Top 10 Best Father’s Day Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

Father’s Day Stories in Hindi: एक परिवार की सबसे अहम कड़ी हमारे माता-पिता होते हैं. वहीं मां को हम जहां अपने दिल की बात बताते हैं तो वहीं पिता हमारे हर सपने को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं. हालांकि वह अपने दिल की बात कभी शेयर नहीं कर पाते. हालांकि हमारा बुरा हो या अच्छा, हर वक्त में हमारे साथ चट्टान बनकर खड़े होते हैं. इसीलिए इस फादर्स डे के मौके पर आज हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की  Best Father’s Day Story in Hindi, जिसमें पिता के प्यार और परिवार के लिए निभाए फर्ज की दिलचस्प कहानियां हैं, जो आपके दिल को छू लेगी. साथ ही आपको इन Father’s Day Stories से आपको कई तरह की सीख भी मिलेगी, जो आपके पिता से आपके रिश्तों को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो पढ़िए Grihshobha की Best Father’s Day Story in Hindi.

1. Father’s Day Story 2023: पिता का वादा

मुदित के पिता अकसर एक महिला से मिलने उस के घर जाया करते थे. कौन थी वह महिला और क्यों मुदित उस महिला के बारे में सबकुछ जानना चाहता था…

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2. Father’s Day Story 2023: अंतराल- क्या बेटी के लिए पिता का फैसला सही था?

चंद मुलाकातों के बाद ही सोफिया और पंकज ने शादी करने का निर्णय कर लिया. पर सोफिया के पिता द्वारा रखी गई शर्त सुनने पर पंकज ने शादी से इनकार कर दिया.

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3. Father’s Day Story 2023: अब तो जी लें

पिता के रिटायरमैंट के बाद उन के जीवन में आए अकेलेपन को दूर करने के लिए गौरव व शुभांगी ने ऐसा क्या किया कि उन के दोस्त भी मुरीद हो गए…

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4. Father’s day Story 2023: फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

नाजुक हालात कहें या वक्त का तकाजा पर फादर्स डे पर हुई उस एक घटना ने वरुण और मेरे बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी. इस बार उस दीवार को ढहाने का काम हम दोनों में से किसी को तो करना ही था.

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5. Father’s Day Story : दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

पति के बिना पद्मा का जीवन सूखे कमल की भांति सूख चुका था. ऐसे में कमलकांत का मिलना उस के दिल में मीठी फुहार भर गया था. दोनों के गम एकदूसरे का सहारा बनने को आतुर हो उठे थे. परंतु …

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6. Father’s day Stories : कोरा कागज- घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

बच्चे अपने मातापिता की सख्ती के चलते घर से भागने जैसी बेवकूफी तो कर देते हैं, लेकिन इस की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ती है उस से अनजान रहते हैं. इस दर्द से राहुल भी अछूता नहीं था…

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7. Father’s Day 2023: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

गुंजन व रवि ने अपने मातापिता की खुशियों के लिए एक ऐसा प्लान बनाया कि उन के चेहरे की चमक एक बार फिर वापस लौट आई. आखिर क्या था उन दोनों का प्लान?

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 8. Father’s Day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

दानव की तरह मुंह फाड़े मौत के आगे सोनू की नन्ही सी जिंदगी ने घुटने तो टेके पर हार नहीं मानी. उस के मातापिता के एक फैसले ने मरणोपरांत भी उसे जीवित रखा क्योंकि जिंदगी का मकसद ही मुसकराना है.

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9. Father’s Day 2023: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

मानव और रत्ना को अपने बेटे चिन्मय पर गर्व था क्योंकि वह कक्षा में हमेशा अव्वल आता था, उन का सपना था कि चिन्मय 10वीं की परीक्षा में देश में सब से अधिक अंक ले कर उत्तीर्ण हो.

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10. Father’s Day Story 2023: बाप बड़ा न भैया- पिता की सीख ने बदली पुनदेव की जिंदगी

 

5 बार मैट्रिक में फेल हुए पुनदेव को उस के पिता ने ऐसी राह दिखाई कि उस ने फिर मुड़ कर देखा तक नहीं. आखिर ऐसी कौन सी राह सुझाई थी उस के पिता ने.

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Father’s day 2023: माता-पिता के सपनों को पूरा करती बेटियां

कुछ अरसा पहले रिलीज हुई बौलीवुड की सब से ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म ‘दंगल’ महिला पहलवानों गीता फोगट और बबीता फोगट की वास्तविक जिंदगी पर आधारित थी. इस में बड़ी खूबसूरती से चित्रण किया गया कि कैसे बहुत ही कम उम्र में उन के पिता महावीर फोगट ने कुश्ती में गोल्ड मैडल लाने के अपने अधूरे सपने को पूरा करने की जिम्मेदारी का बोझ नन्ही गीता और बबीता के कंधों पर डाल दिया, क्योंकि उन का कोई बेटा नहीं था.

ऐसे में बहुत ही कम उम्र में नाजुक सी गीता और बबीता पिता की मेहनत से इतनी मजबूत बन गईं कि अपने से बड़ी उम्र के बलिष्ठ पहलवान लड़कों को भी चारों खाने चित्त करने लगीं. 2010 व 2014 के कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर पिता के साथसाथ पूरे देश का भी नाम रोशन कर दिया. ऐसा नहीं है कि लड़कियां किसी भी नजरिए से लड़कों से कम होती हैं या फिर जिंदगी में लड़कों की तरह किसी भी तरह की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम नहीं होतीं. जरूरत पड़े तो वे कुछ भी कर सकती हैं.

आजकल ज्यादातर घरों में संतान के नाम पर 1 या 2 बेटियां ही होती हैं. ऐसे में न चाहते हुए भी उन के नाजुक कंधों पर ही बुजुर्ग मांबाप की देखभाल, उन के सपने पूरे करने या परिवार से जुड़ी दूसरी जिम्मेदारियां आ जाती हैं, जिन्हें वे बखूबी निभाती भी हैं. कितनी ही बेटियां हैं, जिन्होंने एक मुकाम हासिल कर घर वालों को सम्मानित किया है.

उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी को ही ले लीजिए. वे एक बेटी ही तो थीं, मगर देश की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बन कर परिवार की प्रतिष्ठा को नए आयाम तक पहुंचाया.

बेटियां होती हैं बेटों से अधिक जिम्मेदार

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कहा था कि 1 बेटी 5 बेटों से बेहतर होती है. वैज्ञानिक रूप से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि बेटियां अपने मांबाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी रहती हैं और उन की देखभाल करने में बेटों से अधिक रुचि लेती हैं.

बेटियां बड़ी हो कर मांबाप की अच्छी दोस्त बन जाती हैं. वे भी अपने दिल की बात बेटियों से ही अधिक शेयर करते हैं. बेटा तभी तक बेटा होता है जब तक उस की शादी नहीं होती. बेटियां हमेशा बेटियां ही रहती हैं. वे मांबाप को भावनात्मक सहारा देती हैं, उन्हें खुश रखती हैं. शादी से पहले तो वे अपने मांबाप की देखभाल करती ही हैं, शादी के बाद भी दोनों परिवारों की देखभाल करती हैं. वे अपने फर्ज से कभी मुंह नहीं मोड़तीं.

क्षेत्र कोई भी हो लड़कियों ने मौका मिलने पर न सिर्फ दायित्व निभाया वरन समाज में अपना अलग मुकाम भी बनाया है.

ट्रैवल एजेंट उज्ज्वला पादुकोण शादी के बाद एक बेटे को जन्म देना चाहती थीं, क्योंकि उन का कोई भाई नहीं था. वे अपने मन में पैदा इस रिक्तता को बेटे के जरीए भरना चाहती थीं. मगर 1986 में उन के घर बिटिया ने जन्म लिया. उन के पति अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण व उज्ज्वला पादुकोण ने बड़े प्यार से बच्ची का नाम दीपिका रखा. वही दीपिका आज घरघर में पहचानी जाती हैं. उज्ज्वला स्वीकारती हैं कि उन्हें दुनिया की सब से अच्छी 2 बेटियां मिली हैं. दीपिका की छोटी बहन अनीषा गोल्फ प्लेयर हैं.

दीपिका का फोकस भी शुरू से ही बैडमिंटन में रहा, क्योंकि कहीं न कहीं अपने पापा के सपनों को पूरा करने के लिए वे प्रयासरत थीं. उन्होंने कम उम्र से ही बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था. जब वे स्कूल में थीं, तो सुबह जल्दी उठ जाती थीं. फिर फिजिकल ट्रेनिंग पूरी कर स्कूल जातीं. लौट कर बैडमिंटन खेलतीं और फिर होमवर्क खत्म कर के ही सोती थीं. वे नैशनल लैवल चैंपियनशिप प्रतियोगिता में भी खेली हैं. कुछ स्टेट लैवल टूरनामैंट्स में बेसबौल भी खेला है. पढ़ाई और खेल में ध्यान देने के साथसाथ वे चाइल्ड मौडल के रूप में भी काम करती रहीं.

10वीं क्लास में दीपिका के मन में फैशन मौडल बनने की चाहत पैदा हुई. इस बाबत उन्होंने अपने पिता से पूछा कि क्या वह बैडमिंटन खेलना छोड़ सकती है? पिता की स्वीकृति के बाद 2014 में उन्होंने फुलटाइम कैरियर के रूप में मौडलिंग को अपना लिया. फिर लगातार सफलता के मुकाम छूती रहीं. इसी दौरान उन्हें फिल्मों के औफर भी मिलने लगे. 2007 में उन की झोली में फिल्म ‘ओम शांति ओम’ आई, जिस के बाद सफलता और दीपिका एकदूसरे के पर्याय बन गए.

म्यूजिकल लीजैंड व सितारवादक रविशंकर को म्यूजिक वर्ल्ड का गौडफादर कहा जाता है. इंडियन क्लासिकल म्यूजिक को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. बेटा न होने की वजह से उन्होंने अपना म्यूजिकल टेलैंट अपनी बेटी अनुष्का शंकर को सौंपा. पिता से ही अनुष्का ने सितार वादन सिखा. आज पितापुत्री की यह जोड़ी पूरी दुनिया में अपनी जुगलबंदी के लिए जानी जाती है.

20 साल की उम्र में अनुष्का को पहली दफा ग्रैमी अवार्ड के लिए नौमिनेट किया गया था. आज तक वे 6 दफा इस के लिए नौमिनेट की जा चुकी हैं. वे देश की पहली कलाकार हैं, जिन्होंने ग्रैमी अवार्ड प्रोग्राम में परफौर्म किया है.

मूल रूप से मणिपुर की रहने वाली अंतराश पिछले कई वर्षों से अपने घर की एकमात्र कमाऊ सदस्या हैं. वे कहती हैं कि उन के पिता बेरोजगार थे. भाई के पास भी नौकरी नहीं थी. ऐसी स्थिति में परिवार की देखभाल और मांबाप के सपने पूरे करने का जिम्मा उन्हीं पर था.

अंतराश के सामने कई चुनौतियां थीं पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. 2014 में प्रतिनिधि के रूप में अंतराश ने एवौन कंपनी जौइन की और अब वहां सेल्स लीडर एसईएल के पद पर हैं. आज वे इतनी सक्षम हैं कि परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरी करने के साथसाथ अपने सपनों को भी साकार कर रही हैं.

आर्थिक स्वंतत्रता ने दिए नए आयाम

सरोज सुपर स्पैश्यलिटी अस्पताल, नई दिल्ली के मनोचिकित्सक डा. संदीप गोविल बताते हैं, ‘‘पहले महिलाएं पुरुषों की परछाईं होती थीं. पर आज उन का स्वतंत्र वजूद है. समाज में उन की हैसियत बढ़ी है. आज वे ऊंची शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरियां करने लगी हैं. आज बहुत सी महिलाएं अपने परिवार का आर्थिक आधार हैं. वे न सिर्फ नौकरी कर रही हैं वरन बड़ेबड़े बिजनैस भी चला रही हैं.’’

एक महिला के लिए घर की चारदीवारी से निकल कर काम करना और समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाना आसान नहीं है. लेकिन जीवन की हर चुनौती का डट कर सामना करना उन्हें मानसिक रूप से मजबूत और दृढ़निश्चयी बना देता है. आर्थिक आत्मनिर्भरता उन के जीवन को एक नई दिशा देती है.

बढ़ता आत्मविश्वास

जो महिलाएं अपने परिवार के लिए रोटी कमाने वाली (ब्रैड अर्नर) होती हैं, वे उन महिलाओं की तुलना में अधिक आत्मविश्वासी होती हैं, जो अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए पिता, पति या बेटे पर निर्भर रहती हैं. जब अपनी कमाई से वे अपनी ही नहीं, परिवार की भी जरूरतें पूरी करती हैं, तो उन में अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का साहस उत्पन्न होता है. वे अपनी जिंदगी में उन समझौतों को नकार देती हैं, जो दूसरी महिलाओं को पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता के कारण करने पड़े थे. आर्थिक स्वतंत्रता से मिला आत्मविश्वास उन्हें अपने जीवन को उस दिशा में  आगे बढ़ाने में सहायता करता है, जिस दिशा में वे बढ़ना चाहती हैं.

