैड ने बेटे से कहा. आज पितापुत्र के रिश्ते के बीच कुछ ऐसा ही खुलापन आ गया है. किसी जमाने में उन के बीच डर की जो अभेद दीवार होती थी वह समय के साथ गिर गई है और उस की जगह ले ली है एक सहजता ने, दोस्ताना व्यवहार ने. पहले मां अकसर पितापुत्र के बीच की कड़ी होती थीं और उन की बातें एकदूसरे तक पहुंचाती थीं, पर अब उन दोनों के बीच संवाद बहुत स्वाभाविक हो गया है. देखा जाए तो वे दोनों अब एक फ्रैंडली रिलेशनशिप मैंटेन करने लगे हैं. 3-4 दशकों पहले नजर डालें तो पता चलता है कि पिता की भूमिका किसी तानाशाह से कम नहीं होती थी. पीढि़यों से ऐसा ही होता चला आ रहा था. तब पिता का हर शब्द सर्वोपरि होता था और उस की बात टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी. वह अपने पुत्र की इच्छाअनिच्छा से बेखबर अपनी उम्मीदें और सपने उस को धरोहर की तरह सौंपता था. पिता का सामंतवादी एटीट्यूड कभी बेटे को उस के नजदीक आने ही नहीं देता था. एक डरासहमा सा बचपन जीने के बाद जब बेटा बड़ा होता था तो विद्रोही तेवर अपना लेता था और उस की बगावत मुखर हो जाती थी.

असल में पिता सदा एक हौवा बन बेटे के अधिकारों को छीनता रहा. प्रतिक्रिया करने का उफान मन में उबलने के बावजूद पुत्र अंदर ही अंदर घुटता रहा. जब समय ने करवट बदली और उस की प्रतिक्रिया विरोध के रूप में सामने आई तो पिता सजग हुआ कि कहीं बागडोर और सत्ता बनाए रखने का लालच उन के रिश्ते के बीच ऐसी खाई न बना दे जिसे पाटना ही मुश्किल हो जाए. लेकिन बदलते समय के साथ नींव पड़ी एक ऐसे नए रिश्ते की जिस में भय नहीं था, थी तो केवल स्वीकृति. इस तरह पितापुत्र के बीच दूरियों की दीवारें ढह गईं और अब आपसी संबंधों से एक सोंधी सी महक उठने लगी है, जिस ने उन के रिश्ते को दोस्ती में बदल दिया है.

पितापुत्र संबंधों में एक व्यापक परिवर्तन आया है और यह उचित व स्वस्थ है. पिता के व्यक्तित्व से सामंतवाद थोड़ा कम हुआ है. थोड़ा इसलिए क्योंकि अगर हम गांवों और कसबों में देखें तो वहां आज भी स्थितियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. बस, दमन उतना नहीं रहा है जितना पहले था. आज पिता की हिस्सेदारी है और दोतरफा बातचीत भी होती है जो उपयोगी है. मीडिया ने रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है. टैलीविजन पर प्रदर्शित विज्ञापनों ने पितापुत्री और पितापुत्र दोनों के बीच निकटता का इजाफा किया है. समाजशास्त्री श्यामा सिंह का कहना है कि आज अगर पितापुत्र में विचारों में भेद हैं तो वे सांस्कृतिक भेद हैं. अब मतभेद बहुत तीव्र गति से होते हैं. पहले पीढि़यों का परिवर्तन 20 साल का होता था पर अब वह परिवर्तन 5 साल में हो जाता है. आज के बच्चे समय से पहले मैच्योर हो जाते हैं और अपने निर्णय लेने लगते हैं. जहां पिता इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं वहां दिक्कतें आ रही हैं. पितापुत्र के रिश्ते में जो पारदर्शिता होनी चाहिए वह अब दिखने लगी है. नतीजतन बेटा अपने पिता के साथ अपनी बातें शेयर करने लगा है.

खत्म हो गई संवादहीनता

आज पितापुत्र संबंधों में जो खुलापन आया है उस से यह रिश्ता मजबूत हुआ है. मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा के अनुसार, अगर पिता अपने पुत्र के साथ एक निश्चित दूरी बना कर चलता है तो संवादहीनता उन के बीच सब से पहले कायम होती है. पहले जौइंट फैमिली होती थी और शर्म पिता से पुत्र को दूर रखती थी. बच्चे को जो भी कहना होता था, वह मां के माध्यम से पिता तक पहुंचाता था. लेकिन आज बातचीत का जो पुल उन के बीच बन गया है, उस ने इतना खुलापन भर दिया है कि पितापुत्र साथ बैठ कर डिं्रक्स भी लेने लगे हैं. आज बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के बारे में बात करते हुए सकुचाता नहीं है.