आत्मनिर्भर महिलाओं को अपने भविष्य की चिंता नहीं रहती कि कल को अगर मातापिता नहीं रहे, उन की शादी नहीं हुई, तलाक हो गया या पति की मृत्यु हो गई तो वे क्या करेंगी? अगर उन के अपने बच्चे हैं, तो उन के भविष्य का क्या होगा? उन के जीवन में कोई दुर्घटना घटती है, तो भी वे आर्थिक दृष्टि से इतनी सक्षम होती हैं कि अपने जीवन को पटरी पर ला सकती हैं. भविष्य को ले कर सुरक्षा का भाव उन के व्यक्तित्व को मजबूत बनाता है.

चुनौतियों का सामना करने के टिप्स

डा. संदीप गोविल बताते हैं कि किसी महिला के लिए घर से बाहर निकल कर कमाना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है. उसे समाज व कार्यस्थल पर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और जब महिला सिंगल हो तब तो ये चुनौतियां और बढ़ जाती हैं.

– अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक और आशावादी रखें.

– मानसिक शांति के लिए ध्यान करें.

– अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखना सीखें.

– रोज कम से कम 30 मिनट ऐक्सरसाइज करें. इस से न सिर्फ शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने में सहायता मिलती है, बल्कि मानसिक शांति भी प्राप्त होती है.

– मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए शरीर को आराम देना भी बहुत जरूरी है. अपने शरीर की आवश्यकता के अनुसार 7-8 घंटे की नींद जरूर लें.

– सामाजिक रूप से सक्रिय रहें.

रोजगार में संभावनाएं बढ़ाने की जरूरत

एसोचैम व थौट आर्बिट्रेज की साझा रिसर्च में यह बात सामने आई है कि पिछले 10 सालों में भारत में फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट में 10% की गिरावट आई है. 2000 से 2005 के बीच जहां यह दर 34-37% थी. वहीं 2016 में घट कर 27% के आसपास रह गई है. इस के पीछे जो मुख्य वजहें सामने आईं, वे निम्न प्रकार हैं:

– रोजगार के कम अवसर.

– महिलाओं के लिए प्रतिकूल कार्यशैली.

– महिलाओं के प्रति परिवारों व समाज में रूढि़वादी सोच.

पिछले 10 सालों में भारत के पड़ोसी देश चीन में यह दर 64% तक पहुंच गई है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि यदि हमें अपनी जीडीपी दर बढ़ानी है, तो महिलाओं के लिए भी पुरुषों के समान रोजगार की नई संभावनाएं तलाशनी होंगी. भारत की बेटियों के सपने पूरे होंगे तभी तो देश तरक्की करेगा.

Father’s day Special: पिता की भूमिका – तब और अब

20वीं शताब्दी में दुनिया में आये सामाजिक, आर्थिक और प्रौद्योगिक बदलावों ने परिवार के कार्य और संरचना में भी आधारभूत परिवर्तन ला दिये हैं- मुख्यतया पिता की परिवार के प्रति जिम्मेदारी और भूमिका के संदर्भ में. आज के पिता परिवार में केवल परम्परागत (परिवार का वह व्यक्ति जो परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये केवल पैसा कमाने का काम करता है) और अनुशासन के रूप में नजर नहीं आते है बल्कि बच्चों के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकास की चुनौतियों के साथ उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी लेते है.

इस शताब्दी में महिलाओं के आर्थिक भूमिका में बदलाव ने पिता की भूमिका को और ज्यादा प्रभावित किया है. 1948 से 2001 के बीच कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 33 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया है. ऐसे में पिता की बच्चों के प्रति जिम्मेदारी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है. जहां पहले केवल मां को बच्चों के पालनकर्ता के रूप में देखा जाता था वहीं अब पिता की भी उनको संस्कार देने में बराबर की भूमिका निहित है. बच्चों की परवरिश में पिता की भूमिका पर जब हमारी आज की पीढ़ी के बच्चों और उनके पापा से बातचीत हुई तो सामने आया कि

पिछली शताब्दी में पापा

    • बच्चों के लिये आदर्श हुआ करते थे.
    • बच्चे उनका बहुत सम्मान करते थे.
    • बच्चों के मन में पापा का डर भी रहता था जिसके पीछे वो कोई भी गलत काम करने से पहले सोचने को मजबूर हो जाते थे.
    • पापा उनके शिक्षक के रूप में भी होते थे लेकिन दोस्त नहीं बन पाते थे.
    • पापा और बच्चों के बीच कुछ खास विषयों पर ही बातचीत हो पाती थी वो भी तब ही जब पापा चाहते थे. वो खुलकर हर बात पापा से शेयर नहीं कर पाते थे यानी उनके बीच संवाद की कमी हुआ करती थी.
    • पापा घर के मुखिया हुआ करते थे, सभी छोटे-बड़े फैसले उन्हीं के अनुसार लिये जाते थे.
    • इतना सब होने पर भी बच्चों पर बात-बात पर गुस्सा, झिड़कना, डांटना, मारना कभी भी बिना कारण के नहीं होता था.
    • पिता का व्यवहार बहुत ही संयमित और दायित्वपूर्ण हुआ करता था.

वर्तमान समय में पिता…

    • बच्चों के आदर्श उनके अनुसार निश्चित होते है. ये जरूरी नहीं कि वो पिता को ही अपना आदर्श माने.
    • बच्चे अपने फैसले खुद लेना पसंद करते है. उसमें पिता का व्यवधान उन्हें पसंद नहीं.
    • पिता बच्चों के अच्छे दोस्त होते है परन्तु वो सम्मान प्राप्त नहीं कर पाते जो उन्हें मिलना चाहिए.
    • पिता का डर बच्चों में लगभग नहीं के बराबर है.
    • काम के तनाव के बोझ तले पिता बहुत चिड़चिड़े हो जाते है जिसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है.
    • पिता और बच्चों के बीच आज भी खुलकर बातचीत नहीं हो पाती जिसका कारण समय का अभाव नहीं बल्कि आपसी सामंजस्य का अभाव रहा है.
    • पिता का होना उन्हें आर्थिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है.
    • घर में फैसले लेने का अधिकार केवल पिता का ही नहीं है बल्कि बच्चे भी उसमें शामिल होना चाहते है.

अगर हम उपरोक्त अंतरों पर ध्यान दें तो यह सामने आता है कि पिछली शताब्दी में और इस शताब्दी में पिता की भूमिका में परिवर्तन केवल पिता की तरफ से ही नहीं बल्कि बच्चों की सोच से भी प्रभावित है. ऐसे में जरूरी है कि –

    • पिता अपने बच्चों के साथ भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सामीप्य विकसित करें. समय पर वक्त के अनुसार गले से लगाना, पीठ थपथपाना, प्यार करना भी बहुत जरूरी होता है. यह उनके मन में सुरक्षा की भावना विकसित करता है.
    • पिता को यह भी सुनना चाहिए कि बच्चा उनसे क्या कहना चाहता है. बच्चे को अपनी सभी गतिविधियों के बारे में बिना टोके खुलकर बोलने का मौका दिया जाना चाहिए.
    • उसके साथ खाना खाकर, टी.वी. देखकर, वीडियो गेम खेलकर या उसकी अन्य रूचियों में शामिल होकर बच्चे को अपने साथ बातचीत में कम्फर्ट महसूस कराया जा सकता है.
    • पिता बच्चे के साथ मां की अपेक्षा कम समय बिताते है, ऐसे में हमेशा शिक्षक बनकर ही न रहें बल्कि बच्चों से कुछ सीखते हुए उन्हें सिखाते जाना एक अच्छा तरीका है.
    • बच्चों के सामने हमेशा उनकी मां का सम्मान, बच्चों में स्थायित्व और सुरक्षा की भावना को विकसित करता है.

बच्चों के बचपन से लेकर बड़े होने तक यानि जब वे स्कूल में होते है, जौब पर जाते है या शादी होती है और फिर उनके बच्चे होते है, हर मौके पर पिता के साथ बिताये पल बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है क्योंकि पापा एक पंख की तरह होते हैं, जो उन्हें न केवल सुरक्षा प्रदान करते है बल्कि आकाश में उड़ने के लिए उड़ान भरने का साहस भी देते है.

Father’s day 2023: वह कौन थी- एक दुखी पिता की कहानी?

Father’s day Special: नवजात से ऐसे लगाव बढ़ाए पिता

नवजात के साथ मां जितना भावनात्मक लगाव बनाए रखती है, पिता भी इस के लिए उतना ही उत्सुक रहता है. दोनों के बीच एकमात्र यही अंतर रहता है कि पिता को इस तरह का लगाव रखने के लिए विशेष प्रयास करने पड़ते हैं, जबकि मां का अपने बच्चे से यह स्वाभाविक बन जाता है.

यदि आप भी पिता बनने का सुख पाने वाले हैं, तो हम आप को कुछ ऐसे टिप्स बता रहे हैं, जो इस दुनिया में कदम रखने वाले बच्चे के प्रति आप के गहरे लगाव को विकसित कर सकते हैं. हमारे समाज में लिंगभेद संबंधी दकियानूसी सोच के कारण पुरुष अधिक भावनात्मक रूप से पिता का सुख पाने से कतराते हैं. मां से ही बच्चे की हर तरह की देखभाल की उम्मीद की जाती है. मां को ही बच्चे का हर काम करना पड़ता है. लेकिन अपने बच्चे के साथ आप जितना जुड़ेंगे और उस की प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लेंगे, बच्चे के प्रति आप का लगाव उतना ही बढ़ता जाएगा. लिहाजा, बच्चे का हर काम करने की कोशिश करें. नैपकिन धोने, डाइपर बदलने, दूध पिलाने, सुलाने से ले कर जहां तक हो सके उस के काम कर उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की कोशिश करें.

1. गर्भधारण काल से ही खुद को व्यस्त रखें

गर्भधारण की प्रक्रिया के साथ सक्रियता से जुड़ते हुए पिता भी बच्चे के समग्र विकास में अहम भूमिका निभा सकता है. हर बार पत्नी के साथ डाक्टर के पास जाए. डाक्टर के निर्देशों को सुने और पत्नी को प्रतिदिन उन पर अमल करने में मदद करे. पत्नी को क्या खाना चाहिए तथा प्रतिदिन वह क्या कर रही है, उस पर नजर रखे. इस के अलावा सोनोग्राफी सैशन का नियमित रूप से पालन करे. गर्भ में पल रहे बच्चे के समुचित विकास की प्रक्रिया के साथ घनिष्ठता से जुड़ते हुए पिता भी बच्चे के जन्म के पहले से ही उस के साथ गहरा लगाव कायम कर सकता है.

2. जहां तक संभव हो बच्चे को संभालें

जब कभी अपने नवजात को अपनी बांहों में लेने का मौका मिले, उसे गंवाएं नहीं. बच्चे को सुलाना, लोरी सुनाना या बच्चे के तकलीफ में रहने के दौरान उसे सीने से लगाए रखना सिर्फ मां की ही जिम्मेदारी नहीं होती है. ये सभी काम करने में खुद पहल करें. अपने बच्चे के साथ जल्दी लगाव विकसित करने के लिए स्पर्श एक अनिवार्य उपाय माना जाता है. अपने बच्चे को आप जितना स्पर्श करेंगे, उसे गले लगाएंगे, गोद में उठाएंगे, बच्चे से आप की और आप से बच्चे की नजदीकी उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी.

3. डकार के लिए बच्चे को थामना

यह बच्चे के साथ लगाव बढ़ाने में विशेष रूप से मदद करता है और मां को भी मदद मिलती है, क्योंकि भोजन के बाद मां और शिशु दोनों थक जाते हैं और थोड़ा आराम चाहते हैं. शिशु को कई बार डकार लेने में 10-15 मिनट का वक्त लग जाता है और मां को उस की डकार निकालने के लिए अपने कंधे पर रखना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वह खुद दुग्धपान कराने के बाद थक जाती है. ऐसे में यदि पिता यह दायित्व संभाल ले और बच्चे को इस तरह से थामे रखे कि उसे डकार आ जाए, तो मां को भी थोड़ा आराम मिल जाता है और शिशु भी अपनी मुद्रा बदल कर आराम पा सकता है.

4. बच्चे को दिन में एक बार खिलाएं

पत्नी जब बच्चे को नियमितरूप से स्तनपान करा सकती है, तो आप भी उसे बांहों में रख कर बोतल का दूध क्यों नहीं पिला सकते? किसी मां या पिता के लिए अपने बच्चे को खिलाने और यह देख कर संतुष्ट होने से बड़ा कोई एहसास नहीं हो सकता कि भूख शांत होते ही वह निश्चिंत हो गया है. इस से आप को अपने बच्चे के और करीब आने में भी मदद मिलेगी.

5. बच्चे को नहलाएं

शुरुआती दौर में बच्चे को स्नान कराना महत्त्वपूर्ण होता है, जिस में बच्चा आनंद लेता है. अत: अपने बच्चे को किसी एक वक्त खुद नहलाना, उस के कपड़े धोना तय करें.

6. बच्चे से बातें करें

बच्चा जन्म लेने से पहले से ही आवाज पहचानने लगता है. बच्चे के जन्म लेने के बाद उस से बात करने का एक छोटा सा सत्र तय कर लें.

जब बच्चा अच्छे मूड में हो तो उस की आंखों में देखें और तब अपने दिल की बात उसे सुनाएं. कुछ लोगों में बच्चों से बातें करने की स्वाभाविक दक्षता होती है जबकि कुछ को इसे विकसित करने में वक्त लगता है. प्रतिदिन अपने बच्चे से बातें करें. धीरेधीरे वह आप की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया भी देने लगेगा.

7. बच्चे के रोजमर्रा के काम निबटाएं

बच्चे के पालनपोषण की प्रक्रिया में आप खुद को जितना व्यस्त रखेंगे, आप का बच्चा और आप का एकदूसरे से लगाव उतना ही गहरा होता जाएगा. कुछ लोगों को डर लगता है कि बच्चे का कोई काम निबटाने में उन के हाथों कुछ गलत न हो जाए, लेकिन इस में घबराने की कोई बात नहीं है, क्योंकि मां भी तो धीरेधीरे ही सब कुछ सीखती है. बच्चे का डाइपर बदलना, उस की उलटी साफ करना, उस के कपड़े, बदलना आदि काम सीखना सिर्फ मां की ही जिम्मेदारी नहीं है. बच्चे के साथ खुद को आप जितना अधिक जोड़ेंगे, उस के साथ आप का लगाव भी उतना ही गहरा होता जाएगा.

Father’s day Special: जिंदगी के सफर में मां जितने ही महत्वपूर्ण है पापा

आमतौर पर समाज में, साहित्य में या विभिन्न किस्म की संवेदनाओं के बीच यही मान्यता है कि संतान के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ‘मां’ की है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया में ‘मां’ की जगह कोई नहीं ले सकता. लेकिन इतना ही बड़ा सच यह भी है कि दुनिया में ‘पिता’ की भी कोई जगह नहीं ले सकता. भले मुहावरों में, कविताओं में पिता की भूमिका ने वह जगह न पायी हो, जो जगह मां की भूमिका को हासिल है लेकिन सच्चाई यही है कि जीवन में जितनी जरूरी मां की सीखें हैं, उतनी ही जरूरी पिता की मौन देखरेख है. भले पिता मां की तरह अपने बच्चों को दूध न पिलाए, उन्हें दुलराए न, उनके साथ बहुत देर तक मान मनौव्वल का खेल न खेले, लेकिन वह भी अपनी संतान से उतना ही प्यार करता है और जीवन में उसकी उतनी ही महत्ता भी है.

जिन बच्चों के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उन बच्चों में 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे अंतर्मुखी हो जाते हैं. ऐसे बच्चे अकसर बहुत आत्मविश्वास के साथ समाज का और अपनी कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाते. दरअसल पिता उनमें दुनिया से टकराने का आत्मविश्वास देता है. मां अगर संयम सिखाती है तो पिता की मौजूदगी बच्चों में प्रतिरोध का जज्बा भरती है. अगर मां नहीं होती तो बच्चे जीवन जीने के तौर तरीके कायदे से नहीं सीख पाते. अगर पिता नहीं होते तो बच्चे जीवन का सामना ही बमुश्किल कर पाते हैं. मां की देखरेख में पले बच्चों में आत्मविश्वास की कमी तो होती ही है, वे तमाम बार अपनी बात को सार्वजनिक तौरपर व्यवस्थित ढंग से रख तक नहीं पाते.

कहने का मतलब यह है कि जिंदगी में मां और बाप दोनो की ही बराबर की जरूरत होती है. पर अगर गहराई से देखें तो पिता की जरूरत थोड़ी ज्यादा होती हैय क्योंकि पिता की बदौलत ही बच्चे दुनिया से दो चार होने, उससे मुकाबला करने की हिम्मत और हिकमत पाते हैं. अगर बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ जाता है, तो बच्चों का बचपन खो जाता है. खेलन, कूदने की उम्र में बड़े बूढ़ों की तरह चिंताएं करनी पड़ती हैं, कई बार उन्हीं की तरह घर चलाने के लिए मां का हाथ बंटाना पड़ता है यानी खेलने, कूदने की उम्र में ही नौकरी या चाकरी करनी पड़ती है. ज्यादातर बार पिता के न रहने पर बच्चों की पढ़ाई या तो आधी अधूरी रह जाती है या जैसे सोचा होता है, वैसी नहीं हो पाती. हां, कई मांएं अपवाद भी होती हैं जो बच्चों को पिता की गैर मौजूदगी का एहसास नहीं होने देतीं.

पिता की मौजूदगी में बच्चों में एक अतिरिक्त किस्म का आत्मविश्वास रहता है. किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि पिता भोजन में नमक की तरह होते हैं, खाने में अगर नमक न हो तो खाना कितना ही बढ़िया, कितना ही कीमती क्यों न हो, बेस्वाद लगता है? लेकिन जब खाने में नमक की उपयुक्त मात्रा होती है तो कई बार हमें इसका एहसास तक नहीं होता. कई बार हम यह याद ही नहीं कर पाते कि हम जो कुछ खा रहे हैं उसमें नमक का भी कुछ महत्व है. पिता की मौजूदगी भी जीवन ऐसी ही होती है. जब होते हैं तो कभी यह ख्याल ही नहीं होता कि पिता के महत्व को समझें. मगर जब नहीं होते तो हर पल, हर कदम उनके न होने का दुख उठाना पड़ता है, परेशानी भोगनी पड़ती है. हर संतान को एक न एक दिन अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी या अपने जीवन का भार खुद ही उठाना पड़ता है. मगर जब तक पिता होते हैं, वह भले कुछ न करते हों, संतानें तमाम तरह के दायित्व बोझों से मुक्त रहती हैं. उनमें एक बेफिक्री रहती है. पिता मनोवैज्ञानिक रूप से संतानों की जिम्मेदारी उठाते हैं.

अकसर माना जाता है और किसी हद तक यह सही भी होता है जिन बच्चों की सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ जाता है, उनमें एक खास किस्म की आवरगी, एक खास किस्म का बेफिक्रापन और एक खास किस्म की आपराधिक प्रवृत्ति पैदा हो जाती है. दरअसल ऐसे बच्चों की समाज के लोग ज्यादा परवाह नहीं करते, उन्हें बहुत प्यार और इज्जत नहीं देते, जिस कारण ऐसे बच्चे भी समाज की परवाह नहीं करते, उसकी ज्यादा इज्जत नहीं करते और धीरे धीरे उनके माथे पर किसी न किसी असामाजिक श्रेणी का ठप्पा लग जाता है. समृद्धि का एक आयाम मनोविज्ञान भी होता है, जब पिता होते हैं तो बच्चे खासकर लड़के मनोवैज्ञानिक रूप से खुद को जिंदगी के बोझ से लदा-फंदा नहीं पाते. उन्हें लगता है उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिए पिता तो अभी मौजूद ही हैं. फिर चाहे भले पिता कुछ भी कर सकने की स्थिति में न हों लेकिन उनका होना ही बेटों के लिए एक बड़ा संबल होता है.

शास्त्रों में कहा गया है कि माता और पिता दोनो ही संतान के पहले गुरु होते हैं, यह सच भी है. लेकिन माता और पिता अपनी संतान को एक ही पाठ नहीं पढ़ाते, वे दोनो उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए एक ही समय में अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं. मां जहां बच्चों को पारिवारिक मूल्यों, मान मर्यादा, उठने बैठने, बोलने के तौर तरीके सिखाती है, वहीं पिता बच्चों को घर से बाहर जिंदगी से कैसे जूझें, कैसे टकराएं, कैसे उससे गले मिलें इस सबका पाठ पढ़ाते हैं. इसलिए माता पिता दोनो ही बच्चे के सबसे पहले गुरु होते हैं और दोनो ही उन्हें जिंदगी के दो अलग अलग और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं.

Father’s day Special: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

मेरे लिए गुंजन का रिश्ता मेरी सब से समझदार बूआ ने बताया था. बूआ गुंजन की मामी की सहेली हैं. आज शाम को वे लोग हमारे घर आ रहे हैं.

पापा टैंशन में आ कर खूब शोर मचा रहे थे, ‘‘अब तक बाजार से मिठाई भी नहीं लाई गई…मेरी समझ में नहीं आता कि कई घंटे लगाने के बाद भी तुम लोग वक्त से तैयार क्यों नहीं हो पाते हो…अब बाजार भी मुझ को ही जाना पड़ेगा… ड्राइंगरूम में जो भी फालतू चीजें बिखरी पड़ी हैं, इन्हें कहीं और उठा कर रख देना…पता नहीं तुम लोग वक्त से सारे काम करना कब सीखोगे?’’

पापा के इस तरह के लैक्चर आज दोपहर से राजीव भैया, नीता भाभी और मेरे लिए चल रहे थे. उन के बाजार चले जाने के बाद सचमुच घर में शांति महसूस होने लगी.

राजीव भैया की शादी के कुछ महीने बाद मां की मृत्यु हो गई थी. उन के अभाव ने पापा को बहुत चिड़चिड़ा और गुस्सैल बना दिया था. उन की कड़वी, तीखी बातें सुन कर नीता भाभी का मुंह आएदिन सूजा रहता था. अब तो वे पापा को जवाब भी दे देती थीं और भैया भी उन का पक्ष लेने लगे थे.

घर में बढ़ते झगड़ों को देख मैं पापा को शांत रहने के लिए बहुत समझाता, पर वे अपने अंदर सुधार लाने को तैयार नहीं थे.

‘घर में गलत काम होते मैं नहीं देख सकता. बदलना तुम लोगों को है, मुझे नहीं,’ पापा उलटा मुझे डांट कर चुप करा देते.

पापा के बाजार से लौटने तक मेहमान आ चुके थे. गुंजन की मम्मी के साथ उन के भैयाभाभी और बड़ी बेटी व दामाद आए थे.

पापा सब का अभिवादन स्वीकार करने के बाद सामान रखने घर के भीतर जाने लगे तो गुंजन की मम्मी ने हैरानी भरी आवाज में उन से पूछा, ‘‘आप राजेंद्र हो न? एसडी कालेज में पढ़े हैं न आप?’’

‘‘जी, लेकिन मैं ने…’’

‘‘तुम मुझे कैसे पहचान पाओगे? मैं अब मोटी हो गई हूं, बाल सफेद हो चले हैं और आंखों पर चश्मा जो लग गया है. अरे, मैं सीमा हूं…तब सीमा कौशिक होती थी. तुम मेरे नोट्स पढ़ कर ही पास होते थे. अब तो पहचान लो, भई,’’ सीमाजी ने हंसते हुए पापा की यादों को कुरेदा.

दिमाग पर कुछ जोर दे कर पापा ने कहा, ‘‘हां, अब याद आ गया,’’ और अपने हाथ में पकड़ा सामान मुझे देने के बाद वे गुंजन की मम्मी के सामने आ बैठे, ‘‘तुम इतनी ज्यादा भी नहीं बदली हो. तुम्हारी आवाज तो बिलकुल वही है. मुझे पहली नजर में ही पहचान लेना चाहिए था.’’

‘‘जैसे मैं ने पहचाना.’’

‘‘पता नहीं तुम ने कैसे पहचान लिया? मेरी शक्ल तो बिलकुल बदल गई है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे बेटे रवि में तुम्हारी उन दिनों की शक्लसूरत की झलक साफ नजर आती है. शायद इसी समानता ने तुम्हें पहचानने में मेरी मदद की. देखो, क्या गजब का संयोग है. मैं अपनी बेटी का रिश्ता तुम्हारे बेटे के लिए ले कर आई हूं.’’

‘‘मेरी समझ से यह अच्छा ही है क्योंकि कालेज में जैसा आकर्षक व्यक्तित्व तुम्हारा होता था, अगर तुम्हारी बेटी वैसी ही है तो मेरे बेटे रवि की तो समझो लाटरी ही निकल आई,’’ पापा के इस मजाक पर हम सब खूब जोर से हंसे तो सीमा आंटी एकदम शरमा गईं.

अब तक सब के मन की हिचक समाप्त हो गई थी. पापा सीमा आंटी के साथ कालेज के समय की यादों को ताजा करने लगे. उन के भैयाभाभी व बेटीदामाद ने मुझ से मेरे बारे में जानकारी लेनी शुरू कर दी. नीता भाभी नाश्ते की तैयारी करने अंदर रसोई में चली गईं. राजीव भैया खामोश रह कर हम सब की बातें सुन रहे थे.