करने लगा सपने साकार

महान रूसी उपन्यासकार तुरगेनेव की बैस्ट सेलर किताब ‘फादर ऐंड सन’ पीढि़यों के संघर्ष की महागाथा है. वे लिखते हैं कि पिता हमेशा चाहता है कि पुत्र उस की परछाईं हो, उस के सपनों को पूरा करे. जाहिर है, इस उम्मीद की पूर्ति होने की चाह कभी पुत्र को आजादी नहीं देगी. पिता चाहता है कि उस के आदेशों का पालन हो और उस का पुत्र उस की छाया हो. टकराहट तभी होती है जब पिता अपने सपनों को पुत्र पर लादने की कोशिश करता है. पर आज पिता, पुत्र के सपनों को साकार करने में जुट गया है. प्रख्यात कुच्चिपुड़ी नर्तक जयराम राव कहते हैं कि जमाना बहुत बदल गया है. बच्चों की खुशी किस में है और वे क्या चाहते हैं, इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है. यही वजह है कि मैं अपने बेटे की हर बात मानता हूं. मैं अपने पिता से बहुत डरता था, पर आज समय बदल गया है. कोई बात पसंद न आने पर मेरे पिता मुझे मारते थे पर मैं अपने बेटे को मारने की बात सोच भी नहीं सकता. आज वह अपनी दिशा चुनने के लिए स्वतंत्र है. मैं उस के सपने साकार करने में उस का पूरा साथ दूंगा. बहरहाल, अब पितापुत्र के सपने, संघर्ष और सोच अलग नहीं रही है. यह मात्र भ्रम है कि आजादी पुत्र को बिगाड़ देती है. सच तो ?यह है कि यह आजादी उसे संबंधों से और मजबूती से जुड़ने और मजबूती से पिता के विश्वास को थामे रहने के काबिल बनाती है.

Father’s day 2023: पिता बदल गए हैं तो कोई हैरानी नहीं, बदलते वक्त के साथ ही था बदलना

आइंस्टीन की बिग बैंग थ्योरी को लेकर भले संदेह हो कि ब्रह्मांड निरंतर फ़ैल रहा है या नहीं.लेकिन इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि दुनिया हर पल बदल रही है.कारण कुछ भी हो.ऐसे में भले किसी की पहचान हमेशा एक सी कैसे रह सकती है.पिता नाम का,समाज का सबसे महत्वपूर्ण शख्स भी इस बदलाव से अछूता नहीं है तो इसमें किसी आश्चर्य की बात नहीं है.आज जब पिछली सदी के जैसा कुछ नहीं रहा,न खानपान,न पहनावा,शिक्षा,न रोजगार,न संपर्क के साधन तो भला पिता कैसे वैसे के वैसे ही बने रहते,जैसे बीसवीं सदी के मध्यार्ध या उत्तरार्ध में थे.पिता भी बदल गए हैं.क्योंकि अब वो घर में अकेले कमाने वाले शख्स नहीं हैं.क्योंकि अब वो अपने बच्चों से ज्यादा नहीं जानते,ज्यादा स्मार्ट भी नहीं हैं.

यही वजह है कि आज पिता घर की अकेली और निर्णायक आवाज भी नहीं हैं. आज के पिता परिवार की कई आवाजों में से एक हैं और यह भी जरूरी नहीं कि घर में उनकी  आवाज सबसे वजनदार आवाज हो.इसमें कुछ बुरा भी नहीं है और न ही इसके लिए पिताओं के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति होनी चाहिए.क्योंकि अकेली निर्णायक आवाज न घर के लिए और न ही समाज के लिए,किसी भी के लिए बहुत अच्छी नहीं होती.अकेली आवाज के हमेशा तानाशाह आवाज में बदल जाने की आशंका रहती है.

बहरहाल पहले के पिता ख़ास होने के भाव से अकड़ में रहते थे, इस कारण वह अपने बच्चों के प्रति अपने प्यार और फिक्रमंदी की भावनाएं भी सार्वजनिक तौरपर प्रदर्शित नहीं कर पाते थे.यहां तक कि पहले पिता सबके सामने अपने बच्चों को अपनी जुबान से प्यार भी नहीं कर पाते थे.वही सामाजिक दबाव, क्या कहेंगे लोग.ढाई-तीन दशक पहले जिनका बचपन गुजरा है,उन्हें मालूम है कि कैसे बचपन में ज्यादातर समय उन्हें अपने पिताओं से नकारात्मक व्यवहार ही मिलता रहा है, लेकिन आज ऐसा नहीं है.आज के पिता बच्चों के साथ किसी हद तक दोस्ताना भाव रखते हैं. आज के पिता में वह दंबगई नहीं है, जो पहले हुआ करती थी? आज के बच्चे अपने पापा  से डरते नहीं है?

क्योंकि तकनीक ने,जीवनशैली ने पारिवारिक ताकत और प्रभाव का विकेंद्रीकरण किया है.पहले की तरह सारी पारिवारिक ताकत और प्रभाव का अब कोई अकेला केंद्र नहीं रहा.इस कारण आज का पिता बदल गया है.यह बदलाव कदम कदम पर दिखता है.आज का पिता घर के काम बिल्कुल न करता या कर पाता हो, ऐसा नहीं है.आज का पिता न सिर्फ घर के कई काम बड़ी सहजता से करता है बल्कि रसोई में भी अब वह अनाड़ी नहीं है.पहले जिन कामों को हम सिर्फ घर की महिलाओं को करते देखते थे, जैसे घर की सफाई, बच्चों को उठाना, स्कूल के लिए तैयार करना, उनके लिए नाश्ता और लंच बनाना आदि, आज ये तमाम काम पिता भी सहजता से करते दिखते हैं.

क्योंकि आज की तारीख में विभिन्न कामों के साथ जुड़ी अनिवार्य लैंगिगकता खत्म हो गई है या धीरे धीरे खत्म हो रही है.हम चाहें तो इसे इस तरह कह सकते हैं कि आज के पिता बहुत कूल हैं, हर काम कर लेते हैं.कई बार तो ऐसा इसलिए भी होता है; क्योंकि पिता एकल पालक होते हैं.आज बहुत नहीं पर काफी पिता ऐसे हैं,जिन्होंने सिंगल पैरेंट के रूप में बच्चा गोद लिया हुआ है.सौतेले पिता भी आज अजूबा नहीं हैं. आज के पिता बड़ी सहजता से अपनी बेटियों के हर काम और हर तरह के संवाद का जरिया बन सकते हैं.हम आमतौर पर ऐसा होने को पश्चिमी संस्कृति का असर मान लेते हैं.लेकिन यह महज पश्चिमी संस्कृति का असर भर नहीं है,यह एक स्वाभाविक बदलाव है.जो दुनिया में हर जगह आधुनिक जीवनशैली और शिक्षा से आया है.

इसके कारण आज के पिता बच्चों के लिए ज्यादा रीचेबल हो गये हैं,बच्चे बड़ी सहजता से उन तक पहुँच रखते हैं,वह पिताओं से हर तरह की बातचीत कर लेते हैं.उनमें एक किस्म का धैर्य आया है.आज के पिता बच्चों के रोल मॉडल हैं या नहीं हैं.ज्यादातर लड़कियां अपने ब्वाॅयफ्रेंड या हसबैंड में पिता की छाया तलाशती हैं.जाहिर है आज का पिता भावनात्मक रूप से ज्यादा सम्पन्न, संयमी, मददगार और केयर करने वाला है.यहां तक कि आज के पिता ने अपने बच्चों और परिवार को अपनी आलोचना की भी भरपूर छूट दी है.नहीं दी तो परिवार द्वारा ले ली गयी है,चाहे उसे पसंद हो या न हो. यही वजह है कि आज परिवार नामक संस्था ज्यादा प्रोग्रेसिव है.

इस सबके पीछे कारण बड़े ठोस हैं.आज का पिता घर का अकेला रोजी रोटी कमाने वाला नहीं रहा.मां भी बड़े पैमाने पर ब्रेड बटर अर्नर है.बच्चे भी पहले के मुकाबले कहीं जल्दी कमाने लगते हैं. इस वजह से घर में अब पिता का पहले के जमाने की तरह का दबदबा नहीं रहा,जब वह परिवार की रोजी रोटी कमाने वाले अकेले शख्स हुआ करते थे.