उन लोगों के साथ 2 घंटे का समय कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. पापा तो ऐसे खुश नजर आ रहे थे मानो यह रिश्ता पक्का ही हो गया हो.

सीमा आंटी ने चलने से पहले पापा के सामने हाथ जोड़ दिए और भावुक लहजे में बोलीं, ‘‘राजेंद्र, मेरे पास दहेज में देने को ज्यादा कुछ नहीं है. गुंजन के पापा के बीमे व फंड के पैसों से मैं ने बड़ी बेटी की शादी की है और अब छोटी की करूंगी. तुम्हारी कोई खास मांग हो तो अभी…’’

‘‘मुझे जलील करने वाली बात मत करो, सीमा,’’ पापा ने बीच में टोक कर उन्हें चुप करा दिया, ‘‘रवि को गुंजन पसंद आ जाए…और मुझे विश्वास है कि तुम्हारी बेटी इसे जरूर अच्छी लगेगी, तो यह रिश्ता मेरी तरफ से पक्का हुआ. दहेज में मुझे एक पैसा नहीं चाहिए. तुम दहेज की टैंशन मन से बिलकुल निकाल दो.’’

सीमा आंटी बोलीं, ‘‘राजेंद्र, किन शब्दों में तुम्हारा शुक्रिया अदा करूं? अब आप सब लोग हमारे घर कब आओगे?’’

‘‘अगले संडे की शाम को आते हैं,’’ पापा ने उतावली दिखाते हुए कहा.

‘‘ठीक है. अब हम चलेंगे. तुम से मिल कर मन बहुत खुश है और बड़ी राहत भी महसूस कर रहा है. तुम्हारा बेटा रवि हमें तो बहुत भाया है. मेरी दिली इच्छा है कि इस घर से हमारा रिश्ता जरूर जुड़ जाए.’’

पापा के चेहरे के भाव साफ बता रहे थे कि उन की वही इच्छा है जो सीमा आंटी की है.

उन सब के जाने के बाद राजीव भैया पापा से उलझ गए, ‘‘आप को यह कहने की क्या जरूरत थी कि हमें दहेज में एक पैसा भी नहीं चाहिए? उन्हें इंजीनियर लड़का चाहिए तो शादी अच्छी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अपनी बेटी की अच्छी शादी तो हर मांबाप करते ही हैं. सीमा से जानपहचान ही ऐसी निकल आई कि अपने मुंह से कुछ मांग बताने पर मैं अपनी ही नजरों में गिर जाता,’’ पापा ने शांत स्वर में भैया को समझाया.

‘‘कालेज के दिनों में आप का उन के साथ कोई प्यार का चक्कर तो नहीं चला था न?’’ राजीव भैया ने उन्हें छेड़ा.

‘‘अरे, नहीं,’’ पापा एकदम से शरमाए तो हम तीनों ठहाका मार कर हंस पड़े थे.

‘‘आगे से बिलकुल दहेज न लेने की बात मत करना, पापा,’’ ऐसी सलाह दे कर राजीव भैया अपने कमरे में चले गए थे.

पापा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए मुझ से कहा, ‘‘तेरा बड़ा भाई उन लोगों में से है जिन का पेट कभी नहीं भरता. लेकिन तू चिंता न कर बच्चे, अगर सीमा की बेटी सूरत, सीरत से अच्छी हुई तो मैं तेरे भाई की एक न सुनते हुए रिश्ता पक्का कर दूंगा.’’

‘‘ठीक कह रहे हैं आप, पापा. सीमा आंटी के नोट्स पढ़ कर आप ने जो गे्रजुएशन किया है, अब उस एहसान का बदला चुकाने का वक्त आ गया है. आप गुंजन को देखे बिना भी अगर इस रिश्ते को ‘हां’ करना चाहें तो मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा.’’

मेरी इस बात को सुन पापा बहुत खुश हुए और दिल खोल कर खूब हंसे भी.

रविवार को हम लोग शाम के 5 बजे के करीब सीमा आंटी के घर पहुंच गए. उन के भैयाभाभी और बेटीदामाद ने हमारा स्वागत किया. कुछ देर बाद गुंजन भी हम सब के बीच आ बैठी थी.

पहली नजर में उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया. वह मुझे सुंदर ही नहीं बल्कि स्मार्ट भी लगी. हम सब के साथ खुल कर बातें करने में वह जरा भी नहीं हिचक रही थी.

मेरे बारे में कुछ जानने से ज्यादा उसे पापा से अपनी मम्मी के कालेज के दिनों की बातें सुनने में ज्यादा दिलचस्पी थी. पापा एक बार उन दिनों के बारे में बोलना शुरू हुए तो उन्हें रोकना मुश्किल हो गया. उन के पास सुनाने को बहुत कुछ ऐसा था जिस से हम दोनों भाई भी परिचित नहीं थे. पापा को खूब बोलते देख राजीव भैया मन ही मन कुढ़ रहे थे, यह उन के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था. मुझे तो पापा के चेहरे पर नजर आ रही चमक बड़ी अच्छी लग रही थी. उन के कालेज के दिनों की बातें सुनने में मुझे सचमुच बहुत मजा आ रहा था.

‘‘उन दिनों साथ पढ़ने वाली लड़कियों के साथ लड़कों का बाहर घूमने या फिल्म देखने का सवाल ही नहीं पैदा होता था. लड़कियां कभी कालेज की कैंटीन में चाय पीने को तैयार हो जाती थीं तो लड़के फूले नहीं समाते थे.’’

‘‘तब अधिकतर एकतरफा प्यार हुआ करता था. कोई हिम्मती लड़का ही गर्लफ्रैंड बना पाता था, नहीं तो अधिकतर अपने दिल की रानी के सपने देखते हुए ही कालेज की पढ़ाई पूरी कर जाते थे,’’ पापा ने बड़े प्रसन्न व उत्साहित लहजे में हम सब को अपने समय की झलक दिखाई थी.

‘‘तब लड़कों के मुंह से प्यार का इजहार करने की हिम्मत तो यकीनन कम होती थी पर वे प्रेमपत्र खूब लिखा करते थे. गुमनाम प्रेमपत्र लिखने की कला में तो राजेंद्र, तुम भी माहिर थे,’’ सीमा आंटी ने अचानक यह भेद खोला तो पापा एकदम से घबरा उठे थे.

‘‘मैं ने किसे गुमनाम प्रेमपत्र लिखा था?’’ पापा ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अनिता तुम्हारे सारे प्रेमपत्र हम सहेलियों को पढ़ाया करती थी.’’

‘‘जब मैं ने किसी पत्र पर अपना नाम लिखा ही नहीं था तो तुम कैसे कह सकती हो कि वे…अरे, यह तो आज मैं ने अपनी पोल खुद ही खोल दी.’’

पापा हम से आंखें मिलाने में शरमा रहे थे. हमारी हंसी बंद होने में नहीं आ रही थी. मुझे शरमातेमुसकराते पापा उस वक्त बहुत ही प्यारे लग रहे थे.

चायनाश्ते के बाद गुंजन और मुझे आपस में खुल कर बातें करने के लिए पास के पार्क में भेज दिया गया. पार्क में पहुंचते ही गुंजन ने साफ शब्दों में मुझ से कहा, ‘‘मेरी बात का बुरा न मानना, मैं तुम से अभी शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘अभी से तुम्हारा क्या मतलब है?’’ मैं ने कुछ चिढ़ कर पूछा.

‘‘मुझे पहले एमबीए करना है और बहुत अच्छे कालेज से करना है. उतनी तैयारी शादी के बाद नहीं हो सकती है.’’

‘‘यह बात तुम ने पहले सब को क्यों नहीं बताई?’’

‘‘मम्मी शादी करने के लिए मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. उन से जान छुड़ाने के लिए मैं 2-3 महीनों में एक लड़के से मिलने का नाटक कर लेती हूं.’’

‘‘और तुम्हें उसे रिजैक्ट करना होता है…जैसे अब मुझे करोगी. वाह, तुम ने अपने मनोरंजन के लिए बढि़या खेल ढूंढ़ा हुआ है.’’

‘‘अगर तुम्हें पूरी तरह से रिजैक्ट करूंगी भी तो आज नहीं, कुछ दिनों के बाद करूंगी.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं ने चौंक कर उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘मैं तसल्ली से तुम्हें सब समझाती हूं,’’ उस ने उत्साहित अंदाज में मेरा हाथ पकड़ा और पास में पड़ी बैंच की तरफ बढ़ चली.

उस बैंच पर घंटे भर बैठने के बाद हम दोनों घर लौट आए थे. जब हम ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तब सब की नजरें हम पर टिकी यह सवाल पूछ रही थीं, ‘क्या तुम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया है?’

गुंजन का इशारा पाने के बाद मैं ने सब को सूचित किया, ‘‘अभी हम दोनों किसी फैसले पर नहीं पहुंच पाए हैं. एकदूसरे को समझने के लिए हमें कुछ और वक्त चाहिए.’’

‘‘रवि वैसे दिल का बहुत अच्छा है पर थोड़ा पुराने खयालों का है. मेरे लिए अपना कैरियर…’’

‘‘जरूरत से कुछ ज्यादा ही अहमियत रखता है,’’ रवि ने मुसकराते हुए गुंजन को टोका, ‘‘इस मसले पर हमारे बीच काफी बहस हुई है, लेकिन वह बहस एकदूसरे को नापसंद करने का कारण नहीं बनी है. अगली कुछ मुलाकातों में अगर हम ने अपने मतभेद सुलझा लिए तो दोनों परिवारों के बीच में रिश्ता जरूर बन जाएगा.’’

‘‘आजकल के बच्चों की बस पूछो मत,’’ पापा ने माथे पर बल डाल कर सीमा आंटी से कहा, ‘‘मेरी समझ से गुंजन बहुत अच्छी लड़की है. मैं घर जा कर रवि से बात करता हूं. इसे मेरी खुशी की चिंता होगी तो जल्दी ही तुम तक खुशखबरी पहुंच जाएगी.’’

पापा के यों हौसला बढ़ाने पर सीमा आंटी मुसकराईं तो पापा का चेहरा भी खिल उठा था.

घर लौटने के बाद से पापा ने सवाल पूछपूछ कर मेरा दिमाग खराब कर दिया. ‘‘क्या कमी नजर आई तुझे गुंजन में? वह सुंदर है, स्मार्ट है, शिक्षित है और अच्छा कमा रही है. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘वक्त, पापा, वक्त. हम एकदूसरे को और ज्यादा अच्छी तरह से समझना चाहते हैं.’’

‘‘मन में बेकार की उलझन पैदा करने का क्या फायदा है? वह अच्छी लगी है न तुझे?’’

‘‘दिल की तो वह बहुत अच्छी है पर…’’

‘‘बस, शादी के लिए हां करने को यही बात काफी है. बाद में किसी भी शादी को सफल बनाने के लिए पतिपत्नी दोनों को समझौते तो करने ही पड़ते हैं.’’

‘‘आप गुंजन को समझाने के लिए भी कुछ बातें बचा लो, पापा,’’ मैं उन के पास से जान बचा कर भाग खड़ा हुआ था.

गुंजन और मेरी अगली मुलाकात उस के घर में सीमा आंटी के जन्मदिन पर अगले शनिवार को हुई. हमें किसी ने बुलाया नहीं था. मैं ने पापा को जिद कर के तैयार किया और सुंदर सा फूलों का गुलदस्ता ले कर हम उन के घर पहुंच गए. अपने आने की सूचना सिर्फ आधे घंटे पहले मैं ने फोन पर गुंजन को दी थी.

उन लोगों के यहां हमारी खातिर करने की कोई तैयारी नहीं थी. गुंजन की दीदी और जीजाजी देर से डिनर पर आने वाले थे. तब मैं ने बाजार से खानेपीने का सामान लाने की जिम्मेदारी ले ली. गुंजन भी मेरे साथ बाजार चली आई थी. वे लोग नहीं चाहते थे कि खानेपीने की चीजों पर मैं खर्च करूं. हम लोग लौट कर घर आ गए. घर में पार्टी की गहमागहमी थी.

पापा की आवाज अच्छी है. उन्होंने हमारी फरमाइश पर 4 पुराने फिल्मी गाने सुनाए तो पार्टी में समा बंध गया. सीमा आंटी के बनाए सूजी के हलवे की जितनी तारीफ की जाए कम होगी.

वे सचमुच बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं, इस का एहसास हमें डिनर करने के समय हो गया था. हम तो डिनर के लिए रुकना ही नहीं चाहते थे पर गुंजन ने जबरदस्ती रोक लिया था. उस की दीदी व जीजाजी के साथ भी उस रात हमारे संबंध और ज्यादा मधुर हो गए.

 

डिनर के बाद गुंजन और मैं घर के बाहर की सड़क पर घूमने निकल आए. मैं उस की मम्मी की और गुंजन मेरे पापा के व्यक्तित्व व व्यवहार की खूब तारीफ कर रहे थे. अचानक उस ने मेरा हाथ पकड़ा और बगीचे में खुलने वाली खिड़की की तरफ चल पड़ी.

‘‘मैं कुछ देखना और तुम्हें दिखाना चाहती हूं,’’ मैं कुछ पूछूं, उस से पहले ही उस ने मुझे अपने मन की बात बता दी थी.

बैठक में रोशनी होने के कारण हम तो अंदर का दृश्य साफ देख सकते थे पर अंदर बैठे लोगों के लिए हमें देखना संभव नहीं था.

बैठक में गुंजन के जीजाजी किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहे थे. उस की बहन टीवी देख रही थी. सीमा आंटी और पापा आपस में बातें करने में पूरी तरह से मशगूल थे.

अचानक पापा की किसी बात पर सीमा आंटी खिलखिला कर हंस पड़ीं. पापा ने अपनी मजाकिया बात को कहना जारी रखा तो सीमा आंटी के ऊपर हंसी का दौरा सा ही पड़ गया था.

वे बारबार इशारे कर पापा से चुप होने का अनुरोध कर रही थीं पर वे रुकरुक कर कुछ बोलते और सीमा आंटी फिर जोर से हंसने लगतीं.

‘‘मैं ने अपनी मम्मी को इतना खुश पहले कभी नहीं देखा,’’ गुंजन भावुक हो उठी.

‘‘इस वक्त दोनों के चेहरों पर कितनी चमक है,’’ मैं ने प्रसन्न स्वर में कहा, ‘‘लगता है कि हम ने इन दोनों के बारे में जो सपना देखा है, वह बिलकुल ठीक है.’’

‘‘इस उम्र में ही तो इंसान को एक हमसफर की सब से ज्यादा जरूरत होती है.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि ये दोनों एकदूसरे से शादी करने का फैसला कर ही लेंगे.’’

‘‘जब तक ये ऐसा फैसला नहीं करते, हम अपनी शादी के मामले को लटकाए रख कर इन्हें मिलनेजुलने के मौके देते रहेंगे.’’

‘‘तुम्हारी जैसी समझदार दोस्त को पा कर मुझे बहुत खुशी होगी. इन दोनों की शादी कराने का तुम्हारा आइडिया लाजवाब है, गुंजन.’’

‘‘तुम्हारे भैयाभाभी इस शादी का ज्यादा विरोध तो नहीं करेंगे?’’ गुंजन की आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘भैया को इस बात की चिंता तो जरूर सताएगी कि सीमा आंटी हमारी नई मां बन कर पापा की जायदाद में हिस्सेदार बन जाएंगी.’’

‘‘फिर बात कैसे बनेगी?’’

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब सीमा आंटी और पापा के चेहरे की चमक दे रही है. उन की खुशी और हित को ध्यान में रख मैं अपना हिस्सा भैया के नाम कर दूंगा,’’ इस निर्णय को लेने में मेरे दिल ने रत्ती भर हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी.

‘‘तुसी तो गे्रट हो, दोस्त.’’

‘‘थैंक यू,’’ पापा के सुखद भविष्य की कल्पना कर मैं ने जब अचानक गुंजन को गले से लगाया तब हम दोनों की पलकें नम हो रही थीं.

Father’s day 2023: पिताजी- जब नीला को ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

विनीता दीदी ने डाक्टर के कहे अनुसार मम्मी के लिए पतली सी खिचड़ी बनाई, चाय बनाई, भैया के लिए खाना बनाया और पैक कर के मोहन भैया को वापस अस्पताल भेज दिया. पिताजी घर पर ही बैठे रहे. विनीता दीदी ने पूरे घर के लिए खाना बनाया और खिलाया. मैं घर के काम में उन का हाथ बंटाती रही.

कालेज जाने का मन नहीं किया. एक बार पिताजी से डर भी लगा कि जरूर डांटेंगे कि कालेज क्यों नहीं गई. छोटी बहन पूर्वी तो स्कूल चली गई थी. पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी, उन के बिना बोले ही मैं ने दीदी को कहा, ‘‘आज मेरा मन कालेज जाने का नहीं है. आप मुझे कुछ मत कहना,’’ कहते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. दीदी ने मुझे हैरानगी से देखा पर पिताजी की तरफ नजर पड़ते ही वे समझ गईं कि मैं क्यों ऐसा बोल रही हूं. पिताजी भी कुछ नहीं बोले.

स्कूल से लौट कर पूर्वी को मम्मी के अस्पताल दाखिल होने का पता चला तो वह रोने लगी. मेरा भी मन कर रहा था कि उस के साथ रोने लगूं, पर यह सोच कर आंसू पी गई कि पिताजी डांटेंगे कि क्या तुम सब पागल हो गए हो जो रो रहे हो. बीमार ही तो हुई है, एकदो दिन में ठीक हो जाएगी.

मम्मी कभी इतनी बीमार तो पड़ी ही नहीं थीं कि उन्हें अस्पताल जाना पड़ता. पिताजी अपने कमरे में किताब पढ़तेपढ़ते दोपहर को सो गए, फिर शाम को पार्क में सैर करने निकल गए. पंकज भैया की प्राइवेट नौकरी थी इसलिए आफिस में खबर करनी थी. मोहन भैया की सरकारी नौकरी थी. सो उन्होंने फोन कर के आफिस में बता दिया था.

विनीता दीदी भी आफिस नहीं गईं. उन्होंने भी फोन कर दिया था. पिताजी ने तो भैया के कहने से कब से काम करना छोड़ दिया था. विनीता दीदी मुझे रात की रसोई का काम समझा कर मम्मी के पास अस्पताल चली गईं.

अब घर पर मैं, पिताजी और पूर्वी थे. पंकज भैया भी आफिस से सीधे अस्पताल चले गए. बड़े भैया जगदीश और भाभी तो अलग ही थे. वे हम लोगों से कम ही वास्ता रखते थे, ऐसे में उन्हें कोई काम कहा ही नहीं जा सकता था. पापा बोलते थे कि जगदीश जोरू का गुलाम हो गया है, वह किसी काम का नहीं अब.

दीदी कभीकभी पिताजी को सुना दिया करती थीं कि अगर पति अपनी पत्नी का हर कहना मानता है तो इस में हर्ज ही क्या है? इस पर पिताजी कहते, ‘ऐसा आदमी कमजोर होता है. मैं उसे मर्द नहीं मानता.’ वैसे भी बड़े भैया के बदले हुए स्वार्थभाव को देख कर उन का होना न होना एक बराबर ही था.

मैं ने खाना बनाया, पूर्वी मेरी सहायता करती रही. पिताजी पार्क से आ कर चुपचाप कमरे में बैठे किताब पढ़ते रहे. कुछ नहीं बोले. शाम की चाय के साथ क्या खाएंगे, इस के जवाब में उन्होंने कोई मांग नहीं की.

भैया के आते ही पिताजी बिना कुछ बोले भैया के सामने बैठ गए. भैया ने बताया कि डाक्टर ने चैकअप किया है उस की परसों रिपोर्ट आएगी, तभी पता चल पाएगा कि असल बीमारी क्या है. यानी कि कम से कम 2 दिन तो और मम्मी को अस्पताल में रहना ही होगा. मेरी हवाइयां उड़ने लगीं. पंकज मेरी सूरत भांप गया, बोला, ‘‘तू क्यों घबरा रही है. वहां मम्मी को अच्छी तरह रखा हुआ है. डाक्टर जानपहचान की मिल गई थीं. उन्होंने एक नर्स को खासतौर पर मम्मी की तबीयत देखने के लिए हिदायत दे दी है. अलग से कमरा भी दिलवा दिया है.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर आश्वासन की लकीरें देखीं पर फिर तुरंत गायब होते भी देखीं. एक?दो दिन बीते. पता चला मम्मी को ‘यूरिन इन्फेक्शन’ हो गया है. डाक्टर ने कहा कि पूरा उपचार करना होगा, एक सप्ताह तो लगेगा ही. पूरे घर का रुटीन ही गड़बड़ा गया. कौन अस्पताल भाग रहा है, कौन मम्मी के पास बैठ रहा है, कौन रात को मम्मी के पास रहेगा, कौन घर संभालेगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जिस को जो काम दिख जाता वह कर लेता था.

जो मोहन भैया कभी एक गिलास पानी उठा कर नहीं पीते थे वे सुबहसुबह मम्मी के लिए चाय बना कर थर्मस में डाल कर भागते दिखते. पूर्वी को किचन की एबीसीडी नहीं पता थी मगर वह बैठ कर सब्जी काट रही होती, कभी दाल चढ़ा रही होती, कभी दूध गरम कर रही होती.

पिताजी का तो सारा रुटीन ही बदल गया था. वे सुबह उठते, सैर कर के आते तो सब के लिए चाय बना देते. फिर बिना चिल्लाए सब को उठाते और बिना नाश्ते की मांग किए ही अस्पताल चले जाते. एक बार तो अच्छा लगा कि पिताजी मम्मी के पास जा रहे हैं पर फिर यह सोच कर डर लगा कि कहीं अस्पताल में जा कर भी तो मम्मी को डांटते नहीं हैं कि तू दवा क्यों नहीं पी रही, तू उठ कर बैठने की कोशिश क्यों नहीं करती. तू अपने आप हिला कर ताकि जल्दी ठीक हो. सौ सवाल थे जेहन में पर जवाब एक का भी नहीं मिल पाता था. मुझे कभीकभी यह भी समझ में नहीं आता था कि मैं मम्मी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हूं? क्यों लगता है कि पिताजी उन्हें डांटें नहीं, उन्हें परेशान न करें. मैं मन ही मन पिताजी से नाराज हूं या आतंकित हूं, यह भी समझ में नहीं आता था.

मैं तो पूरी तरह घरेलू महिला ही बन गई थी. पूरे घर की सफाई, कपड़े और रसोई का काम. रात अस्पताल में रह कर दीदी सुबह लौटतीं तो उन के आने से पहले अधिकतर काम मैं निबटा चुकी होती थी. वे भी मुझे देख कर हैरान होतीं. दीदी रात की जगी होतीं तो नाश्ता करते ही बिस्तर पर सो जातीं. थोड़ा काम करवा पातीं कि फिर से उन के अस्पताल जाने का वक्त हो जाता.

दोनों भाई बारीबारी से छुट्टी ले रहे थे. एकदो बार तो यों भी हुआ कि पिताजी रात को करवटें बदलते रहे और उन की नींद सुबह खुली ही नहीं. वे भी 6 बजे हमारे साथ जागे. मुझे यही लगा कि पिताजी को आदत है हर समय मम्मी को डांटते रहने की. अब मम्मी सामने नहीं हैं तो परेशान हो रहे हैं कि किसे डांटूं. हमें डांटतेडांटते भी चुप हो जाते.

उस दिन शाम को पिताजी घर लौटे तो बोले, ‘‘नीला, कितने दिन हो गए तेरी मां को अस्पताल गए हुए?’’ मैं ने बिना उन्हें देखे चाय देते हुए जवाब दिया, ‘‘10 दिन तो हो ही गए हैं.’’

पिताजी बोले, ‘‘तेरा मन नहीं किया अपनी मां से मिलने को?’’

मैं इतने दिनों से मम्मी की कमी महसूस कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. पिताजी की इस बात से मेरे मन के भीतर कुछ उबाल सा उठने लगा. इस से पहले कि मैं कोई जवाब देती, पिताजी सपाट शब्दों में फिर बोले, ‘‘तेरी मां तुझे याद कर रही थी.’’ मैं भीतर के उबाल को रोक नहीं पाई, तेजी से रसोई में जा कर काम करतेकरते रोने लगी.

‘आप को क्या पता कि मैं कितनी परेशान हूं, हर पल मम्मी के घर आने की खबर का इंतजार कर रही हूं. वहां जाऊंगी और देखूंगी कि आप फिर मम्मी को ही हर बात के लिए दोष दे रहे हो, उन्हें डांट रहे हो तो और भी दुख होगा. वैसे भी आप को क्या फर्क पड़ता है कि मम्मी घर पर रहें या अस्पताल में.

‘अस्पताल में जा कर भी क्या करते होंगे, मुझे पता है? आप से दो शब्द तो प्रेम के बोले नहीं जाते, मम्मी को टेंशन ही देते होंगे, तभी मम्मी 10 दिन अस्पताल में रहने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हो पाई हैं. हम बच्चों से पूछिए जिन्हें हर पल मां चाहिए. भले ही वे हमारे लिए कोई काम करें या न करें. मम्मी भी मुझे याद कर रही हैं. सभी तो मम्मी से मिलने अस्पताल चले गए, एक मैं ही नहीं गई.’ मैं रोतेरोते मन ही मन हर पल पिताजी को कोसती रही.

सोचतेसोचते मेरे हाथ से दूध भरा पतीला फिसल कर जमीन पर गिर गया. पूरी रसोई दूध से नहा गई और मैं यह सोच कर घबरा गई कि पिताजी अभी जोर से डांटेंगे और चिल्लाएंगे. सोचा ही था कि पिताजी हाथ में चाय का कप लिए सामने आ गए. पूर्वी और मोहन भैया भी आ गए.