यूं शुरू हुआ फादर्स डे मनाने का सिलसिला

हर साल जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है. इसका सबसे पहले विचार एक अमरीकी लड़की सोनोरा स्मार्ट डोड को साल 1909 में आया था.पहला फादर्स डे 19 जून 1910 को वाशिगंटन में मनाया गया. 1966 में अमरीका के राष्ट्रपति लिंडन बेन जॉनसन ने जून के तीसरे रविवार को हर साल फादर्स डे मनाने की औपचारिक घोषणा की. तब से यह न केवल अमरीका में नियमित रूप से मनाया जाता है बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी इसने धीरे धीरे अपना विस्तार किया है.पिता दिवस के मनाये जाने के इस औपचारिक सिलसिले के बाद से दुनिया में पिता और पितृत्व की भूमिका लगातार चर्चा होती रही है.

Father’s day 2022: Celebs से जानें उनके पिता के साथ बिताई खट्टी मीठी बातें  

हर साल Father”s Day जून महीने की तीसरे रविवार को मनाया जाता है. इसे मनाने का उद्देश्य पिता के प्रति आभार जताना है, क्योंकि एक बच्चे के पालन-पोषण में जितना जरुरी एक माँ की होती है, उतनी ही पिता की भी आवश्यकता होती है. इसलिए इस दिन को सभी बच्चे अपने हिसाब से पिता के पसंद के सामान, सरप्राइज डिनर, ट्रिप, फूल आदि देकर  सेलिब्रेट करते है.

फादर डे की शुरुआत कब और कैसे हुई इस बारें में लोगों के अलग-अलग मत है. कुछ का मानना है कि फादर्स डे 1907 में वर्जिनिया में पहली बार मनाया गया था, कुछ मानते है कि 1910 में वाशिंगटन में मनाया गया था, जबकि वर्ष 1916 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने इसे मनाने की मंजूरी दी. साल 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने इसे जून महीने की तीसरे रविवार को मनाने की आधिकारिक घोषणा की, इसके बाद से फादर्स डे को जून के तीसरे संडे को मनाया जाता है.

बच्चों के साथ पिता का सम्बन्ध बहुत ही प्यारा होता है, लेकिन आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में बच्चों को पिता के साथ बातें करने या उन्हें समझने का वक्त नहीं होता, ऐसे में ये दिन बच्चों को एक बार फिर से उनके संबंधों को ताजा करने का अच्छा विकल्प है, इसलिए आम बच्चों से लेकर सेलेब्रिटी बच्चे भी शूटिंग पर फंसे रहने की वजह से पिता और फादर्स डे को मिस कर रहे है, आइये जाने पिता से उनके सम्बन्ध, उनकी नजदीकियां, प्यार और टकरार सब कैसा है. जानते है मिलीजुली प्रतिक्रिया उनकी जुबानी.

चारु मलिक

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अभिनेत्री चारू कहती है कि मैं पूरे साल फादर्स डे और मदर्स डे मनाना चाहती हूँ. पिता बेटियों के हमेशा ही बहुत स्पेशल होते है, क्योंकि माँ के साथ बातूनी रिश्ते का इक्वेशन होता है, जबकि पिता के साथ एक अलग ही प्यारा रिश्ता होता है. ये सही है कि उनसे हम अधिक बात नहीं करते, पर उनका प्यार हमेशा किसी न किसी रूप में मिलता रहता है. मैं और मेरी जुड़वाँ बहन पारुल दोनों ही पिता के बहुत करीब है. वे भी हम दोनों के साथ एक मजबूत सम्बन्ध रखते है. मेरे पिता इन्ट्रोवर्ट है और अधिक बात नहीं करते, लेकिन जो भी बात कहते है वह हमारे लिए बहुत उपयोगी होता है. वे एक वकील है और हमेशा अपने केसेज को लेकर व्यस्त रहते है. लाइब्रेरी में बैठकर इन केसेज की स्टडी करते है. उनका शांत और धैर्यवान होना हमारे लिए बहुत ही अच्छा रहा, क्योंकि जब वे बचपन में मुझे मैथ पढाया करते थे और मैं उसमे अच्छे अंक नहीं ला पाती थी. उन्होंने मुझे गणित की बेसिक चीजों को सिखाया. मेरी माँ की मृत्यु के बाद सभी उनके बहुत करीब हो चुके है, ताकि माँ की यादों को वे कुछ हद तक कम कर सकें. अभी वे अमेरिका में पारुल के साथ रहते है. मैंने पिता से कठिन समय में शांत रहना, धैर्य न खोना आदि सीखा है. इसके अलावा मेरे पिता बहुत अच्छा खाना बनाते है और हमें हमारे पसंद का व्यंजन बनाकर खिलाते है.