पिताजी चुपचाप खड़े रहे. मोहन भैया घबरा कर बोले, ‘‘तेरे ऊपर तो गरम दूध नहीं गिरा?’’ मैं कसमसाई, ‘‘नहीं, पर सारा दूध गिर गया.’’ पूर्वी पोछा लेने दौड़ी. पिताजी ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘‘मोहन, बाजार से और दूध ले आओ,’’ और वापस अपने कमरे में चले गए. मैं पिताजी की पीठ ही देखती रह गई. मोहन भैया भी शांति से बोले, ‘‘तू अपना ध्यान रखना, कहीं जला न बैठना, मैं और दूध ले आता हूं.’’ पता नहीं क्यों फिर मम्मी की याद आ गई और मैं रोने लगी.

अगले दिन विनीता दीदी ने भी कहा कि आज रात तू मम्मी के पास रहना, मम्मी याद कर रही थीं. वैसे भी मेरी रात की नींद पूरी नहीं हो पा रही, कहीं मैं भी बीमार न हो जाऊं. मेरा मन भी मम्मी से मिलने का हो रहा था. मैं जानबूझ कर ज्यादा देर से जाना चाहती थी ताकि पिताजी अपने समय से निकल कर घर आ जाएं और मैं मम्मी के गले लग कर खूब रो सकूं. सब दिनों की कसर पूरी हो जाए.

मैं अस्पताल के आंगन में बिना वजह आधा घंटा बरबाद कर के मम्मी के स्पेशल वार्ड में पहुंची कि अब तो पिताजी निकल ही गए होंगे, पर जैसे ही अंदर जाने लगी पिताजी की आवाज सुनाई दी तो मेरे कदम वहीं रुक गए.

‘‘वीना, तू कह तो रही है मुझे जाने के लिए, लेकिन मेरा मन नहीं मानता कि तुझे अकेला छोड़ कर जाऊं. तेरे बिना मुझे घर काटने को दौड़ता है. मुझे तेरे बिना जीने की आदत नहीं है,’’ पिताजी का स्वर रोंआसा था.

‘‘आप तो इतने मजबूत दिल के हो, फिर क्यों रो रहे हो?’’

‘‘हां, हूं मजबूत दिल का, दुनिया के सामने अपनी कमजोरी दिखा नहीं सकता, मर्द हूं न, लेकिन मेरा दिल जानता है कि पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है. तू जल्दी से ठीक हो जा, अब बरदाश्त नहीं हो रहा मुझे से,’’ पिताजी बच्चों की तरह फफक रहे थे.

‘‘आप ऐसे रोएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा. जाइए न. बच्चे भी तो घर पर अकेले होंगे,’’ मम्मी का स्वर भी रोंआसा था.

‘‘तू हाथ मत छुड़ा. अगर अस्पताल वाले मुझे इजाजत देते रात भर यहां रहने की तो दिनरात तेरी सेवा कर के तुझे साथ ले कर ही घर जाता. बच्चे भी तुझ पर गए हैं. मुझ से बोलते नहीं, पर सब तेरे घर आने का ही इंतजार कर रहे हैं. कोई अब शोर नहीं मचाता, न ही कोई टीवी देखता है,’’ पिताजी के शब्द आंसुओं में फिसलने लगे थे. मम्मी भी उसी में पिघल रही थीं.

आंसुओं से मेरी भी आंखें धुंधला गई थीं. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पिताजी के पत्थर दिल के पीछे प्रेम की अमृतधारा का इतना बड़ा झरना बह रहा है, यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाई. मैं ने तो अपनी मम्मीपापा को एकसाथ बिस्तर पर हाथ में हाथ डाले बैठे नहीं देखा था लेकिन आज जो मेरे कानों ने मुझे नजारा दिखाया वह मेरी आंखें भी देखना चाह रही थीं. प्यार से लबालब भरे पिताजी की इस सूरत को देखने के लिए मैं तेजी से वार्ड में प्रवेश कर गई.

मेरे सामने आते ही पिताजी ने मम्मी के हाथ से अपना हाथ तेजी से हटा लिया. मैं एकदम मम्मी के गले लग कर जोर से रो पड़ी. मम्मी भी रो पड़ी थीं, ‘‘पागल है, रो क्यों रही है? मैं तो एकदो दिन में आ रही हूं.’’

वे नहीं जानती थीं कि मेरे इन आंसुओं में पिताजी की ओर से मेरा हर रोष धुल गया था. मैं ने पिताजी को कनखियों से देखा. पिताजी का चेहरा आंसुओं से खाली था पर अब मुझे वहां पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी दिख रहे थे, जो हमसब को खासतौर पर मम्मी को, बहुतबहुत प्यार करते थे.

Father’s day 2023: निदान- कौनसे दर्द का इलाज ढूंढ रहे थे वो

आने वाला कल हमें हजार बार रुला सकता है, सैकड़ों बार शरम से झुका सकता है और न जाने कितनी बार यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि कल हम ने जो फैसला लिया था वह वह नहीं होना चाहिए था जो हुआ था.

‘‘आप क्या सोचने लगे, डाक्टर सुधाकर. भीतर चलिए न, चाय का समय समाप्त हो गया.’’

मैं सेमिनार में भाग लेने मुंबई आया हूं. आया तो था अपना कल, अपना आज संवारने, अपने पेशे में सुधार करने, कुछ समझने, कुछ जानने लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिसे पहले नहीं जानता था और शायद भविष्य में भी न जान पाऊं… उस में जाननेसमझने के लिए बहुत कुछ है.

अपने ही समाज में जड़ पकड़े कुछ विकृतियां क्यों पनप कर विशालकाय समस्या बन गईं और क्यों हम उन्हें काट कर फेंक नहीं पाते? क्यों हम में इतनी सी हिम्मत नहीं है कि सही कदम उठा सकें? कुछ अनुचित जो हमारी जीवन गति में रुकावट डालता है. उसे हम क्यों अपने जीवन से निकाल नहीं पाते? मेरा आज क्या हो सकता था उस का अंदाजा आज हो रहा है मुझे. मैं ने क्या खो दिया उस का पता आज चला मुझे जब उसे देखा.

‘‘आप की आंखें बहुत सुंदर हैं और बहुत साफ भी.’’

‘‘मैं चश्मा लगाती हूं पर आज लैंस लगाए हैं,’’ एक पल को चौंका था मैं.

‘‘आप के पापा से मेरे पापा ने बात की थी कि मैं चश्मा लगाती हूं, आप को पता है न.’’

‘‘हां, पापा ने बताया था.’’

याद आया था मुझे. मुसकरा दी थी वह. मानो चैन की सांस आई हो उसे. अच्छी लगी थी वह मुझे. महीने भर हमारी सगाई की बात चली थी. तसवीरों का आदानप्रदान हो चुका था जिस कारण वह अपनीअपनी सी भी लगने लगी थी.

‘‘डाक्टरी के पेशे में एक चीज बहुत जरूरी है और वह है हमारी अपनी अंतरात्मा के प्रति जवाबदेही…’’

ऐसी ही तो मानसिकता पसंद थी मुझे. सोच रहा था कि जीवनसाथी के रूप में मेरे ही पेशे की कोई मेधावी डाक्टर साथ हो तो मैं जीवन में तरक्की कर सकता हूं.

एक दिन मेरे पिताजी ने अखबार में शादी का विज्ञापन देखा तो झट से फोन कर दिया था. दूरी बहुत थी हमारे और उस के शहर में. हम कानपुर के थे और वह जम्मू की.

पिताजी ने फोन करने के बाद मुझे बताया था कि उन्होंने अपना फोन नंबर दे दिया है. शाम को लड़की के पापा आएंगे तो अपना पता देंगे ऐसा उत्तर उस की मां ने दिया था.

बात चल पड़ी थी. बस, आड़े थी तो जाति की सभ्यता और दहेज को ले कर हमारी खुल्लमखुल्ला बातें. महीने भर में हमारे बीच कई बार विचारों का आदानप्रदान हुआ था.

मेरे पिता ने पूरा आश्वासन दिया था कि दहेज की बात न होगी और उस के बाद ही वे हमारे शहर आने को मान गए थे. बहुत अच्छा लगा था हमें उस का परिवार. उन को देखते ही लगा था मुझे कि बस, ऐसा ही परिवार चाहिए था.

बड़े ही सौम्य सभ्य इनसान. हम से कहीं ज्यादा अच्छा जीवनस्तर होगा उन का, यह उन्हें देखते ही हम समझ गए थे आज 7 साल बाद वही सेमिनार में वही लड़की भाषण दे रही थी :

‘‘एक अच्छा होम्योपैथ सब से पहले एक अच्छा इनसान हो यह उस की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. जो इनसान अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं है वह अपने पेशे की उस ऊंचाई को कभी नहीं छू सकता जिस ऊंचाई को डाक्टर क्रिश्चियन फिड्रिक सैम्युल हैनेमन ने छुआ था. एक सफल डाक्टर को उस के बैंक बैलेंस से कभी नहीं नापा जाना चाहिए क्योंकि डाक्टरी का पेशा किसी बनिए का पेशा कभी नहीं हो सकता.’’

ऐसा लगा, उस ने मुझे ही लक्ष्य किया हो. आज सुबह से परेशान हूं मैं. तब से जब से उसे देखा है.

नजर उठा कर मैं सामने नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि बारबार ऐसा लग रहा है कि उस की नजर मुझ पर ही टिकी है.

मैं अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं रह पाया और न ही अपनी अंतरात्मा के प्रति. मैं एक अच्छा इनसान नहीं बन पाया. क्या सोचा था क्या बन गया हूं. 7-8 साल पहले मन में कैसी लगन थी. सोचा था एक सफल होम्योपैथ बन पाऊंगा.

उस के शब्द बारबार कानों में बज रहे हैं. क्या करूं मैं? इनसान को जीवन में बारबार ऐसा मौका नहीं मिलता कि वह अपनी भूल का सुधार कर पाए.

मेरी जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा. मैं बाहर चला आया. मेरी पत्नी का फोन है. पूछ रही है जो सामान उस ने मंगाया था मैं ने उसे खरीद लिया कि नहीं. एक ऐसी औरत मेरे गले में बंध चुकी है जिसे मैं ने कभी पसंद नहीं किया और जिसे मेरा पेशा कभी समझ में नहीं आया. वास्तव में आज मैं केवल बनिया हूं, एक डाक्टर नहीं.

‘कैसे डाक्टर हो तुम? डाक्टरों की बीवियां तो सोनेचांदी के गहनों से लदी रहती हैं. मेरे पिता ने 10 लाख इसलिए नहीं खर्च किए थे कि जराजरा सी चीज के लिए भी तरसती रहूं.’ कभीकभार वह प्यार भरी झिड़की दे कर कहती.

सच है यह, उस के पिता ने 10 लाख रुपए मेरे पिता की हथेली पर रख कर एक तरह से मुझे खरीद लिया था. यह भी सच है कि मैं ने भी नानुकुर नहीं की थी, क्योंकि हमारी बिरादरी का यह चलन ही है जिसे पढ़ालिखा या अनपढ़ हर युवक जानेअनजाने कब स्वीकार कर लेता है पता नहीं चलता.

हमारे घरों की लड़कियां बचपन से लेनदेन की यह भाषा सुनती, बोलती  जवान होती हैं जिस वजह से उन के संस्कार वैसे ही ढल जाते हैं. हमारी बिरादरी में भावनाएं और दिल नहीं मिलाए जाते, जेब और औकात मिलाई जाती है.

जेब और औकात मिलातेमिलाते कब हम अपनी राह से हट कर किसी की भावनाओं को कुचल गए थे हमें पता ही नहीं चला था.

मुझे याद है, जब उस के मातापिता 7 साल पहले उसे साथ ले कर आए थे.

मेरे पिता ने पूछा था, ‘आप शादी में कितना खर्च करना चाहते हैं. यह हमारा आखिरी सवाल है, आप बताइए ताकि हम आप को बताएं कि 5 लाख रुपए कहांकहां और कैसेकैसे खर्च करने हैं.’

सबकुछ तय हो गया था पर पिताजी द्वारा पूछे गए इस अंतिम प्रश्न ने उस रिश्ते को ही अंतिम रूप दे दिया जो अभी नयानया अंकुरित हो रहा था.

‘आप ने अपनी बेटी को क्याक्या देने के बारे में सोच रखा है?’

मेरी मौसी ने भी हाथ नचा कर पूछा था. भौचक रह गए थे उस के मातापिता. एक कड़वी सी हंसी चली आई थी उन के होंठों पर. कुछ देर हमारे चेहरों को देखते रहे थे वे दोनों. हैरान थे शायद कि मेरे पिता अपने कहे शब्दों पर टिके नहीं रह पाए थे. सब्र का बांध मेरे पिता टूट जाने से रोक नहीं पाए थे’, ‘आखिर बेटी पैदा होती है तो मांबाप सोचना शुरू करते हैं. आप ने क्या सोचा है?’ पुन: पूछा था मेरी मौसी ने.

‘हम अपने लड़कों का सौदा नहीं करते और न यह बता सकते हैं कि बेटी को क्याक्या देंगे. यह तो हमारा प्यार है जिसे हम सारी उम्र बेटी पर लुटाएंगे. अपने प्यार का खुलासा हम आप के सामने कैसे करें?’

‘बहुएं भी तब आप के घरों में ही जला कर मारी जाती हैं. न आप लोग खुल कर मांगते हैं न ही आप के मन की मंशा सामने आती है. हमारी बिरादरी में तो सब बातें पहले ही खोल ली जाती हैं. बेटी के बाप की हिम्मत होगी तो माथा जोड़े नहीं तो रास्ता नापे.’ मौसी ने फिर अपना अक्खड़पन दर्शाया था.

अवाक् रह गए थे उस के मातापिता. मेरे पिता कोशिश कर रहे थे सब संभालने की. किसी तरह खिसिया कर बोले थे, ‘बहनजी ने फोन पर बताया था न… 5 लाख तक आप खर्च…’

‘अपनी इच्छा से हम 50 लाख भी खर्च कर सकते हैं. माफ कीजिएगा, आप की मांग पर एक पैसा भी नहीं.’

शीशे सा टूट गया था वह रिश्ता जिस के पूरा होने पर मैं क्याक्या करूंगा, सब सोच रखा था. मेरे क्लीनिक में उस की कुरसी कहां होगी और मेरी कहां. कुछ नहीं कर पाया था मैं. पिता के आगे जबान खोल ही न पाया था.

शायद यह हमारी कल्पना से भी परे था कि वह लोग इतनी लंबीचौड़ी प्रक्रिया के बाद इनकार भी कर सकते हैं. हमारा व्यवहार इतना अशोभनीय था कि कम से कम उस का क्षोभ मुझे सदा रहा. अपनी मुंहफट मौसी का व्यवहार भी सालता रहता है मुझे. क्या जरूरत थी उन्हें ऐसा बोलने की.

उस के पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले थे, ‘आप का एक ही बेटा है. अच्छा होगा आप अपनी बिरादरी में ही कहीं कोई योग्य रिश्ता देखें. मुझे नहीं लगता हमारी बच्ची आप के साथ निभा पाएगी. देखिए साहब, हम तो शुरू से ही आप से कह रहे थे कि आप के और हमारे रिवाजों में जमीनआसमान का अंतर है तब आप ने कहा था, आप को डाक्टर बहू चाहिए. और अब हम देख रहे हैं कि आप की नजर हमारी बेटी पर कम हमारी जेब पर ज्यादा है.

‘हमारी बिरादरी में लड़के वाला मुंह फाड़ कर मांगता नहीं है, लड़की वाला अपनी यथाशक्ति सदा ज्यादा ही करने का प्रयास करता है क्योंकि अपनी बच्ची के लिए कोई  कमी नहीं करता. शरम का एक परदा हमेशा लड़के वाले और लड़की वालों में रहता है. यह भी सच है, बहुएं जल कर मर जाती हैं. उन में भी दहेज के मसले इतने ज्यादा नहीं होते जितने दिखाने का आजकल फैशन हो गया है.’

मुझे आज भी अपनी मां का चेहरा याद है जो इस तरह मना करने पर उतर गया था. हालात इतनी सीधीसादी चाल चल रहे थे कि अचानक पलट जाने की किसी को आशंका न थी.

‘मुझे कोई मजबूरी तो है नहीं जो अपनी बच्ची इतनी दूर ब्याह कर सदा के लिए सूली पर चढ़ जाऊं. अच्छे लोगों की तलाश में हम इतनी दूर आए थे, वह भी बारबार आप लोगों के बुलाने पर वरना ऐसा भी नहीं है कि हमारी अपनी बिरादरी में लड़के नहीं हैं. क्षमा कीजिएगा हमें.’

लाख हाथपैर जोड़े थे तब मेरे पिता ने. कितना आश्वासन दिया था कि हम कभी दहेज के बारे में बात नहीं करेंगे लेकिन बात निकल गई थी हाथ से.

आज मैं जब सेमिनार में चला आया हूं तो कुछ सीखा कब? पूरा समय अपना ही कल और आज बांचता रहा हूं. 3 दिन में न जाने कितनी बार मेरा उस से आमनासामना हुआ लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उस से बात करने की.

तीसरा दिन आखिरी दिन था. उस ने मुझे फोन किया. कहा, समय हो तो साथ बैठ कर एक प्याला चाय पी लें.

उस के सामने बैठा तो ऐसा लगा  जैसे 7-8 साल पीछे लौट गया हूं जब पहली बार मिलने पर अपने पेशे के बारे में क्याक्या बातें की थीं हम ने.

‘‘कैसे हैं आप, डाक्टर सुधाकर?’’

आत्मविश्वास उस का आज भी वैसा ही है जिस से मैं प्रभावित हुए बिना रह न पाया था.

‘‘आप मुझ से बात करना चाहते हैं न?’’

उस के इस प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. मुझे तो याद नहीं मैं ने कोई एक भी प्रयास ऐसा किया था. कर ही नहीं पाया था न.

‘‘एक अच्छा डाक्टर वह होता है जो सामने वाले के हावभाव देख कर ही उस की दवा क्या होगी, उस का पता लगा ले. नजर भी तेज होनी चाहिए.’’

चुप रहा मैं. क्या पूछता.

‘‘आप बिना वजह अपनेआप को कुसूरवार क्यों मान रहे हैं, डाक्टर सुधाकर?’’ उस ने कहा, ‘‘नियम यह है कि बिना जरूरत इनसान को दवा न दी जाए. एक स्वस्थ प्राणी अगर दवा खा लेगा तो उसी दवा का मरीज हो जाएगा.’’

मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. चश्मे से पार उस की आंखों में आज भी वही पारदर्शिता है.

‘‘पुरानी बातें भूल जाइए, हम अच्छे दोस्त बन कर बात कर सकते हैं. मैं जानती हूं कि आप एक बेहद अच्छे इनसान हैं. क्या सोच रहे हैं आप? प्रैक्टिस कैसी है आप की? आप की पत्नी भी…’’

‘‘कुछ भी…कुछ भी अच्छा नहीं है मेरा,’’ बड़ी हिम्मत की मैं ने इतनी सी बात स्वीकार करने में. इस के बाद जो झिझक खुली तो शुरू से अंत तक सब कह सुनाया उसे.

‘‘मैं हर पल घुटता रहता हूं. ऐसा लगता है चारों तरफ बस, अंधेरा ही है.’’

‘‘आप की प्रकृति ही ऐसी है. आप जिस इनसान की ओर से सब से ज्यादा लापरवाह हैं वह आप खुद हैं. आप अपने परिवार को दुखी नहीं कर सकते, सब को सम्मान देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को सम्मान नहीं देते.

‘‘8 साल पहले भी आप के जूते जगहजगह से उधड़े थे और आज भी. अपने कपड़ों का खयाल आप को तब भी नहीं था और आज भी नहीं है. क्या आप केवल पैसे कमाने की मशीन भर हैं? पहले मांबाप के लिए एक हुंडी और अब परिवार के लिए? क्या आप के लिए कोई नहीं सोचता, अपनी इच्छा का सम्मान कीजिए, डाक्टर सुधाकर. दबी इच्छाएं ही आप का दम हर पल घुटाती रहती हैं.

‘‘इतने साल पहले आप पिता या मौसी के सामने सही निर्णय न कर पाए, उस का भी यही अर्थ निकलता है कि आप के जीवन में आप से ज्यादा दखल आप के रिश्तेदारों का है. आप अपने लिए जी नहीं पाते इसीलिए घुटते हैं. अपने घर वालों को अपने मूल्य का एहसास कराएं. यह एक शाश्वत सत्य है कि बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच मेरे जूते फटे हैं? क्या 8 साल पहले जब हम मिले थे तब भी मेरा व्यक्तित्व साफसुथरा नहीं था?

‘‘आप के अंदर एक अच्छा इनसान तब भी था और आज भी है. जो नहीं हो पाया उसे ले कर आप दुखी मत रहिए. भविष्य में क्या सुधार हो सकता है इस पर विचार कीजिए. पत्नी ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है तो अब आप क्या कर सकते हैं. उसी में सुख खोजने का प्रयास कीजिए. दोनों बेटों को अच्छा इनसान बनाइए.’’

‘‘उन में भी मां के ही संस्कार हैं.’’

‘‘कोशिश तो कीजिए, आप एक अच्छे डाक्टर हैं, मर्ज का इलाज तो अंतिम सांस तक करना चाहिए न.’’

‘‘मर्ज वहां नहीं, मर्ज कहीं और है. मर्ज हमारे रिवाजों में है, बिरादरी में है.’’

‘‘मैं ने कहा न कि जो नहीं हो पाया उस का अफसोस मत कीजिए. वह सब दोबारा न हो इस के लिए अपने बच्चों से शुरुआत कीजिए जिस की कोशिश आप के पिता चाह कर भी न कर पाए थे.’’

‘‘आप को मेरे पिता भी याद हैं?’’ हैरान रह गया मैं. मुझे याद है मेरे पिता ने तो इन से बात भी कोई ज्यादा नहीं की थी.

‘‘हां, मेरी याददाश्त काफी अच्छी है. वह बेचारे भी अंत तक डाक्टर बहू की चाह और बिरादरी को जवाबदेही कैसे देंगे, इन्हीं दो पाटों में पिसते नजर आ रहे थे. ऐसा नहीं होता तो वह मेरे पापा से क्षमा नहीं मांगते. वह भी बिरादरी की जंजीरों को तोड़ नहीं पाए थे.’’

‘‘आप सब समझ गई थीं तो अपने पिता को मनाया क्यों नहीं था.’’

हंस पड़ी थी वह. उस के सफेद मोतियों से दांत चमक उठे थे.

‘‘जो इनसान अपने अधिकार की रक्षा आज तक नहीं कर पाया वह मेरे मानसम्मान का क्या मान रख पाता? शक हो गया था मुझे. आप मेरे लिए योग्य वर नहीं थे.

‘‘रुपयापैसा आज भी मेरे लिए इतना महत्त्व नहीं रखता. मैं भी आप के योग्य नहीं थी. अलगअलग शैलियों के लोग एकसाथ खुश नहीं न रह सकते थे. भावनाओं को महत्त्व देने वालों का बैंक बैलेंस इतना नहीं होता जितना शायद आप को अच्छा लगता. बेमेल नाता निभ न पाता. बस, इसीलिए…’’

8 साल पहले का वह सारा प्रकरण किसी कथा की तरह मेरे सामने था.

‘‘संजोग में शायद ऐसा ही था. मैं ने कहा न, आप दोषी तब भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं. बस, जरा सा अपना खयाल रखिए, अपने मन की कीजिए. सब अच्छा हो जाएगा.’’

डा. विजयकर के सेमिनार में मैं कितने प्रश्न ले कर आया था, कितने ही मरीजों के बारे में पूछना चाहता था लेकिन क्या पता था कि सब से बड़ा बीमार तो मैं खुद हूं जो कभी अपने अधिकार, अपनी इच्छा का सम्मान नहीं कर पाया…तभी मौसी की आवाज काट देता, पिता की इच्छा को नकार देता तो बनती बात कभी बिगड़ती नहीं. आज अनपढ़ अक्खड़ पत्नी के साथ निभानी न पड़ती.

पता नहीं कब वह उठ कर चली गई. सहसा होश आया कि मैं ने उस के बारे में कुछ पूछा ही नहीं. कैसा परिवार है उस का? उस के पति कैसे हैं? पर गले का मंगलसूत्र, कीमती घड़ी और कानों में दमकते हीरे उसे मुझ से इक्कीस ही दर्शाते हैं. आत्मविश्वास और दमकती सूरत बताती है कि वह बहुत सुखी है, बहुत खुश है. एक अच्छे इनसान की खोज में वह अपने मातापिता के साथ इतनी दूर आई थी न, मैं ही पत्थर निकला तो वह भी क्या करती.

कितना सब हाथ से निकल गया न. उठ पड़ा मैं. मन भारी भी था और हलका भी. भारी यह सोच कर कि मैं ने क्या खो दिया और हलका यह सोच कर कि अभी भी पूरा जीवन सामने पड़ा है. अपने बेटों का जीवन संवार कर शायद अपनी पीड़ा का निदान कर पाऊं.

Father’s day 2023: क्या आप पिता बनने वाले हैं

दृश्य1: दिल्ली मैट्रो रेल का एक कोच

यात्रियों से खचाखच भरे दिल्ली मैट्रो के एक कोच में एक आदमी चढ़ता है. उस के एक कंधे पर लंच बैग तो दूसरे कंधे पर लैपटौप बैग टंगा है. उस के हाथ में एक मोटी किताब भी है जिस पर लिखा है, ‘गर्भावस्था में पत्नी का कैसे रखें खयाल.’ उसे किताब पढ़ता देख कर बगल में खड़ा दूसरा आदमी पूछ ही लेता है, ‘‘कृपया बुरा न मानें मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या आप पिता बनने वाले हैं?’’ इस पर किताब वाले आदमी का जवाब होता है, ‘‘हां.’’