नसिर खान 

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फिल्म और टीवी अभिनेता नसिर खान का अपने पिता कॉमेडियन और अभिनेता जॉनी वाकर के साथ बहुत अच्छी बोन्डिंग थी. वे कहते है कि उन्होंने मुझे कभी डांटा नहीं. वे मेरे साथ बहुत ही सौम्य स्वभाव रखते थे, लेकिन वे अपने सिद्धांतो पर हमेशा अडिग रहे. मैं परिवार का छोटा बेटा होने की वजह से उन्होंने मुझे अपना कैरियर चुनने की पूरी आज़ादी दी थी. इसके अलावा परिवार के बच्चों के किसी भी निर्णय को वे कभी नहीं लेते थे, उसकी जिम्मेदारी मेरी माँ की थी. वे स्ट्रिक्ट पिता नहीं थे. बड़े होने पर मुझे उनके व्यक्तित्व को काफी हद तक समझ में आया. वे एक शांत इंसान थे और सबके लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते थे. मेरे हिसाब से पिता का बच्चों और पत्नी से हमेशा बातचीत करते रहना चाहिए , ताकि एक दूसरे की भावनाओं को समझने का अवसर मिले.

अनुज सचदेवा 

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अभिनेता अनुज का कहना है कि इमोशन को व्यक्त करने का तरीका पुरुषों में अलग होता है. बेटे के लिए उनके इमोशन 2 से 3 बातों के बाद ख़त्म हो जाती है, मसलन आप कैसे हो, क्या कर रहे हो या तबियत कैसी है? आदि. ऐसे कुछ प्रश्नों के उत्तर जान लेने के बाद बातें खत्म हो जाती है, जैसा मैंने अभी तक अपने पिता से सुना है और मुझे लगता है कि सभी पिता और बेटे में सम्बन्ध ऐसा ही होता होगा. मेरे पिता मेरे कैरियर में एक माइलस्टोन की तरह है. मेरे साथ मेरे पिता की सोच का कभी भी मेल नहीं हुआ, जो हर किसी के साथ होता है और ये जेनरेशन गैप का ही परिणाम है, लेकिन मेरे पिता ने हमेशा मेहनत करना सिखाया है, जिसमे शोर्ट कट की कोई जगह नहीं. 

अशोक कुमार बेनीवाल 

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अभिनेता अशोक कुमार बेनीवाल का कहना है कि पूरे विश्व में मैं अपने पिता के सबसे करीब हूँ. उनके साथ मेरा स्ट्रोंग ट्रेडिशनल सम्बन्ध और जुड़ाव है. इनका व्यक्तित्व मेरे लिए बहुत खास है, जब भी मुझे उनकी जरुरत होती है, वे हमारे साथ होते थे. मेरे किसी भी सन्देश को पिता तक पहुँचाने में मेरी माँ का हमेशा सहयोग रहा है. पिता ने अपनी सामर्थ्यता से अधिक किसी काम को करने में मुझे सहयोग दिया. उन्होंने मुझे इमानदारी, मेहनत और लगन से काम करने की सीख दी, जिसे मैंने अपने जीवन में उतारा है. आज वे हमारे बीच नहीं है, मैं उन्हें बहुत मिस करता हूँ. मुझे आज भी याद आता है जब मैंने अपने पिता, माँ, बड़ी बहन और 6 रिश्तेदारों को वर्ष 2013 को हुए केदारनाथ फ्लड में खो दिया.

सुधा चंद्रन 

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अभिनेत्री सुधा चंद्रन कहती है कि मेरे लिए फादर्स डे केवल एक दिन नहीं 365 दिन भी उनके लिए बात करूँ तो कम पड़ जायेंगे. मेरे हिसाब से हर लड़की के लिए उसका पहला हीरो उसका पिता होता है. मैने हमेशा से उनके जैसा बनना चाहती थी. वे एक विनम्र परिवार से थे. केवल 13 साल की उम्र से उन्होंने अपने परिवार को सेटल किया था.मेरे पिता की तरफ से दो पुरस्कार मेरे लिए बहुत माईने रखती है, जब मैं अस्पताल में थी और मुझे नकली पैर मिला था. उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हारा वो पैर बनूँगा, जिसे तुमने खोया है. मैंने पूछा था कि ऐसा आप कब तक कर पाएंगे? इस पर उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हारे साथ तब तक रहना चाहता हूँ, जब तक तुम्हे जरुरत है और ये सही था जब मैं कामयाबी की पीक पर थी, तब वे हमें छोड़ गए. दूसरा अवार्ड मुझे तब मिला जब मैंने पहली बार नकली पैर से डांस किया. परफोर्मेंस के बाद जब मैं घर आई तो उन्होंने मेरे पैर छू लिए. उनके इस व्यवहार के बारें में पूछने पर बताया था कि मैं उनके लिए कला की मूर्ति हूँ.

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पिता के रूप में अभिनेता अनिल कपूर की सोच क्या है, पढ़ें इंटरव्यू

हॉलीवुड और बॉलीवुड में अपनी एक अलग छवि बनाने वाले अभिनेता अनिल कपूर ने हर शैली में काम किया है और आज भी नई-नई भूमिका निभाकर दर्शकों को चकित कर रहे है. कॉमेडी हो या सीरियस, हर अंदाज में वे फिट बैठते है. उन्होंने जिस भी फिल्म में काम किया, दर्शकों के आकर्षण का केंद्र बने, इसे वे अपनी उम्र के हिसाब से सही फिल्म और किरदार का चुनना बताते है, जो उन्हें सावधानी से करना पड़ता है, जिसमें वे अपने दिल की सुनते है. यही वजह है कि उन्होंने काम से कोई ब्रेक नहीं लिया. उनके साथ ‘कॉम बैक’ का कोई टैग नहीं लगा. हंसमुख और विनम्र स्वभाव के अनिल कपूर खुद को नकारात्मक चीजों से दूर रखना पसंद करते है, ताकि हर सुबह उन्हें नया और फ्रेश लगे. खुश रहना और किसी तनाव को पास न आने देना ही उनके फिटनेस का राज है. उन्होंने हर बार माना है कि जीवन एक है और इसमें उतार-चढ़ाव का आना स्वाभाविक है. अनिल कपूर पहली बार धर्मा प्रोडक्शन के साथ फिल्म ‘जुग-जुग जियो’ में पिता की भूमिका निभा रहे है. जो रिलीज पर है. कोविड की वजह से ये फिल्म रिलीज नहीं हो पाई थी, इसलिए सभी इसके आने का इन्तजार कर रहे है.

इतना ही नहीं अनिल कपूर एक अच्छे अभिनेता के अलावा अभिनेत्री सोनम कपूर, अभिनेता हर्षवर्धन कपूर और रिया कपूर के पिता भी है, उन्होंने बच्चों को एक दोस्त की तरह पाला, जिसमे साथ दिया उनकी पत्नी सुनीता कपूर ने. जिससेउन्होंने इमानदारी के साथ काम किया. आइये जानते है अनिल कपूर से उनके पिता बनने और उससे जुड़े कुछ अनुभव जो पेरेंट्स के लिए बहुत उपयोगी होगा, आइये जानते है, इस बारें में उनकी सोच क्या है.

सवाल – ये फिल्म पिता-पुत्र के संबंधों पर आधारित है, रियल लाइफ में आप किस तरह के पिता है ? क्या बच्चों को अनुसाशन में रखना पसंद करते है?

जवाब – फिल्मों का सम्बन्ध और रियल लाइफ का सम्बन्ध बहुत अलग होता है. (हँसते हुए) रियल पिता को समझने के लिए घर आना पड़ेगा. मैं कभी भी स्ट्रिक्ट पिता नहीं हूं, प्यार से उन्हें कुछ भी कराया जा सकता है, स्ट्रिक्ट होने से नहीं. साथ ही धैर्य की भी बहुत जरुरत पड़ती है, स्ट्रिक्ट होने से बच्चा कभी भी अच्छा नहीं बन सकता. तकनिकी युग के बच्चे पहले से ही सब जानते है, इसलिए उन्हें समझ कर पेरेंट्स को कोई सुझाव देनी चाहिए. बच्चों को अपना क्षेत्र चुनने की पूरी आज़ादी भी पेरेंट्स को देनी चाहिए.

सवाल – आपका और आपकी पत्नी सुनीता कपूर का एक कामयाब रिश्ता रहा है, इस बारें में क्या कहना चाहते है?

जवाब – किसी भी रिलेशनशिप में कॉम्प्रोमाइज करने की जरुरत होती है. इससे व्यक्तिदूसरे की तरफ से देख सकता है और कोई ऐसी बात किसी को कह नहीं पाता, जिससे वह व्यक्ति हर्ट हो. गलती हर इन्सान से होती है और उसे मान लेना सबसे सहज बात होती है.