दृश्य2: फरीदाबाद स्थित एक अस्पताल

फरीदाबाद स्थित एक अस्पताल में जहां शिशु की देखभाल संबंधी ट्रेनिंग चल रही है, वहां कुछ पुरुष छोटे बच्चों के खिलौने थामे खड़े हैं, तो कोई बच्चे को सुलाने की प्रैक्टिस कर रहा है. कोईर् डाइपर बदलने की तैयारी में है, तो कुछ बच्चे को नहलाना तो कुछ उसे तौलिए में लपेटना सीख रहे हैं. कुछ डाक्टर पुरुषों को बच्चे के जन्म के बाद उस की देखरेख करने के टिप्स बता रहे हैं.

ये कुछ ऐसे दृश्य हैं जिन को देख कर महिलाएं भले ही आश्चर्यचकित हों पर आज पुरुषों द्वारा बच्चे को संभालने की ट्रेनिंग लेना और गर्र्भावस्था पर आधारित किताबें पढ़ना बदलती सोच को उजागर करता है. दरअसल, भारतीय समाज की कईर् कुरीतियों में से एक कुरीति यह भी है कि बच्चे को पैदा करने के बाद उस की देखरेख की और अन्य सारी जिम्मेदारियां महिलाओं के सिर पर ही मढ़ दी जाती हैं. पुरुषों का काम सिर्फ बच्चे की परवरिश के लिए आर्थिक सहयोग देने तक ही सिमट कर रह जाता है.

पति की जिम्मेदारी

एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस के गाइनेकोलौजिस्ट विभाग की एचओडी डा. अनीता कांत, जो ऐेसे दंपतियों की काउंसलिंग भी करती हैं और उन्हें ट्रेनिंग भी देती हैं, का कहना है, ‘‘देखिए, यह एक परंपरा बन चुकी है. और इसे बनाने वाले घर के बड़ेबुजुर्ग ही होते हैं. दरअसल, लड़कों को शुरू से ही इतना पैंपर किया जाता है कि उन्हें घरेलू कार्यों में कतई दिलचस्पी नहीं रहती. पिता बनने के बाद भी उन में उतनी परिपक्वता नहीं आ पाती जितनी कि महिलाओं में आती है. वे जीवन में होने वाले इस बदलाव को उतनी जिम्मेदारी के साथ महसूस नहीं कर पाते जितना एक महिला कर पाती है. पत्नी और बच्चे की देखभाल की बात आती है तो वे अपने कदम पीछे कर लेते हैं. इस में भी बड़ेबुजुर्गों खासतौर पर लड़के की मां का तर्क होता है कि वह खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकता तो पत्नी या बच्चे की कैसे करेगा? जबकि यह सरासर गलत है. बच्चे को जन्म देना पति और पत्नी दोनों का आपसी निर्णय होता है. ऐसे में गर्भावस्था के दौरान और उस के बाद पति की जिम्मेदारी बनती है कि वह हर कदम पर पत्नी को सहयोग दे. यह सहयोग केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि मानसिक और शारीरिक रूप से भी हो, तो ज्यादा बेहतर है.

‘‘इतना ही नहीं घर के कामकाज में भी पति को पत्नी का हाथ बंटाना चाहिए. यह कह कर पीछे नहीं हटना चाहिए कि ये तो औरतों के काम हैं. अगर महिला कामकाजी है तो खासतौर पर पति को इस बात का खयाल रखना चाहिए कि पत्नी को इस अवस्था में घर पर ज्यादा से ज्यादा आराम मिले.

‘‘गर्भावस्था के दौरान महिलाओं में कई शारीरिक बदलाव आते हैं. इन बदलावों के कारण उन्हें कोई न कोई तकलीफ जरूर होती है. ऐसे में जब पत्नी यह कहे कि उस का फलां काम करने का मन नहीं है, तो उसे बहाना न समझें, क्योंकि गर्भावस्था में महिलाएं बहुत थकावट महसूस करने लगती हैं.

पतियों का रवैया

कुछ पुरुषों को बंधन में बंधना बिलकुल रास नहीं आता. शादी के बाद भी वे बैचलरहुड का ही मजा लेना चाहते हैं और कई पुरुष ऐसा करने में सफल भी रहते हैं. लेकिन पत्नी के गर्भधारण करने और बच्चे के जन्म के बाद वे खुद बंधन में बंधा महसूस करने लगते हैं. डाक्टर के पास पत्नी को नियमित चैकअप के लिए ले जाना या गर्भधारण से जुड़ी पत्नी की समस्या को सुनना उन्हें बोरिंग लगने लगता है. यही नहीं, कुछ पति गर्भावस्था के दौरान पत्नी के बढ़े वजन और बेडौल होते शरीर की वजह से भी पत्नी को नजरअंदाज करना शुरू कर देते हैं.

पत्नी को अपने साथ कहीं बाहर ले जाने में भी उन्हें शर्म आती है. पति के इस व्यवहार से पत्नी खुद को उपेक्षित महसूस करने लगती है. कई बार महिलाएं अपने शरीर और बढ़ते वजन को देख अवसाद में आ जाती हैं. जबकि गर्भवती महिलाओं के लिए अवसाद की स्थिति में आना बहुत नुकसानदायक है.

भावनात्मक सपोर्ट जरूरी

बालाजी ऐक्शन मैडिकल इंस्टिट्यूट की सीनियर कंसल्टैंट और गाइनेकोलौजिस्ट डा. साधना सिंघल कहती हैं, ‘‘प्रसव के बाद महिलाओं के वजन और शरीर दोनों को ठीक करने के उपाय हैं. बस, पतियों को यह समझने की जरूरत है कि उन की पत्नी उन्हें संतान देने के लिए गर्भवती हुई है. इस दौरान पत्नी के शरीर के आकारप्रकार पर ध्यान देने की जगह पति को उस की सेहत और उसे खुश रखने पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यदि पत्नी किसी भी वजह से अवसाद में आती है तो इस का सीधा असर उस पर और होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ता है. इस के अलावा कई बार पति काम का बहाना बना कर चैकअप के लिए पत्नी के साथ नहीं जाते. ऐसा नहीं होना चाहिए. पति इस बात को समझे कि बच्चा सिर्फ पत्नी का ही नहीं है. जब पत्नी गर्भावस्था के दौरान होने वाली सारी पीड़ा सहती है, तो पति का भी फर्ज है कि वह अपनी पत्नी के लिए समय निकाले और उस की हर परेशानी से उबरने में मदद करे. चैकअप के लिए खासतौर पर डाक्टर के पास पत्नी के साथ जाए, क्योंकि डाक्टर मां और पिता दोनों की काउंसलिंग करती हैं. चैकअप के दौरान सिर्फ पत्नी को मैडिकल ट्रीटमैंट नहीं दिया जाता, बल्कि पति को भी मानसिक रूप से पिता बनने के लिए तैयार किया जाता है.

गर्भावस्था के दौरान एक पत्नी को पति का भावनात्मक सपोर्ट बेहद जरूरी होता है. विशेषज्ञ मानते हैं पति का यह सपोर्ट पत्नी को शारीरिक व मानसिक मजबूती देता है, जिस का अच्छा असर आने वाले शिशु पर भी पड़ता है.

पति भी सीखे सभी काम

इन सब के अलावा प्रसव को आसान बनाने के लिए गर्भवती को डाक्टर की सलाह से जो व्यायाम वगैरह करने होते हैं, उन में पति को पत्नी का पूरा सहयोग करना चाहिए.

बच्चे की देखभाल के लिए मैडिकल संस्थाओं द्वारा आयोजित विभिन्न ट्रेनिंग कार्यक्रमों में भी पत्नी के साथ हिस्सा लेना चाहिए. इन ट्रेनिंग कार्यक्रमों में कई जानकारियां ऐसी होती हैं, जो खासतौर पर पिता के लिए ही होती हैं. जैसे पिता को बच्चे को गोद में लेना, मां की अनुपस्थिति में बच्चे को फीड कराना, वैक्सिनेशन के लिए बच्चे को हौस्पिटल ले जाना आदि.

इन ट्रेनिंग कार्यक्रमों में सिर्फ इमोशनल थेरैपी ही नहीं, टच थेरैपी के फायदे भी बताए जाते हैं. दरअसल, गर्भावस्था में गर्भवती महिला को न सिर्फ उचित खानपान की जरूरत पड़ती है, उसे समयसमय पर हलकी मालिश की भी जरूरत पड़ती है. इन ट्रेनिंग कैंपों में पतियों को यह बताया जाता है कि वे कैसे अपनी गर्भवती पत्नी की हलकी मालिश कर यानी टच थेरैपी से राहत पहुंचा सकते हैं.

डा. साधना कहती हैं, ‘‘बच्चे के  सभी काम मां ही करे, यह किसी किताब में नहीं लिखा है. बच्चे से मां की जितनी बौंडिंग होनी चाहिए उतनी ही पिता की भी. इसलिए पिता को बच्चे की देखभाल के वे सारे काम आने चाहिए, जो मां को आते हैं. जिस तरह पिता की गैरमौजूदगी में मां बच्चे को संभाल लेती है, उसी तरह पिता को भी मां की गैरमौजूदगी में बच्चे को संभालना आना चाहिए. खासतौर पर वर्किंग महिलाओं को बच्चों की परवरिश में यदि पति का सहयोग मिल जाए तो वे दफ्तर और घर दोनों के कार्यों को आसानी से संभाल सकती हैं.’’

कामकाजी पतिपत्नी के लिए गर्भावस्था का समय जहां आनंद और कुतूहल का समय होता है, वहीं चुनौतियां भी कम नहीं होतीं. ऐसे समय में पति को पत्नी के घर व औफिस के कामकाज पर भी ध्यान रखना चाहिए. एक समय के बाद डाक्टर सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट से न जानेआने, ज्यादा न चलनेफिरने, भारी सामान न उठाने, ज्यादा काम का बोझ न उठाने की सलाह देते हैं. ऐसे समय में यदि पति पत्नी को औफिस ले जाए और ले आए, घर में केयर करे तो यह जच्चाबच्चा दोनों के स्वास्थ्य के लिए सही होता है.

पिता बनना है तो बदलें लाइफस्टाइल

बच्चा पैदा करने का प्लान करने से पहले पतियों को यह तय कर लेना चाहिए कि उन्हें सब से पहले अपनी लाइफस्टाइल में बदलाव लाना होगा. इस बदलाव की शुरुआत होगी किसी भी तरह के नशे से खुद को दूर रखने से. दरअसल, गर्भवती महिला पर शराब, सिगरेट, पानमसाला आदि चीजों का खराब प्रभाव पड़ सकता है. इसलिए यदि इन में से कोई भी लत पति में है तो उसे त्यागना होगा. साथ ही देर से घर आने और ज्यादा वक्त दोस्तों के साथ बिताने की आदत को भी सुधारना होगा, क्योंकि इस वक्त पत्नी को आप की सब से ज्यादा जरूरत है.

डा. साधना कहती हैं, ‘‘गर्भवती महिला को अकेलेपन से घबराहट होती है. इस अवस्था में उसे हमेशा किसी का साथ चाहिए, जिसे वह अपनी भावनाएं और तकलीफें बता सके. ऐसे में पति से बेहतर उस के लिए और कोई नहीं हो सकता.’’

समझें क्या चाहती है पत्नी

बच्चे के वजन और शरीर में आने वाले परिवर्तन के कारण इस दौरान पत्नी चिड़चिड़ी हो जाती है. ऐसी स्थिति में पति प्रसव से पहले पत्नी को हर तरह से सपोर्ट करे ताकि उसे गुस्सा या झल्लाहट न आए. पति के स्नेह और प्यार से वह बच्चे को आसानी से जन्म दे पाएगी.

डा. अनीता बताती हैं, ‘‘गर्भावस्था के दौरान हारमोन में परिवर्तन होते हैं और मानसिक अवस्था में भी बदलाव आता है. ऐसे में पति की थोड़ी सी भी मदद पत्नी के लिए बड़ा सहारा बन सकती है. पति का प्यार, पत्नी औैर इस दुनिया में आने वाले बच्चे के लिए दवा का काम करेगा.’’

गर्भावस्था के दौरान पत्नी का पलपल मूड बदलता रहता है. ऐसे में पति कतई गुस्सा न करे वरन पत्नी की दिक्कतों को समझने की कोशिश करे. उस का बढ़ा पेट कई कार्यों को करने में दिक्कत पैदा करता है. कुल मिला कर बैस्ट हसबैंड और बैस्ट फादर बनना है तो पत्नी की गर्भावस्था के दौरान वह धैर्य रखे और हर स्थिति में पत्नी का साथ निभाए.

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