सवाल – इतने सालों बाद भी जब आपकी फिल्म रिलीज पर होती है, तो क्या आपमें पहले जैसा एक्साइटमेंट होता है?

जवाब – ये फिल्म की बनावट पर निर्भर करता है कि फिल्म की कहानी क्या है और निर्देशक कौन है. अगर मैंने किसी डायरेक्टर के साथ पहले भी काम किया है, तो अधिक चिंता नहीं करता.

सवाल – अभिनेत्री नीतू कपूर के साथ काम करना कैसा रहा?

जवाब – नीतू मेरे परिवार की एक सदस्य है और पहली बार मैं उनके साथ फिल्म में काम कर रहा हूं, इसलिए काम करना सहज था, क्योंकि वह खूबसूरत, फ्रेश और नए लुक में सबके सामने आएगी. अभिनय के अलावा उन्हें डांस भी आता है, मैं उन्हें तब से जानता हूं, जब से वह ऋषि कपूर को डेट कर रही थी.

सवाल – सालों साल एक जैसे कद काठी होने का राज क्या है? फिल्मों को चुनते समय किस बात का ध्यान रखते है?

जवाब – मैं पहले जैसा था, वैसा अब नहीं लग सकता, लेकिन मैं खुद पर बहुत ध्यान देता हूं. साथ ही मैं कभी गलतफहमी में नहीं जीता, मैंने उन फिल्मों चुना जो मेरी उम्र के हिसाब से ठीक हो. दर्शक मुझे कुछ कहे, इससे पहले ही मैंने खुद को चुपचाप हीरों से चरित्र अभिनेता में बदल दिया. ये मेरे लिए सही था. मैंने उन फिल्मों को चुना, जिसमे मैं लीड भले ही न हूं, लेकिन जरुरी है. ये चुनाव मेरे लिए सफल रहा. आज मैं बहुत खुश हूं कि दर्शक आज भी मुझे देखना चाहते है. आज के दर्शकों को कोई मुर्ख नहीं बना सकता. इसके अलावा मैं नियमित वर्कआउट करता हूं. किसी प्रकार का नशा नहीं करता. मुझे दक्षिण भारतीय व्यजन में स्टीम्ड इडली बहुत पसंद है, क्योंकि ये बहुत सुरक्षित भोजन है.

सवाल – आप अभी भी किसी फिल्म में सेंटर ऑफ़ अट्रैक्शन बने रहते है, इस बारें में क्या कहना चाहते है? सोशल मीडिया पर आप कितने एक्टिव है?

जवाब – उम्र के हिसाब से हमेशा अभिनय करना चाहिए, अभी मैं वरुण धवन की भूमिका नहीं निभा सकता. मैं अपने उम्र की भूमिका निभा रहा हूं. इसलिए सभी मेरे चरित्र को पसंद करते है. हालाँकि इस फेज में आना कठिन था, पर मैंने खुद को समझाया.

सोशल मीडिया पर मैं अधिक एक्टिव नहीं, लेकिन मेरे काफी यंग फोलोअर्स है, जो अधिकतर मिम्स भेजते है. मैं उनका जवाब मिम्स से ही देता हूं. (हँसते हुए) यंग फोलोअर्स अधिक होने की वजह मेरी भूमिका है, जो यंग को भी आकर्षित करती है. फिल्म वेलकम में मेरी भूमिका मजनू भाई की थी, जो पेंटिंग बनाता है. मुझे जब पेंटिंग बनाकर निर्देशक अनीस बज्मी ने दी, तो किसी को पता नहीं था कि मेरी ये भूमिका इतनी पोपुलर होगी. यूथ को मेरा ये किरदार इतना पसंद होगा. मैं कई बार कुछ निर्देशक की कहानियां भी नहीं पढता, क्योंकि वे मेरे टेस्ट को जान चुके है. फिल्म अच्छी तरह बननी चाहिए, सफल हो या न हो ये तो दर्शकों की टेस्ट पर निभर करता है. मैं खुद निर्णय लेता हूं और अंत तक उसे पूरा करता हूं.

सवाल – कंट्रोवर्सी को आप कैसे लेते है और खुद को क्या समझाते है?

जवाब – मैं कंट्रोवर्सी को देखता नहीं हूं, उन लेखों को पढता हूं, जिन्होंने मेरी बातों को ठीक तरह से लिखा है. क्रिटिक सही है, क्योंकि इससे मैं खुद को इम्प्रूव कर सकता हूं, पर मेरे घर में बहुत सारे अच्छे आलोचक है, मैं उनकी अवश्य सुनता हूं.

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Top 10 Best Father’s Day Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

Father’s Day Story in Hindi: एक परिवार की सबसे अहम कड़ी हमारे माता-पिता होते हैं. वहीं मां को हम जहां अपने दिल की बात बताते हैं तो वहीं पिता हमारे हर सपने को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं. हालांकि वह अपने दिल की बात कभी शेयर नहीं कर पाते. हालांकि हमारा बुरा हो या अच्छा, हर वक्त में हमारे साथ चट्टान बनकर खड़े होते हैं. इसीलिए इस फादर्स डे के मौके पर आज हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की 10 Best Father’s Day Story in Hindi, जिसमें पिता के प्यार और परिवार के लिए निभाए फर्ज की दिलचस्प कहानियां हैं, जो आपके दिल को छू लेगी. साथ ही आपको इन Father’s Day Story से आपको कई तरह की सीख भी मिलेगी, जो आपके पिता से आपके रिश्तों को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो पढ़िए Grihshobha की Best Father’s Day Story in Hindi 2022.

1. Father’s Day 2022: दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

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पति के बिना पद्मा का जीवन सूखे कमल की भांति सूख चुका था. ऐसे में कमलकांत का मिलना उस के दिल में मीठी फुहार भर गया था. दोनों के गम एकदूसरे का सहारा बनने को आतुर हो उठे थे. परंतु …

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2. Father’s day 2022: फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

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नाजुक हालात कहें या वक्त का तकाजा पर फादर्स डे पर हुई उस एक घटना ने वरुण और मेरे बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी. इस बार उस दीवार को ढहाने का काम हम दोनों में से किसी को तो करना ही था.

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3. Father’s day 2022: अब तो जी लें

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पिता के रिटायरमैंट के बाद उन के जीवन में आए अकेलेपन को दूर करने के लिए गौरव व शुभांगी ने ऐसा क्या किया कि उन के दोस्त भी मुरीद हो गए…

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4. Father’s day 2022: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

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गुंजन व रवि ने अपने मातापिता की खुशियों के लिए एक ऐसा प्लान बनाया कि उन के चेहरे की चमक एक बार फिर वापस लौट आई. आखिर क्या था उन दोनों का प्लान?

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5. Father’s Day 2022: वह कौन थी- एक दुखी पिता की कहानी?

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स्वार्थी बेटेबहू ने पिता अमरनाथ को अनजान शहर में भीख मांगने के लिए छोड़ दिया था. व्यथित अमरनाथ की ऐसे अजनबी ने गैर होते हुए भी विदेश में अपनों से ज्यादा सहयोग और सहारा दिया.

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6. Father’s Day 2022: त्रिकोण का चौथा कोण

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जीवनरूपी शतरंज के सभी मुहरों को अपनी मरजी से सैट करने वाले मोहित को किसी के हस्तक्षेप का अंदेशा न था. लेकिन उस के बेटे ने जब ऐसा किया तो क्या हुआ.

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7. Father’s Day 2022: पापा जल्दी आ जाना- क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

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पापा से बातबात पर मम्मी झगड़तीं जबकि मनोज नाम के व्यक्ति के साथ खूब हंसतीबोलती थीं. नटखट निकी को यह अच्छा नहीं लगता था. समय वह भी आया जब पापा को मम्मी से दूर जाना पड़ा.

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8. Father’s day 2022: पापा मिल गए

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शादी के बाद बानो केवल 2-4 दिन के लिए मायके आई थी. उन दिनों सोफिया इकबाल से बारबार पूछती, ‘‘मेरी अम्मी को आप कहां ले गए थे? कौन हैं आप?’’

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9. Father’s day 2022: बाप बड़ा न भैया- पिता की सीख ने बदली पुनदेव की जिंदगी

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5 बार मैट्रिक में फेल हुए पुनदेव को उस के पिता ने ऐसी राह दिखाई कि उस ने फिर मुड़ कर देखा तक नहीं. आखिर ऐसी कौन सी राह सुझाई थी उस के पिता ने.

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10. Father’s Day 2022: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

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मानव और रत्ना को अपने बेटे चिन्मय पर गर्व था क्योंकि वह कक्षा में हमेशा अव्वल आता था, उन का सपना था कि चिन्मय 10वीं की परीक्षा में देश में सब से अधिक अंक ले कर उत्तीर्ण हो.

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Father’s day 2022: कुहरा छंट गया- रोहित क्या निभा पाया कर्तव्य

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